Tuesday, 27 February 2018

ब्राह्मण अग्नि है

अग्निर्वै ब्राह्मणः!

अग्निर्मुखं तु देवानां!
मुखं यः सर्वदेवानां हव्यभुक् कव्यभुक् तथा!!
ब्राह्मणो अस्य मुखमासीत्!
द्विविधः ब्राह्मणत्वं अग्निर्मिव स्वकीयं कृत्रिमं वा! सूर्यादिषु स्वकीयं, अरणिर्मध्ये कृत्रिमं च!
ब्राह्मण हव्य और कव्य क्रिया का प्रतिनिधि विधि निषेध का प्रेरक -प्रयोक्ता अग्नि है! यह अग्नि जन्मना स्वभावतः है जैसे सूर्य में अग्नि जन्म से ही है, तद्वत् ही वशिष्ठादि में स्वभावतः जन्म से ही ब्राह्मणत्व है! पुनः यह अग्नि कृत्रिम भी (द्विज -दो प्रकार या दो बार या संस्कार रूप दूसरा जन्म होने ,जन्म लेने से) है अरणियों में मंथ क्रिया से प्रकट होने के समान विश्वामित्रादि में प्रकट अपवादस्वरुप प्रकट ब्राह्मणत्व के समान!अस्तु इस विषय में विद्वानों में  शंका नहीं होनी चाहिए !
बाल्मीकि रामायण में ब्राह्मणादर्श पूर्ण जितेन्द्रियता को कहा गया है, जो भगवान वशिष्ठ जी में पूर्णतः सिद्ध है!
विश्वामित्र जी का जितेन्द्रियत्व अर्जित होने एवं पुनः ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी द्वारा अनुमोदित होने से परम्परानुसारी हो गया, अतः वह सनातन मर्यादा के अनुकूल ही (परम्परा से प्राप्त होने से) है! जब तक उसका वशिष्ठ जी द्वारा अनुमोदन नहीं हुआ था तबतक वे ब्रह्मर्षि रूप में देवताओं, मुनियों द्वारा भी मान्य नहीं किये गये थे!
भगवान परशुराम जी भी भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण ,एवं भविष्य में भगवान श्रीकल्कि जी को अपने समस्त शस्त्रास्त्रों का त्यागकर कल्पांत में पूर्णतः ब्रह्मर्षिपद पर प्रतिष्ठित हो जाएँगे! इति!

"वेद का स्वरूप एवं प्रामाण्य"
-श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
एवं
वाल्मीकि रामायण
से स्मृति पूर्वक साभार!
श्रीगुरूचरणकमलेभ्यो नमः!
सनातन धर्मो विजयते!!
हर हर हर महादेव!!!

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