Saturday, 19 January 2019

मलूकदास , रहीम दास आदि की समीक्षा

मलूकदास , रहीम दास आदि की समीक्षा -
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यदि क्षत्रिय की पूजा करना ब्राह्मण के लिये शास्त्र विरुद्ध है , तो आप राम, कृष्णादि के मन्दिर बनाकर उनकी उपासना क्यों करते हो ?

#उत्तर - सुनिये !  हम उस राम की बिल्कुल भी पूजा नहीं करते , जो दशरथ नन्दन है,  ऐतिहासिक अयोध्या का राजा है, रघुकूलभूषण है,  और हम उस कृष्ण की भी पूजा  नहीं करते , जो वसुदेवपुत्र है, द्वारिका का राजा है, वरन्=======>

हम उस राम  और कृष्ण  की पूजा करते हैं, जो विष्णु के अवतार हैं , जो पुराणपुरुष भगवान् हैं ,   जो  सनातन  जगदीश्वर हैं ।   वेदवेद्य परमपुरुष भगवान् राम, वेदवेद्य परमपुरुष भगवान्  कृष्ण हमारे  पूजनीय ईश्वर हैं ।  हम ब्राह्मण जब  मूर्ति में वेदमन्त्रों से प्राण प्रतिष्ठा करते हैं ,  तभी मूर्ति की उपासना करते हैं ।

ऐतिहासिक राम हमारे लिये केवल सम्माननीय और प्रेरणादायक  चरित्र मात्र हैं ।   पूजा तो हम परब्रह्म राम व कृष्ण की ही करते हैं ।

#प्रश्न - दशरथ नन्दन राम और भगवान् राम में अन्तर तो है नहीं , दोनों एक ही हैं, फिर भेद किस बात का है  ?

#उत्तर -   एक होकर भी आचार का भेद है । धर्म की उत्पत्ति आचार से  ही  हुई है ।      अतः आचार ही  सनातन वैदिक धर्म है ।

हमारा यह वक्तव्य हो सकता है बहुत कम लोग समझ पायेंगे, और हो सकता है कुछ  घटाटोप मूर्ख  विधवाविलाप भी करेंगे , पर  कोई कुछ भी कहता रहे, सत्य यही है ।

।। जय श्री राम ।।

शंकराचार्य का महत्व

देवता हों या  असुर   :  सभी भक्तों  के आराध्य हैं शंकराचार्य  -
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#शंकराचार्य  सनातन वैदिक हिन्दू धर्म के  परमाचार्य होते हैं । शासकों पर शासन करने वाला पद है : शंकराचार्य पद ।।

शंकराचार्य  का अभिप्राय  होता  है   : स्वयं देवाधिदेव महादेव    भगवान् शिव के ज्ञानावतार ।।

देवाधिदेव  महादेव भगवान् शंकर किसके वन्दनीय नहीं हैं ? अर्थात् वे सबके लिये पूज्य  हैं । ऋषि, मुनि, नर, नाग, यक्ष, सुर, गन्धर्व, असुर, राक्षस  आदि समस्त प्राणियों के लिये भगवान् शंकर सदैव वन्दनीय हैं ।

जगद्गुरु शंकराचार्य की चरण रज प्राप्त करना  कौन नहीं चाहता ।  देवता हों या असुर  - सबका  कल्याण  करने वाले होने से ही तो वे शंकर हैं ।

जिनके चरणों की धूल सिर पर धारण करने से वैष्णव अपनी  वैष्णवता  को  सार्थक   करते   हैं , उन  सर्ववैष्णवाधिराज (वैष्णवानां यथा शम्भुः)  भगवान् शंकर की हम सभी सनातन हिन्दू धर्मावलम्बी  वन्दना करते हैं  ।    

समस्त विश्व को केवल  चार दिशाओं के चार  शंकराचार्य  मात्र    नियोजित कर सकने  में पूर्णतः  समर्थ हैं ,

इसी रहस्य को जानने वाले   परब्रह्मस्वरूप भगवान् शंकर ने आज से  लगभग  ढाई हजार वर्ष पूर्व  चार पीठों की समुद्भावना की ।

एक तरह से ये भगवान् शंकर ही चार रूपों में उस समय प्रकट हो गये थे ।

अतः समस्त सनातन हिन्दू धर्मावलम्बियों को  उन चार शंकराचार्यों  की  शरण  में  रहना   चाहिये । इसी में उनका कल्याण है ।

।। जय श्री राम ।।

।। जय श्री राम ।।

विदेशगमन निषेध

//#वसुधैव_कुटुम्बकम् -सारी  धरती अपना घर है,  कहीं भी घूमो //

#उत्तर - पहली बात तो  कुटुम्ब शब्द का अर्थ घर नहीं है , दूसरी बात ये कि  ये जो आपने कहा //कहीं भी घूमो // ये आपने अपनी जेब से जोड़ा है, मूल  श्रुति  में ऐसा कहीं भी नहीं कहा गया  है ।  वहॉ पर तो मात्र इतना ही कहा गया है कि वसुधैव कुटुम्बकम्  । (  अयं बन्धुरयं नेति .....कुटुम्बकम् )

जिस स्थल का यह वचन है, वहॉ प्रकरण  पता करो आप पहले , एक अद्वैतात्मनिष्ठ संन्यासी ब्राह्मण  की  उदार दृष्टि का यह प्रकरण है , उदार दृष्टि का अभिप्राय यहॉ आत्मदृष्टि से  है ।

जिस स्थल  का यह वचन है ,  स्पष्ट कहा है श्रुति ने  वहीं आगे - #उदारः_पेशलाचारः_सर्वाचारानुवृत्तिमान्   ।  अतः  तुम  कलिसन्तानों   के   विदेशों में मौज लूटने  का बीजा नहीं है ये !  

