Monday, 15 January 2018

श्री कृष्ण को कामुक कहने वालों का भ्रमभंग

कृष्ण भी कामुक थे , इस रासलीला के रूप में श्रीमद्भागवतमहापुराण ने घोर अश्लीलता का वर्णन किया है |

(ऐसा आर्य समाजी जन कहते हैं. . क्योंकि वे मूर्ख हैं.. श्रीकृष्ण को मनुष्य मानते हैं.. ईश्वर नहीं.. इसके लिए स्वयं भगवान ने गीता जी के नवें अध्याय में कहा है कि अवजानन्ति माम् मूढ़ा मानुषीं तनुमाश्रितम् ... परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्.. अर्थात् जो मूर्ख होते हैं वही मुझे मनुष्य शरीर धारी जीवविशेष मानते है.. क्योंकि वे मेरे वास्तविक महान ईश्वरीय रूप को नहीं जानते..) उनके लिए एक ही बात कहूँगा :- दे सट्टाक...दे सट्टाक... दे सट्टाक ... जब तक कुण्डलिनी न जग जाए तब तक सट्टाक... जैसे बलराम जी ने रुक्मी की सभा में परम जुवारी काशीराज की दौड़ा दौड़ा कर कुण्डलिनी जगाई थी। पुनः सट्टाक ... 😅😂😅
-निवारण-

ये श्री भगवान् कृष्ण के प्रति अश्लीलता , कामवशीभूतता आदि का समस्त भ्रम आपको विद्वान् ब्राह्मणों के चरणों मे बैठकर श्रीमद्भागवतमहापुराण आदि का श्रवण न करने , या यूं कहिये कि श्री कृष्ण और उनकी रासलीला को न जानने से उत्पन्न हुआ है | इस आक्षेप से स्पष्ट है कि आक्षेपकर्त्ता का मान्य श्रीकृष्ण मानव शरीरधारी एक लौकिक प्राणी विशेष से अधिक कुछ नहीं है , जो कि स्पष्ट रूप से उस श्रीमद्भागवतमहापुराण के सिद्धान्त (कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् –श्रीमद्भा० १|३|२८) के विरुद्ध है, जिसके कथन का आधार लेकर आपने आक्षेप सृजन किया है | श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम से श्रीभगवान् स्वयं कहते हैं कि मेरे परमभाव को न जानने वाले मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ सम्पूर्ण भूतों के महान् ईश्वर को तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योगमाया से संसार के उद्धार के लिए मनुष्य रूप में विचरते हुए मुझ परमेश्वर को साधारण मनुष्य मानते हैं-

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् |
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् || (श्रीमद्भगवद्गीता ९|११)

इस घोर अज्ञान का फ़ल ये होता है कि ये व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञानवाले विक्षिप्तचित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति को ही धारण किये रहते हैं –

मोघाशामोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः |
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः || (श्रीमद्भगवद्गीता ९|१२)

श्रीमद्भागवतमहापुराण का यह स्पष्ट सिद्धान्त है कि कृष्ण कोइ रक्त -अस्थि -मेद -मज्जादि विकारों का संघात स्वरूप देहविशेष वाला कोई प्रारब्धकर्म बद्ध जीव नहीं अपितु समस्त प्रकृति का नियामक , नित्यमुक्त , सच्चिदानन्दमय ईश्वर तत्त्व है |

अब रासलीला को अपनी अश्लीलता की दृष्टि से देखने वाले आप अज्ञानियों को ईश्वर कहते किसको हैं ? ये होता क्या है , ये जानने की महती आवश्यकता है , आपके भ्रमनिवारणार्थ यहाँ हम ईश्वर के स्वरूप , ईश्वर के सम्भोग और ईश्वर और जीव के मध्य परस्पर सम्बन्ध की शास्त्रीय दृष्टि से विवेचना करेंगे –

ईश्वर का स्वरूप ———–>

श्रीमद्भागवतमहापुराण के माहात्म्यारम्भ में ही स्पष्ट कहा गया है कि जिसका स्वरूप सच्चिदानन्द है, जो इस समस्त विश्व की उत्पत्ति, पालन एवं संहार करते है, जो उसके भक्तो के लिए तीनो ताप का विनाश करते है, ऐसे उन श्रीकृष्ण को हम सभी नमन करते है

सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे |
तापत्रयविनाशाय श्री कृष्णाय वयम्नुमः ||

सच्चिदानन्द कहना , विश्वोत्पत्यादि का हेतु कहना , तापत्रय का विनाशक कहना – ये तीनो तथ्य श्रीकृष्ण को एक ऐसा आकाश बना देते हैं जिसमें आक्षेपकर्त्ता मूर्खों के तलमलिनतादि आरोप का कोई भी व्यक्तिगत प्रभाव नहीं पड़ता !

महामुनि पतंजलि अपने योगसूत्र में ईश्वर का लक्षण लिखते हैं क्लेश-कर्म-विपाक और आशयों से रहित पुरुषों या आत्माओं से भी ईश्वर विशेष है –

क्लेश-कर्म-विपाक-आशयैः परामृष्टः पुरुषविशेषो ईश्वरः ||(पा०यो०सू० १|२४)

क्लेश – अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेष ये पांच प्रकार के क्लेश हैं | वस्तुतः इनका वर्णन द्वितीय पाद के तीन से नौंवे सूत्र तक किया गया है | सन्दर्भ और सुविधा के लिए यहां हम इसे स्पष्ट करते हैं –

अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेष ये पांच प्रकार के क्लेश कहे गए हैं-
अविद्यास्मिता रागद्वेष अभिनिवेषाः क्लेशाः || (पा०यो०सू० २|३ )

१. अविद्या – प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न, और उदार -इन चार अवस्थाओं में रहने वाले एवं जिनका वर्णन तीसरे सूत्र में अविद्या के बाद किया गया है उनका कारण अविद्या है –

अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्त-तनु-विच्छिन्न-उदाराणाम् || (पा०यो०सू० २|४)

प्रसुप्त – चित्त में रहते हुए भी किसी समय जो क्लेश अपना काम नहीं करता उसे प्रसुप्त कहते हैं , जैसे- प्रलय और सुषुप्ति में क्लेश कार्य नहीं करता |
तनु – योगसाधना के द्वारा क्लेशों कम हो जाते हैं,उन्हें तनु क्लेश कहा जाता है |
विच्छिन्न – एक क्लेश से जब दूसरा क्लेश दब जाता तब उस क्लेश की विच्छिन्नावस्था कहा जाता है |
उदार – जिस समय क्लेश अपना काम पुर्णतया कर रहा हो तो उसे उदार क्लेश कहा जाता है |

इस लोक के कामवासना तथा भौतिक भोगों को अपवित्र रहते हुए इन्हें अच्छा जानकर इवमें वासना रखना अपवित्र में पवित्रता की अनुभूति अविद्या है | इसी प्रकार उपरोक्म इहलौकिक नश्वर भोगो की साधना तथा प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम प्रमाणों के द्वारा अपवित्रता का ज्ञान होने से आत्मभावानुभूति रुप अविद्या है –

अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या | (पा०यो०सू० २|५)

यहां तक अविद्या नामक क्लेश का वर्णन किया गया है |

२. अस्मिता – दृग्शक्ति अर्थात् दृष्टा-पुरुष तथा दर्शनश्क्ति अर्थात् बुद्धि ये दोनों सर्वथा भिन्न और विलक्षण हैं और सामान्यतया व्यक्ति इनको एक समझता है | साधना के द्वारा पुरुष और बुद्धि में अन्तर का ज्ञान हो जाना ही अस्मिता नाम क्लेश का नाश कहा गया है –

दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता || (पा०यो०सू० २|६)

३. राग –जीव को जब किसी पदार्थ में सुखानुभूति होती है तो उसे उसके निमित्तों के प्रति आसक्त हो जाता है, इसे ही राग कहते हैं |

सुखानुशयी रागः | (पा०यो०सू० २|७)

४. द्वेष -जीव को जब किसी पदार्थ में दुखानुभूति होती है तो उसे उसके निमित्तों के प्रति विरक्ति हो जाती है इसे ही द्वेष कहते हैं | सुख-दुख की अनुभूतिरुप ये राग और द्वेश क्लेश आते जाते रहते हैं –

दुखानुशयी द्वेषः |(पा०यो०सू० २|८ )

५. अभिनिवेष – मृत्यु का भय प्रत्येक जीव के अन्तर में छुपा हुआ रहता है | जन्मों से मृत्यु के क्लेश का भय बना रहता है | प्रच्छन्न रुप से रहने के कारण इसे अभिनिवेष कहा गया है |

स्वरसवाही विदुषोअपि तथारुढ़ो अभिनिगवेषः | (पा०यो०सू० २|९ )

इस प्रकार से उपरोक्त अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेष ये पांच प्रकार के क्लेशों का स्वरूप कहा गया है|

इसी प्रकार , कर्म — चार प्रकार हैं – पुण्य, पाप, पुण्यपाप-मिश्रित, पुण्यपाप-रहित |
योगदर्शन के चतुर्थ कैवल्यपाद-७ में तीन प्रकार के कर्मों को नष्ट कर चौथे पुण्यपाप-रहित कर्म में अवस्थित होने से सिद्धिप्राप्ति की बात कही गई है | कर्माशुक्लकृष्णं योगिनः त्रिविधमितरेषाम् || शुक्ल या पुण्य कर्म वे हैं जिनका परिणाम स्वर्गादि सुख होता है, कृष्ण या पापकर्म वे होते हैं जिनका परिणाम नरकादि दुःख होता है, मिश्रित कर्मों का परिणाम सुख-दुख मिश्रित होता है | सिद्ध योगी के कर्म किसी भी प्रकार के भोग देनेवाले नहीं होते अतः चौथे पुण्य-पाप या शुक्लता-कृष्णता रहित कर्मों के द्वारा साधना में सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है |

विपाक — इन कर्मों के फल को ही विपाक कहा गया है |

आशय – कर्म-संस्कारों के समुदाय का नाम आशय है |
समस्त जीवों का क्लेश-कर्म-विपाक-आशय इन चारों से सम्बन्ध आनादि | यद्यपि मुक्त जीवों का इनसे कोई संबंध नहीं रहता किन्तु सिद्धिप्राप्ति से पहले तो रहा है, परन्तु ईश्वर का सम्बन्ध तो इनसे कभी नहीं रहा, न है और न होने वाला है | अतः मुक्त पुरुषों से भी ईश्वर विशेष है और सूत्रकार ने उसके लिए पुरुषविशेष शब्द का प्रयोग किया है | यह तो योग सम्मत ईश्वर की इतनी विलक्षणता है , किन्तु वेदान्त सम्मत ईश्वर तो इससे भी अधिक वैशिष्ट्य लिए है | वेदान्त के अनुसार जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादानकारण ईश्वर ही है | अर्थात् प्रकृति और ईश्वर में कोई तात्त्विक भेद ही नहीं , प्रकृतिश्च प्रतिज्ञादृष्टान्तानुपरोधात् (ब्रह्मसूत्र १|४|२३) इत्यादि शास्त्रीय सिद्धान्तों से यह तथ्य भलीभांति सिद्ध है | ऐसे में जब दूसरा कोई पृथक् तत्त्व है ही नहीं , तो किसी के साथ अश्लीलता का तो प्रश्न ही नहीं उठता | ईश्वर को चिन्मय कहने से किसी भी प्रकार के अज्ञान की गंध भी नहीं और आनन्दमय कहने से किसी विषय वासना जन्य आनंद की न आवश्यकता है न अपेक्षा | अस्तु ,

ईश्वर का सम्भोग —————–>

गोपियों एवं कृष्ण का प्रेम पाशविक सम्भोग तुल्य नहीं है , सविता गोभिः रसं भुङ्क्ते सूर्य नारायण अपनी किरणों(रश्मियों) से रस का सम्भोग करते हैं | यहाँ रश्मि के द्वारा रस की सूर्य के साथ अभेदापत्ति ही भोग है | सम्भोग माने स्वात्मतादात्म्यापादन | सूर्य भगवान अपनी रश्मियों से रस को आकृष्ट करके अपना ही रूप बना लेते हैं , भोक्ता भोग्य को आत्मसात कर ले – यही सम्भोग है | संसार के भोग में ऐसा नहीं बनता | जो समस्त देहधारी प्राणियों के अन्तः करण में विराजित सर्वाध्यक्ष ईश्वर क्रीडा कर रहा है , वही गोपियों का पति है , ऐसे में कोई दोष नहीं |

गोपीनां तत्पतीनाञ्च सर्वेषामेव देहिनाम् |
योsन्तश्चरति सोsध्यक्षः क्रीडनेनेह दोषभाक् || ( श्रीमद्भागवतम्१०|३३|३५)

रासलीला प्रकरण में पूर्व में ही श्रीमद्भागवतम् ने स्पष्ट किया है कि षड़विध ऐश्वर्यादि से सम्पन्न भगवान् श्रीकृष्ण (भगवानपि) ने मल्लिका आदि विविध शरदीय पुष्पों से सुशोभित रात्रि देखकर अपनी कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुसर्वथासमर्था योगमायाशक्ति को प्रकट कर गोपरमणियों के साथ रमण की इच्छा की |
साथ ही //वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे// से कहा कि रमण हेतु मन की सृष्टि की , कैसे ? कहा योगमायामुपाश्रितः अर्थात् योगमाया शक्ति से इस रासलीला का सम्पादन हुआ –

भगवानपि ता रात्रीः शारदोत्फुल्ल – मल्लिकाः |
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः || ( श्रीमद्भागवतम्१०|३१|०१)

इसीलिये तो श्री भगवान के संकल्प करते ही चन्द्रदेव ने प्राचीदिशा के मुखमंडल पर अपने शीतल किरणरूपी करकमलों से लालिमा की रोली-केसर का लेप कर दिया , बिना योगशक्ति के ये सब कहाँ संपन्न हो सकता है भला ? –

तदोडुराजः ककुभः करैर्मुखं प्राच्या विलिम्पन्नरुणेन शन्तमैः |
स चर्षणीनामुदगाच्छुचो मृजन् प्रियः प्रियाणा इव दीर्घदर्शनः || (श्रीमद्भागवतम्१०|३१|०२ )

यहाँ तक कि रासोत्सव में सम्प्रवृत्ति भी योगमाया से ऐसी की कि प्रत्येक दो गोपी के मध्य एक योगेश्वर कृष्ण प्रकट हो गए –
रासोत्सवः सम्प्रवृत्तो गोपीमण्डलमण्डितः |
योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयो || (श्रीमद्भागवतम्१०|३१|०२ )

ईश्वर और जीव का सम्बन्ध
सर्वान्तरात्मा सर्वशक्तिमान् पूर्णतम पुरुषोत्तम ईश्वर , जीवों को स्वात्मतादात्म्यापादन सम्पादन करते हैं , इसलिए भगवान भोक्ता हैं , जीव भोग्य है | इसीतरह जीव गोपाङ्गना है , गोपाङ्गना भाव बिना जीव को कल्याण न हुआ है और न होगा | गोपाङ्गनाभाव में ही जीवों का कल्याण है | गोपाङ्गना भाव माने कृष्ण की काया की छाया बन जाना | जिस तरह काया की स्थिति-गति-प्रवृत्ति में छाया की स्थिति गति प्रवृत्ति होती है , उसी तरह प्रियतम की स्थिति-गति-प्रवृत्ति में अपनी स्थिति-गति-प्रवृत्ति हो ! अपनी कामना स्वतन्त्र कुछ नहीं | प्रभु की कामना में अपनी कामना मिला दे | प्रभु के मन में अपना मन मिला दे | अपना अस्तित्व खो दे | यही गोपाङ्गनाभाव है | गोपाङ्गनाओं ने ऐसा ही किया | प्रभु ने गोपाङ्गनाओं को आत्मसात कर लिया | प्रीतम भोक्ता है और प्रिय उनका भोग्य !इसी भाव को अभिव्यक्त करते हुए तो पूज्य गोस्वामी श्री तुलसीदास जी महाराज कहते हैं कि प्रेम करना श्रीभगवान् ही जानते हैं और कोई नहीं –
जानत प्रीति रीति रघुराई |
नाते सब हाते करी राखत राम सनेह सगाई || (विनयपत्रिका १६४)
श्रीभगवान् वेद ने भी जीव और ईश्वर के मध्य का सम्बन्ध उपदेश किया , तथा दोनों के परस्पर सायुज्य को साख्य, साद्देश्य और साजात्य सम्बन्धो में अभिव्यक्त कर सदा सदा के लिए जीव और ईश्वर के प्रेम को अमर कर दिया –
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते|
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥ (ऋग्वेद १|१६४|८०)

और आगे चलकर मुण्डक श्रुति ने जीव के लिए प्रेमावातार स्वरूप इस ईश्वर के साक्षात्कार से पाप और पुण्य के बंधनों से मुक्त एक अद्वितीय साम्य को प्राप्त करने का उपदेश दिया , ऐसी साम्यता जिसमें किसी भी सांसारिक सम्बन्ध की लिप्तता न हो , जो विगतक्लेशा हो ! (निरञ्जनः परमं साम्युपैति -मु० उप० ३|१|३ )
श्री कृष्ण का ईश्वरत्व (अर्थात् आत्मत्व ) हमने ऊपर स्पष्ट किया है , ऐसे में गोपियां आत्मा से क्रीडा करती हैं इसलिए आत्मक्रीड ब्रह्मवेत्ता हैं , आत्मा से रति करने वाली क्रिया (रास ) करती हैं | श्रुति कहती है , यह आत्मा में क्रीडा करने वाला और आत्मा में ही रमण करने वाला क्रियावान् पुरुष ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठतम है | (आत्मक्रीड आत्मरतिः क्रियावान् नेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः – मु०उप० ३|१|४) जैसे जलतरंग जलीयसागर मे समाती है तो दोनों के मध्य फिर कोई आवरण, कोई भेद -दुराव नहीं रह जाता , ऐसे ही जीव की ईश्वर की समता प्राप्ति का क्रम होता है | अतः मन्मथ अर्थात् संसारी प्राणियों के मन को भी मथने वाले काम का भी साक्षात् मन मथने वाले साक्षान्मन्मथमथः (श्रीमद्भागवतम् १०|३२|०२) परब्रह्म परमेश्वर कामविजयस्वरूपा इस रासलीला को कामवशी लीला कहना कितना घोर अज्ञान है, आप विचार कर सकते हैं |

जय श्री राम

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