भ्रम : - वर्ण का आधार जन्म नहीं गुण(सत, रज, तम) होता है। अपने गुणों के अनुसार ही व्यक्ति कर्म करता है और कर्म को भोगने के लिए ही वह भिन्न भिन्न योनियों में पृथ्वी पर आता है। अतः वर्ण का आधार जन्म को मानना शास्त्र विरुद्ध है।
उत्तर : - गुणों के अनुसार व्यक्ति कर्म करता है , ये अधूरा सत्य है , पूरा सत्य तो ये है कि उन्हीं सत्त्व, रज, तम संज्ञक गुणों की साम्यावस्था प्रकृति कहलाती है, उस त्रिगुणात्मिका प्रकृति से ही ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र के स्थूल, सूक्ष्म और कारण देह का निर्माण होता है, और ये निर्माण ईश्वर की अध्यक्षतामें ही होता है - मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ० सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ० इत्यादि ।।
आप कभी सांख्यशास्त्रवेत्ता प्रामाणिक गुरुजनों के चरणचञ्चरीक होकर बैठा कीजिये । जय श्री राम ।।
अन्तःकरण के जिस विशेष मलादि दोष अथवा दोषों का संशोधन होना चाहिए, केवल तत्-तत् संशोधन के अनुसार ही ये व्यवस्था निर्धारित होगा । अन्य व्यवस्था उसके लिए न केवल निष्फल हैं, अपितु उससे प्रतिकूल प्रभाव भी होना संभव हैं, जैसे मानो बिना रोग निर्णय किये औषध सेवन करना । अतः आर्यशास्त्र के अनुसार ईश्वर के अनुग्रह से व्यक्तिविशेष की आध्यात्मिक विकास के लिए उपयुक्त धार्मिक प्रशिक्षण_का_निर्णय_करने_का_गुरुदायित्व से मुक्त कर दिया गया हैं । बस उन ईश्वर-निर्धारित नियमों का पालन करना चाहिए ।
इसी लिए जन्मना वर्णव्यवस्था ही एकमात्र उपाय हैं क्योंकि अगणित पूर्वजन्मों के संस्कार हैं चित्त में , अतः कौनसी व्यवस्था चित्तशुद्धि में सहायक होगी और कौनसी नहीं - यह एकमात्र सर्वज्ञ ईश्वर ही निर्धारण कर सकते हैं , वही तदनुरूप ब्राह्मणादि योनि में प्रेरण करते हैं ताकि उस योनि में पालनीय स्वधर्म उनका चित्तशुद्धि द्वारा अध्यात्मिक विकाश में सहायक होगा |