श्रुति ने तो स्पष्ट कहा है - #न_जनमियात्_नान्तमियात्  अर्थात् समुद्रोल्लंघन करके  भारत से बाहर विदेश न जाये ।

ऐसे में तुम महाधूर्त्त केवल धर्म के नाम पर  पाखण्ड करना चाहते हो - ये स्पष्ट है ।

।। जय श्री राम ।।

धन सम्पत्ति तीन प्रकार की

#धनसम्पत्ति तीन प्रकार की कही गयी हैं--- (१) शुक्ल, (२) शबल (३) असित |---> #शुक्लः_शबलोऽसितश्चार्थः ||विष्णु ध०सू० अ० ५८||
(१)- #स्ववृत्त्युपार्जितं_सर्वं_सर्वेषां_शुक्लम् |
अपनी वृत्ति (अर्थात् अपने अपने वर्णवृत्ति -स्वधर्म)- से न्यायपूर्वक जो कुछ भी शुद्ध धन-सम्पत्ति प्राप्त होती हैं, वह #शुक्लधन कहलाता हैं |
(२)- #अनन्तरवृत्युपात्तं_शबलम् || ---- #उत्कोचशुल्कसम्प्राप्तमविक्रेयस्य_विक्रये | #कृतोपकारादाप्तं_च_शबलं_समुदाहृतम् ||
दूसरे की वृत्ति से उपार्जित तथा उत्कोच( घूसकर), जो बेचनेयोग्य नहीं हैं उसके बेचने से प्राप्त, दूसरे के उपकार के बदले में प्राप्त धन #शबल धन कहलाता हैं |
(३)- #अन्तरितवृत्त्युपात्तं_च_कृष्णम् || --- > #पार्श्विकद्यूतचौर्याप्तं_प्रतिरूपकसाहसौ | #व्याजेनोपार्जितं_यच्च_तत्कृष्ण_समुदाहृतम् ||
निन्दनीय वृत्ति से प्राप्त अशुद्ध तथा बेईमानी का धन कृष्ण धन (ब्लैक मनी) कहलाता हैं | छल, कपट, ठगी, बेईमानी, जुआ, चोरी, मिलावट(प्रतिरूपक), डकैती तथा व्याज आदि से प्राप्त धन #कृष्णधन या #कालाधन कहलाता हैं |

व्यक्ति जिस प्रकार के शुद्ध अशुद्ध धन से जैसा कार्य करता हैं, उसका फल भी उसे उसी प्रकार मिलता हैं----->
#यथाविधेन_द्रव्येण_यत्किञ्चित्_कुरुते_नरः | #तथाविधमवाप्नोति_स_फलं_प्रेत्य_चेह_च ||

यदि पवित्र, शुद्ध और न्यायोपार्जित द्रव्य से कोई कार्य किया जाता हैं तो उसका फल भी इस लोक परलोक-- सर्वत्र कल्याणकारक और सब प्रकार से अभ्युदय करनेवाला होता हैं | इसी प्रकार यदि #शबलधन से कोई कार्य करता हैं तो उसका फल भी मध्यम कोटि का होता हैं, किंतु यदि #कृष्णधन (कालेधन) से, अन्यायोपार्जित द्रव्य से कोई कार्य करता हैं तो लाभ की अपेक्षा हानि, सफलता की अपेक्षा असफलता, अभ्युदय की अपेक्षा अवनति(पतन) ही होती हैं |
#कालाधन सब प्रकार से निन्द्य एवं त्याज्य हैं | अतः उत्तम(सात्त्विक), मध्यम(राजस) तथा अधम(तामस) -- इन तीनों प्रकार के धन में से उत्तम धन को प्राप्त करना चाहिये और उसका उपयोग धर्म के कार्यों में करना चाहिये |
#अन्यायोपार्जितेनैव_द्रव्येण_सुकृतं_कृतम् | #न_कीर्तिरिहलोके_च_परलोके_न_तत्_फलम् ||दे०भा०३/१२/८||
अन्याय से उपार्जित द्रव्य द्वारा जो पुण्यकर्म किया जाता हैं, वह न तो इस लोक में कीर्ति दे सकता हैं और न परलोक में ही उसका कुछ फल मिलता नहीं |

Thursday, 17 January 2019

पवित्रता_किसे_कहते_हैं

#पवित्रता_किसे_कहते_हैं?

इसका उत्तर महर्षि वेदव्यास ने निम्न प्रकार से दिया है -
ब्रह्मचर्यं तपः क्षान्तिर्मधु मांसस्य वर्जनम्।
मर्यादायां स्थितिश्चैव शमः शौचस्य लक्षणम्।।A
आगे कहते हैं-
मनःशौचं कर्मशौचं कुलशौचं च भारत।
शरीरशौचं वाक्-शौचं शौचं पञ्च विधः स्मृतम्।।R

धर्म के लक्षणों में पांचवाँ लक्षण शौच (शुचि) अर्थात् पवित्रता है-
१. मन की पवित्रता,२. कार्य की पवित्रता, ३. कुल की पवित्रता, ४. शरीर की पवित्रता और ५. वाणी की पवित्रता, अर्थात् जो इन पाँचों दृष्टियों से पवित्र है, उसी को वास्तविकता में पवित्र माना जा सकता है। उपरोक्त पाँच शुद्धियों में -
पञ्चस्वेतेषु शौचेषु हृदि शौचं विशिष्यते।
मन की पवित्रता सर्वश्रेष्ठ भी है और आवश्यक भी क्योंकि-
हृदयस्य तु शौचेन स्वर्गं गच्छन्ति मानवाः।
के अनुसार मन की पवित्रता से ही मनुष्य स्वर्ग जैसा जीवन प्राप्त करता है।

#मनु_ने_धन_की_पवित्रता_को_सर्वोपरि_माना_है -

सर्वेषामेव शौचानां अर्थशौचं परं स्मृतम्।
क्योंकि
योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारि शुचिः शुचिः।
के अनुसार जो धन के मामले में पवित्र है, वही पवित्र है। जो केवल मिट्टी व जल से पवित्र है वह पवित्र नहीं है। पवित्रता व शुद्धि के संबंध में चाणक्य कहते हैं -
वाचः शौचं च मनसः शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
सर्वभूते दयाशौचं एतच्छौचं पराऽर्थिनाम्।।

ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:
#प्रश्न_नही_स्वाध्याय_करें!!

