Friday, 19 January 2018

कथित धर्माचार्यों की समालोचना उचित है या नहीं

कथित धर्माचार्यों के कार्यों की समालोचना  हमारा कर्त्तव्य -
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हम समालोचना क्यों करते हैं ? हमारा क्या उद्देश्य है ? श्रूयन्ताम् -

गुण- दोष तो  लोक में सर्वत्र होते ही हैं , निर्दोषता तो केवल परब्रह्म परमात्मा में ही है । (#निर्दोषं_हि_समं_ब्रह्म - श्रीमद्भगवद्गीता ५|१९) फलतः किसी का कथित दोषान्वेषण हमें कथमपि अभिप्रेत नहीं  है ।

#किन्तु  किसी कथित धर्माचार्य के जिस  आचरण से सनातन वैदिक परम्परा को आघात पहुंचता हैं , तो  उसका प्रतिषेध आवश्यक होता है, अन्यथा  लोक में वही आचार  '#धर्म' बन जायेगा ।  ( गतानुगतिको लोकः)  जागृति आवश्यक है । 

मौन की अपेक्षा सत्यभाषण का वैशिष्ट्य इसीलिये हमारे धर्मशास्त्रों  ने हमें  समझाया है -

#मौनात्सत्यं_विशिष्यते ।। ( मनुस्मृतिः २|८३ )

एवं सम्भवतः मननशीलता के सूक्ष्म मानकों को अनुभूत कराने हेतु ही श्री भगवान् आद्य शंकराचार्य ने भी वाणी के मौन को अधिक महत्त्व न दिया   -

#गिरा_मौनं_तु_बालानां_प्रयुक्तं_ब्रह्मवादिभि: ।। ( अपरेक्षानुभूतिः १०९)

#प्रश्न - तैत्तिरीय श्रुति कहती है कि आचार्य के उत्तम चरित्र की ही उपासना करनी चाहिये , अन्य की नहीं । ऐसे में समालोचना कहॉ तक उचित है ?
#यान्यस्माकं_सुचरितानि । #तानि_त्वयोपास्यानि । #नो_इतराणि । ( तैत्तिरीयोपनिषद् १|११|२-३)

#उत्तर -  आचार्य के  गुण -दोषों की समालोचना किये बिना  अन्तेवासी को  सुचरित्र का सटीक निर्धारण नही हो सकता एवं जब तक  आचार्य  के उपास्य सुचरित्र का निर्धारण नहीं होता , तब तक उसकी उपासना भी कैसे होगी ? बिना धारणा के ध्यान कहॉ ?  फलतः समालोचना तो कर्तव्य है ही ।

श्री भगवान् आद्य शंकराचार्य कहते हैं कि आचार्य  का शास्त्रपरम्परा-सम्मत कर्म ही अनुष्ठेय होता है , उसी के पालन करने का नियम होता है ।  शास्त्रपरम्परा- विरुद्ध आचरण तो आचार्य का भी कर्तव्य नही है  -

#यान्यस्माकमाचार्याणां_शोभनचरितान्याम्नायाद्यविरुद्धानि #तान्येव_त्वयोपास्यान्यदृष्टान्यनुष्ठेयानि , #नियमेन_कर्तव्यानीति_यावत् । #नो_इतराणि_विपरीतान्याचार्यकृतान्यपि ।।
- श्रीआद्यशंकराचार्याः ।।
(तैत्तिरीयोपनिषद्भाष्यम्  १|११|२-३)

जैसे हमारे आचार्य श्री भगवान् शंकर आचार्य के शास्त्रपरम्परा-विरुद्ध कर्मों  की अनुपालना न करने का उपदेश देते हैं , ऐसे ही हम समस्त सनातनधर्मानुयायी  द्विजों को शास्त्रपरम्परा-विरुद्ध आचार करने वाले तथाकथित आचार्यों  के शास्त्रविरुद्ध मत को न स्वीकारने का सन्देश देते हैं ।

।। जय श्री राम ।।

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