Tuesday, 29 May 2018

भाटों की उत्पत्ति

#भाटों की उत्पत्ति -
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सनातन धर्म  की लोक-परम्परा  में 'भाट' किसे कहते हैं ?

#उत्तर - पातिव्रत्य धर्म से च्युत  एक ब्राह्मणी  जब अपने ब्राह्मण पति कोछोड़कर किसी    ब्राह्मणेतर (ब्राह्मण जाति से अन्य किसी जाति के पुरुष )  को  अपना जीवनसाथी बना ले, उस ब्राह्मणी से जो ब्राह्मण को सन्तान प्राप्त  हो ,  उस ब्राह्मण द्वारा  लालन पालन  की गयी सन्तान  को   'भाट' कहते हैं   ।

विद्यागृह ब्राह्मण ही होने से, ब्राह्मणी के (स्वभावविशेष) माध्यम से कुछ  कलाऐं आने  से  अन्य वंशों की वंशावली  कथन  करके  यशोगान करते हुए अपना  पेट पालन करना इनका कार्य कहा गया है ।

(थरगोत्रप्रवरावली , पृ०३७)

।। जय श्री राम ।।

ब्राह्मण के धर्म से दूर होने पर क्या होगा

चिन्ता मत करो हिन्दुओं💆 !

आपके स्वनामधन्य कथित  धर्माचार्य   मौन इसलिये  हैं क्योंकि वे 👉 राजनीतिक कठपुतलियॉ👈  मात्र  हैं ।    धर्म बोले तो बिजनेस !✔️   वो उनका परिश्रम है । आज की यही परिभाषा है , समझे क्या !

.............और बिजनेस में  एक कुशल व्यापारी तभी बोलता है जब 👉 उसे अपना कोई घाटा 👈  दीखता है !

................तुम स्वयं ही सोये थे ,  तो उन्होंने  तुम्हारे घोड़े बेचने ही  थे । 👏 अब यहॉ अपने  उस व्यस्त जीवन का  बहुमूल्य समय निकालकर फेसबुक पर  शोर मचाने  से क्या होगा, जिसमें  तुम धर्मसेवा को पहले ही बहुत दूर छोड़ आये हो  ?🙏

..............आपको शान्ति तो चाहिये थी पर त्याग नहीं , पर आप बहुत भारी  भूल कर गये क्योंकि  👉 त्याग👈  ही शान्ति का मार्ग था ।☝️

इसलिये ब्राह्मण को अपना  जीवन कभी धर्म से दूर रखने की भूल नहीं करनी चाहिये ,🙏 क्योंकि वो जन्मजात धर्म की ही शाश्वत मूर्ति होता  है ,🙏  ..............मिट्टी  छूटती है  तो नाश घड़े का ही होता है ।☝️👈👈👈

।। जय श्री  राम ।।

Sunday, 27 May 2018

श्राद्ध का महत्व

#श्राद्ध_का_महत्त्व-

#शंका -
मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा ही उसका अगला जन्म होता है ।   अतः यदि  हमारे पिता पूर्वज  पितृलोक में जाकर  पितर हुए  ही नहीं  , अपितु किसी अन्य योनि में चले गये , तब क्या होगा ? श्राद्ध करना तो व्यर्थ हुआ !

#उत्तर - श्राद्ध रामबाण की तरह होता है, वह कभी व्यर्थ नहीं होता ।

यदि आपके पिता देवता बन गये हैं तो श्राद्ध का अन्न उन्हें अमृत के रूप में परिणत होकर मिलेगा ,

यदि गन्धर्व बन गये तो नानाभोगों के रूप में प्राप्त होगा,

यदि  पशु बन गये होंगे, तो तृण के रूप में प्राप्त होगा,

यदि नागयोनि में  होंगे तो  वायुरूप में प्राप्त होगा ,

यदि  राक्षस बन गये होंगे तो आमिष के रूप में मिलेगा,

यदि दानवयोनि में होंगे तो मांस के  रूप में मिलेगा ,

और यदि मनुष्य बन गये होंगे तो विविध प्रकार के भोग्य रसोंके  रूप में  परिणत होकर श्राद्ध का अन्न आपके पिता पूर्वजों को मिलेगा ।