श्रुति में ब्रह्मस्वरुपलक्षण

श्रुति में ब्रह्म का स्वरुपलक्षण कहा गया है : सत्यम् - ज्ञानम् - अनन्तम् ।

निर्विशेष सत्ता का वर्णन भावरूप से कभी हो नहीं सकता , निषेधमुख से उसे बस लक्षितमात्र करना संभव है ।

( संभवतः वाचस्पति मिश्र ने एक स्थल पर कहा है कि ) जीवन में कभी कोई मीठा वस्तु न खाया हो ऐसा व्यक्ति यदि पूछे कि भाई , यह मिष्टता नामक रस कैसा होता है ज़रा हमे बतायो ?

तो स्वयं वाग्देवी सरस्वतीजी भी भावमुख से मिष्टता का वर्णन करने में समर्थ नहीं होगी । बस निषेधमुख से ही कहना संभव है कि - खट्टा नहीं , कड़वा नहीं , नमकीन नहीं , तीखा भी नहीं - इन सबसे भिन्न कुछ और है !

उपरोक्त लक्षण में ' अनन्त ' पद का अर्थ क्या है ?

देशकृत-वस्तुकृत-कालकृत परिच्छेद का अभाव जिसमें हो ।

भेदवादी - ओह , तब तो ब्रह्म ' अभावविशिष्ट ' होनेसे विशिष्ट हो गया , सधर्मक हो गया , सविशेष बन गया , निर्विशेषत्व भंग हो गया !

इसका उत्तर श्री मधुसूदन सरस्वती ने अद्वैतसिद्धिः में दिया है -

सिद्धान्तपक्ष में अभाव को अधिकरण-स्वरुप ही माना जाता है , उससे भिन्न नहीं । अतः यह अभाव अधिकरणमात्र होनेसे ब्रह्म सधर्मक / विशिष्ट है ऐसी शंका नहीं होती । 

भेदवादी - ब्रह्म निर्धर्मक होने से सत्त्व एवं असत्त्व धर्मद्वयशून्य हैं | सत्त्व एवं असत्त्व का अभाव मिथ्यात्व का साधक होने से ब्रह्म में भी मिथ्यातव लक्षण का अतिव्याप्ति होगा ?

उत्तर - ब्रह्म शुद्ध एवं सद्रूप हैं | सद्रूप का अर्थ हैं बाध्य्त्व का त्रिकालाभाव | ब्रह्म का सद्रूपता भावरूप नहीं बल्कि अभाव-रूप हैं | अभाव का अभाव होना असंभव होने से बाध्य्त्वाभाव का बाध्य्त्व नहीं हो सकता |
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इस विषय पर कांची परमाचार्य श्री चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती महास्वामी जी का एक विवेचन पर ध्यान देना चाहिए -

// Of course it is true that the Atman is permeating everywhere in such a way that there is no space for ‘space’ and so no ‘location’ to be specified for the Atman. The words ‘sarvaM’ (all) and ‘vyApakaM’ (permeation) both need for their meaning the concept of space, but it is true that space itself is subsumed by the Atman as to be nowhere.

The Formless one that is permeating everywhere is something which surpasses all attempts to imagine it ! That is why, even if the Atman is not attributed with qualities and form, a point has, as it were, been specified within the JIva’s body itself and the location of the Atman is to be imagined there. Who has done this specification? No less than the ParA-shakti Herself ! //

Wednesday, 16 January 2019

प्रवण मन्त्र जप किसे करना चाहिए

ऐसा सुना जाता हैं कि केवल प्रणवमन्त्र का जप संन्यासी के अतिरिक्त अन्य आश्रमी करे तो उसका विपरीत फल होता हैं । क्या यह कथन ठीक हैं ?

उत्तर - यदि कोई व्यक्ति केवल प्रणवमन्त्र का जप करेगा तो उसका जगत् छूटेगा कारण प्रणव जगत् छुड़ानेवाला मन्त्र हैं । यदि वह मुमुक्षु नहीं हैं, तो जगत् छूटना उसके लिए विपरीत फल ही हैं । यदि वह मोक्षार्थी हैं तो जगत् छूटने से उसका क्या बिगड़ता हैं । मुमुक्षु के लिए केवल प्रणव-जप का विधान परम्परा अनुसार हैं और अन्य पुरुषों के लिए प्रणवयुक्त अन्य मन्त्रों के जप का विधान हैं ।

दुसरी बात, अन्य आश्रमी शिखा-सूत्र त्याग के बिना गायत्री मन्त्र कैसे छोड़ सकता हैं ! संन्यास में तो गायत्री मन्त्र का प्रणव में लय हो जाता हैं । साथ ही जैसे संन्यासी के लिए शास्त्र में प्रणव-जप की विधि हैं, वैसे अन्य आश्रमी के लिए नहीं हैं । इन्हीं सब बातों पर विचार करने पर यह स्पष्ट हैं कि केवल प्रणव का जप संन्यासी के लिए ही उचित हैं ।

इस प्रसंग पर जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य ज्योतिष्पीठाधीश्वर स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती जी महाराज के उपदेश " The Rocks Are Melting " नामक ग्रन्थ में हैं -

लखनऊ में महाराज जी एक वृद्धा से मिले जिनके दो जवान बेटे की मौत हो गयी कुछ दिनों पहले । लोगों के कहा कि वृद्धा दिनभर जप-ध्यान करती थी ।

महाराज जी ने पुछा, " माताजी, क्या आप प्रणव-जप करती हो ? "

वृद्धा-" महाराज जी ! वह तो मेरा जीने का सहारा हैं । प्रणवमन्त्र दिनभर जपती हूँ मैं । क्यों, नहीं करना चाहिए क्या महाराज जी ? "

