प्रश्न: - वर्णाश्रम-धर्म यदि ईश्वरद्वारा संस्थापित है,संगोपित हैं , संरक्षित हैं फिर वर्तमान समय में समग्र सृष्टी छोडिए..केवल भरतखंड में ही वर्णाश्रम-धर्म का पालन क्यों नही हो रहा हैं? जन्मजात ब्राह्मण पशुवत् व्यवहार कर रहे हैं, क्षत्रिय पलायन कर रहे हैं एवं क्षुद्र वेद बांच रहे हैं.. अगर जाति-विहीतकर्म कर्म-फल ही हैं तो जिव उसे भोगने कैसे बच जा रहा हैं? आज काफी सारे नियोग जैसे प्रबंधक, निषेधन अधिकारी, वैज्ञानिक आदि निर्माण हो चुके हैं जिससे समाज-कार्यव्यवस्था और-अधिक क्लिष्ट हो चुकी हैं... जो मोटे-तोर पर ४-वर्ण में बाटना असंभवसा जान पडता हैं... फिर इन संक्रमित कार्यो को ४-वर्ण में कैसे बाटेंगे?
आप मेधावी हैं.. आपसे उपरोक्त प्रश्नों के उत्तरों की सविनय प्रतिक्षा रहेगी...
उत्तर : -
यह बात सत्य है कि अधिकांशतः देखने में यह आ रहा है कि कथित वर्णाश्रमावलम्बियों के हीयमानविवेकविज्ञानहेतुवशात् वर्तमान् में वर्णाश्रम व्यवस्था अपने आदर्श रूप से अत्यन्त क्षीण हो गयी दीखती है , किन्तु इस यथार्थता को आप अनदेखा नहीं कर सकते कि वर्णाश्रम व्यवस्था कहीं है ही नहीं ।
विपरीत परिस्थितियों से धर्म का बाह्य स्वरूप भले ही परिवर्तित दीखता है , किन्तु आत्मा फिर भी अपने अपरिवर्तनीय स्वरूप में विद्यमान् रहती है ।
आज भी ऐसे ब्राह्मण आदि है , जो काल की उद्भासित इस विषम परिस्थिति में भी यथोचित् स्वधर्म का पालन कर रहे हैं ।
यह सनातन सिद्धान्त ही है कि
धर्म की ग्लानि ही होती है नाश नहीं होता है । अतः धर्म की ग्लानि होना -ये कोई भी अप्राकृतिक घटना नहीं है ।
संख्या की जहॉ तक बात है , ईश्वर के लिये शुद्ध वर्णों के संख्या बल का औचित्य नहीं, वरन् अस्तित्व का औचित्य है । सृष्टि के आरम्भ में सृष्टि रचना के लिये मात्र मरीच्यादि सात ऋषि ही तो विधाता द्वारा प्रकट किये गये थे और प्रलय रूप सृष्ट्यन्त में भी गिने चुने ऋषि ही तो रह जाते हैं ।
इसी प्रकार ध्यातव्य है कि पाण्डव पॉच ही थे , कौरव सौ थे, परन्तु ईश्वर (कृष्ण) के लिये पाण्डव पक्ष को चिरस्थाई रखते हुए कौरव पक्ष को समाप्त कर देना कोई समस्या नहीं थी ।
एक ओर श्री भगवान् की नारायणी सेना थी , दूसरी ओर वे स्वयं खड़े थे, वो भी शस्त्रास्त्रादिविहीन ।
अल्पज्ञ, एकदेशीय और अल्पसामर्थ्य वाले होने से
क्लिष्टता हम और आप देहधारियों ही दृष्टि में जान पड़ती है , ईश्वर की दृष्टि में यह क्लिष्टता नहीं होती , अन्यथा यह उसके सर्वनियन्तृत्व, सर्वेश्वरत्वादि गुणों वाले कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं सर्वथासमर्थ ईश्वरकी परम सामर्थ्यशक्ति पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा करना होगा !
धर्म का पालन करने वाला , ब्रह्मवेत्ता ,
एक भी कुलीन शुद्ध ब्राह्मण जब तक इस धरा धाम पर विराजमान् है, तब तक सनातनधर्म स्वयं साक्षात् इस धरा पर विराजित है,जब तक ईश्वर. स्वयं है, तब तक धर्म भी पूर्णतः सनाथ और अस्तित्ववान् है । इस सत्य को भलीभॉति जानने वाले ईश्वर के लिये म्लेच्छों अथवा अनाचारियों का संख्याधिक्य कोई महत्व नहीं रखता । जैसे प्रदीप्त दावानल में असंख्य पतंगे स्वयं ही आहूत होते हैं ,उसी प्रकार महाकाल परमेश्वर पृथ्वी में उत्पन्न समस्त असुरों को इसी पृथ्वी पर ही तिरछा कर देते हैं ।
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