अतः श्राद्ध अवश्य करें ।

साभार - आद्यशंकराचार्य संदेश
।। जय श्री राम ।।

Saturday, 26 May 2018

आधुनिक भक्तिवादी का भ्रम उच्छेद

अपने को भक्त बताने वाले    आधुनिक भक्तिवादी सुनें-

भगवान् ने कहा है -
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श्रुतियॉ और स्मृतियॉ - मेरी  ही आज्ञाऐं हैं , जो इनको उल्लंघन करके चलता  है, वह न मेरा भक्त है,  न वैष्णव ।

भगवान् का  आदेश -
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मेरा भक्त  अपनी शाखा के गृह्यसूत्र की विधि के अनुसार उपनयन-संस्कार के अनन्तर द्विजत्व प्राप्त कर भक्तिपूर्वक अपने शुद्ध  कुलीन ब्राह्मण  सद्गुरु के पास जाये, और उनसे मन्त्र ग्रहण करे ।

और फिर   विधिवत् शास्त्रोक्त नित्यकर्म करके  उन गुरुदेव की बतायी हुई विधि से अपने हृदय में, अग्नि में, प्रतिमा  आदि में अथवा सूर्य में  केवल   मेरी ही सेवा -पूजा करे । अथवा  शालग्राम-शिलामें ही मेरी उपासना करे ।

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#नित्यकर्मों की जानकारी हेतु पढें - #नित्यकर्म_पूजाप्रकाश (गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित)

साभार - आदि शंकराचार्य संदेश
।। जय श्री राम ।।

कलियुग में गणेश का स्वरुप

युगे युगे भिन्ननामा गणेशो भिन्नवाहनः।
भिन्नकर्मा भिन्नगुणो भिन्नदैत्यापहारकः।।

कलौ तत्स्वरूपं निर्वक्ति..

कलौ तु धूम्रवर्णोऽसावश्वारूढो द्विहस्तवान्।
धूम्रकेतुरिति ख्यातो म्लेच्छानीक-विनाशकः।

अतः भूतिकामैः साम्प्रतं गजाननमूर्तिः परमेश्वर एव अभ्यर्चनीयः।

ऐलूष महर्षि पर विचार

"महर्षि ऐलूष कवष"

ऐतरेय ब्राह्मण में कथा आती है कि भृगु, अंगिरा आदि ऋषियों ने सरस्वती नदी के तट पर यज्ञ आरम्भ किया।

इस यज्ञ में भाग लेने के लिए ऐलूष के पुत्र कवष भी पहुंचे,

परन्तु ऋषियों ने उनको जुआरी समझकर उनसे कहा -----     " (दास्या: पुत्रः  कितव: अब्राह्मण: कथं नो मध्ये अदीक्षिष्ट इति)'         

अर्थात ' दासीपुत्र, जुआरी, अब्राह्मण, अदीक्षिष्ट-- हम लोगो के बीच कैसे दीक्षित हो सकता है ??

यहां 'दासी, नीच, अब्राह्मण, वेदज्ञान से रहित निंदनीय ब्राह्मण।'  ऐसा कहकर उन्होंने यज्ञशाला से बाहर सरस्वती नदी से अत्यंत दूर निर्जन स्थान पर छोड़ दिया,  जिससे वह सरस्वती नदी का जल न पी सके और प्यासा ही मर जाए।

वे प्यास से अत्यंत व्याकुल थे औऱ पूर्वजन्म की तपस्या तथा पुण्य कर्म के प्रभाव से ऋग्वेद--दशम मण्डल के तीसवें सूक्त (वरुण-सूक्त)  का उन्हें ज्ञान था।

उनके वरुण-सूक्त के जप के प्रभाव से वरुण देवता ने उन पर कृपा की।

वरुण की कृपा से सरस्वती नदी का जल प्रवाह उनकी ओर बहने लगा।
उन्होंने यथेष्ठ जल पीकर अपनी प्यास शांत की।

