Thursday, 17 January 2019

श्रुति में ब्रह्मस्वरुपलक्षण

श्रुति में ब्रह्म का स्वरुपलक्षण कहा गया है : सत्यम् - ज्ञानम् - अनन्तम् ।

निर्विशेष सत्ता का वर्णन भावरूप से कभी हो नहीं सकता , निषेधमुख से उसे बस लक्षितमात्र करना संभव है ।

( संभवतः वाचस्पति मिश्र ने एक स्थल पर कहा है कि ) जीवन में कभी कोई मीठा वस्तु न खाया हो ऐसा व्यक्ति यदि पूछे कि भाई , यह मिष्टता नामक रस कैसा होता है ज़रा हमे बतायो ?

तो स्वयं वाग्देवी सरस्वतीजी भी भावमुख से मिष्टता का वर्णन करने में समर्थ नहीं होगी । बस निषेधमुख से ही कहना संभव है कि - खट्टा नहीं , कड़वा नहीं , नमकीन नहीं , तीखा भी नहीं - इन सबसे भिन्न कुछ और है !

उपरोक्त लक्षण में ' अनन्त ' पद का अर्थ क्या है ?

देशकृत-वस्तुकृत-कालकृत परिच्छेद का अभाव जिसमें हो ।

भेदवादी - ओह , तब तो ब्रह्म ' अभावविशिष्ट ' होनेसे विशिष्ट हो गया , सधर्मक हो गया , सविशेष बन गया , निर्विशेषत्व भंग हो गया !

इसका उत्तर श्री मधुसूदन सरस्वती ने अद्वैतसिद्धिः में दिया है -

सिद्धान्तपक्ष में अभाव को अधिकरण-स्वरुप ही माना जाता है , उससे भिन्न नहीं । अतः यह अभाव अधिकरणमात्र होनेसे ब्रह्म सधर्मक / विशिष्ट है ऐसी शंका नहीं होती । 

भेदवादी - ब्रह्म निर्धर्मक होने से सत्त्व एवं असत्त्व धर्मद्वयशून्य हैं | सत्त्व एवं असत्त्व का अभाव मिथ्यात्व का साधक होने से ब्रह्म में भी मिथ्यातव लक्षण का अतिव्याप्ति होगा ?

उत्तर - ब्रह्म शुद्ध एवं सद्रूप हैं | सद्रूप का अर्थ हैं बाध्य्त्व का त्रिकालाभाव | ब्रह्म का सद्रूपता भावरूप नहीं बल्कि अभाव-रूप हैं | अभाव का अभाव होना असंभव होने से बाध्य्त्वाभाव का बाध्य्त्व नहीं हो सकता |
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इस विषय पर कांची परमाचार्य श्री चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती महास्वामी जी का एक विवेचन पर ध्यान देना चाहिए -

// Of course it is true that the Atman is permeating everywhere in such a way that there is no space for ‘space’ and so no ‘location’ to be specified for the Atman. The words ‘sarvaM’ (all) and ‘vyApakaM’ (permeation) both need for their meaning the concept of space, but it is true that space itself is subsumed by the Atman as to be nowhere.

The Formless one that is permeating everywhere is something which surpasses all attempts to imagine it ! That is why, even if the Atman is not attributed with qualities and form, a point has, as it were, been specified within the JIva’s body itself and the location of the Atman is to be imagined there. Who has done this specification? No less than the ParA-shakti Herself ! //

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