Tuesday, 27 February 2018

वर्ण व शरीर का निर्माण कैसे

भ्रम : - वर्ण का आधार जन्म नहीं गुण(सत, रज, तम)  होता है। अपने गुणों के अनुसार ही व्यक्ति कर्म करता है और कर्म को भोगने के लिए ही वह भिन्न भिन्न योनियों में पृथ्वी पर आता है। अतः वर्ण का आधार जन्म को मानना शास्त्र विरुद्ध है।

उत्तर : - गुणों के अनुसार व्यक्ति कर्म करता है , ये अधूरा सत्य है , पूरा सत्य तो ये है कि उन्हीं सत्त्व, रज,  तम  संज्ञक गुणों की साम्यावस्था प्रकृति कहलाती है, उस त्रिगुणात्मिका  प्रकृति  से ही ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र के स्थूल, सूक्ष्म और कारण देह का निर्माण  होता है, और ये निर्माण ईश्वर की अध्यक्षतामें ही होता है - मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ० सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ० इत्यादि ।।
आप कभी सांख्यशास्त्रवेत्ता  प्रामाणिक  गुरुजनों के  चरणचञ्चरीक होकर  बैठा कीजिये ।  जय श्री राम  ।।

अन्तःकरण के जिस विशेष मलादि दोष अथवा दोषों का संशोधन होना चाहिए, केवल तत्-तत् संशोधन के अनुसार ही ये व्यवस्था निर्धारित होगा । अन्य व्यवस्था उसके लिए न केवल निष्फल हैं, अपितु उससे प्रतिकूल प्रभाव भी होना संभव हैं, जैसे मानो बिना रोग निर्णय किये औषध सेवन करना । अतः आर्यशास्त्र के अनुसार ईश्वर के अनुग्रह से व्यक्तिविशेष की आध्यात्मिक विकास के लिए उपयुक्त धार्मिक प्रशिक्षण_का_निर्णय_करने_का_गुरुदायित्व से मुक्त कर दिया गया हैं । बस उन ईश्वर-निर्धारित नियमों का पालन करना चाहिए ।

इसी लिए जन्मना वर्णव्यवस्था ही एकमात्र उपाय हैं क्योंकि अगणित पूर्वजन्मों के संस्कार हैं चित्त में , अतः कौनसी व्यवस्था चित्तशुद्धि में सहायक होगी और कौनसी नहीं - यह एकमात्र सर्वज्ञ ईश्वर ही निर्धारण कर सकते हैं , वही तदनुरूप ब्राह्मणादि योनि में प्रेरण करते हैं ताकि उस योनि में पालनीय स्वधर्म उनका चित्तशुद्धि द्वारा अध्यात्मिक विकाश में सहायक होगा |

भोगभूमि व कर्मभूमि भेद क्यों किया भगवान ने

प्रश्न : - आचार्य जी , हमने ऐसा सुना है कि भारतभूमि पर ही कर्मकाण्ड फलित होते हैं अन्यत्र नहीं ,अतः वर्णाश्रम यहीं मिलता है ,  भारत भूमि ऐसी क्या विशेषता है ?

उत्तर :- कर्मभूमि होने से , कर्मभूमि और भोगभूमि - इस प्रकार भूमि विभेद होता है ।

प्रश्न : -  तो भगवान पर पक्षपात सिद्ध नहीं होता , कि दुर्लभ मानव देह देकर भी सारी भूमि को कर्मभूमि न बनाकर बस एक स्थान को बनाया , तब बाकी लोग तो पशुवत आहार, निद्रादि में ही रहेंगे , भगवत्परायण बुद्धि नहीं होगी उनकी |

उत्तर : - तत् तत् प्राणियों के तदुपार्जितपाप- पुण्यफल रूप  भोगों के  पूर्त्यर्थ जिस भू-  भागविशेष को विधाताने सृष्टकियाहै , वह भोग भूमि है । वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात् तथा हि दर्शयति  ब्रह्मसूत्र २।१।३३
यह आक्षेप तो वहॉ भी प्रसक्त हो सकता है, जहॉ पर दुर्लभ मनुष्य देह प्रदान करने  के उपरान्त भी  ईश्वर  सभी मनुष्यों को स्वस्थ पूर्णांग देह ,   यथोचित अन्न , वस्त्रादि प्रदान नहीं करता । यह आक्षेप वहॉ भी प्रसक्त हो सकता है कि दुर्लभ मनुष्य देह प्रदान करकेभी ईश्वर सभी को विशुद्ध  ब्राह्मण  देह नहीं प्रदान करता |  असूर्या नामते लोका०,     आसुरीं योनिमापन्ना ० इस गीताश्लोक पर मन्थन करें , आप पायेंगे कि ईश्वर   प्राणी के कर्मानुसार उसे  आसुरी योनि और लोक में फेंकता है |  जैसे एक वैद्य सभीरोगियों को मीठी औषधि नहीं देता, वरन् किसी को कड़वी , किसी कोमीठी देता है, किसी की तोशल्य क्रिया ही कर देता है , इस कृत्य में उसका कोई भी रागद्वेषादिन होकर सर्वहितभाव ही होता है , इसी प्रकार ईश्वरीय कृत्यको भी समझना चाहिये । भगवान् ने इस धरा को भोग और योग दोनों से विशिष्ट करके रचा है । जिससे कि भोगी और योगी -दोनों अपने मनोरथ पूर्ण कर सकें । जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार ।।

विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु सन्त रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं ।.

ब्राह्मण शूद्र को तंग क्यों करतें है

प्रश्न: - प्रज्ञान शर्मा  to Brahman shudra ko apmanit kyun karte hai, Maine kabhi kisi shudra ko kisi brahman ko apmanit karte na dekha na suna.. uski jati ke naam p

उत्तर :- ये सब का मूल कारण   देश की डिवाइड एण्ड रूल वाली  कुटिल  राजनीति है ।

ऐसानहींहै कि केवल कुछेक ब्राह्मण ही शूद्र का अपमान करते हैं , अपितु कुछेक शूद्र भी हैं जो ब्राह्मण का अपमान करते हैं , ये सब  का कारण कईं बार तो   धर्म को न जानना होता है , कईं बार  सामने वाले के किये अपमान का बदला होता है ।

जिस प्रकार  देश के संविधान में अपराध करने की मनाही है ,   और अपराध करने वाले के लिये  सजा का भी प्रावधान है ।     फिर भी समाज में अपराध तो होता ही है । 

इसी प्रकार शास्त्र में ब्राह्मण व शूद्र का  प्रेमभाव  का विधानहै , फिर भी कोई नास्तिक मानसिकता का व्यक्ति  शास्त्र के विधान को तोड़ता है तो ये दोष तो उसका व्यक्तिगत है !

संख्याबल मुख्य नहीं है

प्रश्न: - वर्णाश्रम-धर्म यदि ईश्वरद्वारा संस्थापित है,संगोपित हैं , संरक्षित हैं फिर वर्तमान समय में समग्र सृष्टी छोडिए..केवल भरतखंड में ही वर्णाश्रम-धर्म का पालन क्यों नही हो रहा हैं? जन्मजात ब्राह्मण पशुवत् व्यवहार कर रहे हैं, क्षत्रिय पलायन कर रहे हैं एवं क्षुद्र वेद बांच रहे हैं.. अगर जाति-विहीतकर्म   कर्म-फल ही हैं तो जिव उसे भोगने कैसे बच जा रहा हैं? आज काफी सारे नियोग जैसे प्रबंधक, निषेधन अधिकारी, वैज्ञानिक आदि निर्माण हो चुके हैं जिससे समाज-कार्यव्यवस्था और-अधिक क्लिष्ट हो चुकी हैं... जो मोटे-तोर पर ४-वर्ण में बाटना असंभवसा जान पडता हैं... फिर इन संक्रमित कार्यो को ४-वर्ण में कैसे बाटेंगे?

आप मेधावी हैं.. आपसे उपरोक्त प्रश्नों के उत्तरों की सविनय प्रतिक्षा रहेगी...

उत्तर : -
यह बात सत्य है कि अधिकांशतः देखने में यह आ रहा है कि   कथित वर्णाश्रमावलम्बियों के  हीयमानविवेकविज्ञानहेतुवशात्  वर्तमान् में वर्णाश्रम व्यवस्था अपने आदर्श रूप से   अत्यन्त क्षीण हो गयी दीखती  है , किन्तु इस  यथार्थता  को आप अनदेखा नहीं कर सकते कि वर्णाश्रम व्यवस्था कहीं  है ही नहीं । 
विपरीत परिस्थितियों से धर्म का बाह्य स्वरूप भले ही  परिवर्तित दीखता है , किन्तु आत्मा फिर भी अपने अपरिवर्तनीय स्वरूप में विद्यमान् रहती है ।
आज भी ऐसे ब्राह्मण  आदि है , जो   काल की उद्भासित  इस विषम परिस्थिति में भी  यथोचित्  स्वधर्म का पालन कर रहे हैं ।  
यह सनातन सिद्धान्त ही है कि
धर्म की ग्लानि  ही होती है नाश नहीं होता है ।  अतः धर्म की ग्लानि होना -ये  कोई भी अप्राकृतिक घटना नहीं है ।

संख्या की जहॉ तक बात है , ईश्वर के लिये  शुद्ध वर्णों के संख्या बल का औचित्य नहीं, वरन् अस्तित्व का औचित्य है ।  सृष्टि के आरम्भ में  सृष्टि रचना के लिये  मात्र   मरीच्यादि सात ऋषि ही तो विधाता द्वारा प्रकट किये गये  थे  और प्रलय रूप  सृष्ट्यन्त में भी गिने चुने ऋषि ही तो  रह जाते हैं ।

इसी प्रकार ध्यातव्य है कि   पाण्डव पॉच ही थे , कौरव सौ थे, परन्तु ईश्वर (कृष्ण)  के लिये   पाण्डव पक्ष को चिरस्थाई रखते हुए कौरव पक्ष को समाप्त कर देना कोई समस्या  नहीं थी ।

एक ओर श्री भगवान् की नारायणी सेना थी , दूसरी ओर वे स्वयं खड़े थे, वो भी शस्त्रास्त्रादिविहीन ।

अल्पज्ञ, एकदेशीय और अल्पसामर्थ्य वाले होने से
क्लिष्टता हम और आप   देहधारियों  ही  दृष्टि में जान पड़ती  है , ईश्वर की दृष्टि में  यह क्लिष्टता  नहीं होती , अन्यथा यह  उसके सर्वनियन्तृत्व, सर्वेश्वरत्वादि गुणों वाले  कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं सर्वथासमर्थ ईश्वरकी परम  सामर्थ्यशक्ति  पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा करना होगा  !

धर्म का पालन करने वाला ,  ब्रह्मवेत्ता ,
एक भी कुलीन शुद्ध   ब्राह्मण  जब तक इस धरा धाम पर विराजमान् है, तब तक सनातनधर्म स्वयं साक्षात् इस धरा पर विराजित है,जब तक ईश्वर. स्वयं  है, तब तक धर्म भी  पूर्णतः  सनाथ और  अस्तित्ववान्  है ।    इस सत्य को भलीभॉति  जानने वाले ईश्वर के लिये  म्लेच्छों अथवा अनाचारियों का  संख्याधिक्य कोई महत्व नहीं रखता । जैसे  प्रदीप्त दावानल में असंख्य पतंगे स्वयं ही  आहूत होते हैं ,उसी प्रकार महाकाल परमेश्वर पृथ्वी में उत्पन्न  समस्त असुरों को इसी  पृथ्वी पर ही   तिरछा कर देते हैं ।

क्या जन्म से ही ब्राह्मण होता है ?

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जन्म से ही क्यों होते हैं ब्राह्मण,  कर्म से क्यों नहीं हो  सकते ?

#उत्तर - जो जन्म से ब्राह्मण होते हैं , वे कर्म से ही ब्राह्मण हुए होते हैं । किन्तु कर्म का सिद्धान्त  न जानने से तथाकथित बुद्धिजीवी    लोग भ्रमित हो गये हैं ।

देखो ऐसे समझो -

हम जो भी पाप या पुण्य कर्म करते हैं , वे कर्म एक बीज की भॉति होता है ।

वो बीज  समय के गर्भ में संचित हो जाता है और फिर   हमें ही फल बनकर मिलता है।

ये है प्रकृति का नियम ।
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जो कर्म हम अभी वर्तमान् काल में  कर रहे हैं , उसे कहते हैं क्रियमाण कर्म ।   

और कर्म के फल को ही कहते हैं प्रारब्ध या भाग्य ।

क्रियमाण ---->( संचित )----->प्रारब्ध(फल) /भाग्य ।

बीज ------------------------------------> फल

जो कर्म आज हम कर रहे हैं, उसका फल आने वाले  कल में हमें मिलेगा ।  और वो फल  ईश्वर ही हमें देता है ।

कर्म का फल तीन रूप में मिलता है -

जाति , आयु और भोग ।।

इसीलिये   ब्राह्मण  जन्म से ही होते हैं ।

चार वर्ण भगवान् ने बनाये हैं - अर्थात्  जीव को  जाति रूपी  कर्मफल भगवान् ने ही दिये हैं ।

।। जय श्री राम  ।।

वर्ण का देहाश्रित है

सीधी बात :- नो बकवास।

वर्ण देहाश्रित है। देह जन्माश्रित है।
वर्ण कर्माश्रित नहीं है क्योंकि कर्म देह की अपेक्षा चिरस्थाई नहीं। वर्ण भौतिक अस्तित्व का परिचायक है और कर्म का आधार। इसीलिए कर्म वर्णाश्रित है, न कि वर्ण कर्माश्रित। कर्म बदलने से यदि वर्ण बदलेगा तो पूजा कराने वाला ब्राह्मण यदि धर्मरक्षा के लिए शस्त्र उठाये तो उसकी क्षत्रिय संज्ञा हो जाती, तो उसे अपनी पत्नी से ही ब्राह्मणीगमन का पाप लग जाता। कर्म वर्ण के ऊपर आश्रित है इसीलिए द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर का कर्म उनके वर्ण पर प्रभाव न डाल सका।

पहले वर्ण मिलता है, तब उसके अनुरूप कर्म करने का अधिकार।
कोई भी कर्म करके उसके अनुरूप वर्ण चयन करने का अधिकार नहीं है।

उदाहरण :- पहले व्यक्ति आरबीआई का गवर्नर बनेगा फिर नोट छापेगा। पहले पद तब अधिकार। कोई भी व्यक्ति नोट छाप कर ये नहीं कह सकता है कि चूंकि मैं आरबीआई के गवर्नर का काम कर रहा हूँ तो मुझे वही पद दे दो। इसी प्रकार पूर्वजन्म की योग्यता के आधार पर इस जन्म का वर्ण मिलता है, फिर उसके अनुरूप कर्म करने का अधिकार। कर्म चुनने की स्वतंत्रता किसी को भी नहीं है। यदि ऐसा होता तो भिक्षाटन करने (ब्रह्मवृत्ति) के लिए उत्सुक अर्जुन को भगवान नहीं रोकते।

इज्याध्ययनदानानि विहितानि द्विजन्मनाम्।
जन्मकर्मावदातानां क्रियाश्चाश्रमचोदिताः॥
( श्रीमद्भागवत 7-11-13)
कुछ लोग सूत जी का उदाहरण देते हैं। सूत जी अयोनिज हैं। पृथु जी के यज्ञ में बृहस्पति और इंद्र जी का भाग मिल जाने से यज्ञ कुण्ड से सूत जी की उत्पत्ति हुई।
सूत जी ब्राह्मण ही हैं, सूत उनकी संज्ञा है, न कि सूत जाति। पद्मपुराण और वायुपुराण में उनके प्रादुर्भाव की कथा है।अग्निकुण्डसमुद्भूत: सूतो विमलमानसः।   लेकिन उनका पालन पोषण सन्तानहीन सूत परिवार ने किया अतः वे भी उसी से पुकारे गए। जैसे राजा उपरिचर तथा अद्रिका अप्सरा की कन्या सत्यवती तथा ब्राह्मण शक्तिपुत्र पराशर के सहयोग से उत्पन्न व्यास जी ब्राह्मण थे। कैवर्त के द्वारा लालन पालन होने से सत्यवती दाशकन्या नहीं बन गयी। ऋषि कण्व के द्वारा पालन पोषण करने मात्र से शकुंतला ब्राह्मणी नहीं बन गयी।

जैसे सूत रथी के रथ का कुशलता से संचालन करके उसके मार्ग को प्रशस्त करता है, जैसे गुरु शिष्य को मार्गदर्शन देकर उसका मार्ग प्रशस्त करता है, वैसे ही सूत जी ने मार्गदर्शन के माध्यम से ऋषियों का कल्याण किया, इसीलिए उन्हें सूत कहा गया।

वैसे कर्म देखें तो द्रोणाचार्य ने जीवन भर शस्त्र की ही कमाई खाई। लेकिन उन्हें कभी भी कहीं भी क्षत्रिय नहीं कहा गया। विदुर जी ने जीवन भर शास्त्रोपदेश ही किया लेकिन उन्हें किसी ने कभी भी ब्राह्मण नहीं कहा। कृष्ण जी ने अनेकों बार अर्जुन का रथ संचालन किया लेकिन उन्हें कभी किसी ने सूत नहीं कहा।

महर्षि रोमहर्षण जी को ऋषियों ने अपना सूत यानि मार्ग दर्शक स्वीकार किया और बाद मंे इन्हीं को सूत जी महाराज कहा गया, अल्पज्ञानी लोग सूत जी को सूत जाति से सम्बन्धित कर देते हैं, परन्तु सूत जी का जन्म अग्निकुण्ड से ऋषियों द्वारा यज्ञ के दौरान हुआ, जिनके दर्शन से ऋषियों के रोंगटे खड़े हो गये क्योंकि इनके ललाट पर इतना तेज था। इनका प्रथम नाम रोमहर्षण हुआ । महर्षि श्री सूत जी साक्षात् ज्ञान स्वरूप थे तभी तो शौनकादि ऋषियों ने इन्हें अज्ञानान्धकार का नाश करने वाला सूर्य कहा।
अज्ञानध्वान्तविध्वंसकोटिसूर्यसमप्रभ। सूताख्याहि कथासारं मम कर्ण रसायनम् ।।

कबीर दास ने कहा :- गुरु कुम्हार सिस कुम्भ है ...
तो इसका अर्थ यह नहीं कि सभी गुरु कुम्हार हैं, या सभी कुम्हार गुरु हैं।अपितु यह है कि जैसे अपरिपक्व मिट्टी से कुम्हार अपने मार्गदर्शन से, कभी मार कर, कभी सहलाकर परिपक्व घड़ा बनाता है, वैसे ही अपरिपक्व शिष्य को अपने मार्गदर्शन से गुरु परिपक्व बनाता है। इसीलिए गुरु का कुम्हार के समान होना बताया गया है। जैसे रोमहर्षण जी का सूत के समान वर्णन मिलता है।

श्रीभागवतानंद गुरु

ब्राह्मण अग्नि है

अग्निर्वै ब्राह्मणः!

अग्निर्मुखं तु देवानां!
मुखं यः सर्वदेवानां हव्यभुक् कव्यभुक् तथा!!
ब्राह्मणो अस्य मुखमासीत्!
द्विविधः ब्राह्मणत्वं अग्निर्मिव स्वकीयं कृत्रिमं वा! सूर्यादिषु स्वकीयं, अरणिर्मध्ये कृत्रिमं च!
ब्राह्मण हव्य और कव्य क्रिया का प्रतिनिधि विधि निषेध का प्रेरक -प्रयोक्ता अग्नि है! यह अग्नि जन्मना स्वभावतः है जैसे सूर्य में अग्नि जन्म से ही है, तद्वत् ही वशिष्ठादि में स्वभावतः जन्म से ही ब्राह्मणत्व है! पुनः यह अग्नि कृत्रिम भी (द्विज -दो प्रकार या दो बार या संस्कार रूप दूसरा जन्म होने ,जन्म लेने से) है अरणियों में मंथ क्रिया से प्रकट होने के समान विश्वामित्रादि में प्रकट अपवादस्वरुप प्रकट ब्राह्मणत्व के समान!अस्तु इस विषय में विद्वानों में  शंका नहीं होनी चाहिए !
बाल्मीकि रामायण में ब्राह्मणादर्श पूर्ण जितेन्द्रियता को कहा गया है, जो भगवान वशिष्ठ जी में पूर्णतः सिद्ध है!
विश्वामित्र जी का जितेन्द्रियत्व अर्जित होने एवं पुनः ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी द्वारा अनुमोदित होने से परम्परानुसारी हो गया, अतः वह सनातन मर्यादा के अनुकूल ही (परम्परा से प्राप्त होने से) है! जब तक उसका वशिष्ठ जी द्वारा अनुमोदन नहीं हुआ था तबतक वे ब्रह्मर्षि रूप में देवताओं, मुनियों द्वारा भी मान्य नहीं किये गये थे!
भगवान परशुराम जी भी भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण ,एवं भविष्य में भगवान श्रीकल्कि जी को अपने समस्त शस्त्रास्त्रों का त्यागकर कल्पांत में पूर्णतः ब्रह्मर्षिपद पर प्रतिष्ठित हो जाएँगे! इति!

"वेद का स्वरूप एवं प्रामाण्य"
-श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
एवं
वाल्मीकि रामायण
से स्मृति पूर्वक साभार!
श्रीगुरूचरणकमलेभ्यो नमः!
सनातन धर्मो विजयते!!
हर हर हर महादेव!!!

Monday, 26 February 2018

यज्ञोपवीत संस्कार रहित व्यवहार में वर्ज्य है

यज्ञोपवीत संस्कार  के  नियम  से  विहीन  ब्राह्मण   व्यवहार -बहिष्कृत   हैं  -

जिस ब्राह्मण के पिता  या पितामह  आदि  का विधिवत्   यज्ञोपवीत-संस्कार  नही हुआ  ,  जिन्हें  वेद -शास्त्रों  की  जानकारी  नहीं , जो   आचार संस्कार  की  परम्परा से  विच्छिन्न  हैं  ,    वह उसके पिता , पूर्वज ब्रह्मघाती  हैं  , उनके  साथ  रोटी -बेटी  का  कोइ  सम्बन्ध  नही रखना  चाहिये  , ऐसे  ब्रह्मघाती  कुलों  को  अपने लिये   प्रायश्चित्त  की  कामना  करनी  चाहिये ।

यस्य पिता पितामह इत्यनुपेतौ स्यातां ते ब्रह्महसंस्तुताः,  तेषामभ्यागमनं भोजनं विवाहमिति च वर्जयेत्।  तेषामिच्छतां प्रयश्चितम्। (श्रीआपस्तम्बधर्मसूत्रम् १/१/३२-३४ )

इसी  प्रकार  सन्ध्यादि   से  विहीन ब्राह्मण  भी  अत्यन्त  निन्दनीय  जानने  चाहिये  । शास्त्र  मे  कहा  गया  है  कि  कलियुग  मे  अनगिनत   राक्षस  ब्राह्मण कुलों  मे  जन्म  लेंगे ।  ऐसे  ब्राह्मण नामधारी   राक्षसों  से  कुलीन सभ्य सुसंस्कृत   ब्राह्मणों  को  सदैव  सावधान  रहना  चाहिये  ।  अस्तु ।

नीतिशास्त्र  में  भी  कहा  गया  है  कि  जिनके पास विद्या, तप, ज्ञान, शील, गुण और धर्म में से कुछ नहीं ,  ऐसे  वह मनुष्य   धरती  के  भार   हैं  ,  तथा  वे   ऐसा जीवन व्यतीत करते हैं जैसे एक मृग  (वनचर पशु )  -

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके  भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।। 

।। जय  श्री  राम  ।।

शर्मा नाम रहस्य

साभार- श्री आद्य शंकराचार्य संदेश
        #शर्मा_नाम_रहस्य-

संस्कृत के #शर्म शब्द से  शर्मा शब्द बना है ।  शास्त्र में #शर्मवद्_ब्राह्मणो_ज्ञेयो ( मनुस्मृति) कहा गया है अर्थात् ब्राह्मण को शर्मा नाम से  जानना चाहिये  ।

अतः शर्मा सम्बोधन  ब्राह्मणमात्र का परिचायक होता है , आजकल  के पाश्चात्य प्रभाव से ये  #शर्मा सम्बोधन के व्यक्तिगत होकर रह गया है , जबकि शास्त्रीय दृष्टि से ऐसी नही है ।

शर्मा सम्बोधन ब्राह्मणजातिमात्र का वाचक होता है , जबकि अन्य उपनाम यथा दूबे, तिवारी, जोशी, पन्त, पाठक आदि  उन उन ब्राह्मणों के वैशिष्ट्य की दृष्टि से लोकविख्यात हुए  हैं  किन्तु शर्मा - ये  सम्बोधन ब्राह्मणजातिमात्र का सम्बोधक होता है ।

अतः प्रत्येक  ब्राह्मण को  स्वयं को  आत्मपरिचय में  अमुक शर्मा   हूं - ये कहना चाहिये , ऐसी प्राचीन आचार्यों ने व्यवस्था दी है ।

ये बात और है कि आजकल  शुद्ध,  अनुलोम  ब्राह्मणों से लेकर प्रतिलोम  ब्राह्मणेतर पर्यन्त सभी इस  नाम को अंगीकृत कर लिये हैं , अतः जो कोई भी  'शर्मा जी नमस्ते' ले लेता है,  किन्तु शास्त्रीय दृष्टि से केवल एक उच्च कुलीन विशुद्ध ब्राह्मण में ही यह पद प्रयोग हो  सकता है ।

शास्त्रीय रीति के अनुसार शर्म, वर्म, गुप्त तथा  दास ( शर्मा , वर्मा, गुप्ता, दास) - इन चार सम्बोधक  पदों से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र  जाति का वाचन होता है ।

।। जय श्री राम ।।

Sunday, 25 February 2018

कम्प्यूटर आदि सब वेदमूलक है

आप धार्मिक हो तो फेसबुक  कम्प्यूटर आदि क्यों चलाते हो ?

उत्तर :  मौलिक अधिकारी होने से ।

फेसबुक , कम्प्यूटर , बैटरी आदि जितने भी यान्त्रिक संसाधन आज समाज में हैं, ये सबका मूल  वेद है ।

धर्म और   विद्या दोनों का मूल  वेद है ।

फेसबुक की संस्थापना के पीछे दिव्य नरेन्द्र और नीमकरोली बाबा की भूमिका हो या कम्प्यूटर  के  बीज के पीछे पुरी पीठ के शंकराचार्य  का वैदिक गणितीय ज्ञान  अथवा बैटरी  की अवधारणा के पीछे अगस्त्य संहिता के सूत्र ;  विधिक रुपमें इस मौलिक अधिकार तो हम आस्तिकों का ही हुआ !

यह सत्य किसी से छिपा नहीं है कि वैश्विक स्तर पर भारतीय ज्ञानविज्ञान को  विकसित कर अपने नाम से  अंकित कराने का विदेशी षडयन्त्र  वर्षों से चला आता रहा है ।

गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त, डीएनए विज्ञान , परमाणु अवधारणा, विमान विद्या ,  खगोलीय विज्ञान , चिकित्सा विज्ञान आदि जितनी भी  वैज्ञानिक  विधाऐं आज विश्वपटल पर संस्थापित हैं , उन सबका मूल बीज हमारे वेदों   से, हमारे  आस्तिक आचार्यों से   ही विश्वविख्यात  शोधार्थियों ने प्राप्त किया है ।

भूतकाल  में जो कुछ घटित हुआ है  , वर्तमान् में जो घटित हो रहा है तथा भविष्य में भी जो घटित होगा , वह  सब हमारे     वेद  से    प्रसिद्ध है ।

भूतं भव्यं भविष्यञ्च सर्वं वेदात् प्रसिद्ध्यति ।।

वस्तुतः  यह प्रश्न तो  हमें आपसे  पूछना चाहिये  कि तुम यदि धार्मिक नहीं हो , आस्तिक नहीं हो  तो  तुम ये सब संसाधन क्यों चलाते हो ?

।। जय श्री राम  ।।

शर्मा, वर्मा आदि का प्रमाण

#दास शब्द की मौलिकता -

वैदिक  शास्त्रों   में शर्मा , वर्मा , गुप्ता और दास , ये चार उपनाम क्रमशः ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य व शूद्र से सम्बद्ध माने गये हैं !

शास्त्र  कहते  हैं  - 

ब्राह्मण का  शर्मा  शब्द से  युक्त , क्षत्रिय का  रक्षा  शब्द से युक्त , वैश्य का  पुष्टि  शब्द से युक्त और  शूद्र  का  'दास'  शब्द  से  युक्त  उपनाम रखना  चाहिए -

शर्मवद् ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम् ।। (मनुस्मृतिः २/३२ )

इस श्लोक की टीका  में  मन्वर्थमुक्तावलीकार  आचार्य श्री  कुल्लूक भट्ट स्पष्ट  उदाहरण  देते  हुए  कहते  हैं  -

//////////उदाहरणानि  तु  -  शुभशर्मा , बलवर्मा , वसुभूतिः  दीनदास इति ।  तथा  च  -
शर्म देवश्च विप्रस्य वर्म त्राता च भूभुजः ।
भूतिदत्तश्च वैश्यस्य  #दासः_शूद्रस्य_कारयेत् ।। /////////////

और  फ़िर्  विष्णुपुराण  का  प्रमाण  अवतरित  करते  हुए  आचार्य  श्री  कुल्लूक भट्ट कहते हैं -

////////विष्णुपुराणेsप्युक्तम् -

शर्मवद्  ब्राह्मणस्योक्तं  वर्मेति क्षत्रसंयुतम् ।
#गुप्तदासात्मकं_नाम_प्रशस्तं_वैश्यशूद्रयोः ।। (विष्णुपुराणम् ३।१०।०९ ) //////

ये तो हुई  #दास#  शब्द  पर  पारम्परिक सनातनी वैदिक दृष्टि !

..........................इसी के साथ  भारत के सनातन हिन्दू धर्म की #दास_प्रथा पर आधुनिक कथित सामाजिक विचारकों व इतिहासकारों की दृष्टि इस वक्तव्य (पोस्ट ) में अवतरित किये गए कुछ पृष्ठों के माध्यम से अवलोकन करें ! पुस्तक : प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास  ।। लेखक - डॉ० शिवस्वरूप सहाय ।।

।। जय श्री राम ।।

ज्ञ वर्ण का उच्चारण

'ज्ञ' वर्ण के उच्चारण पर शास्त्रीय दृष्टि- संस्कृत भाषा मेँ उच्चारण की शुद्धता का अत्यधिक महत्त्व है। शिक्षा व व्याकरण के ग्रंथोँ म...