देवताओं ने प्रसन्न होकर ऋषियों को कवष की शुद्धि का परिचय दिया।

ऋषियों ने अपने उपास्य देवता के द्वारा कवष की प्रसंशा सुनकर पश्चाताप किया।

ऋषि आपस में कहने लगे कि जिसकी उपास्य देवता स्तुति करते हैं, वह अनादर तथा निकाले जाने के योग्य नहीं।
अतः ऋषियों ने उन्हें बुलाकर यज्ञ में दीक्षित किया।
        (ऐतरेयब्राह्मण -- २,२,१९)

शंका-------     आजकल के सुधारवादी तथा वर्णाश्रम को न मानने वाले मन्त्र में आये हुए  'दास्य: पुत्रः कितव: तथा अब्राह्मण शब्द को देखकर इनको शूद्र कहते हैं।

समाधान-------     श्री सायणाचार्य वेदभाष्यकार इन तीनों शब्दों को निंदार्थक मानते हैं।

ऐलूष कवष जन्म से ब्राह्मण होने पर भी जुआ खेलना वर्जित है, इस बात का उसे ज्ञान नहीं था।

वेदज्ञान रहित होने से ऋषियों ने दास्य: पुत्रः अब्राह्मण: ---- शब्द से अति कटु वचन कहे (गालियां दी)।

ऋषियों ने दास्या: पुत्रः  जुआरिपन को दूर करने के लिए उसे दण्ड देने तथा सुधार के लिए कटूक्तियां दी।

जैसे कोई माता-पिता अपने पुत्र को, जो अधिक खेलता हो, पढाई नहीं करता हो, उसकी निंदा करते हुए स्वयं माता-पिता ही अपने पुत्र को सूअर, गधा, बन्दर कहकर डांटते हुए गाली देते हैं।

तो जैसे वह बालक ऐसा कहने पर गधा, सूअर नहीं हो जाता ; वैसे ही ऋषियों के द्वारा उसे दासीपुत्र तथा अब्राह्मण कहने से वह शूद्र नहीं होता।'

'दास्य पुत्र:' में अलुक् समास वाला शूद्र का पुत्र अर्थ नहीं है, किन्तु कवष जुआरी की निंदार्थ गाली है।

इसलिए इसपर भाष्यकार सायणाचार्य भाष्य पर लिखते हैं----- "दास्य: पुत्रः इत्युक्ति---- रधिक्षेपार्थ:।"
दासीपुत्र वचन आक्षेपार्थ है। शूद्रापुत्र में अर्थ नहीं है, इससे कवष शूद्र सिद्ध नहीं होते।

'आक्षेपार्थक विवेचन'----------      व्याकरण-शास्त्र में षष्ट आक्रोशे (६/३/२१)   अर्थात षष्ठी विभक्ति आक्रोश अर्थ में आई है।

वे ब्राह्मण होने पर भी जुआ खेलते थे, इससे आक्रोशित होकर उन्हें दासीपुत्र कहा गया।

दासीपुत्र केवल व्याकरण से ही सिद्ध नहीं होता, बल्कि साहित्य में भी गाली के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

महाकवि कालिदास प्रणीत 'अभिज्ञानशाकुन्तलं' नाटक के द्वितियांक में सेनापति के लिए कहा है कि ----- 'गच्छ ! भो दास्य: पुत्रः। ध्वंसितस्ते उत्साह वृतांत।'

इसी नाटक के तीसरे अंक में भी-----'किमत्र उज्जैन्याम् कोsपि चोरो नाsस्ति, य एतद् दास्या: पुत्रं (स्वर्णभण्डम् )  नापहरती।''     इस वाक्य में स्वर्ण के पात्र की दासीपुत्र कहकर निंदा की गई है।

यही शब्द शूद्रक प्रणीत "मृच्छकटिक" नाटक आदि अनेक ग्रन्थों में आया है।


अब्राह्मण शब्द पर विचार-----------             पीछे बताया जा चुका है कि कोई जन्म से ब्राह्मण होने पर भी गुण, कर्म तथा स्वभाव से विपरीत धर्मों को करने वाले को भी अब्राह्मण कह देते हैं।

जैसे कोई माता-पिता पुत्र को डांटते हुए भंगी या चमार कह देते हैं।
जैसे शास्त्र में अन्य पशु-पक्षियों की अपेक्षा गाय तथा घोड़ों की प्रसंशा करते हुए कहा है------ 'अपशवोवा अन्ये गवाष्वेभ्य:'  गौ तथा घोड़ों के अतिरिक्त अन्य सब अपशु है।

जैसे गौ तथा घोड़ों को छोड़कर यहां पर अन्य पशु--अपशु नहीं हो जाते, किन्तु उसका तातपर्य गौ तथा घोड़ों की प्रसंशा में है।

वैसे ही "अब्राह्मण" निंदार्थक है।

सायणाचार्य जी ने भी अब्राह्मण का अर्थ 'बृषलकर्मा' शूद्र कहा है।

संस्कृत में निषेधात्मक छह अर्थो में कहा गया है-----

"तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता।
अप्राशस्त्यं विरोधश्च नयर्था: षट प्रकीर्तिताः।।"

अर्थात समानता, अभाव, सद्चित्र, अल्पनिन्दा तथा विरोध में 'ऩय" (जो लिखना चाहता था उसका विकल्प नहीं है कीबोर्ड में ; विद्वज्जन जानते हैं )  पकहा जाता है।

कुछ विद्वान कल्पना करते हैं कि जब यज्ञ में ब्राह्मणों ने कवष को अपमानित करके सरस्वती के उस पार निर्जल एवं निर्जन स्थान पर छोड़ दिया।

तब उसने तपस्या करके ऋग्वेद का पूर्णज्ञान प्राप्त किया।

परन्तु उनका यह वचन युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उस स्थान पर कोई गुरुकुल नहीं था।

चार-पांच मिनट के अंदर कोई भी व्यक्ति वेद नहीं पढ़ सकता।

उनपर सरस्वती देवी की कृपा हुई तथा उनको चालीस अध्याय वाला "अपोनपस्त्रीय सूक्त" का प्रत्यक्ष हुआ।

इस सूक्त के मन्त्रद्रष्टा कवष ऋषि जन्म से ही ब्राह्मण सिद्ध होते हैं, शूद्र नहीं।

देवी-देवताओं की कृपा से जुआ खेलना भी छूट गया।

ऋग्वेद (१०,३४,१३)  में ब्राह्मण के लिए "अक्षैर्मादीव्य:" अर्थात ब्राह्मण को पाशा नहीं खेलना चाहिए।

शास्त्रज्ञान से रहित कुछ लोग इनकी माता का नाम इलुष दासी बताते हुए इन्हें दासी पुत्र कहते हैं। उनका यह कथन असत्य है, क्योंकि स्त्री का नाम अकारान्त न होकर आकारांत होता है।

जैसे -- रमा, कृष्णा, सत्या आदि।

वास्तव में इनके पिता का नाम ऐलूष था। उनके पुत्र होने के कारण इन्हें ऐलूष-कवष कहते थे।

(इस पावन-चरित्र का वर्णन पूज्य स्वामी जी ने गुरुवंश पुराण के प्रथम खण्ड में पृष्ठ संख्या  ८१६ से ८१९ पर्यंत किये हैं)

Wednesday, 23 May 2018

न्यायानुसार पशुबलि

काम्यकर्म के करणअंश में पुरुष की फलासक्ति ही सर्वत्र प्रवृत्ति का हेतु हैं, परन्तु उस कर्म के अंगसकल के प्रति प्रवृत्ति #विधिविशेष के बल पर ही होती हैं । इसलिए विशेष वेदविधि के बल पर ही यज्ञ के अंगभूत पशुबलि में प्रवृत्ति होती हैं । यदि इस विशेष विधि से #सामान्यविधिप्राप्त पशुहिंसा का पापजनकत्व बाधित न हो, तो फलासक्त पुरुष की उस विधिमें प्रवृत्ति न होनेसे वह विधि व्यर्थ होगी । अतः वह विधि #निरवकाश होनेसे लोककल्याणकारिणी श्रुति की प्रवृत्ति भी व्यर्थ होगी, जो असंगत हैं ।

अतएव  यही मानना पड़ेगा कि -

" #सावकाश_एवं_निरवकाश_में_निरवकाश_अधिक_बलवान_हैं "

