प्रायः सभी प्रमुख धर्माचार्य एक शब्द प्रयोग करते हैं - #दिग्विजय।।
भारत के चारों ओर शास्त्रार्थपूर्वक धर्म संस्थापना के कार्य को करने वाले अपने आचार्य के लिये कहते हैं कि हमारे फलाने आचार्य ने दिग्विजय की ।
वैसे कुछ तथाकथित इस्कॉन वाले तो सबसे अलग हैं , वे ये कहते हैं कि प्रभुपाद ने विश्व का१४ बार भ्रमण किया , सच्चे दिग्विजेता तो हमारे प्रभुपाद रहे । मानो जैसे कि इस एशिया यूरोप वाले भूमंडल के अतिरिक्त कहीं अन्य कहीं कोई सृष्टि हो ही नहीं । वैसे //अन्य लोकों की सुगम यात्रा // नामक ग्रन्थ इन्हीं इस्कॉन वालों ने छापा है , अब जरा स्वयं विचार कीजिये कि कितनी यात्रा प्रभुपाद दिग्विजेता बनने हेतु किये ।
कतिपय आर्य समाज वाले भी इसी भ्रम में डूब गये और कृण्वन्तो विश्वमार्यम् का नारा लगाने वालों द्वारा आनन फानन में दयानन्द दिग्विजय लिख डाला गया , उनको यही पता नहीं कि उनके स्वामी दयानन्द ने दिशाओं की कितनी सीमा तक की यात्रा कर धर्म संस्थापना की । न जाने किस मुंह से वे दिग्विजय शब्द प्रयोग कर जाते हैं ।
आप विचार कीजिये , वैसे दिशाओं का तो अन्त नहीं है , फिर भारत में ही भ्रमण करके दिग्विजय क्यों कह दिया जाता है ? दिशाऐं विजय करना क्या है ?
क्योंकि सत्य ये है कि भारत की सीमा में ही दिशाओं का अन्त जाता है , यही भारत का महत्त्व है । अन्त हो गया का तात्पर्य है कि धर्म-कर्मभूमि भारत में सब पूर्णता को प्राप्त हो चुका है , वेदभाष्य के माध्यम से सर्वप्रथम श्री आद्य शंकराचार्य भगवान् ने इस आध्यात्मिक रहस्य को अभिव्यक्त किया , (जिसे सबने माना , जिन्होंने नहीं माना , वे भी किसी न किसी रूप में नाक रगड़ कर मान ही गये, क्योंकि स्वयं के आचार्य महानुभाव को दिग्विजेता घोषित करने से प्रायः कोई पीछे नहीं रहे ) इसलिये भारत स्वयं में परिपूर्ण है ।
।। श्री राम जय राम जय जय राम ।।
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