यज्ञादि कर्मों में अग्नि के नाम एवं वेदों में अग्नि की महत्ता
अग्नि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पौराणिक गाथा इस प्रकार है-सर्वप्रथम धर्म की वसु नामक पत्नी से अग्नि उत्पन्न हुआ। उसकी पत्नी स्वाहा से उसके तीन पुत्र हुए-
पावक
पवमान
शुचि
छठे मन्वन्तर में वसु की वसुधारा नामक पत्नी से द्रविणक आदि पुत्र हुए, जिनमें 45 अग्नि-संतान उत्पन्न हुए। इस प्रकार सब मिलाकर 49 अग्नि हैं। विभिन्न कर्मों में अग्नि के भिन्न-भिन्न नाम हैं। लौकिक कर्म में अग्नि का प्रथम नाम पावक है। गृहप्रवेश आदि में निम्नांकित अन्य नाम प्रसिद्ध हैं-
अग्नेस्तु मारुतो नाम गर्भाधाने विधीयते।
पुंसवने चन्द्रनामा शुगांकर्मणि शोभन:।।
सीमन्ते मंगलो नाम प्रगल्भो जातकर्मणि।
नाग्नि स्यात्पार्थिवी ह्यग्नि: प्राशने च शुचिस्तथा।।
सत्यनामाथ चूडायां व्रतादेशे समुद्भव:।
गोदाने सूर्यनामा च केशान्ते ह्यग्निरुच्यते।।
वैश्वानरो विसर्गे तु विवाहे योजक: स्मृत:।
चतुर्थ्यान्तु शिखी नाम धृतिरग्निस्तथा परे।।
प्रायश्चित्ते विधुश्चैव पाकयज्ञे तु साहस:।
लक्षहोमे तु वह्नि:स्यात कोटिहोमे हुताश्न:।।
पूर्णाहुत्यां मृडो नाम शान्तिके वरदस्तथा।
पौष्टिके बलदश्चैव क्रोधाग्निश्चाभिचारिके।।
वश्यर्थे शमनी नाम वरदानेऽभिदूषक:।
कोष्ठे तु जठरी नाम क्रव्यादो मृतभक्षणे।।
अर्थात
गर्भाधान में अग्नि को "मारुत" कहते हैं।
पुंसवन में "चन्द्रमा
शुगांकर्म में "शोभन
सीमान्त में "मंगल
जातकर्म में 'प्रगल्भ
नामकरण में "पार्थिव
अन्नप्राशन में 'शुचि
चूड़ाकर्म में "सत्य
व्रतबन्ध (उपनयन) में "समुद्भव
गोदान में "सूर्य
केशान्त (समावर्तन) में "अग्नि
विसर्ग (अर्थात् अग्निहोत्रादिक्रियाकलाप) में "वैश्वानर
विवाह में "योजक
चतुर्थी में "शिखी
धृति में "अग्नि
प्रायश्चित (अर्थात् प्रायश्चित्तात्मक महाव्याहृतिहोम) में "विधु
पाकयज्ञ (अर्थात् पाकांग होम, वृषोत्सर्ग, गृहप्रतिष्ठा आदि में) 'साहस
लक्षहोम में "वह्नि
कोटि होम में "हुताशन
पूर्णाहुति में "मृड
शान्ति में "वरद
पौष्टिक में "बलद
आभिचारिक में "क्रोधाग्नि
वशीकरण में "शमन
वरदान में "अभिदूषक
कोष्ठ में "जठर
और मृत भक्षण में "क्रव्याद" कहा गया है।
ऋग्वेद के अनुसार
हिन्दू देवमण्डल का प्राचीनतम सदस्य, वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। अग्नि के तीन स्थान और तीन मुख्य रूप हैं-
व्योम से सूर्य
अन्तरिक्ष (मध्याकाश) में विद्युत
पृथ्वी पर साधारण अग्नि
अग्नि की तुलना बृहस्पति और ब्रह्मणस्पति से भी की गई है। वह मंत्र, धी (बुद्धि) और ब्रह्म का उत्पादक है। इस प्रकार का अभेद सूक्ष्मतम तत्त्व से दर्शाया गया है। वैदिक साहित्य में अग्नि के जिस रूप का वर्णन है, उससे विश्व के वैज्ञानिक और दार्शनिक तत्त्वों पर काफ़ी प्रकाश पड़ता है। जैमिनी ने मीमांसासूत्र के "हवि:प्रक्षेपणाधिकरण" में अग्नि के छ: प्रकार बताये हैं-
गार्हपत्य
आहवनीय
दक्षिणाग्नि
सभ्य
आवसथ्य
औपासन
'अग्नि शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ इस प्रकार है : जो ऊपर की ओर जाता है'(अगि गतौ, अंगेनलोपश्च, अंग्+नि और नकार का लोप)।
वैदिक धर्म के अनुसार
अवेस्ता में अग्नि को पाँच प्रकार का माना गया है। परन्तु अग्नि की जितनी उदात्त तथा विशद कल्पना वैदिक धर्म में है, उतनी अन्यंत्र कहीं पर भी नहीं है। वैदिक कर्मकाण्ड का श्रौत भाग और गृह्य का मुख्य केन्द्र अग्निपूजन ही है। वैदिक देवमण्डल में इन्द्र के अनन्तर अग्नि का ही दूसरा स्थान है। जिसकी स्तुति लगभग दो सौ सूक्तों में वर्णित है। अग्नि के वर्णन में उसका पार्थिव रूप ज्वाला, प्रकाश आदि वैदिक ऋषियों के सामने सदा विद्यमान रहता है। अग्नि की तुलना अनेक पशुओं से की गई है। प्रज्वलित अग्नि गर्जनशील वृषभ के समान है। उसकी ज्वाला सौर किरणों के तुल्य, उषा की प्रभा तथा विद्युत की चमक के समान है। उसकी आवाज़ आकाश की गर्जन जैसी गम्भीर है। अग्नि के लिए विशेष गुणों को लक्ष्य कर अनेक अभिधान प्रयुक्त करके किए जाते हैं। अग्नि शब्द का सम्बन्ध लातोनी 'इग्निस्' और लिथुएनियाई 'उग्निस्' के साथ कुछ अनिश्चित सा है, यद्यपि प्रेरणार्थक अज् धातु के साथ भाषा शास्त्रीय दृष्टि से असम्भव नहीं है। प्रज्वलित होने पर धूमशिखा के निकलने के कारण धूमकेतु इस विशिष्टिता का द्योतक एक प्रख्यात अभिधान है। अग्नि का ज्ञान सर्वव्यापी है और वह उत्पन्न होने वाले समस्त प्राणियों को जानता है। इसलिए वह 'जातवेदा:' के नाम से विख्यात है। अग्नि कभी द्यावापृथिवी का पुत्र और कभी द्यौ: का सूनु (पुत्र) कहा गया है। उसके तीन जन्मों का वर्णन वेदों में मिलता है। जिनके स्थान हैं-स्वर्ग, पृथ्वी तथा जल। स्वर्ग, वायु तथा पृथ्वी अग्नि के तीन सिर, तीन जीभ तथा तीन स्थानों का बहुत निर्देश वेद में उपलब्ध होता है। अग्नि के दो जन्मों का भी उल्लेख मिलता है-भूमि तथा स्वर्ग। अग्नि के आनयन की एक प्रख्यात वैदिक कथा ग्रीक कहानी से साम्य रखती है। अग्नि का जन्म स्वर्ग में ही मुख्यत: हुआ, जहाँ से मातरिश्वा ने मनुष्यों के कल्याणार्थ उसका इस भूतल पर आनयन किया। अग्नि प्रसंगत: अन्य समस्त वैदिक देवों में प्रमुख माना गया है। अग्नि का पूजन भारतीय संस्कृति का प्रमुख चिह्न है और वह गृहदेवता के रूप में उपासना और पूजा का एक प्रधान विषय है। इसलिए अग्नि 'गृहा', 'गृहपति' (घर का स्वामी) तथा 'विश्वपति' (जन का रक्षक) कहलाता है।
रूप का वर्णन
अग्नि के रूप का वर्णन इस प्रकार है-
पिंगभ्रूश्मश्रुकेशाक्ष: पीनांगजठरोऽरुण:।
छागस्थ: साक्षसूत्रोऽग्नि: सप्तार्चि: शक्तिधारक:।।
भौहें, दाढ़ी, केश और आँखें पीली हैं। अंग स्थूल हैं और उदर लाल है। बकरे पर आरूढ़ हैं, अक्षमाला लिये है। इसकी सात ज्वालाएँ हैं और शक्ति को धारण करता है।
शुभ लक्षण
होम योग्य अग्नि के शुभ लक्षण निम्नांकित हैं-
अर्चिष्मान् पिण्डितशिख: सर्पि:काञ्चनसन्निभ:।
स्निग्ध: प्रदक्षिणश्चैव वह्नि: स्यात् कार्यसिद्धये।।
ज्वालायुक्त, पिण्डितशिख, घी एवं सुवर्ण के समान, चिकना और दाहिनी ओर गतिशील अग्नि सिद्धिदायक होता है।
शब्द उत्पादन
देहजन्य अग्नि में शब्द उत्पादन की शक्ति होती है, जैसा कि "संगीतदर्पण" में कहा है-
आत्मना प्रेरितं चित्तं वह्निमाहन्ति देहजम्।
ब्रह्मग्रन्थिस्थितं प्राणं स प्रेरयति पावक:।।
पावकप्रेरित: सोऽथ क्रमदूर्ध्वपथे चरन्।
अतिसूक्ष्मध्वनि नाभौ हृदि सूक्ष्मं गले पुन:।।
पुष्टं शीर्षे त्वपुष्टञ्च कृत्रिमं वदने तथा।
आविर्भावयतीत्येवं पञ्चधा कीर्त्यते बुधै:।।
नकारं प्राणनामानं दकारमनलं विंदु:।
जात: प्राणाग्निसंयोगात्तेन नादोऽभिधीयते।।
आत्मा के द्वारा प्रेरित चित्त देह में उत्पन्न अग्नि को आहत करता है। ब्रह्मग्रन्थि में स्थित प्रेरित वह प्राण क्रम से ऊपर चलता हुआ नाभि में अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि करता है तथा गले और हृदय में भी सूक्ष्म ध्वनि करता है। सिर में पुष्ट और अपुष्ट तथा मुख में कृत्रिम प्रकाश करता है। विद्वानों ने पाँच प्रकार का अग्नि बताया है। नकार प्राण का नाम है, दकार अग्नि का नाम है। प्राण और अग्नि के संयोग से नाद की उत्पत्ति होती है। सब देवताओं में इसका प्रथम आराध्यत्व ऋग्वेद के सर्वप्रथम मंत्र "अग्निमीले पुरोहितम्" से प्रकट होता है।
रूप का प्रयोग
योगाग्नि अथवा ज्ञानाग्नि के रूप में भी "अग्नि" का प्रयोग होता है। गीता में यह कथन है-
'ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।'
'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणि तमाहु: पण्डितं बुधा:।।'
अग्नि का सर्वप्रथम स्थान
पृथ्वी-स्थानीय देवों में अग्नि का सर्वप्रथम स्थान है। अग्नि यज्ञीय अग्नि का प्रतिनिधि रूप है। यज्ञ के द्वारा मनुष्य का सम्बन्ध देवों से होता है। अत: यज्ञ की अग्नि मनुष्य और देवता के बीच सम्बन्ध का सूचक है। परन्तु अग्नि का स्वरूप भौतिक भी है। इनका स्वरूप गरजते हुए वृषभ के समान बतलाया गया है। उन्हें सिर और पैर नहीं हैं परन्तु जिह्वा लाल है। वैदिक मंत्रों में बतलाया गया है कि उत्पत्ति के समय अग्नि का स्वरूप बछड़े के समान है, परन्तु प्रज्वलित होने पर उनका स्वरूप अश्व के समान है। उनकी ज्वाला को विद्युत के समान कहा गया है। काष्ठ और घृत को उनका भोजन माना गया है। अग्नि धूम पताके के समान ऊपर की ओर जाता है। इसी कारण से अग्नि को धूमकेतु कहा गया है। यज्ञ के समय इनका आह्वान किया जाता है कि ये कुश के आसन पर विराजमान हों तथा देवों के हविष को ग्रहण करें। अग्नि का जन्म स्थान स्वर्ग माना गया है। स्वर्ग से मातरिश्वा ने धरती पर इन्हें लाया। अग्नि ज्ञान का प्रतीक है। वह सभी प्राणियों के ज्ञाता देव हैं। अत: इन्हें 'जातवेदा:' कहा गया है। अग्नि को द्युस्थानीय देवता सूर्य भी माना गया है। अग्नि को 'त्रिविध' तथा 'द्विजन्मा' भी कहा गया है। उनका प्रथम जन्म स्वर्ग में तथा दूसरा जन्म जल में (पृथ्वी पर) बतलाया गया है। अग्नि दानवों के भक्षक तथा मानवों के रक्षक माने गए हैं। इनका वर्णन दो सौ वैदिक सूक्तों में प्राप्त होता है।
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इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें।
1. अपनी डफली अपना राग - मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना ।
2. का बरखा जब कृषि सुखाने - पयो गते किं खलु सेतुबन्धनम्।
3. अंधों में काना राजा - निरस्तपादपे देशे एरण्डोपि द्रुमायते।
4. अधजल गगरी छलकत जाए - अर्धोघटो घोषमुपैति शब्दम् ।
5. एक पंथ दो काज - एका क्रिया द्वयर्थकरी प्रसिद्धा।
6. आंख का अंधा नाम नयनसुख - भिक्षार्थं भ्रमते नित्यं नाम किन्तु धनेश्वरः।
7. काल करे सो आज कर, आज करे सो अब - श्वः कर्तव्यानि कार्याणि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्।
8. जैसी करनी वैसी भरनी - यो यद् वपति बीजं लभते तादृशं फलम्।
9. पर उपदेश कुशल बहुतेरे - परोपदेशे पाण्डित्यं सर्वेषां सुकरं नृणाम् ।
10. मुंह में राम बगल में छुरी - विषकुम्भं पयोमुखम्।
11. भूखा क्या नहीं करता - बुभुक्षितः किं न करोति पापम्।
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#हिन्दू शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई ????? पढ़े एक ज्ञानवर्धक प्रस्तुति।*
कुछ अति बुद्धिमान (सेकुलर व मुस्लिम) लोग कहते हैं की #हिन्दू शब्द फारसियों की देन है। क्यूंकि इसका उल्लेख #वेद #पुराणों में नहीं है।
मेरे #सनातनी भाईयों, इन जैसे लोगों का मुंह बंद करने के लिये आपके सन्मुख हजारों वर्ष पूर्व लिखे गये #सनातन #शास्त्रों में लिखित चंद श्लोक (अर्थ सहित) प्रमाणिकता सहित बता रहा हूँ । आप सब सेव करके रख लें, और मुझसे यह सवाल करने वाले महामूर्ख सेकुलर को मेरा जवाब भी देख लें.......////
1-#ऋग्वेद के ब्रहस्पति अग्यम में #हिन्दू शब्द का उल्लेख इस प्रकार आया है..
*हिमलयं समारभ्य यावत इन्दुसरोवरं।*
*तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।*
अर्थात हिमालय से इंदु सरोवर तक देव निर्मित देश को हिंदुस्तान कहते हैं।
*2- सिर्फ वेद ही नहीं बल्कि मेरूतंत्र (शैव ग्रन्थ) में हिन्दू शब्द का उल्लेख इस प्रकार किया गया है....
*हीनं च दूष्यतेव् हिन्दुरित्युच्च ते प्रिये।*
अर्थात... जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दू कहते हैं।
*3- और इससे मिलता जुलता लगभग यही यही श्लोक कल्पद्रुम में भी दोहराया गया है....!
*"हीनं दुष्यति इति हिन्दू"*
अर्थात जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दू कहते है।
4- पारिजात हरण में #हिन्दू को कुछ इस प्रकार कहा गया है...
*"हिनस्ति तपसा पापां दैहिकां दुष्टं। हेतिभिः श्त्रुवर्गं च स हिन्दुर्भिधियते।।"*
अर्थात जो अपने तप से शत्रुओं का दुष्टों का और पाप का नाश कर देता है, वही #हिन्दू है।
5- माधव दिग्विजय में भी #हिन्दू शब्द को कुछ इस प्रकार उल्लेखित किया गया है..
*"ओंकारमन्त्रमूलाढ्य पुनर्जन्म द्रढ़ाश्य:।*
*गौभक्तो भारतगरुर्हिन्दुर्हिंसन दूषकः।।*
अर्थात.... वो जो ओमकार को ईश्वरीय धुन माने, कर्मों पर विश्वास करे, सदैव गौपालक रहे तथा बुराईयों को दूर रखे, वो #हिन्दू है।
6- केवल इतना ही नहीं हमारे #ऋगवेद ( ८:२:४१ ) में विवि हिन्दू नाम के बहुत ही पराक्रमी और दानी राजा का वर्णन मिलता है। जिन्होंने 46000 गौमाता दान में दी थी.... और ऋग्वेद मंडल में भी उनका वर्णन मिलता है।
7- ऋग वेद में एक #ऋषि का उल्लेख मिलता है जिनका नाम सैन्धव था । जो मध्यकाल में आगे चलकर "#हैन्दव/#हिन्दव" नाम से प्रचलित हुए, जिसका बाद में अपभ्रंश होकर #हिन्दू बन गया...!!
8- इसके अतिरिक्त भी कई स्थानों में #हिन्दू शब्द उल्लेखित है....।।
*इसलिये गर्व से कहो, हाँ हम #हिंदू थे, #हिन्दू हैं और सदैव #सनातनी_हिन्दू ही रहेंगे.../////
हे गौरि ! शंकरार्धांगि ! यथा त्वं शंकरप्रिया ।
तथा मां कुरु कल्याणि कान्तकान्तां सुदुर्लभाम्।।
तपस्तप्त्वा सृजद् ब्रह्मा ब्राह्मणान् वेदगुपतये | तृप्त्यर्थं पितृदेवानां धर्मसंरक्षणाय च ||
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#ताम्बूलभक्षणविधि
कर्पूरकङ्कोललवङ्गपूगजातिफलैर्नागरखण्डपर्णैः ।
शुद्धाश्मचूर्णं खदिरस्य सारं ताम्बूलमेतन्नवधा प्रसिद्धम् ।
ताम्बूलं कटु तिक्तमुष्णमधुरं क्षारं कषायान्वितम् ।
वातघ्नं पित्तनाशनं कृमिहरं दुर्गन्धिनिर्णाशनम् ।।
वक्त्रस्याभरणं बिशुद्धिकरणं कामाग्निंसन्दीपनम् ।
ताम्बूलस्य सखे त्रयोदशगुणाः स्वर्गेऽपि तु दुर्लभाः ।।
ताम्बूलपत्राणि हरन्ति वातं,
पौगं फलं हन्ति कफं च हृद्यम् ।
चूर्णं निहन्यात् कफवातमुच्चैः
हन्याच्च पित्तं खदिरस्य सारः ।।
अभ्यङ्गे निशि माङ्गल्ये प्रभाते भोजनान्तिके ।
कर्पूरादिकसंमिश्रं ताम्बूलं योजयेत्भिषक् ।।
क्रमुकं पञ्चनिष्कं स्यात् ताम्बुल्याश्च पलद्वयम् ।
गुञ्जाद्वयं चूर्णमानं ताम्बूलक्रममुत्तमम् ।।
द्विपत्रमेकपूगं च सचूर्णखदिरं च तत् ।
गायत्रीगुटिकाचूर्णं पूगं नागलतादलम् ।
नात्युच्चैनातिनीच्चैश्च पर्णानामधिकवरम् ।।
समपत्रः फले रागे विरागस्तु फलेऽधिके ।
चूर्णाधिक्ये तु दूर्गन्धः पत्राधिक्ये सुगन्धता ।।
अन्यच्च
पर्णाधिक्ये दीपनी रङ्गदात्री ।
पूगाधिक्ये रूक्षदा कृच्छ्रदात्री ।
चूर्णाधिक्ये सोष्णदुर्गन्धदात्री ।
साधिक्ये चेत् खादिरे शोषदात्री ।।
प्रभाते पूगमधिकं मध्याह्ऩे खादिरं तथा ।
निशायां तु तथा चूर्णं ताम्बूलं भक्षयेत् सदा ।।
दिवा खदिरसारं तु ताम्बूलं तु सुशोभनम् ।
रात्रॊ खदिरसारं तु शक्रस्यापि हरेत् श्रियम् ।।
अङ्गुष्ठचूर्णसंयुक्तं पर्णपृष्ठे तु लेपनम् ।
तत् पर्णं खादयेत् तेन सोमपानं दिने दिने ।।
कनिष्ठानामिकामध्यातर्जन्यङ्गुष्ठयोगतः ।
शोको हानिस्तथा मृत्युरैश्वर्यं चौर्यमेव च ।।
वामहस्तेन नो खादेत् स्त्रीहस्तेन तथैव च ।
यदि खादयते मूढस्तस्य लक्ष्मीर्विनश्यति ।।
म्लेच्छहस्ताच्छत्रुहस्ताच्छङ्कितस्य जनस्य च ।
अथ वैदग्धहस्तस्थस्ताम्बूलो हि निषिध्यते ।।
स्वायत्तमेकान्तगुणं विधात्रा विनिर्मितं छादानमज्ञतायाः ।
विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम् ॥
अपनी मूर्खता छिपाने के लिये भगवान ने मूर्खों को मौन धारण करने का एक अद्भुत सुरक्षा कवच दिया है, जो उनके अधीन भी है। विद्वानो से भरी सभा मे "मौन रहना" मूर्खो के लिये आभूषण से कम नहीं है।
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धन्य हैं भारतीय संस्कृति के पावन संस्कार..!!
मिथिला में एक विद्वान ब्राह्मण #भवनाथ_मिश्र विद्यार्थियों को पढ़ाते थे । उनकी आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय थी, फिर भी वे किसीसे किसी वस्तु की याचना नहीं करते थे । भवनाथ के घर पुत्र का जन्म हुआ । दाई ने पुरस्कार माँगा । बालक की माता भवानी देवी ने भावपूर्ण ढंग से कहा ‘अभी घर में देने को कुछ भी नहीं है । #इस_बालक_की_पहली_कमाई_की_पूरी_धनराशि_तुम्हें_दे_दूँगी ।’’दाई इस कथन पर संतुष्ट होकर बालक को आशीर्वाद दे के चली गयी । उस बालक का नाम रखा गया ‘शंकर’ ।
शंकर की आयु अभी पाँच वर्ष भी पूरी नहीं हुई थी । वह अन्य बालकों के साथ गाँव के बाहर खेल रहा था । उसी समय मिथिला के महाराज शिवसिंह देव वहाँ से गुजर रहे थे । उनकी दृष्टि शंकर पर पड़ी । चेहरे से उन्हें बालक प्रतिभाशाली मालूम हुआ । महाराज ने शंकर को बुलाकर पूछा : ‘‘बेटा ! तुम कुछ पढ़ते हो ?’’
शंकर : ‘‘जी ।’’
‘‘#कोई_श्लोक_सुनाओ।’’
‘‘#स्वयं_का_बनाया_हुआ_सुनाऊँ_या_दूसरे_का_बनाया_हुआ ?’’
‘‘स्वयं का बनाया हुआ सुनाओ ।’’
‘‘#बालोऽहं_जगदानन्द_न_मे_बाला_सरस्वती ।
#अपूर्णे_पञ्चमे_वर्षे_वर्णयामि_जगत्त्रयम् ।।’’
अर्थात् हे जगत को आनंद देनेवाले (राजन्) ! मैं अभी बालक हूँ परंतु मेरी सरस्वती (विद्या) बालिका नहीं है । पाँचवाँ वर्ष अपूर्ण होने पर भी मैं तीनों लोकों का वर्णन कर सकता हूँ ।
‘‘अब स्वयं का और दूसरे का मिलाकर श्लोक सुनाओ ।’’
*‘‘#चलितश्चकितश्छन्नः_प्रयाणे_तव_भूपते ।
#सहस्रशीर्षा_पुरुषः_सहस्राक्षः_सहस्रपात् ।।’’
अर्थात् हे राजन् ! आपके कूच को देखकर सहस्रों पैर आंदोलित और सहस्रों सिर व सहस्रों नेत्र चकित हैं ।
इतनी कम उम्र में संस्कृत का इतना ज्ञान व कुशाग्र बुद्धि देख राजा बहुत प्रसन्न हुए और अपने खजानची को बुलाकर बोले : ‘‘#इस_बालक_को_खजाने_में_ले_जाओ । यह स्वयं जितना धन ले सके, लेने दो ।’’
खजानची शंकर को ले गये । शंकर ने केवल लँगोटी पहन रखी थी, अतः उसी लँगोटी के एक भाग पर वह जितना धन ले सका, उतना लेकर घर आया । उसने माँ को सारी बात बतायी । माता ने तुरंत उस दाई को बुलाया जिसे बालक की पहली कमाई की धनराशि देने का वचन दिया था ।
दाई से आदरपूर्वक कहा : ‘‘#यह_शंकर_की_पहली_कमाई_है ।
*#यह_सारा_धन_आप_ले_जाओ ।’’
दाई बालक को आशीर्वाद दे प्रसन्नतापूर्वक सुवर्णमुद्राएँ, माणिक, रत्न आदि पुरस्काररूप में लेकर चली गयी । उसने उस धनराशि से गाँव में एक पोखर (तालाब) का निर्माण कराया, जिससे लोगों की सेवा हो सके। उस पोखर को लोग ‘दाई का पोखर’ कहने लगे, जिसके अवशेष आज भी बिहार में मधुबनी जिले के सरिसव गाँव में विद्यमान हैं ।
आगे चलकर शंकर मिश्र बड़े विद्वान हुए । उन्होंने #वैशेषिक_सूत्र_पर_आधारित_उपस्कार_ग्रंथ_खंडनखंडखाद्य_टीका_रसार्णव इत्यादि अनेक ग्रंथों की रचना की ।
धन्य है हमारी भारतीय संस्कृति जिसमें धन से ज्यादा संस्कारों को महत्त्व दिया जाता है ! #गरीबी_में_भी_अपने_वचन_के_प्रति_कितनी_ईमानदारी_और_वचनबद्धता ! धनराशि देखने के बाद भी शंकर की माँ को किंचिन्मात्र लोभ नहीं आया । और धन्य है वह सत्संगी समझवाली पुण्यशीला दाई, जिसने स्वार्थ की जगह सेवा, परोपकार में धन का सदुपयोग किया ! धन्य हैं वे माता-पिता जो अपने बालकों को ऐसे सुसंस्कार,एवं सुंदर समझ देते हैं !!
अरुण शास्त्री सँकलित