महाराज जी - " प्रणवमन्त्र जप से संसार नष्ट कर दी हैं आपने, अब इसे छोड़ना मत । "

श्रद्धा एवं निष्ठा समेत कोई गृहस्थ यदि दिन में हज़ारों बार केवल प्रणव जप करे तो उसका संसार से आसक्ति छूट जायेगा, उपार्जन कम होता जायेगा, स्त्री-सन्तान रोग से पीड़ित हो एवं मर भी सकते हैं । प्रणव का यह स्वभाव हैं कि जिसमें आसक्ति हो उसे नष्ट कर देता हैं । इसीलिए गृहस्थ का हित सोचकर ही शास्त्र में प्रणवमन्त्र जप का निषेध हैं । पुरुषों के लिए प्रणव-युक्त अन्य मन्त्रों जप का विधान हैं, परंतु स्त्रीयों के लिए श्री-युक्त मन्त्र जप करना शास्त्रसम्मत हैं । भगवान् महादेव ने माता पार्वती जी को उपदेश देते समय कहा कि स्त्रीयों के लिए ॐ विष-समान हैं एवं स्त्रीयों को ॐ युक्त मन्त्र जप नहीं करना चाहिए ।

प्रश्न - जब प्रणव संसार छुड़ा देता है तो अन्य आश्रम के पुरुष प्रणवयुक्त मन्त्र क्यों जपते है ? अन्य मन्त्र युक्त होने पर प्रणव की अनासक्ति प्रदान करने की क्षमता का क्या होता है ?

उत्तर - प्रणव सर्वोपरि मन्त्र हैं, पर इसके उच्चारण में बड़ा तेज हैं जो सहन कर पाना कठिन हैं, प्रकृत संन्यासी कर पाते हैं ; इसलिए तेज कम करने के लिए ॐ के साथ हरि योग करके हरि ॐ आदि कर दिया जाता हैं ताकि तेज कम होकर सौम्य हो जाए, तथा बीज रूप में ॐ का प्रयोग करने से मन्त्र की पापनाशक शक्ति वृद्धि होती हैं|

।। जय श्री हरि ।।

Sunday, 13 January 2019

अग्नि के भेद

यज्ञादि कर्मों में अग्नि के नाम एवं वेदों में अग्नि की महत्ता

अग्नि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पौराणिक गाथा इस प्रकार है-सर्वप्रथम धर्म की वसु नामक पत्नी से अग्नि उत्पन्न हुआ। उसकी पत्नी स्वाहा से उसके तीन पुत्र हुए-

पावक
पवमान
शुचि

छठे मन्वन्तर में वसु की वसुधारा नामक पत्नी से द्रविणक आदि पुत्र हुए, जिनमें 45 अग्नि-संतान उत्पन्न हुए। इस प्रकार सब मिलाकर 49 अग्नि हैं। विभिन्न कर्मों में अग्नि के भिन्न-भिन्न नाम हैं। लौकिक कर्म में अग्नि का प्रथम नाम पावक है। गृहप्रवेश आदि में निम्नांकित अन्य नाम प्रसिद्ध हैं-

अग्नेस्तु मारुतो नाम गर्भाधाने विधीयते।
पुंसवने चन्द्रनामा शुगांकर्मणि शोभन:।।
सीमन्ते मंगलो नाम प्रगल्भो जातकर्मणि।
नाग्नि स्यात्पार्थिवी ह्यग्नि: प्राशने च शुचिस्तथा।।
सत्यनामाथ चूडायां व्रतादेशे समुद्भव:।
गोदाने सूर्यनामा च केशान्ते ह्यग्निरुच्यते।।
वैश्वानरो विसर्गे तु विवाहे योजक: स्मृत:।
चतुर्थ्यान्तु शिखी नाम धृतिरग्निस्तथा परे।।
प्रायश्चित्ते विधुश्चैव पाकयज्ञे तु साहस:।
लक्षहोमे तु वह्नि:स्यात कोटिहोमे हुताश्न:।।
पूर्णाहुत्यां मृडो नाम शान्तिके वरदस्तथा।
पौष्टिके बलदश्चैव क्रोधाग्निश्चाभिचारिके।।
वश्यर्थे शमनी नाम वरदानेऽभिदूषक:।
कोष्ठे तु जठरी नाम क्रव्यादो मृतभक्षणे।।

अर्थात

गर्भाधान में अग्नि को "मारुत" कहते हैं।
पुंसवन में "चन्द्रमा
शुगांकर्म में "शोभन
सीमान्त में "मंगल
जातकर्म में 'प्रगल्भ
नामकरण में "पार्थिव
अन्नप्राशन में 'शुचि
चूड़ाकर्म में "सत्य
व्रतबन्ध (उपनयन) में "समुद्भव
गोदान में "सूर्य
केशान्त (समावर्तन) में "अग्नि
विसर्ग (अर्थात् अग्निहोत्रादिक्रियाकलाप) में "वैश्वानर
विवाह में "योजक
चतुर्थी में "शिखी
धृति में "अग्नि
प्रायश्चित (अर्थात् प्रायश्चित्तात्मक महाव्याहृतिहोम) में "विधु
पाकयज्ञ (अर्थात् पाकांग होम, वृषोत्सर्ग, गृहप्रतिष्ठा आदि में) 'साहस
लक्षहोम में "वह्नि
कोटि होम में "हुताशन
पूर्णाहुति में "मृड
शान्ति में "वरद
पौष्टिक में "बलद
आभिचारिक में "क्रोधाग्नि
वशीकरण में "शमन
वरदान में "अभिदूषक
कोष्ठ में "जठर
और मृत भक्षण में "क्रव्याद" कहा गया है।

ऋग्वेद के अनुसार

हिन्दू देवमण्डल का प्राचीनतम सदस्य, वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। अग्नि के तीन स्थान और तीन मुख्य रूप हैं-

