Saturday, 27 April 2019

जात पात से हिन्दु नहीं वंटा है

आरएसएस/महासभा आदि------> हिन्दू तो जात -पात में ही बंट कर रह गया ,  इसीलिये एक नही है ।

#खण्डन - हिन्दू अपने जात -पात में #बंटा नही है अपितु  अखण्डित होकर #बंधा है । ये श्रुति स्मृति प्रतिपादित  जात-पात का बन्धन ही हिन्दू  की एकता और अखण्डता है ।

हिन्दू का जात- पात विधर्मियों वाला जात -पात नहीं है, जो एक दूसरे  के एकता सूत्र तोड़ती है  ।  ये तो वो  डोरी है जो मणियों से मणि को जोड़ती है ।

सब नर करहिं परस्पर प्रीती ।
चलहिं #स्वधर्म , निरत श्रुति नीती ।।

….........ये हमारा हिन्दू रामराज्य है । जिसकी महिमा वेदों ने, सन्तों ने सबने गायी है ।

तुम आरएसएस और महासभा आदि के तथाकथित  सनातन हिन्दू धर्म के ज्ञानविज्ञान से विहीन विचारक ! कहॉ ले जा रहे हो हमारे हिन्दू समाज को ? तुमको हिन्दू धर्म शास्त्रों , हिन्दू परम्परा की कख नही ज्ञात ,  तुम  शिखा सूत्र संस्कार विहीन क्या जानो क्या है हिन्दू धर्म !  

एकता के नाम पर हिन्दू जात-पात पर  मिथ्या आक्षेप कर  कर के सनातन हिन्दू परम्पराओं को ध्वस्त करने का षडयन्त्र  बन्द करो ! हमारे हिन्दू चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में कोई भी वर्ण किसी दूसरे वर्ण पर अत्याचार नही करता ! ऐसा सिद्धान्त ही नहीं है कहीं हमारे यहॉ कि किसी पर हम अत्याचार करें !

।। जय श्री राम ।।

शास्त्र का विधि निषेध किसके लिए है?

शास्त्रीय विधि-निषेध  शास्त्रनिष्ठ -प्रज्ञावानों  के लिये है -

ये सब जो विचार हम यहॉ प्रकट करते हैं कि ऐसा शास्त्रसम्मत है, ऐसा अनुचित ,  वे सब शास्त्र में श्रद्धा रखने वाले प्रज्ञावान् पुरुषों  के लिये हैं,    शास्त्र के नाम पर स्वार्थ साधने वाले उन्मत्तों के लिये नहीं  ।

#शंका- शास्त्र में श्रद्धा रखने वाले प्रज्ञावानों को उचित अनुचित बताना कितना संगत है , क्योंकि वे तो प्रज्ञासम्पन्न हैं , शास्त्र में श्रद्धा रखते हैं ।  वे तो  बिना उद्देश्य या बिना प्रयोजन के कहीं प्रवृत्त हो ही नहीं सकते !

#समाधान -   नहीं , ऐसा नहीं है ।  शास्त्र में श्रद्धा रखने वाले  प्रज्ञावान् पुरुषों की भी कुछ प्रवृतियां बिना उद्देश्य एवं बिना प्रयोजन की देखी जाती हैं  ।

यदि ऐसा ना हो तब निष्प्रयोजन प्रवृति पर धर्मशास्त्र  ऐसा अंकुश न लगाते  -  #न_कुर्वीत_वृथा_चेष्टाम् ।  (मनु० ४।६३)

उन्मत्त व्यक्तियों की प्रवृत्ति को रोकने के लिए उक्त मनु वचन की सार्थकता नहीं मानी जा सकती,  क्योंकि इस वचन के द्वारा भी उन्हें व्यर्थ चेष्टा से उपरत नहीं किया जा सकता , क्योंकि उन्हें न तो इस वचन का अर्थ बोध होगा और न वे  आज्ञा का पालन ही करेंगे ।

दूसरे शब्दों में कहें तो , -

शास्त्र में निष्ठा रखने वाले  प्रज्ञावानों को  विद्वान्  ब्राह्मण अनुशासित  करते हैं, और शास्त्रों में निष्ठा  न रखने वाले प्रज्ञाहीन  उन्मत्त पुरुषों को  बलवान्  क्षत्रिय ।  शास्त्र और शस्त्र से ही प्रजा में अनुशासन की सम्यक् प्रतिष्ठा हो पाती है । अतः  गुरुकुलीय  विधा से   कुलीन राजपूत  क्षत्रियों  के अभ्युदय की  आज राष्ट्र में   नितान्त आवश्यकता है ।

।। जय श्री राम ।।

Friday, 26 April 2019

अद्वैत द्वैत का विरोद्धि नहीं है

यदि  केवल अद्वैत मत  ही सत्य सिद्धान्त है  तो  अद्वैतवादी  द्वैतियों की ही भॉति ,   सभी द्वैतवादियों के प्रति  आक्रामक शैली में  अपना प्रचार क्यों नहीं करते ?

#उत्तर -  अद्वैतवादी  निस्वार्थता के धरातल पर अवस्थित  होते हैं इसलिये ।

देखो ऐसे समझो -

जैसे किसी  निर्जल प्रदेश में  प्यासे के द्वारा पानी का पता पूछने पर  मधुर  पवित्र और   प्राप्तव्य  जलस्रोत  का  जानकार कहता है कि जलस्रोत  अमुक  दिशा में है , इस पर यदि वह किसी दूसरे  अज्ञानी व स्वार्थी  तार्किक   के द्वारा  भ्रमित किये  ( बरगलाये ) जाने पर उस पूर्व जानकार की बात  बार - बार  करुणापूरित होकर समझाये जाने पर भी नहीं मानता तो इससे जानकार का कुछ नहीं बिगड़ता ,

वो जानकार यही सोचता है अन्ततः  कि कोई बात नही, जाने दो इसे , अन्ततः आना तो अमुक दिशा को ही पडेगा , क्योंकि  बिना पानी के प्यास कैसे बुझा लेगा !

और इसी प्रकार,दूसरी बात ये भी है न कि हम लोग  द्वैतवादियों से  व्यक्तिगत विरोध वाला भाव  नहीं रखते क्योंकि  हाथी   पर बैठा हुआ व्यक्ति धरती  पर खडे व्यक्ति के द्वारा अपनी एड़ियॉ उठाकर  उच्च स्वर से ये कहे जाने पर कि  " मैं तुझसे भी अधिक ऊंचाई में  हूं "  ,   इस पर    कोई  स्पर्धा नहीं करता !  

ठीक इसी प्रकार द्वैतवादियों से हमारी कोई व्यक्तिगत स्पर्धा ही नहीं है ।

#अद्वैतं_परमार्थो_हि #द्वैतं_तद्भेद_उच्यते।
#तेषाम्_उभयथा_द्वैतं #तेनायं_न_विरुद्ध्यते ।।

।। जय श्री राम ।।

Saturday, 20 April 2019

उपनयन के लिए परीक्षनीय बिन्दु

उपनयन के लिए परिक्षण की आवश्यकता
#नापरिक्षितं_याजयेत्_नाध्यापयेन्नोपनयेत्।।विष्णुधर्मे।।
(1) कुमार के माता पिता के गोत्र प्रवर को जानना (समानगोत्र समानप्रवर के माता-पिता से जनित संतान त्याज्य हैं)
(2)मातृकुल  और पितृकुल में किसीने असवर्ण विवाह किए हैं कमसे कम तीनपिढी़ की जाँच (कलियुग में असवर्णविवाह त्याज्य हैं, तज्जनित संतान वर्णसंकर होती हैं)
(3)पिता पितामह प्रपितामह के जनेऊ की जाँच वेद-शाखा सहित  (परशाखा में किया उपनयन से  द्विजत्व की सिद्धि न होने के कारण स्वशाखीयोपनयनकाल 16वर्षव्यतिक्रान्ते व्रात्य हो जाते हैं और व्रात्य से जनित संतान भी व्रात्य ही हैं..
(4) पिता पितामहादि पूर्वजो की परम्परा विवाहकालिक उपनयन की है या नहीं,  यदि विवाह काल 16 से पहिले हो तो ठिक परंतु 16 से अधिक उम्रमें विवाहसमय हुए जनेऊ-संस्कार व्रात्यता सूचक ही हैं..
(4) कोई परिवार के सदस्य ने विदेशगमन किया हैं,यदि  किया हो तो वह संयुक्तपरिवार में साथ में रहता हैं?(पतितोत्पन्नः पतितो भवतीत्याहुः।। बौधायनधर्मे स्मृतिवचन।। पितुर्वा भजते शीलं मातुर्वोभयमेव वा ।।मनुः।।)
(5)पिता को यदि अयाज्ययाजक दोष लगगया हो तो प्रायश्चित्तपूर्वक पुनरुपनयन के बिना पिता भी अयाज्य हैं,  कुमार का उपनयन स्वयं नहीं करवा सकते..
(6) अनाथालय या असवर्ण से दत्तक परिग्रह किया हुआ कुमार न हो..

Tuesday, 16 April 2019

नारायण शब्दार्थ विचार

आज की कक्षा http://sriarshavidya.org/bhagvata-gita-registration में उपोद्घात भाष्य का मंगलाचरण लिया गया एवं नाराण पदार्थ विचार किया गया।

भाष्य उपोद्घात से प्रारम्भ होता है। उपोद्घात का अर्थ हुआ परिचय भाष्य। इसे संगति भाष्य या अवतरणिका भाष्य भी कहा जाता है। शास्त्रों की विषय वस्तु को स्थापित करने के लिए किया गया विश्लेषण उपोद्घात कहा जाता है।

ओम् नारायणः परोव्यक्तादण्डमव्यक्तसम्भवम्।

अण्डस्यान्तस्त्विमे लोकाः सप्तद्वीपा च मेदिनी।।

पदच्छेद - नारायणः परः अव्यक्तात्, अण्डं अव्यक्त सम्भवं अण्डस्य अन्तः तु इमे लोकाः सप्तद्वीपा च मेदिनी।

सरल पदार्थ - नारायणः - परमात्मा, परः - परे, अवक्तात्- जो अव्यक्त है उस कारण प्रपंच से, अण्डं - सूक्ष्म प्रपंच, अव्यक्त - कारण प्रपंच, सम्भवं - उत्पत्ति, अण्डस्य - सूक्ष्म प्रपंच के, अन्तः - में ही होना, तु - के विषय में, इमे - यह सब, लोकाः - विभिन्न लोक, सप्तद्वीपा - भूलोक जहां जम्बू, प्लाक्ष, कुश, क्रौन्च, शाक, शाल्मल व पुष्कर आदि सात द्वीप हैं, च - और, मेदिनी - पृथ्वी।

सार - परमात्मा कार्य कारणातीता। परमात्मा कार्य कारण से और सभी प्रपंच से परे है।

सरल भाषार्थ - नारायण माया से भी परे हैं। इस माया से ही सूक्ष्म जगत का उत्पन्न होता है। जिसमें सारे लोक और सात द्वीपों वाला भूलोक है।

नारायण पदार्थ विचार —

जल को नारा कहा गया है, जल नर का अर्थात जीव का कार्य अथवा पुत्र है। हिरण्यगर्भ ही प्रथम उत्पन्न होता है, वह ही प्रथम जीव है उससे उत्पन्न होने से जल को नारा कहा गया है। जल परमात्मा का आश्रय है, नारायण सृष्टिपूर्व जल में अनन्तशयन करते हैं अत: जल को उनका अयन कहा गया है। नारा ही इनका अयन है अत: परमात्मा को नारायण कहा गया है। ऐसा [मनुः १.१०] मनुस्मृति आदि ग्रन्थों से सिद्ध है एवं स्थूलदृष्टि वालों के लिए यह नारायण शब्द का अर्थ है। 

