सीधी बात :- नो बकवास।
वर्ण देहाश्रित है। देह जन्माश्रित है।
वर्ण कर्माश्रित नहीं है क्योंकि कर्म देह की अपेक्षा चिरस्थाई नहीं। वर्ण भौतिक अस्तित्व का परिचायक है और कर्म का आधार। इसीलिए कर्म वर्णाश्रित है, न कि वर्ण कर्माश्रित। कर्म बदलने से यदि वर्ण बदलेगा तो पूजा कराने वाला ब्राह्मण यदि धर्मरक्षा के लिए शस्त्र उठाये तो उसकी क्षत्रिय संज्ञा हो जाती, तो उसे अपनी पत्नी से ही ब्राह्मणीगमन का पाप लग जाता। कर्म वर्ण के ऊपर आश्रित है इसीलिए द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर का कर्म उनके वर्ण पर प्रभाव न डाल सका।
पहले वर्ण मिलता है, तब उसके अनुरूप कर्म करने का अधिकार।
कोई भी कर्म करके उसके अनुरूप वर्ण चयन करने का अधिकार नहीं है।
उदाहरण :- पहले व्यक्ति आरबीआई का गवर्नर बनेगा फिर नोट छापेगा। पहले पद तब अधिकार। कोई भी व्यक्ति नोट छाप कर ये नहीं कह सकता है कि चूंकि मैं आरबीआई के गवर्नर का काम कर रहा हूँ तो मुझे वही पद दे दो। इसी प्रकार पूर्वजन्म की योग्यता के आधार पर इस जन्म का वर्ण मिलता है, फिर उसके अनुरूप कर्म करने का अधिकार। कर्म चुनने की स्वतंत्रता किसी को भी नहीं है। यदि ऐसा होता तो भिक्षाटन करने (ब्रह्मवृत्ति) के लिए उत्सुक अर्जुन को भगवान नहीं रोकते।
इज्याध्ययनदानानि विहितानि द्विजन्मनाम्।
जन्मकर्मावदातानां क्रियाश्चाश्रमचोदिताः॥
( श्रीमद्भागवत 7-11-13)
कुछ लोग सूत जी का उदाहरण देते हैं। सूत जी अयोनिज हैं। पृथु जी के यज्ञ में बृहस्पति और इंद्र जी का भाग मिल जाने से यज्ञ कुण्ड से सूत जी की उत्पत्ति हुई।
सूत जी ब्राह्मण ही हैं, सूत उनकी संज्ञा है, न कि सूत जाति। पद्मपुराण और वायुपुराण में उनके प्रादुर्भाव की कथा है।अग्निकुण्डसमुद्भूत: सूतो विमलमानसः। लेकिन उनका पालन पोषण सन्तानहीन सूत परिवार ने किया अतः वे भी उसी से पुकारे गए। जैसे राजा उपरिचर तथा अद्रिका अप्सरा की कन्या सत्यवती तथा ब्राह्मण शक्तिपुत्र पराशर के सहयोग से उत्पन्न व्यास जी ब्राह्मण थे। कैवर्त के द्वारा लालन पालन होने से सत्यवती दाशकन्या नहीं बन गयी। ऋषि कण्व के द्वारा पालन पोषण करने मात्र से शकुंतला ब्राह्मणी नहीं बन गयी।
जैसे सूत रथी के रथ का कुशलता से संचालन करके उसके मार्ग को प्रशस्त करता है, जैसे गुरु शिष्य को मार्गदर्शन देकर उसका मार्ग प्रशस्त करता है, वैसे ही सूत जी ने मार्गदर्शन के माध्यम से ऋषियों का कल्याण किया, इसीलिए उन्हें सूत कहा गया।
वैसे कर्म देखें तो द्रोणाचार्य ने जीवन भर शस्त्र की ही कमाई खाई। लेकिन उन्हें कभी भी कहीं भी क्षत्रिय नहीं कहा गया। विदुर जी ने जीवन भर शास्त्रोपदेश ही किया लेकिन उन्हें किसी ने कभी भी ब्राह्मण नहीं कहा। कृष्ण जी ने अनेकों बार अर्जुन का रथ संचालन किया लेकिन उन्हें कभी किसी ने सूत नहीं कहा।
महर्षि रोमहर्षण जी को ऋषियों ने अपना सूत यानि मार्ग दर्शक स्वीकार किया और बाद मंे इन्हीं को सूत जी महाराज कहा गया, अल्पज्ञानी लोग सूत जी को सूत जाति से सम्बन्धित कर देते हैं, परन्तु सूत जी का जन्म अग्निकुण्ड से ऋषियों द्वारा यज्ञ के दौरान हुआ, जिनके दर्शन से ऋषियों के रोंगटे खड़े हो गये क्योंकि इनके ललाट पर इतना तेज था। इनका प्रथम नाम रोमहर्षण हुआ । महर्षि श्री सूत जी साक्षात् ज्ञान स्वरूप थे तभी तो शौनकादि ऋषियों ने इन्हें अज्ञानान्धकार का नाश करने वाला सूर्य कहा।
अज्ञानध्वान्तविध्वंसकोटिसूर्यसमप्रभ। सूताख्याहि कथासारं मम कर्ण रसायनम् ।।
कबीर दास ने कहा :- गुरु कुम्हार सिस कुम्भ है ...
तो इसका अर्थ यह नहीं कि सभी गुरु कुम्हार हैं, या सभी कुम्हार गुरु हैं।अपितु यह है कि जैसे अपरिपक्व मिट्टी से कुम्हार अपने मार्गदर्शन से, कभी मार कर, कभी सहलाकर परिपक्व घड़ा बनाता है, वैसे ही अपरिपक्व शिष्य को अपने मार्गदर्शन से गुरु परिपक्व बनाता है। इसीलिए गुरु का कुम्हार के समान होना बताया गया है। जैसे रोमहर्षण जी का सूत के समान वर्णन मिलता है।
श्रीभागवतानंद गुरु
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