--- न्यायानुसार इस विशेषविधि सर्वप्रकार हिंसा का पापजनकत्वज्ञापक
" न हिंस्यात् " --- ये #सावकाश सामान्यविधि को अविहित स्थल में स्थापन कर " #जो_हिंसा_विधिप्राप्त_नहीं_वही_पापजनक_हैं "  --- इस प्रकार से उक्त सामान्यविधि का अर्थ को संकुचित करेगी ।

श्रुति ने भी --- " #अहिंसात्_सर्वभूतानि_अन्यत्र_तीर्थेभ्यः " ~ (छान्दोग्य ८.१५.१)  कहकर इसी आशय का समर्थन की हैं ।  

इस तरह (विधिप्राप्त होनेसे) सोमपानकाल में उच्छिष्टभोजन, वाजपेय यज्ञ में सुरापान इत्यादि यज्ञांगसकल पापकार्य नहीं ये सिद्ध हुआ । विधिप्राप्त यज्ञांगसकल में पापजनकत्व की शंका का कोई अवसर नहीं हैं, वस्तुतः जो हिंसा और सुरापान रागवशतः अनुष्ठित होता हैं, वही पापजनक हैं --- यही शास्त्रसम्मत सिद्धान्त हैं ।

।। जय श्री हरि ।।

Tuesday, 22 May 2018

वर्ण व जाति में क्या सम्बन्ध है ?

#प्रश्न - वर्ण और जाति - दोनों एक ही (समानार्थक)  शब्द हैं या अलग अलग ?

#उत्तर -   दोनों एक ही  हैं ।  वर्ण कहो  या जाति - एक ही बात है । 

ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र - ये चार  वर्ण मानव   की  प्रधान  जातियॉ हैं ।

श्री ब्रह्माजी नामक  ब्रह्मलोक के महान् देवता  के  दिव्य  मुखादि  अंगों से  सृष्टि के आरम्भ में   पैदा हुए - इसलिये इनको #जाति कहते हैं, परमात्मा  ने इन जीवों को इनके पूर्वजन्मों के  गुण -कर्मों से चुना था , इसलिये ये #वर्ण कहलाते हैं । 

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#प्रश्न -इन दोनों शब्दों का एकार्थ किस रीति  सिद्ध है , क्योंकि  वर्णऔर जाति  शब्द  तो अलग अलग हैं ?

#उत्तर - जैसे, -

#कानन  और #अरण्य    -ये परस्पर     पर्यायवाची शब्द है ।  दोनों शब्द जिस  वन  का  बोध कराते हैं, वो  बोध  एक ही है ।

इसी प्रकार, -

वर्ण और जाति - ये पर्यायवाची शब्द हैं । दोनों शब्द जिस  ब्राह्मणादि  का बोध कराते हैं, वो एक ही है ।

जैसे , -

कानन का अर्थ कस्य ब्रह्मणः  आननम्    इस प्रकार  ब्रह्ममुख आदि  भी  किया जा सकता है,  अथवा कं जलम् अननं जीवनम् अस्य इस प्रकार अन्यार्थ भी प्रयोग किये जा सकते हैं,

इसी प्रकार, -

वर्ण शब्द के अन्य भी अनेक अर्थ हो सकते हैं , किन्तु इन सब विविधार्थों के मध्य  अरण्य या वन अर्थ भी कानन का होता है, इसी प्रकार वर्ण शब्द का अर्थ जाति  होता है, इसमें  किसी भी प्रकार की  कोई विप्रतिपत्ति नहीं है ।

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#प्रश्न - तो फिर  हिन्दू धर्म की  जाति व्यवस्था का  तरह तरह  प्रकारों से  लोग विरोध क्यों करते हैं आजकल ?

