संन्यास का आरम्भ कुटीचक कोटि से होता है , फिर बहूदक , फिर हंस , फिर परमहंस ।
यदि आप अत्यन्त अशक्त हैं तो स्पष्ट है कि आप कुटीचक कोटि के ही होंगे |
प्रबल वैराग्य होने पर भी विद्वत् एवं विविदिषु इस प्रकार दो प्रकार का विभाजन संन्यासियों का किया गया है |
विविदिषु संन्यासी के लिये श्रवणादि के विशेष नियम रहते हैं , जो कि वानप्रस्थ के नियमों से भी उत्कृष्ट हैं । विविदिषु वह संन्यासी है जो संन्यास आश्रम में प्रविष्ट तो हो गया किन्तु अभी श्रवण , मनन एवं निदिध्यासन में रत है ।
प्रबल वैराग्य होने के कारण ब्राह्मण उसी स्तर पर प्रबल नियम धारण कर लेता है ।
तत्त्वतः संन्यास एक ही है किन्तु अज्ञान से अशक्तिवश तथा कर्मलोप - इस त्रैविध्य को पाकर यह चार प्रकार का हो जाता है । जिसे कि वैराग्य, ज्ञान , ज्ञानवैराग्य और कर्म - इन चार भागों में बेटा गया है । इसमें से कर्मसंन्यास दो प्रकार का होता है | एक निमित्त संन्यास और दूसरा अनिमित्त संन्यास । निमित्त संन्यास को ही आतुर संन्यास भी कहते हैं , और अनिमित्त संन्यास क्रम संन्यास कहलाता है । संन्यास धारण करने का अधिकारी केवल ब्राह्मण होता है , अतः सर्वप्रथम आधिकारिकता तो हुई ब्राह्मण योनि । वह ब्राह्मण विधिवत् सम्पूर्ण वेद वेदाङ्गों का पारंगत हो | और काम्य तथा निषिद्ध ये दो प्रकार के कर्मों को त्यागकर नित्य , नैमित्तिक , प्रायश्चित्त और उपासना - इन चार प्रकार के कर्मों के विधिवत् अनुष्ठान से चित्त शुद्ध कर चुका हो |
और फिर श्री आद्य शंकराचार्य भगवान् ने साधन चतुष्टय का उपदेश दिया है , वह उस ब्राह्मण में हो ! तब वह संन्यास का अधिकारी होता है ।
साधन चतुष्टय का अर्थ है चार प्रकार के साधन , उसमें हों तभी संन्यास में प्रविष्ट होने का पात्र होता है | पहला साधन है नित्यानित्यवस्तुविवेकः उसमें नित्य और अनित्य वस्तु का विवेक हो ! दूसरा साधन है इहामुत्रफलभोगविरागः - वह ब्राह्मण इस लोक और परलोक संबंधी समस्त भोगों से विरक्त हो चुका हो | तीसरा साधन है शमादिषट्सम्पत्तिः - उसमें छः प्रकार की सम्पत्ति हो |
शम,दम,उपरति,तितिक्षा,समाधान, श्रद्धा ये छ: प्रकार की सम्पत्ति | और चौथा है मुमुक्षुत्व - उसमें मोक्ष की इच्छा हो ।
उसके उपरान्त शाखा भेद से नियम विशेष भी हो जाते हैं |
जैसे आथर्वणी शाखा वाले के लिये कहा गया है कि बिना शिरोव्रत का अनुष्ठान किये वह संन्यास के अधिकारी नहीं होते ।
यजुर्वेदीय के लिये अपने शाखासूत्र के अनुसार नित्यादि कर्मों का अनुष्ठान होना अत्यावश्यक है , बॉकी जो उपर बताया | शाखानभिज्ञता का प्रथम फल तो यही हैकि शाखारण्यता लग जाती है | शाखाविहीन वृक्ष में फल नहीं लगता । इसलिये शाखाबोध अनिवार्य है । हरेक पाप का प्रायश्चित्त कहा है किन्तु संन्यास आश्रम से च्युत होने पर प्रायश्चित्त नहीं होता फिर ! इस सम्बन्ध में ब्रह्मसूत्र में पर्याप्त विचार हुआ है । इसलिये संन्यास बहुत सोच समझ कर लेना चाहिये , अग्निवस्त्र अग्नि है । और ध्यातव्य तो ये है कि बिना अग्निहोत्र के अग्नि का त्याग ही कैसे होगा ? और बिना अग्नि के त्याग के संन्यास आश्रम में प्रविष्ट कैसे होगा एक गृहस्थ ?
इसलिये प्रत्येक गृहस्थ को अहरहः स्वाहा कुर्यात् अर्थात् सायंप्रातर्होम तो करना ही पडेगा यदि संन्यास में प्रवेश करना है तो | सर्वकर्मसंन्यास - सर्वकर्म ही जब नहीं होगा तो सर्वकर्मसंन्यास कैसे ? ये जो कहा जाता है यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत् - ये जन्मान्तरकृत कर्मियों के लिये है । अतः श्री आद्य शंकराचार्यादि प्रभृत ब्रह्मचर्य से संन्यास लेने वाले ब्राह्मण भी सभी पूर्वजन्मों में कर्मानुष्ठान का विधिवत् परिपालन कर चुके थे , ऐसा जानना चाहिये | श्री आद्य शंकराचार्य का तो हम प्रत्यक्ष ही देखते हैं कि वे अपने शिव पार्वती रूप में नित्य गृहस्थी ही हैं । शिव पार्वती - ये कारण रूप हो गया और शंकराचार्य - ये कार्यरूप ।
कारण से ही कार्य प्रकट होता है । शास्त्र में गृहस्थ को इसीलिये सभी आश्रमों का कारण कहा गया है ।बिना कर्मानुष्ठान के कोई भी संन्यस्त हो ही नहीं सकता , इसलिये नित्यादि कर्मों का विशेष ध्यान सभी ब्राह्मणों को रखना चाहिये । यदि आज आपमें से किसी में उत्कट वैराग्य है तो इसका सीधा सा अर्थ यही है कि आप पूर्वजन्म में अवश्य ही उतना नित्यादिकर्म का पालन कर चुके हैं । आजकल लड़के लोग भावावेश में बहकर सीधा ब्रह्मचर्य से संन्यास ले लेते हैं और फिर वहॉ संन्यासाग्नि के तेज को धारण न कर पाने से न घर के ही रह पाते हैं न घाट के ही | जब स्वयं श्री शुकदेव परमहंस जैसे महामुनि गृहस्थ धर्म को मान देते हैं , उसे धारण करते हैं तो आजकल के ब्राह्मण तो उनके धूल भी नहीं | इसलिये आप सभी विधिवत् रूप से गृहस्थाश्रम को पालन कीजिये , उस के प्रसाद से अवश्य आप सभी संन्यास के अधिकारी अवश्य बनेंगे | निष्काम भावना से कर्तव्यबुद्धि रखकर किया गया गृहस्थाश्रम ब्राह्मण का चित्त शोधन करके उसे वैसे ही निखार देता है , जैसे प्रदीप्त अग्नि सुवर्ण को निखारती है | आजकल न जाने किसने ये दुष्प्रचार फैला दिया है कि गृहस्थाश्रम तो भोगियों के लिये है। , नहीं , ऐसा बिल्कुल भी नहीं है । गृहस्थाश्रम योगियों का आश्रम है । इसलिये सभी ऋषि मुनि इसका पालन किये । चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये - श्री आद्य शंकराचार्य
कर्म (गृहस्थाश्रम) चित्तशुद्धि के लिये है , नकि मोक्ष के लिये (क्योंकि वह उसके बाद विचार /संन्यास से आता है ) | ये जो संन्यास में काषाय वस्त्र पहनते हैं न ये काषाय क्यों होते हैं पता है क्योंकि अग्निहोत्र की अग्नि को स्वयं में समाहित कर लेता है ब्राह्मण श्रुति ने कहा है - यावज्जीवमग्निहोत्रं जुहूयात् | जब तक जिये अग्निहोत्र करे , आजीवन अग्निहोत्र विधान किन्तु आजीवन अग्निहोत्र ही करेगा तो संन्यास कब लेगा ? उसी अग्नि को स्वयं में समाहित कर अग्निरूप हो जाता है ब्राह्मण | इसलिये ये अग्निवस्त्र इस बात के द्योतक हैं कि ये ब्राह्मण साक्षात् प्रज्ज्वलित अग्नि है | और जैसे विष्णु भगवान् के हाथ में चक्र है | शिव के हाथ में त्रिशूल होता है | क्योंकि ब्राह्मण भी देवता है | वही ब्राह्मण जब संन्यास लेता है तो एकदण्ड लेता है | ये जो कुश का वलय बनाते हैं , उसमें भी ब्रह्मग्रन्थि रखते हैं | ये ब्रह्मग्रन्थि भी परम्परागत बिना नहीं आती कि कैसे लगेगी । विशेष होती है ।
साभार प्रज्ञान शर्मा
जय श्री राम
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