प्रश्न : - आचार्य जी , हमने ऐसा सुना है कि भारतभूमि पर ही कर्मकाण्ड फलित होते हैं अन्यत्र नहीं ,अतः वर्णाश्रम यहीं मिलता है , भारत भूमि ऐसी क्या विशेषता है ?
उत्तर :- कर्मभूमि होने से , कर्मभूमि और भोगभूमि - इस प्रकार भूमि विभेद होता है ।
प्रश्न : - तो भगवान पर पक्षपात सिद्ध नहीं होता , कि दुर्लभ मानव देह देकर भी सारी भूमि को कर्मभूमि न बनाकर बस एक स्थान को बनाया , तब बाकी लोग तो पशुवत आहार, निद्रादि में ही रहेंगे , भगवत्परायण बुद्धि नहीं होगी उनकी |
उत्तर : - तत् तत् प्राणियों के तदुपार्जितपाप- पुण्यफल रूप भोगों के पूर्त्यर्थ जिस भू- भागविशेष को विधाताने सृष्टकियाहै , वह भोग भूमि है । वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात् तथा हि दर्शयति ब्रह्मसूत्र २।१।३३
यह आक्षेप तो वहॉ भी प्रसक्त हो सकता है, जहॉ पर दुर्लभ मनुष्य देह प्रदान करने के उपरान्त भी ईश्वर सभी मनुष्यों को स्वस्थ पूर्णांग देह , यथोचित अन्न , वस्त्रादि प्रदान नहीं करता । यह आक्षेप वहॉ भी प्रसक्त हो सकता है कि दुर्लभ मनुष्य देह प्रदान करकेभी ईश्वर सभी को विशुद्ध ब्राह्मण देह नहीं प्रदान करता | असूर्या नामते लोका०, आसुरीं योनिमापन्ना ० इस गीताश्लोक पर मन्थन करें , आप पायेंगे कि ईश्वर प्राणी के कर्मानुसार उसे आसुरी योनि और लोक में फेंकता है | जैसे एक वैद्य सभीरोगियों को मीठी औषधि नहीं देता, वरन् किसी को कड़वी , किसी कोमीठी देता है, किसी की तोशल्य क्रिया ही कर देता है , इस कृत्य में उसका कोई भी रागद्वेषादिन होकर सर्वहितभाव ही होता है , इसी प्रकार ईश्वरीय कृत्यको भी समझना चाहिये । भगवान् ने इस धरा को भोग और योग दोनों से विशिष्ट करके रचा है । जिससे कि भोगी और योगी -दोनों अपने मनोरथ पूर्ण कर सकें । जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार ।।
विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु सन्त रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं ।.
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