Tuesday, 30 January 2018

मनुष्य के स्वाभाविक दोष

क्या कर्तव्य है क्या अकर्तव्य , इसमें शास्त्र ही प्रमाण है ,

मानव  स्वयं धर्माधर्म का निर्णय  करने में सर्वथा समर्थ नहीं होता  है क्योंकि उसमें  भ्रम , प्रमाद, विप्रलिप्सा और करणापाटव - ये स्वाभाविक  दोष सम्भव होते हैं ।

प्रज्ञान शर्मा
।। जय श्री राम  ।।

Sunday, 28 January 2018

दयानन्द मत मर्दन

दयानन्द ने ज्योति:शास्त्र का उचित ज्ञान न होने से 'सत्यार्थप्रकाश' (पृष्ठ ३५-३६) में ज्योति: शास्त्र के फलभाग का पर्याप्त दूषण किया है।

......उसके द्वारा दिये गए तर्कों से इस बात की  पुष्टी हो जाती है कि उसे ज्योति:शास्त्र का ज्ञान नहीं था। अत: इसे #बालहठ अथवा #बालचेष्टितचपलता  कहना उचित है।

शास्त्र को यथाविधि जाने विना उसका #दूषण करने वाले तथा अपने को #तच्छात्रवित् कहने वाले ये दोनों ही दोषी होतें हैं।

#ध्यातव्य है कि ज्योति:शास्त्र में :--
१. जो ज्योति:शास्त्र जाने विना अथवा मात्र फलभाग पढकर अपने को दैवज्ञ अथवा ज्योतिषिक कहता है उसे #नक्षत्रसूची ऐसा कहकर निन्दनीय माना है।

२. जो ज्योति:शास्त्र जाने विना शास्त्र की निन्दा करता है उसे भी निन्दनीय माना है।
_______ उपरोक्त दोनों शास्त्र निर्णय में प्रमाण नहीं होते।

#सिद्धान्तज्ञ_अनेकहोरावित्_उहापोहपटु_सिद्धमन्त्र_कुलीनविप्र  ही दैवज्ञ अथवा फलप्रवक्ता होता है। नान्य:।

अत: शास्त्रज्ञों विप्रों को चाहिए कि कुप्रचारकों भ्रान्तों का भ्रमभञ्जन तथा शास्त्रतत्वों का यथाशास्त्र समाज में प्रचार करें!

तथा स्वकल्याण चाहने वाले को चाहिए कि विशुद्धविप्र से ही फलादेश श्रवण करें!

जय श्री राम।।

Saturday, 27 January 2018

वेद_और_ब्राह्मण_में_पुराणों_की_चर्चा_सप्रमाण_है


सांस्कृतिक अर्थ से हिन्दू संस्कृति के वे विशिष्ट धर्मग्रंथ जिनमें सृष्टि से लेकर प्रलय तक का इतिहास-वर्णन शब्दों से किया गया हो, पुराण कहे जाते है। पुराण शब्द का उल्लेख वैदिक युग के वेद सहित आदितम साहित्य में भी पाया जाता है अत: ये सबसे पुरातन (पुराण) माने जा सकते हैं।
#अथर्ववेद के अनुसार "ऋच: सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह ११.७.२") अर्थात् पुराणों का आविर्भाव ऋक्, साम, यजुस् औद छन्द के साथ ही हुआ था।

#शतपथ ब्राह्मण (१४.३.३.१३) में तो पुराणवाग्ङमय को वेद ही कहा गया है। #छान्दोग्य-उपनिषद् (इतिहास पुराणं पञ्चम वेदानांवेदम् ७.१.२) ने भी पुराण को वेद कहा है।

#बृहदारण्यकोपनिषद् तथा महाभारत में कहा गया है कि
"इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थ मुपबर्हयेत्" अर्थात् वेद का अर्थविस्तार पुराण के द्वारा करना चाहिये। इनसे यह स्पष्ट है कि वैदिक काल में पुराण तथा इतिहास को समान स्तर पर रखा गया है।

#अमरकोष आदि प्राचीन कोशों में पुराण के पांच लक्षण माने गये हैं :
सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (प्रलय, पुनर्जन्म), वंश (देवता व ऋषि सूचियां), मन्वन्तर (चौदह मनु के काल), और वंशानुचरित (सूर्य चंद्रादि वंशीय चरित) ।

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वंतराणि च ।
वंशानुचरितं चैव पुराणं पंचलक्षणम् ॥
(१) सर्ग – पंचमहाभूत, इंद्रियगण, बुद्धि आदि तत्त्वों की उत्पत्ति का वर्णन,
(२) प्रतिसर्ग – ब्रह्मादिस्थावरांत संपूर्ण चराचर जगत् के निर्माण का वर्णन,
(३) वंश – सूर्यचंद्रादि वंशों का वर्णन,
(४) मन्वन्तर – मनु, मनुपुत्र, देव, सप्तर्षि, इंद्र और भगवान् के अवतारों का वर्णन,
(५) वंशानुचरित – प्रति वंश के प्रसिद्ध पुरुषों का वर्णन ।

'पुराण' का शाब्दिक अर्थ है - 'प्राचीन आख्यान' या 'पुरानी कथा' । ‘पुरा’ शब्द का अर्थ है - अनागत एवं अतीत। ‘अण’ शब्द का अर्थ होता है -कहना या बतलाना।
रघुवंश में पुराण शब्द का अर्थ है "पुराण पत्रापग मागन्नतरम्" एवं वैदिक वाङ्मय में "प्राचीन: वृत्तान्त:" दिया गया है।

।। जय श्री राम ।।

Tuesday, 23 January 2018

ब्राह्मण के धनुष वाण

#कट्टर_ब्राह्मणत्व और #कट्टर_शास्त्राश्रय - ये दो  सनातन वैदिक धर्म की प्रचण्ड शक्ति हैं ।

ब्राह्मण का कर्तव्य है कि वह कट्टर शास्त्राश्रयरूप कोदण्ड (धनुष) पर कट्टर ब्राह्मणत्व का तीक्ष्ण बाण  समाश्रित कर  असुरता का मर्मभेदन कर दे ।

देव भावनाओं से भरे ब्राह्मण का आत्म-बल ही धनुष है। उसकी वाणी प्रत्यंचा है। उसका तप बाण है। इस अचूक ब्रह्मास्त्र से सुसज्जित ब्रह्मवेत्ता असुरता को बेध कर रख देता है-

#जिह्वा_ज्या_भवति_कुल्मलं_वाँ_नाडीका_दन्तास्पतसाभिदिग्धाः_तेभिर्ब्रह्मा_विध्यति_देवपीयून्हृदयबलैर्धनुर्भिर्देवजूतैः।

(अथर्ववेद ५/१८/०८)

साभार - शंकरसन्देश

।। जय श्री राम ।।

Sunday, 21 January 2018

ब्राह्मण क्यों देवता ?


*नोट--*_कुछ आदरणीय मित्रगण कभी -कभी मजाक में या
कभी जिज्ञासा में,
कभी गंभीरता से
एक प्रश्न करते है कि_
*ब्राम्हण को इतना सम्मान क्यों दिया जाय या दिया जाता है ?*

            _इस तरह के बहुत सारे प्रश्न
समाज के नई पिढियो के लोगो कि भी जिज्ञासा का केंद्र बना हुवा है ।_

_*तो आइये
देखते है हमारे
धर्मशास्त्र क्या कहते है इस विषय में----*_
           

                *शास्त्रीय मत*

_पृथिव्यां यानी तीर्थानि तानी तीर्थानि सागरे ।_
_सागरे  सर्वतीर्थानि पादे विप्रस्य दक्षिणे ।।_
_चैत्रमाहात्मये तीर्थानि दक्षिणे पादे वेदास्तन्मुखमाश्रिताः  ।_
_सर्वांगेष्वाश्रिता देवाः पूजितास्ते तदर्चया  ।।_
_अव्यक्त रूपिणो विष्णोः स्वरूपं ब्राह्मणा भुवि ।_
_नावमान्या नो विरोधा कदाचिच्छुभमिच्छता ।।_

*•अर्थात पृथ्वी में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी समुद्र में मिलते हैं और समुद्र में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी ब्राह्मण के दक्षिण पैर में  है । चार वेद उसके मुख में हैं  अंग में सभी देवता आश्रय करके रहते हैं इसवास्ते ब्राह्मण को पूजा करने से सब देवों का पूजा होती है । पृथ्वी में ब्राह्मण जो है विष्णु रूप है इसलिए  जिसको कल्याण की इच्छा हो वह ब्राह्मणों का अपमान तथा द्वेष  नहीं करना चाहिए ।*

_•देवाधीनाजगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवता: ।_
_ते मन्त्रा: ब्राह्मणाधीना:तस्माद् ब्राह्मण देवता ।_

*•अर्थात् सारा संसार देवताओं के अधीन है तथा देवता मन्त्रों के अधीन हैं और मन्त्र ब्राह्मण के अधीन हैं इस कारण ब्राह्मण देवता हैं ।*   

_ऊँ जन्मना ब्राम्हणो, ज्ञेय:संस्कारैर्द्विज उच्चते।_
_विद्यया याति विप्रत्वं, त्रिभि:श्रोत्रिय लक्षणम्।।_

*ब्राम्हण के बालक को जन्म से ही ब्राम्हण समझना चाहिए।*
*संस्कारों से "द्विज" संज्ञा होती है तथा विद्याध्ययन से "विप्र" नाम धारण करता है।*

*जो वेद,मन्त्र तथा पुराणों से शुद्ध होकर तीर्थस्नानादि के कारण और भी पवित्र हो गया है,वह ब्राम्हण परम पूजनीय माना गया है।*

ऊँ पुराणकथको नित्यं, धर्माख्यानस्य सन्तति:।_
_अस्यैव दर्शनान्नित्यं ,अश्वमेधादिजं फलम्।।_

*जिसके हृदय में गुरु,देवता,माता-पिता और अतिथि के प्रति भक्ति है। जो दूसरों को भी भक्तिमार्ग पर अग्रसर करता है,जो सदा पुराणों की कथा करता और धर्म का प्रचार करता है ऐसे ब्राम्हण के दर्शन से ही अश्वमेध यज्ञों का फल प्राप्त होता है।*

पितामह भीष्म जी ने पुलस्त्य जी से पूछा--
*गुरुवर!मनुष्य को देवत्व, सुख, राज्य, धन, यश, विजय, भोग, आरोग्य, आयु, विद्या, लक्ष्मी, पुत्र, बन्धुवर्ग एवं सब प्रकार के मंगल की प्राप्ति कैसे हो सकती है?*
यह बताने की कृपा करें।*

*पुलस्त्यजी ने कहा--*
राजन!इस पृथ्वी पर ब्राम्हण सदा ही विद्या आदि गुणों से युक्त और श्रीसम्पन्न होता है।
तीनों लोकों और प्रत्येक युग में विप्रदेव नित्य पवित्र माने गये हैं।
ब्राम्हण देवताओं का भी देवता है।
संसार में उसके समान कोई दूसरा नहीं है।
वह साक्षात धर्म की मूर्ति है और सबको मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाला है।

ब्राम्हण सब लोगों का गुरु,पूज्य और तीर्थस्वरुप मनुष्य है।

*पूर्वकाल में नारदजी ने ब्रम्हाजी से पूछा था--*
ब्रम्हन्!किसकी पूजा करने पर भगवान लक्ष्मीपति प्रसन्न होते हैं?"

ब्रम्हाजी बोले--जिस पर ब्राम्हण प्रसन्न होते हैं,उसपर भगवान विष्णुजी भी प्रसन्न हो जाते हैं।
अत: ब्राम्हण की सेवा करने वाला मनुष्य निश्चित ही परब्रम्ह परमात्मा को प्राप्त होता है।
*ब्राम्हण के शरीर में सदा ही श्रीविष्णु का निवास है।*

_जो दान,मान और सेवा आदि के द्वारा प्रतिदिन ब्राम्हणों की पूजा करते हैं,उसके द्वारा मानों शास्त्रीय पद्धति से उत्तम दक्षिणा युक्त सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान हो जाता है।_

*जिसके घरपर आया हुआ ब्राम्हण निराश नही लौटता,उसके समस्त पापों का नाश हो जाता है।*
_पवित्र देशकाल में सुपात्र ब्राम्हण को जो धन दान किया जाता है वह अक्षय होता है।_
*वह जन्म जन्मान्तरों में फल देता है,उनकी पूजा करने वाला कभी दरिद्र, दुखी और रोगी नहीं होता है।जिस घर के आँगन में ब्राम्हणों की चरणधूलि पडने से वह पवित्र होते हैं वह तीर्थों के समान हैं।*

_ऊँ  विप्रपादोदककर्दमानि,_
_न वेदशास्त्रप्रतिघोषितानि!_
_स्वाहास्नधास्वस्तिविवर्जितानि,_
_श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि।।_

*जहाँ ब्राम्हणों का चरणोदक नहीं गिरता,जहाँ वेद शास्त्र की गर्जना नहीं होती,जहाँ स्वाहा,स्वधा,स्वस्ति और मंगल शब्दों का उच्चारण नहीं होता है। वह चाहे स्वर्ग के समान भवन भी हो तब भी वह श्मशान के समान है।*

_भीष्मजी!पूर्वकाल में विष्णु भगवान के मुख से ब्राम्हण, बाहुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।_

पितृयज्ञ(श्राद्ध-तर्पण), विवाह, अग्निहोत्र, शान्तिकर्म और समस्त मांगलिक कार्यों में सदा उत्तम माने गये हैं।

*ब्राम्हण के मुख से देवता हव्य और पितर कव्य का उपभोग करते हैं। ब्राम्हण के बिना दान,होम तर्पण आदि सब निष्फल होते हैं।*

_जहाँ ब्राम्हणों को भोजन नहीं दिया जाता,वहाँ असुर,प्रेत,दैत्य और राक्षस भोजन करते हैं।_

*ब्राम्हण को देखकर श्रद्धापूर्वक उसको प्रणाम करना चाहिए।*

_उनके आशीर्वाद से मनुष्य की आयु बढती है,वह चिरंजीवी होता है।ब्राम्हणों को देखकर भी प्रणाम न करने से,उनसे द्वेष रखने से तथा उनके प्रति अश्रद्धा रखने से मनुष्यों की आयु क्षीण होती है,धन ऐश्वर्य का नाश होता है तथा परलोक में भी उसकी दुर्गति होती है।_

*चौ- पूजिय विप्र सकल गुनहीना।*
      *शूद्र न गुनगन ग्यान प्रवीणा।।*

*कवच अभेद्य विप्र गुरु पूजा।*
*एहिसम विजयउपाय न दूजा।।*

       *------ रामचरित मानस......*

ऊँ नमो ब्रम्हण्यदेवाय,
       गोब्राम्हणहिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय,
        गोविन्दाय नमोनमः।।

*जगत के पालनहार गौ,ब्राम्हणों के रक्षक भगवान श्रीकृष्ण जी कोटिशःवन्दना करते हैं।*

_जिनके चरणारविन्दों को परमेश्वर अपने वक्षस्थल पर धारण करते हैं,उन ब्राम्हणों के पावन चरणों में हमारा कोटि-कोटि प्रणाम है।।_
*ब्राह्मण जप से पैदा हुई शक्ति का नाम है,*
*ब्राह्मण त्याग से जन्मी भक्ति का धाम है।*

*ब्राह्मण ज्ञान के दीप जलाने का नाम है,*
*ब्राह्मण विद्या का प्रकाश फैलाने का काम है।*

*ब्राह्मण स्वाभिमान से जीने का ढंग है,*
*ब्राह्मण सृष्टि का अनुपम अमिट अंग है।*

*ब्राह्मण विकराल हलाहल पीने की कला है,*
*ब्राह्मण कठिन संघर्षों को जीकर ही पला है।*

*ब्राह्मण ज्ञान, भक्ति, त्याग, परमार्थ का प्रकाश है,*
*ब्राह्मण शक्ति, कौशल, पुरुषार्थ का आकाश है।*

*ब्राह्मण न धर्म, न जाति में बंधा इंसान है,*
*ब्राह्मण मनुष्य के रूप में साक्षात भगवान है।*

*ब्राह्मण कंठ में शारदा लिए ज्ञान का संवाहक है,*
*ब्राह्मण हाथ में शस्त्र लिए आतंक का संहारक है।*

*ब्राह्मण सिर्फ मंदिर में पूजा करता हुआ पुजारी नहीं है,*
*ब्राह्मण घर-घर भीख मांगता भिखारी नहीं है।*

*ब्राह्मण गरीबी में सुदामा-सा सरल है,*
*ब्राह्मण त्याग में दधीचि-सा विरल है।*

*ब्राह्मण विषधरों के शहर में शंकर के समान है,*
*ब्राह्मण के हस्त में शत्रुओं के लिए बेद कीर्तिवान है।*

*ब्राह्मण सूखते रिश्तों को संवेदनाओं से सजाता है,*
*ब्राह्मण निषिद्ध गलियों में सहमे सत्य को बचाता है।*
🙏🙏🙏पं  मंगलेश पैन्यूली शिव चौक राम नगर रूडंकी🙏🙏🙏

Saturday, 20 January 2018

84 लाख योनिया

चौरासी लाख योनि का गणनानुक्रम
पद्मपुराण में इस प्रकार प्राप्त होता है:-

जलज नवलक्षाणी, स्थावर लक्षविंशति कृमयो: रुद्रसंख्यकः पक्षिणाम् दशलक्षणं त्रिंशलक्षाणी पशवः चतुरलक्षाणी मानव - पद्मपुराण 78/5

अर्थात्:--

पृथ्वी पर 9 लाख जलचर जीव,

20 लाख स्थिर (स्थावर) पेड़ पौधे, वनस्पति आदि,

11 लाख सरिसृप, कीड़े मकोड़े, कीट (क्षुद्रजीव),

10 लाख नभचर पक्षी,
30 लाख थलचर जंगली पशु,

4 लाख मानवीय नस्ल है।

इस प्रकार 9+20+11+10+30+4= 84
      लाख योनियाँ होती है।

Friday, 19 January 2018

कथित धर्माचार्यों की समालोचना उचित है या नहीं

कथित धर्माचार्यों के कार्यों की समालोचना  हमारा कर्त्तव्य -
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हम समालोचना क्यों करते हैं ? हमारा क्या उद्देश्य है ? श्रूयन्ताम् -

गुण- दोष तो  लोक में सर्वत्र होते ही हैं , निर्दोषता तो केवल परब्रह्म परमात्मा में ही है । (#निर्दोषं_हि_समं_ब्रह्म - श्रीमद्भगवद्गीता ५|१९) फलतः किसी का कथित दोषान्वेषण हमें कथमपि अभिप्रेत नहीं  है ।

#किन्तु  किसी कथित धर्माचार्य के जिस  आचरण से सनातन वैदिक परम्परा को आघात पहुंचता हैं , तो  उसका प्रतिषेध आवश्यक होता है, अन्यथा  लोक में वही आचार  '#धर्म' बन जायेगा ।  ( गतानुगतिको लोकः)  जागृति आवश्यक है । 

मौन की अपेक्षा सत्यभाषण का वैशिष्ट्य इसीलिये हमारे धर्मशास्त्रों  ने हमें  समझाया है -

#मौनात्सत्यं_विशिष्यते ।। ( मनुस्मृतिः २|८३ )

एवं सम्भवतः मननशीलता के सूक्ष्म मानकों को अनुभूत कराने हेतु ही श्री भगवान् आद्य शंकराचार्य ने भी वाणी के मौन को अधिक महत्त्व न दिया   -

#गिरा_मौनं_तु_बालानां_प्रयुक्तं_ब्रह्मवादिभि: ।। ( अपरेक्षानुभूतिः १०९)

#प्रश्न - तैत्तिरीय श्रुति कहती है कि आचार्य के उत्तम चरित्र की ही उपासना करनी चाहिये , अन्य की नहीं । ऐसे में समालोचना कहॉ तक उचित है ?
#यान्यस्माकं_सुचरितानि । #तानि_त्वयोपास्यानि । #नो_इतराणि । ( तैत्तिरीयोपनिषद् १|११|२-३)

#उत्तर -  आचार्य के  गुण -दोषों की समालोचना किये बिना  अन्तेवासी को  सुचरित्र का सटीक निर्धारण नही हो सकता एवं जब तक  आचार्य  के उपास्य सुचरित्र का निर्धारण नहीं होता , तब तक उसकी उपासना भी कैसे होगी ? बिना धारणा के ध्यान कहॉ ?  फलतः समालोचना तो कर्तव्य है ही ।

श्री भगवान् आद्य शंकराचार्य कहते हैं कि आचार्य  का शास्त्रपरम्परा-सम्मत कर्म ही अनुष्ठेय होता है , उसी के पालन करने का नियम होता है ।  शास्त्रपरम्परा- विरुद्ध आचरण तो आचार्य का भी कर्तव्य नही है  -

#यान्यस्माकमाचार्याणां_शोभनचरितान्याम्नायाद्यविरुद्धानि #तान्येव_त्वयोपास्यान्यदृष्टान्यनुष्ठेयानि , #नियमेन_कर्तव्यानीति_यावत् । #नो_इतराणि_विपरीतान्याचार्यकृतान्यपि ।।
- श्रीआद्यशंकराचार्याः ।।
(तैत्तिरीयोपनिषद्भाष्यम्  १|११|२-३)

जैसे हमारे आचार्य श्री भगवान् शंकर आचार्य के शास्त्रपरम्परा-विरुद्ध कर्मों  की अनुपालना न करने का उपदेश देते हैं , ऐसे ही हम समस्त सनातनधर्मानुयायी  द्विजों को शास्त्रपरम्परा-विरुद्ध आचार करने वाले तथाकथित आचार्यों  के शास्त्रविरुद्ध मत को न स्वीकारने का सन्देश देते हैं ।

।। जय श्री राम ।।

Tuesday, 16 January 2018

पुराण को पुराना कहने वालों का भ्रम निवारण

साभार:- श्री आद्य शंकराचार्य-संदेश

#छद्म_हिन्दू_विचारकों #का #भ्रमोच्छेदन -
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#आक्षेप- पुराण पुराने जमाने के अनुसार लिखीं बातें थीं ये नया जमाना है ।

#उत्तर - तुम लोग वो धूर्त हो जिसे बिना गॉठ के ही पंसारी बनना है ।  पुराणों का तुमने कभी गुरुमुख से अध्ययन नहीं किया , द्वितीयक स्रोतों ( Secondary  sources ) से तुम  पुराणों की जानकारी रखते हो , और वो भी  उन मूर्ख  लेखकों के लिखे हुए , जो  तुमसे  इस विषय में चार चरण आगे थे ।

प्रथम बात तो ये है कि  पुराण किसी व्यक्ति विशेष  की मनोकल्पित  रचना नहीं वरन् पुराण  ईश्वर से प्रकट दिव्य  ज्ञान का  एक विशेष  संकलन है , जिसका कलियुग आने से पूर्व मात्र सम्पादन होता है ।

दूसरी बात ये है कि पुराण शब्द का अभिप्राय ही होता है कि जो पुराना हो कर  भी नया हो (पुरा नवं भवति) ।  अतः नये जमाने पुराने जमाने के  व्यर्थ तर्कों का  कोई औचित्य ही यहॉ नहीं है ।  पुराण वो संविधान है , जो पहले भी पुराना  और नया था , आज भी पुराना और नया है तथा आगे भी पुराना और नया ही रहेगा  ।

जो वस्तु पुरानी हो वो नयी कैसे हो सकती है ? जो नयी हो वो पुरानी कैसे ?  तो इसका यह समाधान है कि  अनादि होने से पुराना और शाश्वत (त्रिकालाबाधित) होने से सदैव  नया ही  है ।

पुराण इस प्रकृति के अनादि शाश्वत विज्ञान हैं ,  प्रकृति से ही मानव भी बना है , मानव की सोच भी बनी है  और मानव बौद्धिक  व्यवहार भी करता है । ये जो तुम यहॉ बन्दरकूद मचा रहे हो , तुम्हारी कुण्डली भी पुराण में प्रतिपादित है ।

इसलिये पुराणों के अनुसार ही  हिन्दू धर्म की दशा और दिशा पर मार्गदर्शन होना चाहिये । पुराणों के विपरीत विचारधाराओं का समूल उन्मूलन करके ही हिन्दू धर्म संरक्षित होगा ।

।। जय श्री राम  ।।

Monday, 15 January 2018

सन्यास विचार

संन्यास का आरम्भ कुटीचक  कोटि से होता है , फिर बहूदक , फिर हंस , फिर परमहंस ।
यदि आप अत्यन्त अशक्त हैं तो स्पष्ट है कि आप कुटीचक कोटि के ही होंगे |

प्रबल वैराग्य होने पर भी विद्वत् एवं विविदिषु इस प्रकार दो प्रकार का विभाजन संन्यासियों का किया गया है |
विविदिषु संन्यासी के लिये श्रवणादि के विशेष नियम रहते हैं , जो कि वानप्रस्थ के नियमों से भी उत्कृष्ट हैं । विविदिषु वह संन्यासी है जो संन्यास आश्रम में प्रविष्ट तो हो गया किन्तु अभी  श्रवण , मनन एवं निदिध्यासन में रत है ।

प्रबल वैराग्य होने के कारण  ब्राह्मण उसी स्तर पर प्रबल नियम  धारण कर लेता है ।

तत्त्वतः संन्यास एक ही है किन्तु अज्ञान से अशक्तिवश तथा कर्मलोप - इस त्रैविध्य को पाकर यह चार प्रकार का हो जाता है । जिसे कि वैराग्य, ज्ञान , ज्ञानवैराग्य और कर्म - इन चार भागों में बेटा गया है । इसमें से कर्मसंन्यास दो प्रकार का होता है | एक निमित्त संन्यास और दूसरा अनिमित्त संन्यास  । निमित्त संन्यास को ही आतुर संन्यास भी कहते हैं , और अनिमित्त संन्यास क्रम संन्यास कहलाता है । संन्यास धारण करने का अधिकारी केवल ब्राह्मण होता है , अतः सर्वप्रथम आधिकारिकता तो हुई ब्राह्मण योनि । वह ब्राह्मण विधिवत् सम्पूर्ण वेद वेदाङ्गों का पारंगत हो | और काम्य तथा निषिद्ध ये दो प्रकार के कर्मों को त्यागकर नित्य , नैमित्तिक , प्रायश्चित्त और उपासना - इन चार प्रकार के कर्मों के विधिवत् अनुष्ठान से चित्त शुद्ध कर चुका हो |

और फिर श्री आद्य शंकराचार्य भगवान् ने  साधन चतुष्टय का उपदेश दिया है , वह उस ब्राह्मण में हो ! तब वह संन्यास का अधिकारी होता है ।

साधन चतुष्टय का अर्थ है चार प्रकार के साधन ,  उसमें हों तभी संन्यास में प्रविष्ट होने का पात्र होता है | पहला साधन है नित्यानित्यवस्तुविवेकः उसमें नित्य और अनित्य वस्तु का विवेक हो ! दूसरा साधन है इहामुत्रफलभोगविरागः - वह ब्राह्मण  इस लोक और परलोक संबंधी समस्त भोगों से विरक्त हो चुका हो | तीसरा साधन है शमादिषट्सम्पत्तिः - उसमें छः प्रकार की सम्पत्ति हो |
शम,दम,उपरति,तितिक्षा,समाधान, श्रद्धा ये छ: प्रकार की सम्पत्ति | और चौथा है मुमुक्षुत्व - उसमें मोक्ष की इच्छा हो ।

उसके उपरान्त शाखा भेद से नियम विशेष भी हो जाते हैं |
जैसे आथर्वणी शाखा वाले के लिये कहा गया है कि बिना शिरोव्रत  का अनुष्ठान किये वह संन्यास के अधिकारी नहीं होते ।

यजुर्वेदीय के लिये अपने शाखासूत्र के अनुसार नित्यादि कर्मों का अनुष्ठान होना अत्यावश्यक है , बॉकी जो उपर बताया | शाखानभिज्ञता का प्रथम फल तो यही  हैकि शाखारण्यता लग जाती है | शाखाविहीन वृक्ष में फल नहीं लगता । इसलिये शाखाबोध  अनिवार्य है । हरेक पाप का प्रायश्चित्त कहा है किन्तु संन्यास आश्रम से च्युत होने पर प्रायश्चित्त नहीं होता फिर ! इस सम्बन्ध में ब्रह्मसूत्र में पर्याप्त विचार हुआ है । इसलिये संन्यास बहुत सोच समझ कर लेना चाहिये , अग्निवस्त्र अग्नि है । और ध्यातव्य तो ये है कि बिना अग्निहोत्र के अग्नि का त्याग ही कैसे होगा ? और बिना अग्नि के त्याग के संन्यास आश्रम में प्रविष्ट कैसे होगा एक गृहस्थ ?
इसलिये प्रत्येक गृहस्थ को अहरहः स्वाहा कुर्यात्  अर्थात् सायंप्रातर्होम तो करना ही पडेगा यदि संन्यास में प्रवेश करना है तो | सर्वकर्मसंन्यास - सर्वकर्म  ही जब  नहीं होगा तो सर्वकर्मसंन्यास कैसे ? ये जो कहा जाता है यदहरेव विरजेत्  तदहरेव प्रव्रजेत् - ये जन्मान्तरकृत कर्मियों के लिये है । अतः श्री आद्य शंकराचार्यादि प्रभृत ब्रह्मचर्य से संन्यास लेने वाले ब्राह्मण  भी सभी पूर्वजन्मों में कर्मानुष्ठान का विधिवत् परिपालन कर चुके थे , ऐसा जानना चाहिये | श्री आद्य शंकराचार्य का तो हम प्रत्यक्ष ही देखते हैं कि वे अपने शिव पार्वती रूप में नित्य गृहस्थी ही  हैं । शिव पार्वती - ये कारण रूप हो गया और शंकराचार्य - ये कार्यरूप ।
कारण से ही कार्य प्रकट होता है । शास्त्र में गृहस्थ को इसीलिये सभी आश्रमों  का कारण कहा गया है ।बिना कर्मानुष्ठान  के कोई भी संन्यस्त हो ही नहीं सकता , इसलिये नित्यादि कर्मों का विशेष ध्यान सभी ब्राह्मणों को रखना चाहिये । यदि आज आपमें से किसी में उत्कट वैराग्य है तो इसका सीधा सा अर्थ यही है कि आप पूर्वजन्म में अवश्य ही उतना नित्यादिकर्म का पालन कर चुके हैं । आजकल लड़के लोग भावावेश में बहकर सीधा ब्रह्मचर्य से संन्यास ले लेते हैं और फिर वहॉ संन्यासाग्नि के तेज को धारण न कर पाने से  न घर के ही रह पाते हैं न घाट के ही | जब स्वयं श्री शुकदेव परमहंस जैसे महामुनि गृहस्थ धर्म को मान देते हैं , उसे धारण करते हैं तो आजकल के ब्राह्मण तो उनके धूल भी नहीं | इसलिये आप सभी विधिवत् रूप से गृहस्थाश्रम को पालन कीजिये , उस के प्रसाद से अवश्य आप सभी संन्यास के अधिकारी अवश्य बनेंगे | निष्काम भावना से कर्तव्यबुद्धि रखकर किया गया गृहस्थाश्रम ब्राह्मण  का चित्त शोधन करके उसे वैसे ही निखार देता है , जैसे प्रदीप्त अग्नि सुवर्ण को निखारती है | आजकल न जाने किसने ये दुष्प्रचार फैला दिया है कि गृहस्थाश्रम तो भोगियों के लिये है। , नहीं , ऐसा बिल्कुल भी नहीं है । गृहस्थाश्रम योगियों का आश्रम है ।  इसलिये सभी ऋषि मुनि इसका पालन किये । चित्तस्य शुद्धये  कर्म न तु वस्तूपलब्धये - श्री आद्य शंकराचार्य
कर्म (गृहस्थाश्रम) चित्तशुद्धि के लिये है , नकि मोक्ष के लिये (क्योंकि वह उसके बाद विचार /संन्यास से आता है ) | ये जो संन्यास में काषाय वस्त्र पहनते हैं न ये काषाय क्यों होते हैं पता है क्योंकि अग्निहोत्र की अग्नि को स्वयं में समाहित कर लेता है ब्राह्मण श्रुति ने कहा है - यावज्जीवमग्निहोत्रं जुहूयात् | जब तक जिये अग्निहोत्र करे , आजीवन अग्निहोत्र विधान किन्तु आजीवन अग्निहोत्र ही करेगा तो संन्यास कब लेगा ? उसी अग्नि को स्वयं में समाहित कर अग्निरूप हो जाता है ब्राह्मण | इसलिये ये अग्निवस्त्र इस बात के द्योतक हैं कि ये ब्राह्मण साक्षात् प्रज्ज्वलित अग्नि है | और जैसे विष्णु भगवान् के हाथ में चक्र है | शिव के हाथ में त्रिशूल होता है | क्योंकि ब्राह्मण भी देवता है | वही ब्राह्मण जब संन्यास लेता है तो एकदण्ड लेता है | ये जो कुश का वलय बनाते हैं , उसमें भी ब्रह्मग्रन्थि रखते हैं | ये ब्रह्मग्रन्थि भी परम्परागत बिना नहीं आती कि कैसे लगेगी ।  विशेष होती है ।
साभार प्रज्ञान शर्मा
जय श्री राम

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