व्योम से सूर्य
अन्तरिक्ष (मध्याकाश) में विद्युत
पृथ्वी पर साधारण अग्नि

अग्नि की तुलना बृहस्पति और ब्रह्मणस्पति से भी की गई है। वह मंत्र, धी (बुद्धि) और ब्रह्म का उत्पादक है। इस प्रकार का अभेद सूक्ष्मतम तत्त्व से दर्शाया गया है। वैदिक साहित्य में अग्नि के जिस रूप का वर्णन है, उससे विश्व के वैज्ञानिक और दार्शनिक तत्त्वों पर काफ़ी प्रकाश पड़ता है। जैमिनी ने मीमांसासूत्र के "हवि:प्रक्षेपणाधिकरण" में अग्नि के छ: प्रकार बताये हैं-

गार्हपत्य
आहवनीय
दक्षिणाग्नि
सभ्य
आवसथ्य
औपासन

'अग्नि शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ इस प्रकार है : जो ऊपर की ओर जाता है'(अगि गतौ, अंगेनलोपश्च, अंग्+नि और नकार का लोप)।

वैदिक धर्म के अनुसार

अवेस्ता में अग्नि को पाँच प्रकार का माना गया है। परन्तु अग्नि की जितनी उदात्त तथा विशद कल्पना वैदिक धर्म में है, उतनी अन्यंत्र कहीं पर भी नहीं है। वैदिक कर्मकाण्ड का श्रौत भाग और गृह्य का मुख्य केन्द्र अग्निपूजन ही है। वैदिक देवमण्डल में इन्द्र के अनन्तर अग्नि का ही दूसरा स्थान है। जिसकी स्तुति लगभग दो सौ सूक्तों में वर्णित है। अग्नि के वर्णन में उसका पार्थिव रूप ज्वाला, प्रकाश आदि वैदिक ऋषियों के सामने सदा विद्यमान रहता है। अग्नि की तुलना अनेक पशुओं से की गई है। प्रज्वलित अग्नि गर्जनशील वृषभ के समान है। उसकी ज्वाला सौर किरणों के तुल्य, उषा की प्रभा तथा विद्युत की चमक के समान है। उसकी आवाज़ आकाश की गर्जन जैसी गम्भीर है। अग्नि के लिए विशेष गुणों को लक्ष्य कर अनेक अभिधान प्रयुक्त करके किए जाते हैं। अग्नि शब्द का सम्बन्ध लातोनी 'इग्निस्' और लिथुएनियाई 'उग्निस्' के साथ कुछ अनिश्चित सा है, यद्यपि प्रेरणार्थक अज् धातु के साथ भाषा शास्त्रीय दृष्टि से असम्भव नहीं है। प्रज्वलित होने पर धूमशिखा के निकलने के कारण धूमकेतु इस विशिष्टिता का द्योतक एक प्रख्यात अभिधान है। अग्नि का ज्ञान सर्वव्यापी है और वह उत्पन्न होने वाले समस्त प्राणियों को जानता है। इसलिए वह 'जातवेदा:' के नाम से विख्यात है। अग्नि कभी द्यावापृथिवी का पुत्र और कभी द्यौ: का सूनु (पुत्र) कहा गया है। उसके तीन जन्मों का वर्णन वेदों में मिलता है। जिनके स्थान हैं-स्वर्ग, पृथ्वी तथा जल। स्वर्ग, वायु तथा पृथ्वी अग्नि के तीन सिर, तीन जीभ तथा तीन स्थानों का बहुत निर्देश वेद में उपलब्ध होता है। अग्नि के दो जन्मों का भी उल्लेख मिलता है-भूमि तथा स्वर्ग। अग्नि के आनयन की एक प्रख्यात वैदिक कथा ग्रीक कहानी से साम्य रखती है। अग्नि का जन्म स्वर्ग में ही मुख्यत: हुआ, जहाँ से मातरिश्वा ने मनुष्यों के कल्याणार्थ उसका इस भूतल पर आनयन किया। अग्नि प्रसंगत: अन्य समस्त वैदिक देवों में प्रमुख माना गया है। अग्नि का पूजन भारतीय संस्कृति का प्रमुख चिह्न है और वह गृहदेवता के रूप में उपासना और पूजा का एक प्रधान विषय है। इसलिए अग्नि 'गृहा', 'गृहपति' (घर का स्वामी) तथा 'विश्वपति' (जन का रक्षक) कहलाता है।

रूप का वर्णन

अग्नि के रूप का वर्णन इस प्रकार है-

पिंगभ्रूश्मश्रुकेशाक्ष: पीनांगजठरोऽरुण:।
छागस्थ: साक्षसूत्रोऽग्नि: सप्तार्चि: शक्तिधारक:।।

भौहें, दाढ़ी, केश और आँखें पीली हैं। अंग स्थूल हैं और उदर लाल है। बकरे पर आरूढ़ हैं, अक्षमाला लिये है। इसकी सात ज्वालाएँ हैं और शक्ति को धारण करता है।

शुभ लक्षण

होम योग्य अग्नि के शुभ लक्षण निम्नांकित हैं-
अर्चिष्मान् पिण्डितशिख: सर्पि:काञ्चनसन्निभ:।
स्निग्ध: प्रदक्षिणश्चैव वह्नि: स्यात् कार्यसिद्धये।।

ज्वालायुक्त, पिण्डितशिख, घी एवं सुवर्ण के समान, चिकना और दाहिनी ओर गतिशील अग्नि सिद्धिदायक होता है।

शब्द उत्पादन

देहजन्य अग्नि में शब्द उत्पादन की शक्ति होती है, जैसा कि "संगीतदर्पण" में कहा है-

आत्मना प्रेरितं चित्तं वह्निमाहन्ति देहजम्।
ब्रह्मग्रन्थिस्थितं प्राणं स प्रेरयति पावक:।।
पावकप्रेरित: सोऽथ क्रमदूर्ध्वपथे चरन्।
अतिसूक्ष्मध्वनि नाभौ हृदि सूक्ष्मं गले पुन:।।
पुष्टं शीर्षे त्वपुष्टञ्च कृत्रिमं वदने तथा।
आविर्भावयतीत्येवं पञ्चधा कीर्त्यते बुधै:।।
नकारं प्राणनामानं दकारमनलं विंदु:।
जात: प्राणाग्निसंयोगात्तेन नादोऽभिधीयते।।

आत्मा के द्वारा प्रेरित चित्त देह में उत्पन्न अग्नि को आहत करता है। ब्रह्मग्रन्थि में स्थित प्रेरित वह प्राण क्रम से ऊपर चलता हुआ नाभि में अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि करता है तथा गले और हृदय में भी सूक्ष्म ध्वनि करता है। सिर में पुष्ट और अपुष्ट तथा मुख में कृत्रिम प्रकाश करता है। विद्वानों ने पाँच प्रकार का अग्नि बताया है। नकार प्राण का नाम है, दकार अग्नि का नाम है। प्राण और अग्नि के संयोग से नाद की उत्पत्ति होती है। सब देवताओं में इसका प्रथम आराध्यत्व ऋग्वेद के सर्वप्रथम मंत्र "अग्निमीले पुरोहितम्" से प्रकट होता है।

रूप का प्रयोग

योगाग्नि अथवा ज्ञानाग्नि के रूप में भी "अग्नि" का प्रयोग होता है। गीता में यह कथन है-

'ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।'
'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणि तमाहु: पण्डितं बुधा:।।'

अग्नि का सर्वप्रथम स्थान

पृथ्वी-स्थानीय देवों में अग्नि का सर्वप्रथम स्थान है। अग्नि यज्ञीय अग्नि का प्रतिनिधि रूप है। यज्ञ के द्वारा मनुष्य का सम्बन्ध देवों से होता है। अत: यज्ञ की अग्नि मनुष्य और देवता के बीच सम्बन्ध का सूचक है। परन्तु अग्नि का स्वरूप भौतिक भी है। इनका स्वरूप गरजते हुए वृषभ के समान बतलाया गया है। उन्हें सिर और पैर नहीं हैं परन्तु जिह्वा लाल है। वैदिक मंत्रों में बतलाया गया है कि उत्पत्ति के समय अग्नि का स्वरूप बछड़े के समान है, परन्तु प्रज्वलित होने पर उनका स्वरूप अश्व के समान है। उनकी ज्वाला को विद्युत के समान कहा गया है। काष्ठ और घृत को उनका भोजन माना गया है। अग्नि धूम पताके के समान ऊपर की ओर जाता है। इसी कारण से अग्नि को धूमकेतु कहा गया है। यज्ञ के समय इनका आह्वान किया जाता है कि ये कुश के आसन पर विराजमान हों तथा देवों के हविष को ग्रहण करें। अग्नि का जन्म स्थान स्वर्ग माना गया है। स्वर्ग से मातरिश्वा ने धरती पर इन्हें लाया। अग्नि ज्ञान का प्रतीक है। वह सभी प्राणियों के ज्ञाता देव हैं। अत: इन्हें 'जातवेदा:' कहा गया है। अग्नि को द्युस्थानीय देवता सूर्य भी माना गया है। अग्नि को 'त्रिविध' तथा 'द्विजन्मा' भी कहा गया है। उनका प्रथम जन्म स्वर्ग में तथा दूसरा जन्म जल में (पृथ्वी पर) बतलाया गया है। अग्नि दानवों के भक्षक तथा मानवों के रक्षक माने गए हैं। इनका वर्णन दो सौ वैदिक सूक्तों में प्राप्त होता है।
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इन हिंदी कहावतों के स्थान पर संस्कृत की सूक्ति बोलें।
1. अपनी डफली अपना राग - मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना ।
2. का बरखा जब कृषि सुखाने - पयो गते किं खलु सेतुबन्धनम्।
3. अंधों में काना राजा - निरस्तपादपे देशे एरण्डोपि द्रुमायते।
4. अधजल गगरी छलकत जाए - अर्धोघटो घोषमुपैति शब्दम् ।
5. एक पंथ दो काज - एका क्रिया द्वयर्थकरी प्रसिद्धा।
6. आंख का अंधा नाम नयनसुख - भिक्षार्थं भ्रमते नित्यं नाम किन्तु धनेश्वरः।
7. काल करे सो आज कर, आज करे सो अब - श्वः कर्तव्यानि कार्याणि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्।
8. जैसी करनी वैसी भरनी - यो यद् वपति बीजं लभते तादृशं फलम्।
9. पर उपदेश कुशल बहुतेरे - परोपदेशे पाण्डित्यं सर्वेषां सुकरं नृणाम् ।
10. मुंह में राम बगल में छुरी - विषकुम्भं पयोमुखम्।
11. भूखा क्या नहीं करता - बुभुक्षितः किं न करोति पापम्।
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#हिन्दू शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई ????? पढ़े एक ज्ञानवर्धक प्रस्तुति।*

कुछ अति बुद्धिमान (सेकुलर व मुस्लिम) लोग कहते हैं की #हिन्दू शब्द फारसियों की देन है। क्यूंकि इसका उल्लेख #वेद #पुराणों में नहीं है।

मेरे #सनातनी भाईयों, इन जैसे लोगों का मुंह     बंद करने के लिये  आपके सन्मुख हजारों वर्ष पूर्व लिखे गये #सनातन #शास्त्रों में लिखित चंद श्लोक (अर्थ सहित) प्रमाणिकता सहित बता रहा हूँ । आप सब सेव करके रख लें, और मुझसे यह सवाल करने वाले महामूर्ख सेकुलर को मेरा जवाब भी देख लें.......////

1-#ऋग्वेद के ब्रहस्पति अग्यम में #हिन्दू शब्द का उल्लेख इस प्रकार आया है..