#उत्तर -  सुनिये, -

जिनके बाप -दादे  अपने पुरखों की शुद्ध जाति परम्परा से गिर कर म्लेच्छ हो  गये हैं, ऐसे कुछ   स्वधर्मभ्रष्ट परिवारों  की सन्तानें  कहती हैं कि जाति व्यवस्था   हिन्दू धर्म का  कोई भी  अंग नहीं है ।

किन्तु जिनके बाप दादे अपने पुरखों की शुद्ध जाति परम्परा को सम्भालते हुए आये , ऐसे तपस्वियों की सन्तानें कहती हैं जाति व्यवस्था हिन्दू धर्म की आधारशिला है ।

धार्मिक जाति व्यवस्था का विरोध करना  वस्तुतः लोगों की  व्यक्तिगत / पारिवारिक समस्या की पहचान है ।

।। जय श्री राम ।।

Monday, 21 May 2018

अग्निहोत्र का विकल्प

गृहस्थ ब्राह्मणों का कर्तव्य-

हरेक गृहस्थ ब्राह्मण   का कर्तव्य है कि सायं प्रातः अग्निहोत्र करे (अहरहः स्वाहा कुर्यात् / अग्निहोत्रं जुहूयात् )

अग्निहोत्री को ही तो संन्यास लेने का भी अधिकार है न, वही अग्निवस्त्र (भगवा)धारी( संन्यस्त ब्राह्मण)    ही तो इस  चौरासी लाख अरों वाले  भवचक्रव्यूह  से पार उतर कर  मोक्ष पाने  का अधिकारी होगा  !

अब जो शास्त्र की आज्ञा पालन नहीं करते, उनकी बात तो छोड़ दीजिये , उनकातोमहिषवाहन यमराज नामक देवता ही भगवान्  है, जो करना चाहते हैं पर   विवाह के समय अग्नि को सम्भालना है, ध्यान ही नहीं रहा किसी विशेष कारणवश ,  या फिर ध्यान तो रहा पर परिस्थियों के विपरीत होने से  कुछ कर नहीं पाये , अब क्या होगा उनका?

तो शास्त्र ने मार्ग दिया  कि जिस समय आपके  पिता दायभाग काबंटवारा  करेंगे , तब करना आरम्भ अग्निहोत्र ,

पर दाय भाग भी हो गया या हो या न हो ,  परिस्थितियॉ ही ऐसी हैं कि चाहकर भी नहीं कर पाते, उनका क्या होगा  ?

तब शास्त्र  पुनः सन्मार्ग देकर  कहा,   जो ब्राह्मण अग्निहोत्री  नहीं है , उसका कल्याण. तीक्ष्ण   व्रतों , उपवास , नियम और दान से हो जायेगा ,
(अनग्निग्रहणमुपवासविषयम्)

इसलिये  ब्राह्मण को  कम से कम व्रत , उपवास , दानादि तो   खूब दत्तचित्तता  से करने ही हैं, तभी  कल्याण है ।

।।  जय श्री राम ।।

मूर्ति पूजा कब से शुरु हुई

गोस्वामी तुलसीदास और स्वामी दयानन्द में अन्तर -
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भारत में पाषाणपूजा  (मूर्ति पूजा) कब से प्रचारित हुई  ?

#गोस्वामी_तुलसीदास -   जब से  भारत में  भगवान् नृसिंह  अवतरित हुए ।

#स्वामी_दयानन्द - जब से  भारत में जैनी  हुए ।

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किसने भारत की अन्तरात्मा को अनुभव किया  , स्पष्ट है ।

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काढ़ि कृपान, कृपा न कहूँ, पितु काल कराल बिलोकि न भागे।

'राम कहाँ? सब ठाऊँहैं, ' खंभमें? 'हाँ'सुनि हाँक नृकेहरि जागे।

बैरि बिदारि भए बिकराल, कहें प्रलादहिकें अनुरागे।

प्रीति-प्रतीति बड़ी तुलसी, तबतें सब पाहन पूजन लागे।।

(कवितावली ५।१२८)

