#धनसम्पत्ति तीन प्रकार की कही गयी हैं--- (१) शुक्ल, (२) शबल (३) असित |---> #शुक्लः_शबलोऽसितश्चार्थः ||विष्णु ध०सू० अ० ५८||
(१)- #स्ववृत्त्युपार्जितं_सर्वं_सर्वेषां_शुक्लम् |
अपनी वृत्ति (अर्थात् अपने अपने वर्णवृत्ति -स्वधर्म)- से न्यायपूर्वक जो कुछ भी शुद्ध धन-सम्पत्ति प्राप्त होती हैं, वह #शुक्लधन कहलाता हैं |
(२)- #अनन्तरवृत्युपात्तं_शबलम् || ---- #उत्कोचशुल्कसम्प्राप्तमविक्रेयस्य_विक्रये | #कृतोपकारादाप्तं_च_शबलं_समुदाहृतम् ||
दूसरे की वृत्ति से उपार्जित तथा उत्कोच( घूसकर), जो बेचनेयोग्य नहीं हैं उसके बेचने से प्राप्त, दूसरे के उपकार के बदले में प्राप्त धन #शबल धन कहलाता हैं |
(३)- #अन्तरितवृत्त्युपात्तं_च_कृष्णम् || --- > #पार्श्विकद्यूतचौर्याप्तं_प्रतिरूपकसाहसौ | #व्याजेनोपार्जितं_यच्च_तत्कृष्ण_समुदाहृतम् ||
निन्दनीय वृत्ति से प्राप्त अशुद्ध तथा बेईमानी का धन कृष्ण धन (ब्लैक मनी) कहलाता हैं | छल, कपट, ठगी, बेईमानी, जुआ, चोरी, मिलावट(प्रतिरूपक), डकैती तथा व्याज आदि से प्राप्त धन #कृष्णधन या #कालाधन कहलाता हैं |
व्यक्ति जिस प्रकार के शुद्ध अशुद्ध धन से जैसा कार्य करता हैं, उसका फल भी उसे उसी प्रकार मिलता हैं----->
#यथाविधेन_द्रव्येण_यत्किञ्चित्_कुरुते_नरः | #तथाविधमवाप्नोति_स_फलं_प्रेत्य_चेह_च ||
यदि पवित्र, शुद्ध और न्यायोपार्जित द्रव्य से कोई कार्य किया जाता हैं तो उसका फल भी इस लोक परलोक-- सर्वत्र कल्याणकारक और सब प्रकार से अभ्युदय करनेवाला होता हैं | इसी प्रकार यदि #शबलधन से कोई कार्य करता हैं तो उसका फल भी मध्यम कोटि का होता हैं, किंतु यदि #कृष्णधन (कालेधन) से, अन्यायोपार्जित द्रव्य से कोई कार्य करता हैं तो लाभ की अपेक्षा हानि, सफलता की अपेक्षा असफलता, अभ्युदय की अपेक्षा अवनति(पतन) ही होती हैं |
#कालाधन सब प्रकार से निन्द्य एवं त्याज्य हैं | अतः उत्तम(सात्त्विक), मध्यम(राजस) तथा अधम(तामस) -- इन तीनों प्रकार के धन में से उत्तम धन को प्राप्त करना चाहिये और उसका उपयोग धर्म के कार्यों में करना चाहिये |
#अन्यायोपार्जितेनैव_द्रव्येण_सुकृतं_कृतम् | #न_कीर्तिरिहलोके_च_परलोके_न_तत्_फलम् ||दे०भा०३/१२/८||
अन्याय से उपार्जित द्रव्य द्वारा जो पुण्यकर्म किया जाता हैं, वह न तो इस लोक में कीर्ति दे सकता हैं और न परलोक में ही उसका कुछ फल मिलता नहीं |
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