वैदिक जाति व्यवस्था : आक्षेप और समाधान -
#आक्षेप- एक पण्डित व्यक्ति शूद्र का दिया पानी तो नहीं पी रहा पर उसका बनाया घड़ा प्रयोग कर रहा है । कितनी नकारात्मक बात है ! इससे सिद्ध है कि पण्डित द्वेषी , लोभी और अभिमानी होते हैं ।
#उत्तर -
एक पंडित व्यक्ति शूद्र का दिया पानी तो नहीं पी रहा पर उसका बनाया घड़ा प्रयोग कर रहा है ।
इसी बात को सकारात्मक भी लिया जा सकता है नकारात्मक भी ।
ये सामने वाले व्यक्ति की निजी मानसिकता पर निर्भर करता है कि वो इसे कैसे व्यवहार में लाता है ।
हिन्दू धर्म में जाति की व्यवस्था गलत नहीं है , वरन् वे लोग गलत हैं जो इस व्यवस्था को नकारात्मक बना देते हैं ।
तर्क दिया जाता है कि पंडित शोषक है जो बस अपना काम निकालता है दूसरे की मेहनत पर और फिर उन्हें नीच कह कर औकात दिखाता है,
इस पर आक्षेपकर्ता विधर्मियों से हमारा कहना यह है कि पानी लाना तो सबसे बडी मेहनत है, पूरा कुंआ खोदना पड़ता है पानी को पाने के लिये, आरम्भ से ही श्रम है । और उस कुंए का संरक्षण भी तो करना है अनवरत , क्योंकि प्यास तो पूरे दिन में कईं बार लगती है ! पानी पिलाना इतना सरल काम नहीं है । और दूसरी बात ये है कि यदि मेहनत शूद्र करता है तो उसका फल भी तो वही ले जाता है ! फ्री में थोडे न पंडित घड़ा लेता है उससे!
यहॉ पर पण्डित उससे घड़ा लेकर उसे उसकी कला का पारितोषिक व एक आधिकारिक रोजगार ही तो प्रदान कर रहा है ! सामाजिक सहयोग सद्भाव का कितना सुन्दर उदाहरण है यह !
विचार कीजिये -
१. अगर जातिगत द्वेष कारण होता तो पंडित घड़ा भी क्यों प्रयोग करता ?
२.यदि पण्डित लोभी होता तो पानी भी क्यों छोड़ता ?
३. और यदि पण्डित अभिमानी होता तो पानी और घड़ा दोनों ही एक साथ क्यों न छोड़ता !
इससे सिद्ध है कि ना तो पण्डित द्वेषी है , ना लोभी और ना ही अभिमानी !
वरन् वो अवश्य किसी मर्यादा में , व्यवस्था में अनुशासित और व्यवस्थित है ।
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शास्त्र व्यवस्था का ही नाम है, अनुशासन का ही नाम है । ईश्वर का दिया हुआ अनुशासन , ईश्वर की दी हुई व्यवस्था पर चलना - यही एक धार्मिक की पहचान होती है ।
जो लोग धार्मिक होते हैं, वे तो कभी आपस में झगड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकते! ना ही वे निजी स्वार्थ नें बह सकते हैं ! ये परस्पर झगड़े और वैमनस्यता को खड़ा करना तो अधार्मिकों के काम हैं ।
।। जय श्री राम ।।
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