साभार - आद्यशंकरायार्य सन्देश
।। जय श्री राम ।।

Sunday, 20 May 2018

चाण्डाल से शंकराचार्य हार गए ऐसा कहने वालों का खण्डन

कुछ लोगों का कहना हैं - आदिगुरू शंकराचार्य एक चाण्डाल से निरुत्तर होकर उसे गुरु मानकर प्रणाम किया, इसके बाद वह जातिभेद या वर्णाश्रमाचार आदि नहीं मानते थे ।
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वस्तुतः ऐसे विचार अत्यन्त भ्रामक हैं, निरुत्तर होनेका तो कोई प्रश्न ही नहीं !  चाण्डाल की बातों का सीधा सा उत्तर यह होगा कि यद्यपि आत्मा और पञ्चभूत दोनों ही व्यापक होनेके कारण आत्मा से आत्मा और भूत से भूत हटाये नहीं जा सकते ; तथापि जीवित ब्राह्मणादि-देहविशिष्ट आत्मा से जीवित शूकरादि-शरीर को व्यावहारिक पवित्रता के लिए दूर रखना संभव और उचित भी हैं । व्यवहार में जल और विष, भोजन और विष्ठा, गंगाजल और कर्मनाशा का जल, गोमूत्र-गर्दभमूत्र, अस्थि-नरकपाल, व्याघ्रचर्म-गर्दभचर्म इत्यादि में भेद मान्य ही हैं । इसी व्यवहारिक दृष्टि से नीति-भेद , वर्णभेद ज्ञानी को भी मान्य हैं ।

शंकराचार्य की परम मान्य उपनिषदों में ही रमणीय कर्मों से ब्राह्मणादि-योनि  एवं निन्द्य आचरणों से श्व-सूकर चाण्डालादि योनियों की प्राप्ति कही गयी हैं -

// तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन्ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरन् श्वयोनिं वा सूकरयोनिं वा चण्डालयोनिं वा ॥ //

~ छान्दोग्य उपनिषद ५.१०.७

वेदान्त में नित्य अनेकसमवेत रूप ' जाति ' मान्य नहीं हैं , किन्तु ' व्यवहारे भाट्टनयः ' के अनुसार व्यवहार में भट्टपाद का ही सिद्धान्त मान्य हैं । यज्ञ , दान, तप आदि की कर्तव्यता मुक्तकण्ठ से शंकराचार्य ने भी स्वीकार किया हैं । वेदाध्ययन, यज्ञादि सब जातिमूलक ही होते हैं । जाति स्वीकृत न होनेपर वेदाध्ययन, यज्ञादि असंभव ही ठहरेंगे।

इस दृष्टि से देखते हुए कौन कहता हैं कि व्यावहारिक सत्ता से भी शंकराचार्य को जातिभेद मान्य नहीं था ? उनका मत स्पष्ट हैं -

भावाद्वैतं सदा कुर्यात्क्रियाद्वैतं न कर्हिचित् ।
अद्वैतं त्रिषु लोकेषु नाद्वैतं गुरुणा सह ॥

~ श्री शंकराचार्य, तत्त्वोपदेशः , श्लोक ८७

सदा ज्ञानदृष्टि से अद्वैत की भावना करनी चाहिए । क्रिया में कभी भी अद्वैत नहीं होता (क्योंकि कर्ता-कारक-कर्म आदि त्रिपुटी-भेद के बिना क्रिया संभव ही नहीं) , गुरु के साथ सदा ही व्यवहारिक भेद स्वीकार करके प्रणामादि करना चाहिए ।

चाण्डाल का आशय यही था कि लोकसंग्रह के लिए यद्यपि व्यावहारिक भेद मान्य ही हैं, तथापि ब्रह्मज्ञ पुरुष के लिए तुच्छ जनसंग्रह की इच्छा से शुद्ध ब्रह्मबुद्धि से दृष्टि क्यों हटायी जाय ? सर्वबाधपूर्वक अखण्ड ब्रह्मदर्शन ही क्यों न किया जाय ?  

विद्यामवाप्यापि विमुक्तिपद्यां जागर्ति तुच्छा जनसंग्रहेच्छा ।
अहो महान्तोऽपि महेन्द्रजाले मज्जन्ति मायाविवरस्य तस्य ॥

यद्यपि द्वैतदर्शनमात्र से ही शास्त्रीय व्यवहार संगत हैं , तथापि द्वैतदर्शन ही क्यों आने दे ? - यह आशय समझकर आचार्य ने अन्य उत्तर न देकर यही कहा - 

इत्युदीर्य वचनं विरतेऽस्मिन्‍ सत्यवाक्तदनु विप्रतिपन्न:
अत्युदारचरितोऽन्त्यजमेनं प्रत्युवाच स च विस्मितचेता: ॥

सत्यमेव भवता यदिदानीं प्रत्यवादि तनुभृत्प्रवरैतत्‍ ।
अन्त्यजोऽयमिति सम्पति बुध्दिं संत्यजामि वचसाऽऽत्मविदस्ते ॥

जानते श्रुतिशिरांस्यपि सर्वे मन्वते च विजितेन्द्रियवर्गा: ।
युज्जते हृदयमात्मनि नित्यं कुर्वते न धिषणामपभेदाम्‍ ॥

अगले प्रसंग से प्रतीत होता हैं कि वे अन्त्यज नहीं, साक्षात् विश्वेश्वर थे और शंकराचार्य की ब्रह्मनिष्ठा परीक्षा के लिए अन्त्यज के रूप में आविर्भूत हुए थे । लोकसंग्रह की दृष्टि से व्यावहारिक भेद दोनों को मान्य हैं ।  

या चिति: स्फुरति विष्णुमुखे सा पुत्तिकावधिषु सैव सदाऽहम्।
नैव दृश्यमिति यस्य मनीषा पुल्कसो भवतु वा स गुरुर्मे ॥

अर्थात् जो तद्विषयों को बाधित करके अवशिष्ट बोधमात्र को आत्मा जानता हैं, वह कोई भी हो, गुरु हैं और तद्वत् वन्दनीय हैं ।

अन्त में व्यवहार दृष्टि का ही सम्मान करते हुए शिवरुपी चाण्डाल को प्रणाम करते हुए आचार्य ने कहा -

दासस्तेऽहं देहदृष्टयाऽस्मि शंभो जातस्तेंऽशो जीवदृष्टया त्रिदृष्टे ।
सर्वस्यात्मन्नात्मदृष्टया त्वमेवेत्येवं मे धीर्निश्चिता सर्वशास्त्रै:॥     

👉 यदि कहा जाय कि ज्ञानी की दृश्यमान प्रवृत्तिसमूह विधिनिवंधन न होनेके कारण रागद्वेषादिनिवंधन अवश्य हैं , अतएव ज्ञानी के लिए यथेष्टाचरण में कोई दोष नहीं हैं !

👉 उपरोक्त अलेपकपक्ष का निराकरण में कहा गया -  

अथालेपकपक्षनिरासार्थमाह ।
बुद्धाद्वैतसतत्खस्य यथेष्टाचरणं यदि ।
शुनां तत्त्वदृशां चैव को भेदोऽशुचिभक्षणे ॥   

~ नैष्कर्म्यसिद्धिः , चतुर्थ अध्याय , श्लोक ६२ ; ज्ञानोत्तम की चन्द्रिका द्रष्टव्य

संस्कारवशतः मनुष्योचित प्रवृत्ति ही ज्ञानी में होती हैं , कुक्कुर इत्यादि की तरह अशुचिभक्षण में प्रवृत्ति नहीं होती । यदि ज्ञानी भी व्यवहार में यथेष्टाचरण करता हैं तो अशुचि-भक्षणादि समान होनेसे उसकी श्वानों की ही समानता उपस्थित होगी । किन्तु संस्कारवशतः भी ज्ञानी की प्रवृत्ति प्रातिभासिक वर्णाश्रमोचित ही होती हैं , इसलिए ज्ञानी का यथेष्टाचरण कदापि नहीं हो सकता !

👉 किसी उच्चभूमिकारूढ़ ज्ञानी या भक्त का कोई व्यवहार कदाचित् वर्णाश्रम-वर्ग के विपरीत हो, तो उनके लिए वह क्षम्य होनेपर भी अन्य के लिए क्षम्य नहीं हैं । 👈

👉 जिसने नौका से नदी पार करा ली हैं वही नौका का त्याग कर सकता हैं , किन्तु स्वयं अभी नदी पार करना हैं , उसके लिए नौका का त्याग कथमपि संगत नहीं हैं । 👈

साभार - स्मार्त राहुल जी
सन्दर्भ :- विचार पीयूष धर्मसम्राट स्वामीश्री करपात्रीजी महाराज

पूजा आदि में सिर नहीं ढंका चाहिए

शास्त्र प्रमाण:- उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।  प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥ अर्थात् - पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग...