"महर्षि ऐलूष कवष"
ऐतरेय ब्राह्मण में कथा आती है कि भृगु, अंगिरा आदि ऋषियों ने सरस्वती नदी के तट पर यज्ञ आरम्भ किया।
इस यज्ञ में भाग लेने के लिए ऐलूष के पुत्र कवष भी पहुंचे,
परन्तु ऋषियों ने उनको जुआरी समझकर उनसे कहा ----- " (दास्या: पुत्रः कितव: अब्राह्मण: कथं नो मध्ये अदीक्षिष्ट इति)'
अर्थात ' दासीपुत्र, जुआरी, अब्राह्मण, अदीक्षिष्ट-- हम लोगो के बीच कैसे दीक्षित हो सकता है ??
यहां 'दासी, नीच, अब्राह्मण, वेदज्ञान से रहित निंदनीय ब्राह्मण।' ऐसा कहकर उन्होंने यज्ञशाला से बाहर सरस्वती नदी से अत्यंत दूर निर्जन स्थान पर छोड़ दिया, जिससे वह सरस्वती नदी का जल न पी सके और प्यासा ही मर जाए।
वे प्यास से अत्यंत व्याकुल थे औऱ पूर्वजन्म की तपस्या तथा पुण्य कर्म के प्रभाव से ऋग्वेद--दशम मण्डल के तीसवें सूक्त (वरुण-सूक्त) का उन्हें ज्ञान था।
उनके वरुण-सूक्त के जप के प्रभाव से वरुण देवता ने उन पर कृपा की।
वरुण की कृपा से सरस्वती नदी का जल प्रवाह उनकी ओर बहने लगा।
उन्होंने यथेष्ठ जल पीकर अपनी प्यास शांत की।
देवताओं ने प्रसन्न होकर ऋषियों को कवष की शुद्धि का परिचय दिया।
ऋषियों ने अपने उपास्य देवता के द्वारा कवष की प्रसंशा सुनकर पश्चाताप किया।
ऋषि आपस में कहने लगे कि जिसकी उपास्य देवता स्तुति करते हैं, वह अनादर तथा निकाले जाने के योग्य नहीं।
अतः ऋषियों ने उन्हें बुलाकर यज्ञ में दीक्षित किया।
(ऐतरेयब्राह्मण -- २,२,१९)
शंका------- आजकल के सुधारवादी तथा वर्णाश्रम को न मानने वाले मन्त्र में आये हुए 'दास्य: पुत्रः कितव: तथा अब्राह्मण शब्द को देखकर इनको शूद्र कहते हैं।
समाधान------- श्री सायणाचार्य वेदभाष्यकार इन तीनों शब्दों को निंदार्थक मानते हैं।
ऐलूष कवष जन्म से ब्राह्मण होने पर भी जुआ खेलना वर्जित है, इस बात का उसे ज्ञान नहीं था।
वेदज्ञान रहित होने से ऋषियों ने दास्य: पुत्रः अब्राह्मण: ---- शब्द से अति कटु वचन कहे (गालियां दी)।
ऋषियों ने दास्या: पुत्रः जुआरिपन को दूर करने के लिए उसे दण्ड देने तथा सुधार के लिए कटूक्तियां दी।
जैसे कोई माता-पिता अपने पुत्र को, जो अधिक खेलता हो, पढाई नहीं करता हो, उसकी निंदा करते हुए स्वयं माता-पिता ही अपने पुत्र को सूअर, गधा, बन्दर कहकर डांटते हुए गाली देते हैं।
तो जैसे वह बालक ऐसा कहने पर गधा, सूअर नहीं हो जाता ; वैसे ही ऋषियों के द्वारा उसे दासीपुत्र तथा अब्राह्मण कहने से वह शूद्र नहीं होता।'
'दास्य पुत्र:' में अलुक् समास वाला शूद्र का पुत्र अर्थ नहीं है, किन्तु कवष जुआरी की निंदार्थ गाली है।
इसलिए इसपर भाष्यकार सायणाचार्य भाष्य पर लिखते हैं----- "दास्य: पुत्रः इत्युक्ति---- रधिक्षेपार्थ:।"
दासीपुत्र वचन आक्षेपार्थ है। शूद्रापुत्र में अर्थ नहीं है, इससे कवष शूद्र सिद्ध नहीं होते।
'आक्षेपार्थक विवेचन'---------- व्याकरण-शास्त्र में षष्ट आक्रोशे (६/३/२१) अर्थात षष्ठी विभक्ति आक्रोश अर्थ में आई है।
वे ब्राह्मण होने पर भी जुआ खेलते थे, इससे आक्रोशित होकर उन्हें दासीपुत्र कहा गया।
दासीपुत्र केवल व्याकरण से ही सिद्ध नहीं होता, बल्कि साहित्य में भी गाली के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
महाकवि कालिदास प्रणीत 'अभिज्ञानशाकुन्तलं' नाटक के द्वितियांक में सेनापति के लिए कहा है कि ----- 'गच्छ ! भो दास्य: पुत्रः। ध्वंसितस्ते उत्साह वृतांत।'
इसी नाटक के तीसरे अंक में भी-----'किमत्र उज्जैन्याम् कोsपि चोरो नाsस्ति, य एतद् दास्या: पुत्रं (स्वर्णभण्डम् ) नापहरती।'' इस वाक्य में स्वर्ण के पात्र की दासीपुत्र कहकर निंदा की गई है।
यही शब्द शूद्रक प्रणीत "मृच्छकटिक" नाटक आदि अनेक ग्रन्थों में आया है।
अब्राह्मण शब्द पर विचार----------- पीछे बताया जा चुका है कि कोई जन्म से ब्राह्मण होने पर भी गुण, कर्म तथा स्वभाव से विपरीत धर्मों को करने वाले को भी अब्राह्मण कह देते हैं।
जैसे कोई माता-पिता पुत्र को डांटते हुए भंगी या चमार कह देते हैं।
जैसे शास्त्र में अन्य पशु-पक्षियों की अपेक्षा गाय तथा घोड़ों की प्रसंशा करते हुए कहा है------ 'अपशवोवा अन्ये गवाष्वेभ्य:' गौ तथा घोड़ों के अतिरिक्त अन्य सब अपशु है।
जैसे गौ तथा घोड़ों को छोड़कर यहां पर अन्य पशु--अपशु नहीं हो जाते, किन्तु उसका तातपर्य गौ तथा घोड़ों की प्रसंशा में है।
वैसे ही "अब्राह्मण" निंदार्थक है।
सायणाचार्य जी ने भी अब्राह्मण का अर्थ 'बृषलकर्मा' शूद्र कहा है।
संस्कृत में निषेधात्मक छह अर्थो में कहा गया है-----
"तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता।
अप्राशस्त्यं विरोधश्च नयर्था: षट प्रकीर्तिताः।।"
अर्थात समानता, अभाव, सद्चित्र, अल्पनिन्दा तथा विरोध में 'ऩय" (जो लिखना चाहता था उसका विकल्प नहीं है कीबोर्ड में ; विद्वज्जन जानते हैं ) पकहा जाता है।
कुछ विद्वान कल्पना करते हैं कि जब यज्ञ में ब्राह्मणों ने कवष को अपमानित करके सरस्वती के उस पार निर्जल एवं निर्जन स्थान पर छोड़ दिया।
तब उसने तपस्या करके ऋग्वेद का पूर्णज्ञान प्राप्त किया।
परन्तु उनका यह वचन युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उस स्थान पर कोई गुरुकुल नहीं था।
चार-पांच मिनट के अंदर कोई भी व्यक्ति वेद नहीं पढ़ सकता।
उनपर सरस्वती देवी की कृपा हुई तथा उनको चालीस अध्याय वाला "अपोनपस्त्रीय सूक्त" का प्रत्यक्ष हुआ।
इस सूक्त के मन्त्रद्रष्टा कवष ऋषि जन्म से ही ब्राह्मण सिद्ध होते हैं, शूद्र नहीं।
देवी-देवताओं की कृपा से जुआ खेलना भी छूट गया।
ऋग्वेद (१०,३४,१३) में ब्राह्मण के लिए "अक्षैर्मादीव्य:" अर्थात ब्राह्मण को पाशा नहीं खेलना चाहिए।
शास्त्रज्ञान से रहित कुछ लोग इनकी माता का नाम इलुष दासी बताते हुए इन्हें दासी पुत्र कहते हैं। उनका यह कथन असत्य है, क्योंकि स्त्री का नाम अकारान्त न होकर आकारांत होता है।
जैसे -- रमा, कृष्णा, सत्या आदि।
वास्तव में इनके पिता का नाम ऐलूष था। उनके पुत्र होने के कारण इन्हें ऐलूष-कवष कहते थे।
(इस पावन-चरित्र का वर्णन पूज्य स्वामी जी ने गुरुवंश पुराण के प्रथम खण्ड में पृष्ठ संख्या ८१६ से ८१९ पर्यंत किये हैं)
No comments:
Post a Comment