#भगवान्_शिव_की_दारुवन_कथा_ का_रहस्य -
यद्यपि शिवलिंग और उसकी पूजा अनादिकाल से ही है, तथापि उनके आविर्भाव का पुराणों में वर्णन है- ब्रह्मा, विष्णु दोनों ही ‘मैं बड़ा हूँ’ ऐसा कहकर परस्पर लड़ रहे थे। उनका विवाद मिटाने के लिये परमज्योतिर्मय लिंग का आविर्भाव हुआ। ब्रह्मा भगवान् के उस ज्योतिर्मयलिंग का पता लगाने के लिये हंस पर आरूढ़ होकर ऊपर की ओर गये और विष्णु वराहरूप धारण कर नीचे गये। हजारों वर्ष तक घोर परिश्रम करने पर भी दोनों को उसका कहीं आद्यन्त न मिला।
शिवलिंग के मस्तक रूप से गिरती हुई केतकी ने कहा कि ‘मैं दश कल्प से चलते यहाँ तक पहुँती हूँ, अभी कुछ ठिकाना नहीं कि कितना जाना पड़ेगा।’ इससे शिविलिंग की अनन्तता मालूम पड़ती है। दिव्यवाणी से भगवान ने ब्रह्मा, विष्णु दोनों ही को प्रबोध कराया। अन्यत्र पृथ्वी को पीठ और आकाश को लिंग कहा है। जैसे वेदी पर लिंग विराजता है वैसे ही पृथ्वी पर आकाश है। जैसे ब्रह्म का एक देश ह प्रकृति-संस्पृष्ट है, वैसे ही आकाशलिंग का भी एक देश ही पृथ्वीसंस्पृष्ट हैं। इसीलिये कहीं लिंग ठीक पुरुष के जननेन्द्रिय के समान ही होता है, कहीं ब्रह्माण्ड के आकार का, कहीं पिण्ड के आकार का। केदारेश्वर की नित्यसिद्ध स्वयम्भू मूर्ति कहीं भी लिंग के आकार की नहीं हैं। वही कारणावस्था या पिण्डावस्था का चिह्न ही लिंग समझना चाहिये। वस्तुदृष्टि से फिर भी वह लिंग ही है। आधुनिक वैज्ञानिकों की भी दृष्टि से आकाश वक्र है जैसा कि लिंग का स्वरूप है किं बहुना देश, काल, वस्तु सभी वक्र हैं, ब्रह्म को भी वक्र और स्तब्ध कहा है। फिर उससे उत्पन्न सबको वक्र होना ही चाहिये। अनन्तकोटि विश्व सब लिंगमय ही है। विश्वों से परे सगुण ब्रह्म का भी लिंग ही आकार है। शिवशक्ति के सहवास में अवकाश न मिलने से शुक्राचार्य ने उन्हे शाप दिया कि तुम योनिस्थ लिंग के रूप में पूजित होगे। एकबार शंकर दिगम्बर वेश से स्वलिंग अपने हस्त में लेकर दारुकवन में गये। उन्हें देखकर ऋषिपत्नियाँ मोहित हो गयीं। यह देखकर ऋषियों ने शंकर को शाप दिया कि तुम्हारा लिंग गिर जाय। ऐसा ही हुआ, किन्तु लिंग के पृथ्वी पर गिरते ही वह प्रज्वलित होकर अपने तेज से लोक को जलाने लगा। अन्त में शिवा ने उसे योनि में स्थापित किया और सब ऋषियों और देवताओं ने उसकी पूजा की । यहाँ लिंग योनि दिव्यप्रकृति और परम पुरुष ही है।
शिवशक्तिरूप लिंग-योनि को प्राकृत स्त्री-पुरुष के समान चर्मखण्ड मूत्रेन्दिय मात्र मान लेना बड़ा अपराध होगा। वही यह भी कथा है कि मुनियों के शाप से गिरा शिवलिंग अग्नि के समान जाज्वल्यमान होकर भूमि, स्वर्ग एवं पाताल में फिरा, सभी लोक बड़े दुःखी हुए।
