कुछ लोगों का कहना हैं - आदिगुरू शंकराचार्य एक चाण्डाल से निरुत्तर होकर उसे गुरु मानकर प्रणाम किया, इसके बाद वह जातिभेद या वर्णाश्रमाचार आदि नहीं मानते थे ।
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वस्तुतः ऐसे विचार अत्यन्त भ्रामक हैं, निरुत्तर होनेका तो कोई प्रश्न ही नहीं ! चाण्डाल की बातों का सीधा सा उत्तर यह होगा कि यद्यपि आत्मा और पञ्चभूत दोनों ही व्यापक होनेके कारण आत्मा से आत्मा और भूत से भूत हटाये नहीं जा सकते ; तथापि जीवित ब्राह्मणादि-देहविशिष्ट आत्मा से जीवित शूकरादि-शरीर को व्यावहारिक पवित्रता के लिए दूर रखना संभव और उचित भी हैं । व्यवहार में जल और विष, भोजन और विष्ठा, गंगाजल और कर्मनाशा का जल, गोमूत्र-गर्दभमूत्र, अस्थि-नरकपाल, व्याघ्रचर्म-गर्दभचर्म इत्यादि में भेद मान्य ही हैं । इसी व्यवहारिक दृष्टि से नीति-भेद , वर्णभेद ज्ञानी को भी मान्य हैं ।
शंकराचार्य की परम मान्य उपनिषदों में ही रमणीय कर्मों से ब्राह्मणादि-योनि एवं निन्द्य आचरणों से श्व-सूकर चाण्डालादि योनियों की प्राप्ति कही गयी हैं -
// तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन्ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरन् श्वयोनिं वा सूकरयोनिं वा चण्डालयोनिं वा ॥ //
~ छान्दोग्य उपनिषद ५.१०.७
वेदान्त में नित्य अनेकसमवेत रूप ' जाति ' मान्य नहीं हैं , किन्तु ' व्यवहारे भाट्टनयः ' के अनुसार व्यवहार में भट्टपाद का ही सिद्धान्त मान्य हैं । यज्ञ , दान, तप आदि की कर्तव्यता मुक्तकण्ठ से शंकराचार्य ने भी स्वीकार किया हैं । वेदाध्ययन, यज्ञादि सब जातिमूलक ही होते हैं । जाति स्वीकृत न होनेपर वेदाध्ययन, यज्ञादि असंभव ही ठहरेंगे।
इस दृष्टि से देखते हुए कौन कहता हैं कि व्यावहारिक सत्ता से भी शंकराचार्य को जातिभेद मान्य नहीं था ? उनका मत स्पष्ट हैं -
भावाद्वैतं सदा कुर्यात्क्रियाद्वैतं न कर्हिचित् ।
अद्वैतं त्रिषु लोकेषु नाद्वैतं गुरुणा सह ॥
~ श्री शंकराचार्य, तत्त्वोपदेशः , श्लोक ८७
सदा ज्ञानदृष्टि से अद्वैत की भावना करनी चाहिए । क्रिया में कभी भी अद्वैत नहीं होता (क्योंकि कर्ता-कारक-कर्म आदि त्रिपुटी-भेद के बिना क्रिया संभव ही नहीं) , गुरु के साथ सदा ही व्यवहारिक भेद स्वीकार करके प्रणामादि करना चाहिए ।
चाण्डाल का आशय यही था कि लोकसंग्रह के लिए यद्यपि व्यावहारिक भेद मान्य ही हैं, तथापि ब्रह्मज्ञ पुरुष के लिए तुच्छ जनसंग्रह की इच्छा से शुद्ध ब्रह्मबुद्धि से दृष्टि क्यों हटायी जाय ? सर्वबाधपूर्वक अखण्ड ब्रह्मदर्शन ही क्यों न किया जाय ?
विद्यामवाप्यापि विमुक्तिपद्यां जागर्ति तुच्छा जनसंग्रहेच्छा ।
अहो महान्तोऽपि महेन्द्रजाले मज्जन्ति मायाविवरस्य तस्य ॥
यद्यपि द्वैतदर्शनमात्र से ही शास्त्रीय व्यवहार संगत हैं , तथापि द्वैतदर्शन ही क्यों आने दे ? - यह आशय समझकर आचार्य ने अन्य उत्तर न देकर यही कहा -
इत्युदीर्य वचनं विरतेऽस्मिन् सत्यवाक्तदनु विप्रतिपन्न:
अत्युदारचरितोऽन्त्यजमेनं प्रत्युवाच स च विस्मितचेता: ॥
सत्यमेव भवता यदिदानीं प्रत्यवादि तनुभृत्प्रवरैतत् ।
अन्त्यजोऽयमिति सम्पति बुध्दिं संत्यजामि वचसाऽऽत्मविदस्ते ॥
जानते श्रुतिशिरांस्यपि सर्वे मन्वते च विजितेन्द्रियवर्गा: ।
युज्जते हृदयमात्मनि नित्यं कुर्वते न धिषणामपभेदाम् ॥
अगले प्रसंग से प्रतीत होता हैं कि वे अन्त्यज नहीं, साक्षात् विश्वेश्वर थे और शंकराचार्य की ब्रह्मनिष्ठा परीक्षा के लिए अन्त्यज के रूप में आविर्भूत हुए थे । लोकसंग्रह की दृष्टि से व्यावहारिक भेद दोनों को मान्य हैं ।
या चिति: स्फुरति विष्णुमुखे सा पुत्तिकावधिषु सैव सदाऽहम्।
नैव दृश्यमिति यस्य मनीषा पुल्कसो भवतु वा स गुरुर्मे ॥
अर्थात् जो तद्विषयों को बाधित करके अवशिष्ट बोधमात्र को आत्मा जानता हैं, वह कोई भी हो, गुरु हैं और तद्वत् वन्दनीय हैं ।
अन्त में व्यवहार दृष्टि का ही सम्मान करते हुए शिवरुपी चाण्डाल को प्रणाम करते हुए आचार्य ने कहा -
दासस्तेऽहं देहदृष्टयाऽस्मि शंभो जातस्तेंऽशो जीवदृष्टया त्रिदृष्टे ।
सर्वस्यात्मन्नात्मदृष्टया त्वमेवेत्येवं मे धीर्निश्चिता सर्वशास्त्रै:॥
👉 यदि कहा जाय कि ज्ञानी की दृश्यमान प्रवृत्तिसमूह विधिनिवंधन न होनेके कारण रागद्वेषादिनिवंधन अवश्य हैं , अतएव ज्ञानी के लिए यथेष्टाचरण में कोई दोष नहीं हैं !
👉 उपरोक्त अलेपकपक्ष का निराकरण में कहा गया -
अथालेपकपक्षनिरासार्थमाह ।
बुद्धाद्वैतसतत्खस्य यथेष्टाचरणं यदि ।
शुनां तत्त्वदृशां चैव को भेदोऽशुचिभक्षणे ॥
~ नैष्कर्म्यसिद्धिः , चतुर्थ अध्याय , श्लोक ६२ ; ज्ञानोत्तम की चन्द्रिका द्रष्टव्य
संस्कारवशतः मनुष्योचित प्रवृत्ति ही ज्ञानी में होती हैं , कुक्कुर इत्यादि की तरह अशुचिभक्षण में प्रवृत्ति नहीं होती । यदि ज्ञानी भी व्यवहार में यथेष्टाचरण करता हैं तो अशुचि-भक्षणादि समान होनेसे उसकी श्वानों की ही समानता उपस्थित होगी । किन्तु संस्कारवशतः भी ज्ञानी की प्रवृत्ति प्रातिभासिक वर्णाश्रमोचित ही होती हैं , इसलिए ज्ञानी का यथेष्टाचरण कदापि नहीं हो सकता !
👉 किसी उच्चभूमिकारूढ़ ज्ञानी या भक्त का कोई व्यवहार कदाचित् वर्णाश्रम-वर्ग के विपरीत हो, तो उनके लिए वह क्षम्य होनेपर भी अन्य के लिए क्षम्य नहीं हैं । 👈
👉 जिसने नौका से नदी पार करा ली हैं वही नौका का त्याग कर सकता हैं , किन्तु स्वयं अभी नदी पार करना हैं , उसके लिए नौका का त्याग कथमपि संगत नहीं हैं । 👈
साभार - स्मार्त राहुल जी
सन्दर्भ :- विचार पीयूष धर्मसम्राट स्वामीश्री करपात्रीजी महाराज
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