*हिमलयं समारभ्य यावत इन्दुसरोवरं।*
*तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।*

अर्थात हिमालय से इंदु सरोवर तक देव निर्मित देश को हिंदुस्तान कहते हैं।

*2- सिर्फ वेद ही नहीं बल्कि मेरूतंत्र (शैव ग्रन्थ) में हिन्दू शब्द का उल्लेख इस प्रकार किया गया है....
*हीनं च दूष्यतेव् हिन्दुरित्युच्च ते प्रिये।*
अर्थात... जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दू कहते हैं।

*3- और इससे मिलता जुलता लगभग यही यही श्लोक कल्पद्रुम में भी दोहराया गया है....!

*"हीनं दुष्यति इति हिन्दू"*
अर्थात जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दू कहते है।

4- पारिजात हरण में #हिन्दू को कुछ इस प्रकार कहा गया है...
*"हिनस्ति तपसा पापां दैहिकां दुष्टं। हेतिभिः श्त्रुवर्गं च स हिन्दुर्भिधियते।।"*

अर्थात जो अपने तप से शत्रुओं का दुष्टों का और पाप का नाश कर देता है, वही #हिन्दू है।

5- माधव दिग्विजय में भी #हिन्दू शब्द को कुछ इस प्रकार उल्लेखित किया गया है..
*"ओंकारमन्त्रमूलाढ्य पुनर्जन्म द्रढ़ाश्य:।*
*गौभक्तो भारतगरुर्हिन्दुर्हिंसन दूषकः।।*

अर्थात.... वो जो ओमकार को ईश्वरीय धुन माने, कर्मों पर विश्वास करे, सदैव गौपालक रहे तथा बुराईयों को दूर रखे, वो #हिन्दू है।

6- केवल इतना ही नहीं हमारे #ऋगवेद ( ८:२:४१ ) में विवि हिन्दू नाम के बहुत ही पराक्रमी और दानी राजा का वर्णन मिलता है। जिन्होंने 46000 गौमाता दान में दी थी.... और ऋग्वेद मंडल में भी उनका वर्णन मिलता है।

7- ऋग वेद में एक #ऋषि का उल्लेख मिलता है जिनका नाम सैन्धव था । जो मध्यकाल में आगे चलकर "#हैन्दव/#हिन्दव" नाम से प्रचलित हुए, जिसका बाद में अपभ्रंश होकर #हिन्दू बन गया...!!

8- इसके अतिरिक्त भी कई स्थानों में #हिन्दू शब्द उल्लेखित है....।।

*इसलिये गर्व से कहो, हाँ हम #हिंदू थे, #हिन्दू हैं और सदैव #सनातनी_हिन्दू ही रहेंगे.../////

हे गौरि ! शंकरार्धांगि ! यथा त्वं शंकरप्रिया ।
तथा मां कुरु कल्याणि कान्तकान्तां सुदुर्लभाम्।।

तपस्तप्त्वा सृजद् ब्रह्मा ब्राह्मणान् वेदगुपतये | तृप्त्यर्थं पितृदेवानां धर्मसंरक्षणाय च ||
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#ताम्बूलभक्षणविधि

कर्पूरकङ्कोललवङ्गपूगजातिफलैर्नागरखण्डपर्णैः ।
शुद्धाश्मचूर्णं खदिरस्य सारं ताम्बूलमेतन्नवधा प्रसिद्धम् ।

ताम्बूलं कटु तिक्तमुष्णमधुरं क्षारं कषायान्वितम् ।
वातघ्नं पित्तनाशनं कृमिहरं दुर्गन्धिनिर्णाशनम् ।।
वक्त्रस्याभरणं बिशुद्धिकरणं कामाग्निंसन्दीपनम् ।
ताम्बूलस्य सखे त्रयोदशगुणाः स्वर्गेऽपि तु दुर्लभाः ।।

ताम्बूलपत्राणि हरन्ति वातं,
पौगं फलं हन्ति कफं च हृद्यम् ।
चूर्णं निहन्यात् कफवातमुच्चैः
हन्याच्च पित्तं खदिरस्य सारः ।।

अभ्यङ्गे निशि माङ्गल्ये प्रभाते भोजनान्तिके ।
कर्पूरादिकसंमिश्रं ताम्बूलं योजयेत्भिषक् ।।

क्रमुकं पञ्चनिष्कं स्यात् ताम्बुल्याश्च पलद्वयम् ।
गुञ्जाद्वयं चूर्णमानं ताम्बूलक्रममुत्तमम् ।।
द्विपत्रमेकपूगं च सचूर्णखदिरं च तत् ।
गायत्रीगुटिकाचूर्णं पूगं नागलतादलम् ।
नात्युच्चैनातिनीच्चैश्च पर्णानामधिकवरम् ।।
समपत्रः फले रागे विरागस्तु फलेऽधिके ।
चूर्णाधिक्ये तु दूर्गन्धः पत्राधिक्ये सुगन्धता ।।

अन्यच्च
पर्णाधिक्ये दीपनी रङ्गदात्री ।
पूगाधिक्ये रूक्षदा कृच्छ्रदात्री ।
चूर्णाधिक्ये सोष्णदुर्गन्धदात्री ।
साधिक्ये चेत् खादिरे शोषदात्री ।।

प्रभाते पूगमधिकं मध्याह्ऩे खादिरं तथा ।
निशायां तु तथा चूर्णं ताम्बूलं भक्षयेत् सदा ।।
दिवा खदिरसारं तु ताम्बूलं तु सुशोभनम् ।
रात्रॊ खदिरसारं तु शक्रस्यापि हरेत् श्रियम् ।।

अङ्गुष्ठचूर्णसंयुक्तं पर्णपृष्ठे तु लेपनम् ।
तत् पर्णं खादयेत् तेन सोमपानं दिने दिने ।।
कनिष्ठानामिकामध्यातर्जन्यङ्गुष्ठयोगतः ।
शोको हानिस्तथा मृत्युरैश्वर्यं चौर्यमेव च ।।
वामहस्तेन नो खादेत् स्त्रीहस्तेन तथैव च ।
यदि खादयते मूढस्तस्य लक्ष्मीर्विनश्यति ।।
म्लेच्छहस्ताच्छत्रुहस्ताच्छङ्कितस्य जनस्य च ।
अथ वैदग्धहस्तस्थस्ताम्बूलो हि निषिध्यते ।।

