Monday, 8 July 2019

वर्ण आश्रम का महत्व

जगद्गुरु भगवान् शिव ने  कहा है   कि     -

आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः ।
इदमेकं सुनिष्पन्नं  योगशास्त्रं परं मतम्  ॥

अर्थात् समस्त शास्त्रों को बारम्बार आलोडन करके तथा  पुनः पुनः  विचार करके  ये निश्चय किया है कि  उनका उपदिष्ट  योगशास्त्र ही सर्वश्रेष्ठ है ।

प्राणी   जगद्गुरु भगवान् शंकर के उपदिष्ट योगसाधना के बिना विक्षिप्त की भांति इधर उधर भागते रहते हैं ।

और  भगवान् शंकर स्वयं ये सार सिद्धान्त कहते हैं कि  उनके उपदिष्ट योगमार्ग पर चलने वाला  एक योगसाधक  यदि संसार सागर को पार करना चाहता है  तो  उसे   वर्णाश्रम धर्म का निष्काम भाव से पालन करना  चाहिये ।

शिवावतार भगवान् जगद्गुरु श्री आद्य शंकराचार्य ने अपने  अपरोक्षानुभूति  ग्रन्थ में भी  यही  वैदिक - सिद्धान्त स्थिर करते हुए कहा है -

स्ववर्णाश्रमधर्मेण तपसा हरितोषणात् ।
साधनं प्रभवेत्पुंसां वैराग्यादि-चतुष्टयम् ।।

अन्यत्र भी कहा गया है -

आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः ।
इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणः सदा ।।

अर्थात् समस्त शास्त्रों को बारम्बार आलोडन करके तथा  पुनः पुनः  विचार करके  ये निश्चय किया है कि सदैव भगवान् नारायण का  ही ध्यान बना रहे ।

तथा  अपने जीवन में उन भगवान्  नारायण के सदा ध्यान की   शास्त्रीय प्रक्रिया बताते हुए  भी शास्त्र ने यही सिद्धान्त स्थिर किया है कि  उनकी सन्तुष्टि हेतु अपने वर्णाश्रम का परिपालन करे , अन्य कुछ भी उनकी सन्तुष्टि का मार्ग नहीं है ।

स्व-वर्णाश्रमधर्मेण तपसा हरितोषणात्।
हरिराराध्यते पुंसां नान्यत्तत्तोषकारणम् ।।

अतः आप सभी लोग  आत्मकल्याणार्थ  श्री  भगवान् की प्रसन्नता हेतु अपने - अपने वर्णाश्रम धर्म का निष्काम भाव से परिपालन करें ।

वर्ण चार हैं - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ।

आश्रम भी चार हैं - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास ।

उक्त चारों वर्णों एवं चारों आश्रमों के  धर्म का सविस्तार वर्णन समस्त श्रुति -स्मृतियों आदि में सविस्तार  से प्रतिपादित हुआ है ।

।। श्री राम जय राम जय जय राम ।।

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