ब्रह्माजी ने कहा कि- ‘गिरिजा की प्रार्थना करो, वही योनिरूप से परमज्योतिर्मय लिंग को धारण कर सकती है।’ फिर सब देवताओं एवं मुनियों ने जब आराधना को, तब भगवान् और गिरिजा प्रसन्न हुई और गिरिजा में शिव की प्रतिष्ठा हुई। क्या साधारण लिंग का गिरकर अग्निमय होकर सर्व लोकों में घूमना बन सकता है? और विष्णु, राम, कृष्ण तथा सभी देव, मुनि क्या केवल साधारण लिंग-योनि की ही पूजा करते थे? यदि यही बात थी, तो कृष्ण की उपमन्यु के यहाँ जाकर दीक्षापूर्वक घोर तपस्या करने की क्या आश्वकता थी? कुछ लोग कथा में आये हुए उक्त शिवलिंग को केवल ब्रह्माण्ड कहते हैं, उसी को हाथ में लिये हुए भगवान् लीलया दारुकवन में गये थे, वहीं मुनियों के शाप से उनके हाथ से लिंग गिर पड़ा। अतएव वहाँ उसका ‘गिरना’ कहा गया है, ‘कटना’ नहीं। उस ज्योर्तिलिंग ब्राह्म तेज का आधार पंचतत्वात्मिका प्रकृति ही योनि है। अतः पार्वती ने योनिरूप से उस लिंग को धारण किया अर्थात पंचतत्वात्मिका प्रकृति बनकर उन्होंने ब्रह्माण्ड को धारण किया। अग्निमय सर्वदाहक लिंग को योनि - प्राकृत चर्मखण्ड मूत्रेन्द्रिय - मे कौन धारण कर सकता था? "बाणरूपा श्रुता लोके पार्वती शिववल्लभा।" योनिरूपा का अर्थ ही बाणरूपा है। ‘बाण’ शब्द पाँच संख्या का बोधक होता है, पंचशर के अभिप्राय से काम में, पंचमुख के अभिप्राय से शिव में, पंचतत्वात्मिका की दृष्टि से पार्वती में ‘बाण’ शब्द का प्रयोग होता है। जैसे विद्युत-पुंज पंचतत्व में व्याप्त होते हुए भी जल और पर्वतश्रेणी में अधिकता से रहता है, वैसे ही पार्वती बाणरूपा हुईं अर्थात पर्वतश्रेणीरूपा हुईं और उन्हीं में वह तेजोमय लिंग समा गया। विद्युत्पुज यदि अपनी योनि पृथ्वी या जल में पडे, तो स्थिर होता है, अन्यथा वृक्ष, मनुष्य सबको भस्म ही करता है। यही बात शिवजी ने कही है- ‘‘पार्वतींच विना नान्या लिंग धारयितुं क्षमा। तया धृतंच मल्लिंग द्रुतं शान्ति गमिष्यति।।’’ अर्थातृ पार्वती के बिना कोई इसे नहीं धारण कर सकता, उनके धारण से वह शीध्र ही शान्त हो जायगा। ‘‘सतश्च योनिमतश्व।’’[1] ‘‘यो योनि योनिमधितिष्ठत्येकः।’’[2] ‘‘यच्च स्वभावं पचति विश्वयोनिः।’’[3] इत्यादि मन्त्रो से योनि का अर्थ मूत्रेन्द्रिय ही है, यह कहला अज्ञता ही है।
श्रीविष्णु आदि देवाधिदेवों का भी पूज्य योनिप्रतिष्ठित लिंग प्राकृत वस्तु कथमपि नहीं हो सकता। यदि विष्णुकर्तृक पूजा आदि को क्षेपक कहें, तब तो समस्त कथा को ही क्षेपक मान सकते हैं। अव्यक्त का लिंग (व्यक्त ब्रह्माण्ड) भृगु (प्रकृति) के आकर्षण-विकर्षण विशेष के तारतम्य से द्यावापृथ्वीरूप में दो टूक हो गया- ‘‘वायुरापश्चन्द्रमा इत्येते भृगवः।’’ ‘‘शंभोः पपात भुवि लिंगमिदं प्रसिद्धम्। शापेन तेन च भृगोर्विपिने गतस्य।।’’
श्रीशंकर ने भी विश्वेश्वर लिंग की प्रतिष्ठापना और पूजा ही है- ‘‘ब्रह्मण विष्णुना वापि रुद्रणान्येन केन वा। लिंगप्रतिष्ठामुत्सृज्य क्रियते स्वपदस्थितिः।। किमन्यदिह वक्तव्यं प्रतिष्ठां प्रति कारणम्। प्रतिष्ठितं शिवेनापि लिंग वैश्वेश्वरं यतः।।’’ ‘नारद पंचरात्र’ के तीसरे रात्र में, तो कि वैष्णवों का सर्वस्व है, लिखा है कि एक शंक्र के सिवा सभी स्त्रैण थे। ब्रह्मा, विष्णु, दक्ष आदि ने तपस्या से कालिका देावी को प्रकट किया। देवी ने कहा- ‘वर माँगो।’ देवों ने कहा कि ‘आप दक्ष-कन्या होकर शिव को मोहित करो।’ जगदीश्वरी ने कहा-‘शम्भु तो बालक है।’ ब्रह्मा ने कहा-‘शम्भू के समान दूसरा कोई पुरुष हो नहीं सकता।’ यह सुनकर दक्ष के यहाँ देवी सतीरूप से प्रकट हुईं। देवताओ ने विवाह कराया। सती-शिव के रमण से दोनों का तेज भूमण्डल मे पड़ा, वही पाताल, भूतल, स्वर्ग सर्वत्र योनिसहित शिवलिंग हुए। लिंगपूजा शाक्त, वैष्णव, सौर, गाणपत्य सभी के लिये है-
‘‘शाक्तो वा वैष्णवो वापि सौरो वा गाणपोऽथवा। शिवार्चनविहीनस्य कुतः सिद्धिर्भवेत् प्रिये।।’’
शिव की पूजा के बिना अन्य देवता की पूजा करने से वह देव शाप देकर चला जाता है- ‘‘अनाराध्य च मां देवि योऽर्चयेद्देवतान्तरम्। न गृह्लाति महादेवि शापं दत्वा व्रजेत् पुरम्।। यद्यपि शुद्ध दार्शनिक और आध्यात्मिक विवेचनो से शिवलिंग अनादि ही है, उसकी पूजा भी अनादि ही है तथापि अर्थवादरूप में अनेक प्रकार से शिवलिंग की उत्पत्ति ओर पूजा का आरम्भ लिखा गया है। जैसे यद्यपि नित्यसिद्ध ही राम, कृष्ण का अवतार मना जाता है, तथापि अवतार से पहले भी वे पूज्य थे ही, क्योंकि कल्प-कल्प में उनके अवतार होते रहते हैं, कोई अवतार नया नहीं है। वैसी ही बात शिवलिंग के विषय में भी समझनी चाहिये। नित्य होने पर भी भिन्न-भिन्न कल्प में उसके आर्विर्भाव के क्रम भिन्न हैं। समष्टि प्रजननशक्ति सम्पन्न शिवतत्व ही समष्टि लिंग है। उसी से समस्त व्यष्टि योनि और लिंगों का आविर्भाव हुआ है। यही सती-शिव के मैथुन से प्रादुर्भूत तेज से सयोनि लिंगों की उत्पत्ति का रहस्य है। प्रकृति-पुरुष का संयोग ही शिव-सती का मैथुन है। प्रकृति-मिश्रित अनन्त पुरुषों का प्रादुर्भाव ही उनका मिश्रित तेज है। समष्टि लिंग से ही उत्पन्न होकर व्यक्ति लिंग बनते हैं। अतः सभी व्यष्टि लिंगों की योनि भी समष्टि लिंग की ही योनि है। यही शिव के दारुका वन-विहार का रहस्य है।
।। जय श्री राम ।।
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