स्वायत्तमेकान्तगुणं विधात्रा विनिर्मितं छादानमज्ञतायाः ।
विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम् ॥

अपनी मूर्खता छिपाने के लिये भगवान ने मूर्खों को मौन धारण करने का एक अद्भुत सुरक्षा कवच दिया है, जो उनके अधीन भी है। विद्वानो से भरी सभा मे "मौन रहना" मूर्खो के लिये आभूषण से कम नहीं है।
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धन्य हैं भारतीय संस्कृति के पावन संस्कार..!!
मिथिला में एक विद्वान ब्राह्मण #भवनाथ_मिश्र विद्यार्थियों को पढ़ाते थे । उनकी आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय थी, फिर भी वे किसीसे किसी वस्तु की याचना नहीं करते थे । भवनाथ के घर पुत्र का जन्म हुआ । दाई ने पुरस्कार माँगा । बालक की माता भवानी देवी ने भावपूर्ण ढंग से कहा ‘अभी घर में देने को कुछ भी नहीं है । #इस_बालक_की_पहली_कमाई_की_पूरी_धनराशि_तुम्हें_दे_दूँगी ।’’दाई इस कथन पर संतुष्ट होकर बालक को आशीर्वाद दे के चली गयी । उस बालक का नाम रखा गया ‘शंकर’ ।

शंकर की आयु अभी पाँच वर्ष भी पूरी नहीं हुई थी । वह अन्य बालकों के साथ गाँव के बाहर खेल रहा था । उसी समय मिथिला के महाराज शिवसिंह देव वहाँ से गुजर रहे थे । उनकी दृष्टि शंकर पर पड़ी । चेहरे से उन्हें बालक प्रतिभाशाली मालूम हुआ । महाराज ने शंकर को बुलाकर पूछा : ‘‘बेटा ! तुम कुछ पढ़ते हो ?’’

शंकर : ‘‘जी ।’’

‘‘#कोई_श्लोक_सुनाओ।’’

‘‘#स्वयं_का_बनाया_हुआ_सुनाऊँ_या_दूसरे_का_बनाया_हुआ ?’’

‘‘स्वयं का बनाया हुआ सुनाओ ।’’

‘‘#बालोऽहं_जगदानन्द_न_मे_बाला_सरस्वती ।
#अपूर्णे_पञ्चमे_वर्षे_वर्णयामि_जगत्त्रयम् ।।’’

अर्थात् हे जगत को आनंद देनेवाले (राजन्) ! मैं अभी बालक हूँ परंतु मेरी सरस्वती (विद्या) बालिका नहीं है । पाँचवाँ वर्ष अपूर्ण होने पर भी मैं तीनों लोकों का वर्णन कर सकता हूँ ।

‘‘अब स्वयं का और दूसरे का मिलाकर श्लोक सुनाओ ।’’

*‘‘#चलितश्चकितश्छन्नः_प्रयाणे_तव_भूपते ।
#सहस्रशीर्षा_पुरुषः_सहस्राक्षः_सहस्रपात् ।।’’

अर्थात् हे राजन् ! आपके कूच को देखकर सहस्रों पैर आंदोलित और सहस्रों सिर व सहस्रों नेत्र चकित हैं ।
इतनी कम उम्र में संस्कृत का इतना ज्ञान व कुशाग्र बुद्धि देख राजा बहुत प्रसन्न हुए और अपने खजानची को बुलाकर बोले : ‘‘#इस_बालक_को_खजाने_में_ले_जाओ । यह स्वयं जितना धन ले सके, लेने दो ।’’

खजानची शंकर को ले गये । शंकर ने केवल लँगोटी पहन रखी थी, अतः उसी लँगोटी के एक भाग पर वह जितना धन ले सका, उतना लेकर घर आया । उसने माँ को सारी बात बतायी । माता ने तुरंत उस दाई को बुलाया जिसे बालक की पहली कमाई की धनराशि देने का वचन दिया था ।
दाई से आदरपूर्वक कहा : ‘‘#यह_शंकर_की_पहली_कमाई_है ।
*#यह_सारा_धन_आप_ले_जाओ ।’’

दाई बालक को आशीर्वाद दे प्रसन्नतापूर्वक सुवर्णमुद्राएँ, माणिक, रत्न आदि पुरस्काररूप में लेकर चली गयी । उसने उस धनराशि से गाँव में एक पोखर (तालाब) का निर्माण कराया, जिससे लोगों की सेवा हो सके। उस पोखर को लोग ‘दाई का पोखर’ कहने लगे, जिसके अवशेष आज भी बिहार में मधुबनी जिले के सरिसव गाँव में विद्यमान हैं ।
आगे चलकर शंकर मिश्र बड़े विद्वान हुए । उन्होंने #वैशेषिक_सूत्र_पर_आधारित_उपस्कार_ग्रंथ_खंडनखंडखाद्य_टीका_रसार्णव इत्यादि अनेक ग्रंथों की रचना की ।

धन्य है हमारी भारतीय संस्कृति जिसमें धन से ज्यादा संस्कारों को महत्त्व दिया जाता है ! #गरीबी_में_भी_अपने_वचन_के_प्रति_कितनी_ईमानदारी_और_वचनबद्धता ! धनराशि देखने के बाद भी शंकर की माँ को किंचिन्मात्र लोभ नहीं आया । और धन्य है वह सत्संगी समझवाली पुण्यशीला दाई, जिसने स्वार्थ की जगह सेवा, परोपकार में धन का सदुपयोग किया ! धन्य हैं वे माता-पिता जो अपने बालकों को ऐसे सुसंस्कार,एवं सुंदर समझ देते हैं !!
अरुण शास्त्री सँकलित

पूजा आदि में सिर नहीं ढंका चाहिए

शास्त्र प्रमाण:- उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।  प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥ अर्थात् - पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग...