#कथन - भक्ति पथ अपने आप मैं परिपूर्ण है , वहॉ ना यज्ञ ना गायत्री की आवश्यक्ता रह जाती है ।
///Bhakti path apne ap mai paripurn hai vaha na yagya na gyatri ki avashyakta rah jati hai///
(एक पाठक का वक्तव्य)
#स्पष्टीकरण -
(१) यज्ञविमुख के लिये तो यह लोक ही भी नहीं है , कहॉ तो इस लोक से अन्य -
नायं लोकोsस्त्ययज्ञस्य कुतो़sन्यः कुरुसत्तम।।
[श्रीमद्भगवद्गीता ४।३१]
(२) यज्ञ, दान और तपरुपी कर्म त्याग करने योग्य नहीं हैं अपितु ये तो अवश्य करने चाहिए; क्योंकि यज्ञ, दान, और तप - ये तीनों कर्म बुद्धिमान् मनुष्य को पावन करने वाले हैं -
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ।।
[ श्रीमद्भगवद्गीता १८।५ ]
(३) भगवत्कृपा तभी हो सकती है जब हम भगवान की आज्ञा का पालन करें; और शास्त्र ही भगवान की आज्ञा है-
श्रुतिस्मृती ममैवाज्ञे यस्त उल्लङ्घ्य वर्तते।
आज्ञोच्छेदी मम द्रोही मद्भक्तोsपि न वैष्णवः।।
अतः सच्चा भगवत्प्रेमी वही है जो शास्त्र का उल्लंघन नहीं करता। वैष्णवधर्म का लक्षण करते हुए कहा है-
न चलति निजवर्णधर्मतो सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे ।
वस्तुतः भगवत्कृपा तो सर्वत्र समान रूप से विद्यमान है । उसे केवल अभिव्यक्त करना है और वह अभिव्यक्ति भगवदाज्ञा-पालन से ही हो सकती है ।
[ भक्तिसुधा , श्री करपात्री जी महाराज ]
।। जय श्री राम ।।
No comments:
Post a Comment