Thursday, 25 July 2019

दिग्विजय क्या है ?

प्रायः सभी प्रमुख  धर्माचार्य एक शब्द प्रयोग करते हैं - #दिग्विजय।।

भारत के चारों ओर शास्त्रार्थपूर्वक  धर्म संस्थापना  के कार्य को करने वाले  अपने आचार्य के लिये कहते हैं कि हमारे फलाने आचार्य ने दिग्विजय की ।

वैसे कुछ   तथाकथित इस्कॉन  वाले  तो  सबसे अलग हैं , वे ये कहते हैं कि प्रभुपाद ने विश्व का१४ बार भ्रमण किया , सच्चे दिग्विजेता तो हमारे प्रभुपाद रहे । मानो जैसे कि  इस एशिया यूरोप वाले भूमंडल के अतिरिक्त  कहीं अन्य कहीं कोई सृष्टि हो ही नहीं ।  वैसे //अन्य लोकों की सुगम यात्रा // नामक ग्रन्थ इन्हीं इस्कॉन वालों  ने छापा है , अब जरा  स्वयं  विचार कीजिये  कि कितनी यात्रा प्रभुपाद दिग्विजेता बनने हेतु किये ।

कतिपय आर्य समाज वाले भी इसी भ्रम में डूब गये और कृण्वन्तो विश्वमार्यम् का नारा लगाने वालों द्वारा आनन फानन में    दयानन्द दिग्विजय लिख डाला गया , उनको यही पता नहीं कि   उनके  स्वामी दयानन्द ने दिशाओं की कितनी सीमा तक की यात्रा कर धर्म संस्थापना की  । न जाने किस मुंह से वे  दिग्विजय शब्द प्रयोग कर जाते हैं ।

आप विचार कीजिये ,  वैसे दिशाओं का तो अन्त नहीं है , फिर भारत में ही भ्रमण करके दिग्विजय क्यों  कह दिया जाता है ?   दिशाऐं विजय करना क्या है ?

क्योंकि सत्य ये है कि भारत  की सीमा में ही दिशाओं का अन्त जाता है ,  यही भारत का महत्त्व है ।    अन्त हो गया  का तात्पर्य है कि धर्म-कर्मभूमि भारत में सब पूर्णता को प्राप्त हो चुका है ,   वेदभाष्य के माध्यम से सर्वप्रथम श्री आद्य शंकराचार्य भगवान् ने इस आध्यात्मिक रहस्य को  अभिव्यक्त किया , (जिसे  सबने  माना , जिन्होंने नहीं माना , वे भी किसी न किसी रूप में  नाक रगड़ कर मान ही गये, क्योंकि स्वयं के आचार्य महानुभाव को  दिग्विजेता घोषित करने  से  प्रायः कोई पीछे नहीं रहे   ) इसलिये भारत स्वयं में  परिपूर्ण है ।

।। श्री राम जय राम जय जय राम ।।

ज्ञ वर्ण का उच्चारण

स्वघोषित महर्षि (डायनन्द)  द्वारा स्थापित समाज के वैदिक ज्याणीयो के ज्यान का खंडन इस पोस्ट में 👇👇
【एक पौराणिक द्वारा】

'ज्ञ' वर्ण के उच्चारण पर शास्त्रीय दृष्टि-

संस्कृत भाषा मेँ उच्चारण की शुद्धता का अत्यधिक महत्त्व है। शिक्षा व व्याकरण के ग्रंथोँ मेँ प्रत्येक वर्ण के उच्चारण स्थान और ध्वनि परिवर्तन के आगमलोपादि नियमोँ की विस्तार से चर्चा है। फिर भी "ज्ञ" के उच्चारण पर समाज मेँ बडी भ्रांति है। और जब सनातन वैदिक हिँदू धर्म की पीठ पर छुरा घोँपने वाले कुलवर्णादिविहीन आर्यसमाजी उपद्रवियोँ को तथाकथित धर्माचार्योँ की अनदेखी से खुली छूट मिली हो तो इस भ्रांति का व्यापक होना नैसर्गिक ही है!

ज्+ञ्=ज्ञ

कारणः-'ज्' चवर्ग का तृतीय वर्ण है और 'ञ्' चवर्ग का ही पंचम वर्ण है।
जब भी 'ज्' वर्ण के तुरन्त बाद 'ञ्' वर्ण आता है तो 'अज्झीनं व्यञ्जनं परेण संयोज्यम्' इस महाभाष्यवचन के अनुसार 'ज् +ञ'[ज्ञ] इस रुप मेँ संयुक्त होकर 'ज्य्ञ्' ऐसी ध्वनि उच्चारित होनी चाहिये।।

किँतु ये भी इन हिँदू धर्म के दीमकोँ का एक भ्रामक मत है।।

प्रिय मित्रोँ!

"ज्ञ"वर्ण का यथार्थ तथा शिक्षाव्याकरणसम्मत शास्त्रोक्त उच्चारण 'ग्ञ्' ही है। जिसे हम सभी परंपरावादी लोग सदा से ही "लोक" व्यवहार करते आये हैँ।

कारणः- तैत्तिरीय प्रातिशाख्य 2/21/12 का नियम क्या कहता है-
स्पर्शादनुत्तमादुत्तमपराद् आनुपूर्व्यान्नासिक्याः।।
इसका अर्थ है- अनुत्तम, स्पर्श वर्ण के तुरन्त बाद यदि उत्तम स्पर्श वर्ण आता है तो दोनोँ के मध्य मेँ एक नासिक्यवर्ण का आगम होता है। यही नासिक्यवर्ण शिक्षा तथा व्याकरण के ग्रंथोँ मेँ यम के नाम से प्रसिद्ध है। 'तान्यमानेके' (तै॰प्रा॰2/21/13) इस नासिक्य वर्ण को ही कुछ आचार्य 'यम' कहते हैँ। प्रसिद्ध शिक्षाग्रन्थ 'नारदीयशिक्षा' मेँ भी यम का उल्लेख है।अनन्त्यश्च भवेत्पूर्वो ह्यन्तश्च परतो यदि। तत्र मध्ये यमस्तिष्ठेत्सवर्णः पूर्ववर्णयोः।। औदव्रजि के 'ऋक्तंत्रव्याकरण' नामक ग्रंथ मेँ भी 'यम' का स्पष्ट उल्लेख है।'अनन्त्यासंयोगे मध्ये यमः पूर्वस्य गुणः' अर्थात् वर्ग के शुरुआती चार वर्णो के बाद यदि वर्ग का पाँचवाँ वर्ण आता है तो दोनो के बीच 'यम' का आगम होता है,जो उस पहले अनन्तिम-वर्ण के समान होता है।
प्रातिशाख्य के आधार पर यम को परिभाषित करते हुए सरल शब्दों मेँ यही बात भट्टोजी दीक्षित भी लिखते हैँ-
"वर्गेष्वाद्यानां चतुर्णां पंचमे परे मध्य यमो नाम पूर्व सदृशो वर्णः प्रातिशाख्ये प्रसिद्धः" -सि॰कौ॰12/ (8/2/1सूत्र पर)
भट्टोजी दीक्षित यम का उदाहरण देते हैँ। पलिक्क्नी 'चख्खनतुः' अग्ग्निः 'घ्घ्नन्ति'।
यहाँ प्रथम उदाहरण मेँ क् वर्ण के बाद न् वर्ण आने पर बीच मेँ क् का सदृश यम कँ(अर्द्ध) का आगम हुआ है। दूसरे उदाहरण मेँ खँ कार तथैव गँ कार यम, घँ कार यम का आगम हुआ है।

अतः स्पष्ट है कि यदि अनुनासिक स्पर्श वर्ण के तुरंत बाद अनुनासिक स्पर्श वर्ण आता है तो उनके मध्य मेँ अनुनासिक स्पर्श वर्ण के सदृश यम का आगम होता है।
प्रकृत स्थल मेँ-
ज् + ञ्
इस अवस्था मेँ भी उक्त नियम के अनुसार यम का आगम होगा।
किस अनुनासिक वर्ण के साथ कौन से यम का आगम होगा।विस्तारभय से सार रुप दर्शा रहे हैँ। तालिक देखेँ-

स्पर्श अनुनासिक वर्ण यम
क् च् ट् त् प् कँ्‌
ख् छ् ठ् थ् फ् खँ्‌
ग् ज् ड् द् ब् गँ्‌
घ् झ् ढ् ध् भ् घँ्‌

यहाँ यह बात ध्यातव्य है कि यम के आगम मेँ जो'पूर्वसदृश' पद प्रयुक्त हुआ है , उसका आशय वर्ग के अन्तर्गत संख्याक्रमत्वरुप सादृश्य से है सवर्णरुप सादृश्य से नहीँ। ये बात उव्वट और माहिषेय के भाष्यवचनोँ से भी पूर्णतया स्पष्ट है ।जिसे भी हम विस्तारभय से छोड रहे हैँ।

अस्तु हम पुनः प्रक्रिया पर आते हैँ-

ज् ञ् इस अवस्था मेँ तालिका के अनुसार 'ग्'यम का आगम होगा-
ज् ग् ञ्

ऐसी स्थिति प्राप्त होने पर चोःकु [अष्टाध्यायी सूत्र 8/2/30]
सूत्र प्रवृत्त होता है।
'ज्' चवर्ग का वर्ण है और 'ग' झल् प्रत्याहार मेँ सम्मिलित है, अतः इस सूत्र से 'ज्' को कवर्ग का यथासंख्य 'ग्' आदेश हो जायेगा। तब वर्णोँ की स्थिति होगी-
ग् ग् ञ्
इस प्रकार हम देखते हैँ कि ज् का संयुक्त रुप से 'ज्ञ' उच्चारण की प्रक्रिया मेँ उपर्युक्त विधि से 'ग् ग् ञ्' इस रुप से उच्चारण होता है। यहाँ जब ज् रुप ही शेष नहीँ रहा तो 'ज् ञ्' इस ध्वनिरुप मेँ इसका उच्चारण कैसे हो सकता है? अतः 'ज्ञ' का सही एवं शिक्षाव्याकरणशास्त्रसम्मत उच्चारण 'ग्ञ्' ही है।।

श्रीमान शंकर सन्देश जी द्वारा ।
जय श्री राम !!!

Saturday, 13 July 2019

क्या भक्ति पथ में ज्ञान और गायत्री की जरुरत नहीं है?

#कथन - भक्ति पथ अपने आप मैं परिपूर्ण है , वहॉ ना यज्ञ ना गायत्री की आवश्यक्ता रह जाती है ।

///Bhakti path apne ap mai paripurn hai vaha na yagya na gyatri ki avashyakta rah jati hai///
(एक पाठक का वक्तव्य)

#स्पष्टीकरण -

  (१) यज्ञविमुख के लिये तो यह लोक ही भी नहीं है , कहॉ तो इस लोक से अन्य -

नायं लोकोsस्त्ययज्ञस्य कुतो़sन्यः कुरुसत्तम।।
[श्रीमद्भगवद्गीता  ४।३१]

(२) यज्ञ, दान और तपरुपी कर्म त्याग करने योग्य नहीं हैं अपितु ये तो अवश्य करने चाहिए; क्योंकि यज्ञ, दान, और तप - ये तीनों कर्म बुद्धिमान् मनुष्य को पावन करने वाले हैं -

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ।।

[  श्रीमद्भगवद्गीता १८।५  ]

(३) भगवत्कृपा तभी हो सकती है जब हम भगवान की आज्ञा का पालन करें; और शास्त्र ही भगवान की आज्ञा है-

श्रुतिस्मृती ममैवाज्ञे यस्त उल्लङ्घ्य वर्तते।
आज्ञोच्छेदी मम द्रोही मद्भक्तोsपि न वैष्णवः।।

अतः सच्चा भगवत्प्रेमी वही है जो शास्त्र का उल्लंघन नहीं करता। वैष्णवधर्म का लक्षण करते हुए कहा है-

न चलति निजवर्णधर्मतो सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे ।

वस्तुतः भगवत्कृपा तो सर्वत्र समान रूप से विद्यमान है । उसे केवल अभिव्यक्त करना है और वह अभिव्यक्ति भगवदाज्ञा-पालन से ही हो सकती है ।

[ भक्तिसुधा , श्री करपात्री जी महाराज  ]

।। जय श्री राम ।।

Thursday, 11 July 2019

विवाह में चतुर्थी कर्म का महत्व

*विवाह में चतुर्थीकर्म की आवश्यकता*

विवाहके अनन्तर चतुर्थी-होम कर्म आवश्यक कर्म बताया गया है, जो विवाहसंस्कार का महत्त्वपूर्ण अंग है। चतुर्थीकर्म के प्रयोजनमें बताया गया है कि *कन्या के देहमें चौरासी दोष होते हैं*, उन दोषों की  निवृत्तिके लिये प्रायश्चित्तस्वरूप चतुर्थीकर्म किया जाता है-
*चतुरशीति दोषाणि कन्यादेहे तु यानि वै।*
*प्रायश्चित्तकरं तेषां चतुर्थी कर्म ह्याचरेत्॥ (मार्कण्डेय)*

*चतुर्थीकर्म से सोम, गन्धर्व तथा अग्निद्वारा कन्याभुक्त दोष का परिहार हो जाता है।* क्योंकि पहले कन्या का भोग सोम गंधर्व और अग्नि करते हैं । अतः हारीत ऋषि ने बताया है कि जो कन्या चतुर्थी- कर्म करती है, वह सदा सुखी रहती है, धनधान्य की वृद्धि करने वाली होती है और पुत्र-पौत्र की समृद्धि देनेवाली होती है। शास्त्र में यह भी बताया गया है कि- *चतुर्थीकर्म न करनेसे वन्ध्यात्व और वैधव्य दोष आता है।*  चतुर्थीकर्म से पूर्व उसका पूर्ण भार्यात्व भी नहीं होता है। कहा भी गया है कि- *जबतक विवाह नहीं होता है, उसकी कन्या संज्ञा होती है, कन्यादानके अनन्तर वह वधू कहलाती है, पाणिग्रहण होनेपर पत्नी होती है और चतुर्थीकर्म होनेपर भार्या कहलाती है-*

*अप्रदानात् भवेत्कन्या प्रदानानन्तरं वधूः।।*
*पाणिग्रहे तु पत्नी स्याद् भार्या चातुर्थिकर्मणि॥*

विवाह निवृत्त होने पर चौथे दिन रात्रिमें पतिके देह, गोत्र और सूतक में स्त्री की एकता हो जाती है-
*विवाहे चैव निवृत्ते चतुर्थेऽहनि रात्रिषु।*
*एकत्वमागता भर्तुः पिण्डे गोत्रे च सूतके॥*

चतुर्थी होमके मन्त्रोंसे त्वचा, मांस, हृदय और इन्द्रियों के द्वारा पत्नी का पतिसे संयोग होता है, इसी से वह पतिगोत्रा हो जाती है-
*चतुर्थीहोममन्त्रेण त्वङ्मांसहृदयेन्द्रियैः।।*
*भर्त्रा संयुज्यते पत्नी तद्गोत्रा तेन सा भवेत्॥ (बृहस्पति)*

अतः विवाह दिनसे चौथे दिन रात्रि में अर्धरात्रि बीत जानेपर यह कर्म करना चाहिये अथवा अशक्त होनेपर अपकर्षण करके विवाह के अनन्तर उसी दिन रात्रिमें उसी विवाहाग्निमें विना कुशकण्डिका किये यह कर्म किया जा सकता है।

पूर्णपात्र का रहस्य

#पूर्णपात्र_रहस्य

यज्ञ में ब्रह्माजी का पद सबसे वरिष्ठ होता है ‌ ।यह सृष्टि भी यज्ञस्वरूप ही है।
#यज्ञेन_यज्ञमयजन्तदेवा:......
यह सृष्टि अन्नब्रह्म से जीवन धारण करती है। अतः यज्ञ में ब्रह्माजी के निमित्त पूर्णपात्र प्रदान करने का विधान है और #पूर्णपात्र से अभिप्राय पूर्ण ब्रह्म परमात्मा को ही संतुष्ट करना है पूर्ण से पूर्ण लेकर भी जो पूर्ण है।
इस पूर्णपात्र में 256 मुट्ठी चावल भरने का विधान है।

256 ही क्यों?

इसका उत्तर भगवती पराचिति के निर्देशानुसार बता रहे हैं।
यह  चरक  ऋषि के अनुसार एक #कुडव का बोधक है।
प्राचीन परिमाण इस प्रकार समझें---

कर्ष = १ पल; २ पल = १ प्रसृति

२ प्रसृति = १ कुड़व; ४ कुड़व = १ प्रस्थ

४ प्रस्थ = १ आढ़क; ४ आढ़क = १ द्रोण

चरक की मानपद्धति में द्रोणभार १०२४ तोले का होता है।
चरक का कुड़व २५६ तोले का है।

अभिप्राय यह है कि 256 मुट्ठी चावल भरने का अभिप्राय 256 तोला चावल भरने से है।

256 चंद्रमा की सोलह कलाओं के माध्यम से पूर्णता का बोधक है।तथा भगवती षोडशी की समस्त तिथियों की नित्याओं सहित समस्त देवताओं को 16  कला स्वरूप मानकर उनको 16 उपचार या दान स्वरूप अक्षत समर्पण करके 16×16=256 को समर्थित किया गया है।

षोडश परिमाणा:
षोड़शसङ्ख्यक वस्तुनि:-

#भूम्यासनं जलं वस्त्रं
प्रदीपोऽन्नं ततः परम् । ताम्बूलच्छत्रगन्धाश्च
माल्यं फलमतः परम् ।
शय्या च पादुका गावः
काञ्चनं रजतं तथा ।
दानमेतत् षोडशकं।।

“स्वर्णं रौप्यं तथा ताम्रं
कांस्यं गावो गजा हयाः ।
गृहं भूमिर्वृषो वस्त्रं
शय्या क्षेत्रमुपानहौ ।
दास्यन्नं पितृयज्ञेषु दानं षोडशकं मतम्” इति वायुपुराणोक्तेषु पितृकृत्येषु देयेषु ३ स्वर्णादिषु षोडशसु च ।
अतः ब्रह्मादिस्तम्भ  पर्यन्त समस्त सृष्टि को तृप्त करना ही यहां अभिप्राय है।

#विशेष ज्ञापन

आज का #कम्प्यूटर विज्ञान भी इस परम्परा को मानने के लिए बाध्य है।
वह भी अपनी #हार्डडिस्क/माईक्रोचिप रूपी #पूर्णपात्र को भरने के लिए इसी अनुपात का अनुकरण करता है।

1 GB=
2 GB=
4 GB=
8 GB=
16 GB=
32 GB=कर्ष
64 GB=पल
128 GB= 1प्रसृति
256GB= 1 आढ़क
512 GB = 2 आढ़क
1024 GB = एक द्रोण
इनकी छोटी इकाईयां भी दी गई हैं।

अतः स्पष्ट है कि यदि #पूर्णपात्र को
या हार्डडिस्क को बनना/भरना है तो इसी अनुपात में बनाना होगा।और कोई चारा नहीं है आधुनिक साइंस के पास।
तभी तो कहते हैं कि संस्कृत कम्प्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा है।
     डा० कृष्ण चंद्र शास्त्री
दिल्ली १०.७.१९

Monday, 8 July 2019

वर्ण आश्रम का महत्व

जगद्गुरु भगवान् शिव ने  कहा है   कि     -

आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः ।
इदमेकं सुनिष्पन्नं  योगशास्त्रं परं मतम्  ॥

अर्थात् समस्त शास्त्रों को बारम्बार आलोडन करके तथा  पुनः पुनः  विचार करके  ये निश्चय किया है कि  उनका उपदिष्ट  योगशास्त्र ही सर्वश्रेष्ठ है ।

प्राणी   जगद्गुरु भगवान् शंकर के उपदिष्ट योगसाधना के बिना विक्षिप्त की भांति इधर उधर भागते रहते हैं ।

और  भगवान् शंकर स्वयं ये सार सिद्धान्त कहते हैं कि  उनके उपदिष्ट योगमार्ग पर चलने वाला  एक योगसाधक  यदि संसार सागर को पार करना चाहता है  तो  उसे   वर्णाश्रम धर्म का निष्काम भाव से पालन करना  चाहिये ।

शिवावतार भगवान् जगद्गुरु श्री आद्य शंकराचार्य ने अपने  अपरोक्षानुभूति  ग्रन्थ में भी  यही  वैदिक - सिद्धान्त स्थिर करते हुए कहा है -

स्ववर्णाश्रमधर्मेण तपसा हरितोषणात् ।
साधनं प्रभवेत्पुंसां वैराग्यादि-चतुष्टयम् ।।

अन्यत्र भी कहा गया है -

आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः ।
इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणः सदा ।।

अर्थात् समस्त शास्त्रों को बारम्बार आलोडन करके तथा  पुनः पुनः  विचार करके  ये निश्चय किया है कि सदैव भगवान् नारायण का  ही ध्यान बना रहे ।

तथा  अपने जीवन में उन भगवान्  नारायण के सदा ध्यान की   शास्त्रीय प्रक्रिया बताते हुए  भी शास्त्र ने यही सिद्धान्त स्थिर किया है कि  उनकी सन्तुष्टि हेतु अपने वर्णाश्रम का परिपालन करे , अन्य कुछ भी उनकी सन्तुष्टि का मार्ग नहीं है ।

स्व-वर्णाश्रमधर्मेण तपसा हरितोषणात्।
हरिराराध्यते पुंसां नान्यत्तत्तोषकारणम् ।।

अतः आप सभी लोग  आत्मकल्याणार्थ  श्री  भगवान् की प्रसन्नता हेतु अपने - अपने वर्णाश्रम धर्म का निष्काम भाव से परिपालन करें ।

वर्ण चार हैं - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ।

आश्रम भी चार हैं - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास ।

उक्त चारों वर्णों एवं चारों आश्रमों के  धर्म का सविस्तार वर्णन समस्त श्रुति -स्मृतियों आदि में सविस्तार  से प्रतिपादित हुआ है ।

।। श्री राम जय राम जय जय राम ।।

Sunday, 7 July 2019

कैसे करें साधना

कैसे करें साधना ?

श्री आद्य शंकराचार्य कहते हैं , आपका चित्त है वस्त्र ।

कर्मकाण्ड #पानी है ,  कृष्णभक्ति #क्षार (रीठा/साबुन आदि)  है ।

जैसे पानी के साथ में   क्षार (रीठा/ साबुन आदि ) लगाने से वस्त्र अच्छी तरह  चमक जाते हैं, वैसे ही  कर्मकाण्ड के साथ में कृष्ण भक्ति करने पर चित्त शुद्ध हो जाता है ।

[वसनमिव क्षारोदैर्भक्त्या प्रक्षाल्यते चेतः।। - श्री आद्य शंकराचार्य ।]

केवल पानी से जमा मैल नहीं छूट पाता, साथ में क्षार की भी आवश्यकता पड़ती है , इसीलिये श्री आद्य शंकराचार्य कहते हैं शुद्ध्यति  हि नान्तरात्मा  कृष्णपदाम्भोजभक्तिमृते ; और यदि जल  नहीं लगायेंगे तो  केवल क्षारमात्र से मैल और बढ़ने की सम्भावना हो जाती है ।

इसलिये  जैसे  पानी  और क्षार दोनों से वस्त्र अच्छी तरह स्वच्छ होता है , वैसे ही  नित्य -नैमित्तिक -प्रायश्चित्त  कर्म  और  श्रीकृष्ण भक्ति  दोनों ही आवश्यक हैं   ।  

पहले पानी से  अच्छी तरह वस्त्र  भिगाइये,   क्षार (रीठा/साबुन आदि)  लगाकर   वस्त्र को खूब अच्छी तरह रगड़िये , फिर से पानी से धो लीजिये । जैसे  वस्त्र धोया जाता है ,  वैसे  ही चित्त भी शुद्ध किया जाता है ।

[नित्यकर्म - संध्या, स्वाध्याय आदि पंच महायज्ञ
नैमित्तिक कर्म - सोलह संस्कार आदि
प्रायश्चित्त कर्म - चान्द्रायणव्रत  आदि ]

#प्रतिलिपि(कॉपी-पेस्ट) सदैव स्वागत है ।

साभार - श्री आद्यशंकराचार्य

।। श्री राम जय राम जय जय राम ।।

Saturday, 6 July 2019

स्मार्त्त कौन होतें है ?

ये कट्टर स्मार्त्त कौन होते हैं ?
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जिस ब्राह्मण के घर पर  कोई भी धार्मिक कृत्य करने से पूर्व        समस्त वैदिक स्मृतियों के वचनों पर विचार हो और   स्मृतियों के ही अनुरूप  उनके विविध वचनों के    बलाबल  का   इस प्रकार से   सारभूत निर्णय हो , कि समस्त   वैदिक स्मृतियॉ    सार्थक हो जायें ,  और न्याय-मीमांसादि शास्त्र धन्य हो जाये ,  उसे कहते हैं स्मार्त्त  ब्राह्मण  ।।

और जब एक ब्राह्मण स्मृतियों के सार सर्वस्व  को पूर्ण निष्ठा से    स्वीकार करता है, तो उसे ही हम कहते हैं कट्टर स्मार्त्त ब्राह्मण ।

  गाणपत्य गणेश को ,  शाक्त  शक्ति को, सौर सूर्य को ,  शैव शिव को  और वैष्णव  विष्णु को ही एकमात्र    सर्वोच्च देवता बताते हैं ।

जो पॉचों देवताओं को एक ही  परमेश्वर , एक ही परमेश्वर को पॉचों देवताओं के रूप में देखे,  उसे कहते हैं स्मार्त्त मतानुयायी  ।

एक ही ईश्वर अपनी जिस माया शक्ति से एक नाम  रूप वाला है, उसी माया शक्ति से  वही  दूसरे , तीसरे,   चौथे,  ...अनन्त नाम रूपों  वाला होने में सर्वथा सक्षम है ।

ऐसे  एकधा , द्विधा , त्रिधा  प्रभृत् अनन्तपर्यन्त   नाम रूपों  वाले   'नाम- रूपवान्  परमेश्वर'  में जिसकी   पूर्ण निष्ठा है, उन धन्यभाग्यवानों  को कहते हैं  कट्टर स्मार्त्त मतानुयायी  ।

परमेश्वर के विष्णु रूप में निष्ठा होने पर वही स्मार्त्त  उर्ध्वपुण्ड्रधारी वैष्णव  दीखता  है,  शिव रूप में  निष्ठा होने पर वही त्रिपुण्ड्र धारी शैव  दीखता है  , जिस देवरूप में निष्ठा करता है,  उसी देवता के अनुरूप  शास्त्रीय मर्यादा में स्वयं भी  दीखता  है  ।   अपने ईष्ट रूप के अनुरूप ही वह   पंचायतन देवताओं की उपासना करता है -

गणेश पंचायतन । , शक्ति पंचायतन ।, सूर्य पंचायतन ।, शिव पंचायतन ।, विष्णु पंचायतन ।

पंचायतनोपासना की  अधिक जानकारी हेतु   देखें  पुस्तक -

नित्यकर्म पूजाप्रकाश ।
गीताप्रेस गोरखपुर ।।

।। जय श्री राम ।।

Friday, 5 July 2019

लिंग का रहस्य

#भगवान्_शिव_ की_दारुवन_कथा_ का_रहस्य -

यद्यपि शिवलिंग और उसकी पूजा अनादिकाल से ही है, तथापि उनके आविर्भाव का पुराणों में वर्णन है- ब्रह्मा, विष्णु दोनों ही ‘मैं बड़ा हूँ’ ऐसा कहकर परस्पर लड़ रहे थे। उनका विवाद मिटाने के लिये परमज्योतिर्मय लिंग का आविर्भाव हुआ। ब्रह्मा भगवान् के उस ज्योतिर्मयलिंग का पता लगाने के लिये हंस पर आरूढ़ होकर ऊपर की ओर गये और विष्णु वराहरूप धारण कर नीचे गये। हजारों वर्ष तक घोर परिश्रम करने पर भी दोनों को उसका कहीं आद्यन्त न मिला।

शिवलिंग के मस्तक रूप से गिरती हुई केतकी ने कहा कि ‘मैं दश कल्प से चलते यहाँ तक पहुँती हूँ, अभी कुछ ठिकाना नहीं कि कितना जाना पड़ेगा।’ इससे शिविलिंग की अनन्तता मालूम पड़ती है। दिव्यवाणी से भगवान ने ब्रह्मा, विष्णु दोनों ही को प्रबोध कराया। अन्यत्र पृथ्वी को पीठ और आकाश को लिंग कहा है। जैसे वेदी पर लिंग विराजता है वैसे ही पृथ्वी पर आकाश है। जैसे ब्रह्म का एक देश ह प्रकृति-संस्पृष्ट है, वैसे ही आकाशलिंग का भी एक देश ही पृथ्वीसंस्पृष्ट हैं। इसीलिये कहीं लिंग ठीक पुरुष के जननेन्द्रिय के समान ही होता है, कहीं ब्रह्माण्ड के आकार का, कहीं पिण्ड के आकार का। केदारेश्वर की नित्यसिद्ध स्वयम्भू मूर्ति कहीं भी लिंग के आकार की नहीं हैं। वही कारणावस्था या पिण्डावस्था का चिह्न ही लिंग समझना चाहिये। वस्तुदृष्टि से फिर भी वह लिंग ही है। आधुनिक वैज्ञानिकों की भी दृष्टि से आकाश वक्र है जैसा कि लिंग का स्वरूप है किं बहुना देश, काल, वस्तु सभी वक्र हैं, ब्रह्म को भी वक्र और स्तब्ध कहा है। फिर उससे उत्पन्न सबको वक्र होना ही चाहिये। अनन्तकोटि विश्व सब लिंगमय ही है। विश्वों से परे सगुण ब्रह्म का भी लिंग ही आकार है। शिवशक्ति के सहवास में अवकाश न मिलने से शुक्राचार्य ने उन्हे शाप दिया कि तुम योनिस्थ लिंग के रूप में पूजित होगे। एकबार शंकर दिगम्बर वेश से स्वलिंग अपने हस्त में लेकर दारुकवन में गये। उन्हें देखकर ऋषिपत्नियाँ मोहित हो गयीं। यह देखकर ऋषियों ने शंकर को शाप दिया कि तुम्हारा लिंग गिर जाय। ऐसा ही हुआ, किन्तु लिंग के पृथ्वी पर गिरते ही वह प्रज्वलित होकर अपने तेज से लोक को जलाने लगा। अन्त में शिवा ने उसे योनि में स्थापित किया और सब ऋषियों और देवताओं ने उसकी पूजा की । यहाँ लिंग योनि दिव्यप्रकृति और परम पुरुष ही है।

शिवशक्तिरूप लिंग-योनि को प्राकृत स्त्री-पुरुष के समान चर्मखण्ड मूत्रेन्दिय मात्र मान लेना बड़ा अपराध होगा। वही यह भी कथा है कि मुनियों के शाप से गिरा शिवलिंग अग्नि के समान जाज्वल्यमान होकर भूमि, स्वर्ग एवं पाताल में फिरा, सभी लोक बड़े दुःखी हुए।

ब्रह्माजी ने कहा कि- ‘गिरिजा की प्रार्थना करो, वही योनिरूप से परमज्योतिर्मय लिंग को धारण कर सकती है।’ फिर सब देवताओं एवं मुनियों ने जब आराधना को, तब भगवान् और गिरिजा प्रसन्न हुई और गिरिजा में शिव की प्रतिष्ठा हुई। क्या साधारण लिंग का गिरकर अग्निमय होकर सर्व लोकों में घूमना बन सकता है? और विष्णु, राम, कृष्ण तथा सभी देव, मुनि क्या केवल साधारण लिंग-योनि की ही पूजा करते थे? यदि यही बात थी, तो कृष्ण की उपमन्यु के यहाँ जाकर दीक्षापूर्वक घोर तपस्या करने की क्या आश्वकता थी? कुछ लोग कथा में आये हुए उक्त शिवलिंग को केवल ब्रह्माण्ड कहते हैं, उसी को हाथ में लिये हुए भगवान् लीलया दारुकवन में गये थे, वहीं मुनियों के शाप से उनके हाथ से लिंग गिर पड़ा। अतएव वहाँ उसका ‘गिरना’ कहा गया है, ‘कटना’ नहीं। उस ज्योर्तिलिंग ब्राह्म तेज का आधार पंचतत्वात्मिका प्रकृति ही योनि है। अतः पार्वती ने योनिरूप से उस लिंग को धारण किया अर्थात पंचतत्वात्मिका प्रकृति बनकर उन्होंने ब्रह्माण्ड को धारण किया। अग्निमय सर्वदाहक लिंग को योनि - प्राकृत चर्मखण्ड मूत्रेन्द्रिय - मे कौन धारण कर सकता था? "बाणरूपा श्रुता लोके पार्वती शिववल्लभा।" योनिरूपा का अर्थ ही बाणरूपा है। ‘बाण’ शब्द पाँच संख्या का बोधक होता है, पंचशर के अभिप्राय से काम में, पंचमुख के अभिप्राय से शिव में, पंचतत्वात्मिका की दृष्टि से पार्वती में ‘बाण’ शब्द का प्रयोग होता है। जैसे विद्युत-पुंज पंचतत्व में व्याप्त होते हुए भी जल और पर्वतश्रेणी में अधिकता से रहता है, वैसे ही पार्वती बाणरूपा हुईं अर्थात पर्वतश्रेणीरूपा हुईं और उन्हीं में वह तेजोमय लिंग समा गया। विद्युत्पुज यदि अपनी योनि पृथ्वी या जल में पडे, तो स्थिर होता है, अन्यथा वृक्ष, मनुष्य सबको भस्म ही करता है। यही बात शिवजी ने कही है- ‘‘पार्वतींच विना नान्या लिंग धारयितुं क्षमा। तया धृतंच मल्लिंग द्रुतं शान्ति गमिष्यति।।’’ अर्थातृ पार्वती के बिना कोई इसे नहीं धारण कर सकता, उनके धारण से वह शीध्र ही शान्त हो जायगा। ‘‘सतश्च योनिमतश्व।’’[1] ‘‘यो योनि योनिमधितिष्ठत्येकः।’’[2] ‘‘यच्च स्वभावं पचति विश्वयोनिः।’’[3] इत्यादि मन्त्रो से योनि का अर्थ मूत्रेन्द्रिय ही है, यह कहला अज्ञता ही है।

श्रीविष्णु आदि देवाधिदेवों का भी पूज्य योनिप्रतिष्ठित लिंग प्राकृत वस्तु कथमपि नहीं हो सकता। यदि विष्णुकर्तृक पूजा आदि को क्षेपक कहें, तब तो समस्त कथा को ही क्षेपक मान सकते हैं। अव्यक्त का लिंग (व्यक्त ब्रह्माण्ड) भृगु (प्रकृति) के आकर्षण-विकर्षण विशेष के तारतम्य से द्यावापृथ्वीरूप में दो टूक हो गया- ‘‘वायुरापश्चन्द्रमा इत्येते भृगवः।’’ ‘‘शंभोः पपात भुवि लिंगमिदं प्रसिद्धम्। शापेन तेन च भृगोर्विपिने गतस्य।।’’

श्रीशंकर ने भी विश्वेश्वर लिंग की प्रतिष्ठापना और पूजा ही है- ‘‘ब्रह्मण विष्णुना वापि रुद्रणान्येन केन वा। लिंगप्रतिष्ठामुत्सृज्य क्रियते स्वपदस्थितिः।। किमन्यदिह वक्तव्यं प्रतिष्ठां प्रति कारणम्। प्रतिष्ठितं शिवेनापि लिंग वैश्वेश्वरं यतः।।’’ ‘नारद पंचरात्र’ के तीसरे रात्र में, तो कि वैष्णवों का सर्वस्व है, लिखा है कि एक शंक्र के सिवा सभी स्त्रैण थे। ब्रह्मा, विष्णु, दक्ष आदि ने तपस्या से कालिका देावी को प्रकट किया। देवी ने कहा- ‘वर माँगो।’ देवों ने कहा कि ‘आप दक्ष-कन्या होकर शिव को मोहित करो।’ जगदीश्वरी ने कहा-‘शम्भु तो बालक है।’ ब्रह्मा ने कहा-‘शम्भू के समान दूसरा कोई पुरुष हो नहीं सकता।’ यह सुनकर दक्ष के यहाँ देवी सतीरूप से प्रकट हुईं। देवताओ ने विवाह कराया। सती-शिव के रमण से दोनों का तेज भूमण्डल मे पड़ा, वही पाताल, भूतल, स्वर्ग सर्वत्र योनिसहित शिवलिंग हुए। लिंगपूजा शाक्त, वैष्णव, सौर, गाणपत्य सभी के लिये है-

‘‘शाक्तो वा वैष्णवो वापि सौरो वा गाणपोऽथवा। शिवार्चनविहीनस्य कुतः सिद्धिर्भवेत् प्रिये।।’’

शिव की पूजा के बिना अन्य देवता की पूजा करने से वह देव शाप देकर चला जाता है- ‘‘अनाराध्य च मां देवि योऽर्चयेद्देवतान्तरम्। न गृह्लाति महादेवि शापं दत्वा व्रजेत् पुरम्।। यद्यपि शुद्ध दार्शनिक और आध्यात्मिक विवेचनो से शिवलिंग अनादि ही है, उसकी पूजा भी अनादि ही है तथापि अर्थवादरूप में अनेक प्रकार से शिवलिंग की उत्पत्ति ओर पूजा का आरम्भ लिखा गया है। जैसे यद्यपि नित्यसिद्ध ही राम, कृष्ण का अवतार मना जाता है, तथापि अवतार से पहले भी वे पूज्य थे ही, क्योंकि कल्प-कल्प में उनके अवतार होते रहते हैं, कोई अवतार नया नहीं है। वैसी ही बात शिवलिंग के विषय में भी समझनी चाहिये। नित्य होने पर भी भिन्न-भिन्न कल्प में उसके आर्विर्भाव के क्रम भिन्न हैं। समष्टि प्रजननशक्ति सम्पन्न शिवतत्व ही समष्टि लिंग है। उसी से समस्त व्यष्टि योनि और लिंगों का आविर्भाव हुआ है। यही सती-शिव के मैथुन से प्रादुर्भूत तेज से सयोनि लिंगों की उत्पत्ति का रहस्य है। प्रकृति-पुरुष का संयोग ही शिव-सती का मैथुन है। प्रकृति-मिश्रित अनन्त पुरुषों का प्रादुर्भाव ही उनका मिश्रित तेज है। समष्टि लिंग से ही उत्पन्न होकर व्यक्ति लिंग बनते हैं। अतः सभी व्यष्टि लिंगों की योनि भी समष्टि लिंग की ही योनि है। यही शिव के दारुका वन-विहार का रहस्य है।

।। जय श्री राम ।।

पूजा आदि में सिर नहीं ढंका चाहिए

शास्त्र प्रमाण:- उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।  प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥ अर्थात् - पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग...