Thursday, 11 July 2019

विवाह में चतुर्थी कर्म का महत्व

*विवाह में चतुर्थीकर्म की आवश्यकता*

विवाहके अनन्तर चतुर्थी-होम कर्म आवश्यक कर्म बताया गया है, जो विवाहसंस्कार का महत्त्वपूर्ण अंग है। चतुर्थीकर्म के प्रयोजनमें बताया गया है कि *कन्या के देहमें चौरासी दोष होते हैं*, उन दोषों की  निवृत्तिके लिये प्रायश्चित्तस्वरूप चतुर्थीकर्म किया जाता है-
*चतुरशीति दोषाणि कन्यादेहे तु यानि वै।*
*प्रायश्चित्तकरं तेषां चतुर्थी कर्म ह्याचरेत्॥ (मार्कण्डेय)*

*चतुर्थीकर्म से सोम, गन्धर्व तथा अग्निद्वारा कन्याभुक्त दोष का परिहार हो जाता है।* क्योंकि पहले कन्या का भोग सोम गंधर्व और अग्नि करते हैं । अतः हारीत ऋषि ने बताया है कि जो कन्या चतुर्थी- कर्म करती है, वह सदा सुखी रहती है, धनधान्य की वृद्धि करने वाली होती है और पुत्र-पौत्र की समृद्धि देनेवाली होती है। शास्त्र में यह भी बताया गया है कि- *चतुर्थीकर्म न करनेसे वन्ध्यात्व और वैधव्य दोष आता है।*  चतुर्थीकर्म से पूर्व उसका पूर्ण भार्यात्व भी नहीं होता है। कहा भी गया है कि- *जबतक विवाह नहीं होता है, उसकी कन्या संज्ञा होती है, कन्यादानके अनन्तर वह वधू कहलाती है, पाणिग्रहण होनेपर पत्नी होती है और चतुर्थीकर्म होनेपर भार्या कहलाती है-*

*अप्रदानात् भवेत्कन्या प्रदानानन्तरं वधूः।।*
*पाणिग्रहे तु पत्नी स्याद् भार्या चातुर्थिकर्मणि॥*

विवाह निवृत्त होने पर चौथे दिन रात्रिमें पतिके देह, गोत्र और सूतक में स्त्री की एकता हो जाती है-
*विवाहे चैव निवृत्ते चतुर्थेऽहनि रात्रिषु।*
*एकत्वमागता भर्तुः पिण्डे गोत्रे च सूतके॥*

चतुर्थी होमके मन्त्रोंसे त्वचा, मांस, हृदय और इन्द्रियों के द्वारा पत्नी का पतिसे संयोग होता है, इसी से वह पतिगोत्रा हो जाती है-
*चतुर्थीहोममन्त्रेण त्वङ्मांसहृदयेन्द्रियैः।।*
*भर्त्रा संयुज्यते पत्नी तद्गोत्रा तेन सा भवेत्॥ (बृहस्पति)*

अतः विवाह दिनसे चौथे दिन रात्रि में अर्धरात्रि बीत जानेपर यह कर्म करना चाहिये अथवा अशक्त होनेपर अपकर्षण करके विवाह के अनन्तर उसी दिन रात्रिमें उसी विवाहाग्निमें विना कुशकण्डिका किये यह कर्म किया जा सकता है।

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