सूक्ष्मदृष्टि जिनकी है ऐसे तत्वदर्शी पुन: विचार करते हैं कि नर शब्द से मात्र मनुष्य नहीं अपितु चराचरात्मक सम्पूर्ण शरीरधारी हैं। उनमें नित्य ही सन्निहित चिदाभास, आत्मा का अन्त:करण में बनने वाला प्रतिबिम्ब, जो कि जीव नाम से जाना जाता है वही नारा है। दर्पण में जिस प्रकार हमारा प्रतिबिम्ब बनता है जो कि वास्तविक न होकर आभास मात्र होता है। उसी प्रकार आत्मा का अन्त:करण में बनने वाला प्रतिबिम्ब होता है, जिसे चिदाभास कहा जाता है। जो कि चित् का आभास है, वह जीव कहलाता है। एक ही आत्मा होने पर भी उपाधि भेद से भिन्न—भिन्न अन्त:करण में भिन्न—भिन्न प्रतिबिम्ब होने से एक ही आत्मा का बहुलता से आभास होता है। जिस प्रकार एक ही चन्द्र का प्रतिबिम्ब अनेक तालाबों में बनने से बहुत सारे चन्द्र प्रतीत होते हैं उसी प्रकार बहुत सारे जीव प्रतीत होते हैं। इस कारण नारा ऐसा बहुवचन का प्रयोग किया गया है। तेषां अयनं, इस नारा अर्थात् चिदाभास का जो अयन अर्थात आश्रय है वह आत्मा है। बिम्ब ही प्रतिबिम्ब का आश्रय होता है, बिम्ब के बिना प्रतिबिम्ब नहीं रहता है। इस प्रकार चिदाभास का आश्रय होने से परमात्मा ही सबका नियामक अन्तर्यामी नारायण है।

Sunday, 14 April 2019

भोजन करनेे के सामान्य नियम

भोजन करने के  सामान्य नियम   -

१. सदैव शुद्ध होकर, आचमन करके ही भोजनालय ( रसोई)  में भोजनार्थ  प्रवेश करे ।

२.उत्तरीय ( दुपट्टा) और धोती पहने ।

३. श्रीखंड चंदन आदि का तिलक लगा के भोजनालय में जाये ।

४. भोजनालय  गोबर से लीपा हो  ।

५. भोजन से पूर्व  ब्राह्मण चतुष्कोण ,  क्षत्रिय त्रिकोण , वैश्य गोल मण्डल व  शूद्र केवल जल से अभिषेक करे ।

६.   #पितुन्नुस्तोषम्० इत्यादि मन्त्र से  पहले अन्न की स्तुति करे ।

७.  पुनः मानस्तोके नमो वः०  मन्त्र से उस परोसे अन्न को अभिमन्त्रित करे ।

८. फिर बलिवैश्वदेव यज्ञ  ( आहार का कुछ अंश मन्त्र के साथ बलि देना )  करे ।

९.  फिर अन्तश्चरसि० मन्त्र से भगवान् विष्णु का ध्यान करे, फिर अमृतोपस्त० मन्त्र से आचमन करे ।

१०. फिर  अन्न में अमृत का ध्यान करके  अपने मुख में पॉच आहुतियॉ दे -  प्राणाय स्वाहेति मन्त्रों से ।(  वाजसनेयी शाखानुसार )

११. ये  प्राणाहुतियॉ  दॉत से न काटे , वरन जीभ से चाट कर ही ग्रहण करे ।

१२. पहला कौर अंगुठे + मध्यमा , दूसरा मध्यमा+अनामिका, तीसरा कनिष्ठा+तर्जनी , चौथा अंगूठे के अतिरिक्त शेष चार , पॉचवा  पॉचों अंगुलियों से ग्रहण करे ।

१३. बॉये हाथ से, पैर से, पेडू से , सिर से  या विपरीत दिशा में रखा  अन्न न छुए ।

१४.  भोजन के अन्त में  अन्न लेकर  मद्भुक्तोच्छिष्टशेषं० मन्त्र   पढ़कर  अंगूठे व तर्जनी के बीच से गिरा दे ।

१५. फिर हाथ में जल लेकर अमृतापिधानम्० मन्त्र  से हाथ का आधा जल पीकर  शेष  आधा जल धरती पर गिराये ।

१६. फिर अर्थिनां सर्वभूतानां ०  मन्त्र पढ़कर भोजन स्थान से कुछ हटकर भरकुल्ला जल और सींक ( खरका ) से मुंह साफ करें ।

१७. फिर पुनः अच्छी तरह कुल्ला व आचमन कर दाहिने पैर के अंगूठे में अंगुष्ठमात्र पुरुष की भावना से  ईशः सर्वस्य जगतः०  मंत्र पढ़ते हुए हाथ से जलधारा गिराए ।

१८ फिर    पेट पकड़कर शर्यातिञ्च०  मंत्र पढ़े और  नमो भगवते वाजसनेयाय याज्ञवल्क्याय  दो बार  कहते हुए  हुए  स्मरण करे , और मुंह को अच्छी तरह साफ कर मुख शुद्धि करे । 

(ध्यातव्य -शाखाभेद से  कतिपयांश में प्रविधिभेद हो सकता है ।)

।। जय श्री राम ।।

भोजन करने के सामान्य नियम

भोजन करने के  सामान्य नियम   -

१. सदैव शुद्ध होकर, आचमन करके ही भोजनालय ( रसोई)  में भोजनार्थ  प्रवेश करे ।

२.उत्तरीय ( दुपट्टा) और धोती पहने ।

३. श्रीखंड चंदन आदि का तिलक लगा के भोजनालय में जाये ।

४. भोजनालय  गोबर से लीपा हो  ।

५. भोजन से पूर्व  ब्राह्मण चतुष्कोण ,  क्षत्रिय त्रिकोण , वैश्य गोल मण्डल व  शूद्र केवल जल से अभिषेक करे ।

६.   #पितुन्नुस्तोषम्० इत्यादि मन्त्र से  पहले अन्न की स्तुति करे ।

७.  पुनः मानस्तोके नमो वः०  मन्त्र से उस परोसे अन्न को अभिमन्त्रित करे ।

८. फिर बलिवैश्वदेव यज्ञ  ( आहार का कुछ अंश मन्त्र के साथ बलि देना )  करे ।

९.  फिर अन्तश्चरसि० मन्त्र से भगवान् विष्णु का ध्यान करे, फिर अमृतोपस्त० मन्त्र से आचमन करे ।

१०. फिर  अन्न में अमृत का ध्यान करके  अपने मुख में पॉच आहुतियॉ दे -  प्राणाय स्वाहेति मन्त्रों से ।(  वाजसनेयी शाखानुसार )

११. ये  प्राणाहुतियॉ  दॉत से न काटे , वरन जीभ से चाट कर ही ग्रहण करे ।

१२. पहला कौर अंगुठे + मध्यमा , दूसरा मध्यमा+अनामिका, तीसरा कनिष्ठा+तर्जनी , चौथा अंगूठे के अतिरिक्त शेष चार , पॉचवा  पॉचों अंगुलियों से ग्रहण करे ।

१३. बॉये हाथ से, पैर से, पेडू से , सिर से  या विपरीत दिशा में रखा  अन्न न छुए ।

१४.  भोजन के अन्त में  अन्न लेकर  मद्भुक्तोच्छिष्टशेषं० मन्त्र   पढ़कर  अंगूठे व तर्जनी के बीच से गिरा दे ।

१५. फिर हाथ में जल लेकर अमृतापिधानम्० मन्त्र  से हाथ का आधा जल पीकर  शेष  आधा जल धरती पर गिराये ।

१६. फिर अर्थिनां सर्वभूतानां ०  मन्त्र पढ़कर भोजन स्थान से कुछ हटकर भरकुल्ला जल और सींक ( खरका ) से मुंह साफ करें ।

१७. फिर पुनः अच्छी तरह कुल्ला व आचमन कर दाहिने पैर के अंगूठे में अंगुष्ठमात्र पुरुष की भावना से  ईशः सर्वस्य जगतः०  मंत्र पढ़ते हुए हाथ से जलधारा गिराए ।

१८ फिर    पेट पकड़कर शर्यातिञ्च०  मंत्र पढ़े और  नमो भगवते वाजसनेयाय याज्ञवल्क्याय  दो बार  कहते हुए  हुए  स्मरण करे , और मुंह को अच्छी तरह साफ कर मुख शुद्धि करे । 

(ध्यातव्य -शाखाभेद से  कतिपयांश में प्रविधिभेद हो सकता है ।)

।। जय श्री राम ।।

Saturday, 13 April 2019

जो लोग कहते हैं पण्डितों ने  देश पर राज किया उनको उत्तर

जो लोग कहते हैं पण्डितों ने  देश पर राज किया - वे ये बतायें  सतयुग से लेकर आज तक के इतिहास में भारत में कितने पण्डित राजा  बने  ?

जो ये कहते हैं कि राजसत्ता  पण्डितों की गुलाम थी , वे हमें ये बतायें कि  राम राजा न बन कर  वनवासी बने , क्या इसमें  वशिष्ठ ऋषि  की मनमानी थी  ? ( वशिष्ठ ऋषि  से पूछकर कैकेयी ने राजा दशरथ से हठ  नहीं किया  ! )

महाभारत का  ऐतिहासिक युद्ध हुआ , क्या इसमें वेदव्यास ऋषि की मनमानी थी ? (  वेदव्यास से पूछकर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन का पक्ष नहीं लिया ! )

चाणक्य का भरी सभा में अपमान हुआ , क्या ये चाणक्य की जी हजूरी  थी ? 

पण्डित (ब्राह्मण)  संसार के सुख वैभव से दूर रहकर  साधना तपस्या में लीन रहने वाली जाति रही है ।   

पण्डित उस दीपक की तरह है , जो   मार्गदर्शन करता है  उसका,  जो उसे अपनी हथेली में उठाता है ।  पण्डित तो प्रकाश का नाम है ।

पर उसे उठाना उसकी मर्यादा से ही है , वरना जो दिया (दीपक)  प्रकाश देने  की क्षमता रखता है , वही  अमर्यादा पर  जला कर राख भी कर सकता है ! 

।। जय श्री राम ।।

वैदिक जाति व्यवस्था और आक्षेप व समाधान

वैदिक जाति व्यवस्था :  आक्षेप और समाधान -

#आक्षेप- एक पण्डित  व्यक्ति  शूद्र का दिया पानी तो नहीं पी रहा पर उसका बनाया घड़ा प्रयोग कर रहा है । कितनी नकारात्मक बात है !  इससे सिद्ध है कि   पण्डित द्वेषी , लोभी  और अभिमानी होते हैं ।

#उत्तर -

एक पंडित  व्यक्ति  शूद्र का दिया पानी तो नहीं पी रहा पर उसका बनाया घड़ा प्रयोग कर रहा है ।

इसी बात को सकारात्मक भी लिया जा सकता है नकारात्मक भी ।

ये  सामने वाले व्यक्ति की निजी मानसिकता पर निर्भर करता है कि वो इसे कैसे  व्यवहार में लाता है ।

हिन्दू धर्म में जाति की व्यवस्था गलत नहीं है , वरन् वे लोग गलत हैं जो इस व्यवस्था को  नकारात्मक बना  देते हैं ।

तर्क दिया जाता है  कि पंडित शोषक है जो बस अपना काम निकालता है दूसरे की मेहनत पर और फिर उन्हें नीच कह कर औकात दिखाता है,

इस पर आक्षेपकर्ता विधर्मियों  से हमारा कहना  यह है कि  पानी लाना तो सबसे बडी मेहनत है, पूरा कुंआ खोदना पड़ता है  पानी को पाने  के लिये, आरम्भ से ही श्रम है  । और उस कुंए का संरक्षण भी तो करना है अनवरत  , क्योंकि प्यास तो पूरे दिन में  कईं बार लगती है !  पानी  पिलाना इतना सरल काम नहीं है । और दूसरी बात ये है कि  यदि  मेहनत शूद्र करता है तो उसका  फल भी तो वही ले जाता है !   फ्री में थोडे न पंडित घड़ा लेता है उससे!  

यहॉ पर  पण्डित उससे घड़ा लेकर उसे उसकी  कला का पारितोषिक व  एक आधिकारिक रोजगार ही तो प्रदान कर रहा है !   सामाजिक सहयोग सद्भाव का कितना सुन्दर उदाहरण है यह !

विचार कीजिये -

१. अगर जातिगत द्वेष कारण होता तो पंडित घड़ा भी क्यों प्रयोग करता ?

२.यदि पण्डित  लोभी होता तो पानी भी क्यों छोड़ता ?

३. और यदि पण्डित अभिमानी होता तो  पानी और घड़ा दोनों ही एक साथ क्यों  न छोड़ता  !

इससे सिद्ध है कि ना तो पण्डित द्वेषी है , ना  लोभी और ना ही अभिमानी !

वरन् वो अवश्य किसी  मर्यादा में ,  व्यवस्था में अनुशासित और व्यवस्थित  है ।

~~~~~~~~~~~

शास्त्र व्यवस्था का ही नाम है, अनुशासन का ही नाम है ।  ईश्वर का  दिया  हुआ अनुशासन , ईश्वर की दी हुई व्यवस्था पर चलना - यही एक धार्मिक की पहचान होती है ।

जो लोग धार्मिक होते हैं, वे तो कभी आपस में झगड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकते!  ना ही वे निजी स्वार्थ नें बह सकते हैं !   ये परस्पर  झगड़े और  वैमनस्यता  को खड़ा  करना तो अधार्मिकों के काम हैं ।

।। जय श्री राम ।।

Sunday, 7 April 2019

मनुवाद शूद्रों के पक्ष में ही है

जो  कहते  हैं  मनुवाद  देश को  तोड़ता  है ,  वे  आजकल  की   जड़  भाषा   में समझो   मनुवाद  क्या  कहता है  -

मनुवाद  कहता  है  कि    देश के  सारे  इंजिनियर्स के पद  , आई टी सेक्टर  , कॉटेज  इंडस्ट्रीज  आदि  केवल   शूद्रों  के  लिए  आरक्षित  हो  जाएँ  , साथ ही   यूनिवर्सिटीज , एडमिनिस्ट्रेशन  और  एग्रीकल्चरल , बिजनेस  रिलेटेड  फील्ड्स  में  भी  शूद्रों   को  देश  की    सेवा  करने  का  आमन्त्रण दिया जाए  ।   मनुवाद कहता है कि शूद्र  ही देश के बड़े बड़े  बिल्डर  बनें ।    ब्राह्मणों को  केवल एजुकेशन ही का फील्ड थमाया जाये ,  उसे गुजारा ना हो रहा हो, तो  विशेष आपत्ति होने पर  एडमिनिस्ट्रेशन या  एग्रीकल्चर के फील्ड में ट्राय कर सकते हैं,  लेकिन  शूद्रों के लिये जो  प्रोफेशनल  फील्ड रिजर्व हैं , उनमें इंटर नहीं कर सकते ।

मनुवाद  कहता  है  कि   ब्राह्मणों और  क्षत्रियों   को  बिलकुल  भी   उन  सेवाओं  में   घुसने  ना  दिया  जाए  , जो  शूद्रों  के  लिए  आरक्षित  हैं  ! इतना ही  नही,    ब्राह्मण  जो  भी  कमाते  हैं  ,  उस कमाई  पर  भी  मनुवाद  अंकुश  लगाता  है  , उनके  पास   इतनी ही  प्रौपर्टी और  बैंक  बैलेंस  रहे  ,  जितने  से  केवल   वन  इयर   का गुजारा  हो  !   और   जॉब  भी  केवल   पच्चीस  वर्ष  तक  ही   कर  सकता  है  , उसके  बाद  उसे  रिटायर  होना  पडेगा !  और ये रिटायरमेंट ऐसा होगा कि  ना किसी सोसाइटी में रहो , ना सिटी में,  बल्कि  जाके  फॉरेस्ट में रहो और वहीं   अपने शोल को गेन  करने  के लिये  योगा करो ।  

मनुवाद  केवल  हिन्दुओं  को   ही  देश  में  रहने  की  बात  करता है , बांकी  लोग   या तो  मनुवाद  को मानें   वरना   गेट  आउट  ।

मनुवाद से  उनको  समस्या  है , जो हिन्दू नहीं हैं,  और मनुवाद के विरोध का सीधा सीधा मतलब है,   शूद्रों के अधिकारों का हनन , क्योंकि इसमें  सबसे ज्यादा सुख उन्हीं को है ।

वे भारत से बाहर व भारत में रहने वाले   विदेशी लोग इसीलिये  षड्यन्त्र करके मनुवाद का विरोध करवाते हैं , ताकि  वे शूद्रों  के रिजर्व   सुख छीन सकें और   अपने आप को भी देश में   प्रविष्ट (इंटर)  कर सकें ।

।। जय श्री राम ।।

ब्राह्मण मन्दिर में क्या करता है

एक  शोधार्थी की खोज -

ये ब्राह्मण लोग आखिर मन्दिरों में करते क्या हैं ?

   ब्राह्मणों की विरोधी पुस्तकें   जैसी आजकल बाजारों में मिलती हैं,   उनको पढ़कर मुझे तो लगा था वे लोग वहॉ  उन भवनों के  अन्दर बैठकर शूद्रों को खूब गालियॉ देते होंगे,  उनको कत्ल करने के हथियार बनाते होंगे,  

पर अन्दर जाकर  उनको   देखा तो वे लोग    तो किसी एक  मूर्ति को प्रणाम कर रहे थे    और    एक संस्कृत का वाक्य बोल रहे थे - सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः सर्वे भद्राणि पश्यन्तु  मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्  ।  

उनके इस वाक्य का मतलब क्या है , ये पता किया तो मेरे होश उड़ गये । इसका तो सीधा सीधा मतलब यही आ रहा था कि  शूद्र सुखी हों , निरोगी हों,  उनका कल्याण करना ,  उनको कभी भी  दुःख का भागी  ना  बनना  पड़े  !   मुझे आश्चर्य हुआ कि  जिनको  शूद्रों के शत्रु  बताया जाता है , वे लोग आखिर  उनके लिये ऐसी प्रार्थना कैसे कर सकते हैं ! उनको तो शूद्रों को दुखी करने की प्रार्थना करनी चाहिये थी ।

फिर मुझे लगा कि शायद हवन में जो मन्त्र बोलते हैं, उसमें वे शूद्रों के दुखी होने  की बात कहते होंगे या फिर अग्नि से कहते होंगे कि तुम शूद्रों का घर जला दो , पर वहॉ भी ऐसा नहीं था ,  वे लोग  वहॉ भी  ईश्वर की स्तुति कर रहे थे  और कह रहे थे कि  विश्व में  चारों ओर सुख शान्ति हो,  हमारे पास जो कुछ भी है, वो आपका है  ।  आपकी सम्पत्ति   से सबको सुख मिले ।

फिर मुझे लगा कि मन्दिरों में न सही पर जीवन में कभी तो शूद्रों के उपर कोई  घातक आक्रमण कर  उनके घर लूटने की बातें कहते होंगे , पर उनके जीवन  को  संचालित करने वाले जो इनके धर्मशास्त्र हैं , उनकी नियमावली को  पढ़ा  तो पता चला कि वे तो   जीवन का ७५% घर के सुख त्याग कर  जंगलों में   व्यक्तिगत  तपस्या में बिताने को बोला है  , शेष २५%  में समाजसेवा  ।

।। जय श्री राम ।।

पूजा आदि में सिर नहीं ढंका चाहिए

शास्त्र प्रमाण:- उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।  प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥ अर्थात् - पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग...