काम्यकर्म के करणअंश में पुरुष की फलासक्ति ही सर्वत्र प्रवृत्ति का हेतु हैं, परन्तु उस कर्म के अंगसकल के प्रति प्रवृत्ति #विधिविशेष के बल पर ही होती हैं । इसलिए विशेष वेदविधि के बल पर ही यज्ञ के अंगभूत पशुबलि में प्रवृत्ति होती हैं । यदि इस विशेष विधि से #सामान्यविधिप्राप्त पशुहिंसा का पापजनकत्व बाधित न हो, तो फलासक्त पुरुष की उस विधिमें प्रवृत्ति न होनेसे वह विधि व्यर्थ होगी । अतः वह विधि #निरवकाश होनेसे लोककल्याणकारिणी श्रुति की प्रवृत्ति भी व्यर्थ होगी, जो असंगत हैं ।
अतएव यही मानना पड़ेगा कि -
" #सावकाश_एवं_निरवकाश_में_निरवकाश_अधिक_बलवान_हैं "
--- न्यायानुसार इस विशेषविधि सर्वप्रकार हिंसा का पापजनकत्वज्ञापक
" न हिंस्यात् " --- ये #सावकाश सामान्यविधि को अविहित स्थल में स्थापन कर " #जो_हिंसा_विधिप्राप्त_नहीं_वही_पापजनक_हैं " --- इस प्रकार से उक्त सामान्यविधि का अर्थ को संकुचित करेगी ।
श्रुति ने भी --- " #अहिंसात्_सर्वभूतानि_अन्यत्र_तीर्थेभ्यः " ~ (छान्दोग्य ८.१५.१) कहकर इसी आशय का समर्थन की हैं ।
इस तरह (विधिप्राप्त होनेसे) सोमपानकाल में उच्छिष्टभोजन, वाजपेय यज्ञ में सुरापान इत्यादि यज्ञांगसकल पापकार्य नहीं ये सिद्ध हुआ । विधिप्राप्त यज्ञांगसकल में पापजनकत्व की शंका का कोई अवसर नहीं हैं, वस्तुतः जो हिंसा और सुरापान रागवशतः अनुष्ठित होता हैं, वही पापजनक हैं --- यही शास्त्रसम्मत सिद्धान्त हैं ।
।। जय श्री हरि ।।
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