Thursday, 30 November 2017

पूजा का प्रकार

पूजा के पाँच प्रकार-
#अभिगमन_उपादान_योग_स्वाध्याय_और_इज्या।

#अभिगमन-देवताओं के स्थान को साफ़ करना लीपना निर्माल्य हटाना ।

#उपादान-  गंध पुष्प आदि पूजा-सामग्री संग्रह करना।

#योग-  इष्टदेव की आत्मरूप से भावना करना।

#स्वाध्याय-  मन्त्रार्थ-अनुसन्धान करते हुए जप करना सूक्त स्तोत्र आदिका पाठ करना गुण नाम लीला आदि का कीर्तन करना और वेदान्तशास्त्र आदि का अभ्यास करना।

#इज्या-उपचारों द्वारा अपने इष्टदेव की पूजा करना।

ये पांच प्रकार की पूजा क्रमशः-सार्ष्टि,सामीप्य,सालोक्य,सायुज्य और सामीप्य-मुक्ति देने वाली हैं।

विस्तृत जानकारी के लिए हमें योग्य आचार्य जी का शरण-ग्रहण कर लेना चाहिए और उनके निर्देशानुसार आराधना करनी चाहिए।

||जय श्री राम||

Wednesday, 29 November 2017

व्यक्ति की पहचान उसके कर्म से होती है

व्यक्ति की पहचान उसके  किये जाने वाले कर्म  कराते  हैं , कि  वह  व्यक्ति है क्या !  इसलिये एक व्यक्ति के व्यक्तित्व को उसके कार्यों से  समझना  चाहिये ,  अन्यथा  वाणी तो  छलिये,  स्वार्थी और षडयन्त्रकारी  भी  बहुत अच्छी बोल लेते हैं ।

व्याध बहुत सुन्दर तन्त्री  बजाता  है , जिससे मृग मुग्ध होकर उसके पास आता है ।  पर  इस तन्त्रीवादन   के बल पर जब वह उस   मुग्ध मृग को बॉधकर उसकी हत्या करता है , तब उसके  नीच /पापी  होने की सिद्धि होती है ।

।। जय श्री राम  ।।

Tuesday, 28 November 2017

सनातन के गोत्रादि

​एक कुलीन ब्राह्मण को अपनी कुल परम्परा का सम्पूर्ण परिचय निम्न  ११ (एकादश) बिन्दुओं के माध्यम से ज्ञात होना चाहिए -

[१ ]  गोत्र ।

[२ ]  प्रवर ।

[३ ]  वेद ।

[४]  उपवेद ।

[५]  शाखा ।

[६]  सूत्र ।

[७]  छन्द ।

[८]  शिखा ।

[९]  पाद  ।

[१०]  देवता ।

[११]  द्वार ।

  [१] गोत्र - गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषिकुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है । किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया । इन गोत्रों के मूल ऋषि – विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। इन गोत्रों के अनुसार इकाई को "गण" नाम दिया गया, यह माना गया की एक गण का व्यक्ति अपने गण में विवाह न कर अन्य गण में करेगा। इस प्रकार कालांतर में ब्राह्मणो की संख्या बढ़ते जाने पर पक्ष ओर शाखाये बनाई गई । इस तरह इन सप्त ऋषियों पश्चात उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों के नामो से अन्य गोत्रों का नामकरण हुआ ।
गोत्र शब्द  एक अर्थ  में  गो अर्थात्  पृथ्वी का पर्याय भी है ओर 'त्र' का अर्थ रक्षा करने वाला भी हे। यहाँ गोत्र का अर्थ पृथ्वी की रक्षा करें वाले ऋषि से ही है। गो शब्द इन्द्रियों का वाचक भी है, ऋषि- मुनि अपनी इन्द्रियों को वश में कर अन्य प्रजाजनों का मार्ग दर्शन करते थे, इसलिए वे गोत्रकारक कहलाए। ऋषियों के गुरुकुल में जो शिष्य शिक्षा प्राप्त कर जहा कहीं भी जाते थे , वे अपने गुरु या आश्रम प्रमुख ऋषि का नाम बतलाते थे, जो बाद में उनके वंशधरो में स्वयं को उनके वही गोत्र कहने की परम्परा आविर्भूत हुई । जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्‍व है , यथा -

१. गोत्रों से व्‍यक्ति और वंश की पहचान होती है ।

२. गोत्रों से व्‍यक्ति के सम्बन्धों की पहचान होती है ।

३. गोत्र से सम्बन्ध स्थापित करने में सुविधा रहती है ।

४. गोत्रों से निकटता स्‍थापित होती है और भाईचारा बढ़ता है ।

​५. गोत्रों के इतिहास से व्‍यक्ति गौरवान्वित महसूस करता है और प्रेरणा लेता है ।

[२ ] प्रवर -

प्रवर का अर्थ हे 'श्रेष्ठ" । अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें । अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। इसका अर्थ है कि आपके कुल में आपके गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर तीन अथवा पाँच आदि अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे ।

[३ ] वेद -

वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने लाभ किया है , इनको सुनकर याद किया जाता है , इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं। प्रत्येक ब्राह्मण का अपना एक विशिष्ट वेद होता है , जिसे वह अध्ययन -अध्यापन करता है ।

[४] उपवेद -

प्रत्येक वेद  से  सम्बद्ध  विशिष्ट  उपवेद  का  भी  ज्ञान  होना  चाहिये  ।

[५]  शाखा -

वेदो के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है , कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।

[६]  सूत्र -

व्यक्ति शाखा के अध्ययन में असमर्थ न हो , अतः उस गोत्र के परवर्ती ऋषियों ने उन शाखाओं को सूत्र रूप में विभाजित किया है, जिसके माध्यम से उस शाखा में प्रवाहमान ज्ञान व संस्कृति को कोई क्षति न हो और कुल के लोग संस्कारी हों !

[७]  छन्द  -

उक्तानुसार ही प्रत्येक ब्राह्मण को  अपने परम्परासम्मत   छन्द का  भी  ज्ञान  होना  चाहिए  ।

[८]  शिखा -

अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बांधने  की परम्परा शिखा कहलाती है ।

[९]  पाद -

अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं । ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है । अपने -अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं ।

[१०]  देवता - 

प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते है वही उनका कुल देवता [गणेश , विष्णु, शिव , दुर्गा ,सूर्य इत्यादि पञ्च देवों में से कोई एक ] उनके आराध्‍य देव है । इसी प्रकार कुल के भी  संरक्षक  देवता या कुलदेवी होती हें । इनका ज्ञान कुल के वयोवृद्ध  अग्रजों [माता-पिता आदि ] के द्वारा अगली पीड़ी को दिया जाता  है । एक कुलीन ब्राह्मण को अपने तीनों प्रकार के देवताओं का बोध  तो अवश्य ही  होना चाहिए -

(क) इष्ट देवता अथवा इष्ट देवी ।
(ख) कुल देवता अथवा कुल देवी ।
(ग) ग्राम देवता अथवा ग्राम देवी ।

[११]  द्वार - 

यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता )  जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार या दिशा  कही जाती है।
🙏🏼🙏🏼संकलित🙏🏼🙏🏼
*८३४९६५५१०८*

Monday, 27 November 2017

जातिभेद न करो का उत्तर

प्रश्न : - न मे जातिभेद:

उत्तर: - अब तुम  सिखाओगे  हमें शांकर सिद्धान्त  ? परमार्थ में प्राणी मात्र से अभेददृष्टि होने पर भी व्यवहार में उनसे यथायोग्य भेद व्यवहार करना ही धर्म होता  है ,  इस प्रकार दोनों का सामञ्जस्य  यही योग है , भावाद्वैत  ही कर्तव्य होता है, क्रियाद्वैत नहीं !

#भावाद्वैतं_सदा_कुर्यात्_क्रियाद्वैतं_न_कर्हिचित् ।
#अद्वैतं_त्रिषु_लोकेषु_नाद्वैतं_गुरुणा_सह ।।
-श्री आद्य शंकराचार्य ।

Sunday, 26 November 2017

ध्रूक को चार्ज कहने वालों का भ्रमभंग

#आक्षेप :- करशैईगाड़ के ब्राह्मण चार्ज भाट है |

#निराकरण :- पहली बात - चार्ज भाट का लक्षण क्या है ? और उसे सप्रमाण सिद्ध करो! क्योंकि #लक्षणप्रमाणाभ्यां_वस्तुसिद्धि: 👈 लक्षण व प्रमाण द्वारा वस्तु की सिद्धि होती है | अत: आक्षेप्ता को लक्षण + प्रमाण सहित उपर्युक्त शब्द का विवेचन करना चाहिए |

👉आरोप लगाना अलग बात है उसे सिद्ध करना अलग बात है 👈

👉 वैयक्तिक द्वेष के कारण कुछ भी कह देना आपकी मूर्खता ही है |

दूसरी बात - आक्षेप्ता को पहले अपने परिवेष में झांकना चाहिए कि आपके परिवेष में कैसे ब्राह्मण हैं ? अध्ययन, अध्यापनादि 6 कर्म ब्राह्मण को शास्त्र में विहित हुए है| आप उसका कितना परिपालन करतें है यह कोई कहने की आवश्यकता नहीं है!

ब्राह्मण को भोजनालय (होटल) खोलकर निर्वाह करना किस शास्त्र में कहा है ?

चाण्डाल, शूद्रादिओं के झूंठे पात्र (भांडे ) धोना किस शास्त्र में विहित है ?

शाक-सब्जियों का विक्रय वैश्य कर्म है किस शास्त्रविधि से आप यह कार्य करते हो ?

मांस मदिरा आदि का विक्रय करना कहां तक शास्त्रोचित है ?

ऐसे अनेक कर्म है कहां तक गिनाऊं ? जो तुम नित्य करते हो !

ऐसे तो करशैईगाड़ के ब्राह्मण नहीं है |

(करशैईगाड़ के #ध्रूक_ब्राह्मण देव मन्दिर में कार्य करतें है अत: हमने मृतकादि कर्म के लिए अपनी जमीन देकर एक #नाथ परिवार को रखा है जो कि यह सब कार्य करता है| )

👉 भाव यह है कि यदि स्वयं तुम परधर्म रूपी अधार्मिक कृत्य में संलग्न हो तो अन्यों को विना प्रमाण कुछ कहना उचित नहीं|
परधर्म नरकादि भय देने वाला होता है | 👍

ब्राह्मणों! को #श्री_सुदामा जी के पावन चरित्र से आज सीखने की महती आवश्यकता है | अत्यन्त दीन दशा में रहते हुए भी स्वधर्म नहीं छोडा 👌👍

और सुनो! उच्च कुल मात्र में जन्म लेने से ही मनुष्य श्रेष्ठ नहीं होता | योनि + तप + श्रुत ये तीन शास्त्र ने ब्राह्मण के कारण वताए | तप व श्रुत से हीन होने पर जातिमात्र ब्राह्मण होता है पूज्य नहीं |

#तप: #श्रुतं_च_योनिश्च_त्रय_ब्राह्मण्यकारणम्|
#तप: #श्रुताभ्यां_यो_हीनो_जातिब्राह्मण_एव_स: ||

अपि च -

#रुपयौवनसम्पन्ना: #विशालकुलसम्भवा:|
#विद्याहीना: #न_शोभन्ते_निर्गन्धा_इव_किंशुका:||

प्रभु सद्बुद्धि प्रदान करें!

जय श्री राम

Friday, 24 November 2017

केवलाद्वैत

सरल रूप में महान् सन्देश -

#एकमेवाद्वितीयम् - यह श्रुति कहती है कि आत्मा एक ही है , अद्वितीय है ।  इस प्रकार आत्मा का #एक ही होना और #अद्वितीय होना वेदसिद्ध है ।

#शान्तं_शिवमद्वैतम् - यह श्रुति कहती है कि आत्मा शान्त है , शिव है , #अद्वैत है ।

#सत्यं_ज्ञानमनन्तम्- यह श्रुति आत्मा को सत्य , ज्ञान और #अनन्त लक्षण बताती है ।

#सर्वं_खल्विदं_ब्रह्म - यह श्रुति कहती है कि यह सब आत्मा ही है ।

#अहं_ब्रह्मास्मि, #तत्त्वमसि, #अयमात्मा_ब्रह्म   - इत्यादि  श्रुतियॉ जीव को भी ब्रह्म ही बताती हैं ।

#सूक्ष्मातिसूक्ष्मम् - यह श्रुति आत्मा को अत्यन्त सूक्ष्म बताती है ।

जब आत्मा एक ही है , वह सत्य है , ज्ञानस्वरूप है, अनन्त है   यह सब है ,  शान्त है, शिव है , अद्वैत है  और अत्यन्त सूक्ष्म है , तो  फिर  #भेद का अवकाश ही कहॉ रहा ?

इस प्रकार  एक  अत्यन्त सरल,  साधारणमति  ब्राह्मण को भी   #केवलाद्वैत सिद्धान्त रूप अखिलवेदार्थ को हृदयङ्गम कर   #श्री_आद्य_शंकराचार्य  के आदेश, उपदेश अथवा सन्देशों को श्रद्धावनत  होकर श्रवण , मनन, निदिध्यासन  करना चाहिये ।

।। जय श्री राम  ।।

भेदवादियों की चिकित्सा

#भेदवादियों_के_अज्ञान_की_चिकित्सा -

#आक्षेप - जीव का बन्धन प्रत्यक्ष सिद्ध है , इसलिये जीव को  नित्यमुक्त  ब्रह्म नहीं माना जा सकता ।

#समाधान -प्रत्यक्ष होने के कारण  ही  बन्धन की सत्यता नहीं बतलाई जा सकती , प्रत्यक्षता  तो सत्य और असत्य दोनों ही प्रकार की वस्तुओं में समान रूप से देखी जाती है । ☝️

शास्त्रविधि और कारणदृष्टि  के बल पर जीव के  बन्धन की सत्यता का बाध  हो जाता है ।  इस तथ्य के सन्दर्भ में अनगिनत  श्रुतियॉ  प्रमाण हैं ।

।। जय श्री  राम ।।

आत्मा का द्वित्व व परिमित होने का खण्डन

#पाखण्ड_मत - आत्मा दो  हैं  ।

#वेद_सिद्धान्त - आत्मा  एक  है  ।

#पाखण्ड मत -  आत्मा  परिमित  है ।

#वेद  सिद्धान्त -  आत्मा  अनन्त है  ।

#प्रश्न -  यदि  आत्मा  एक  ही   और   अनन्त   है , तो    आत्मा  के  सन्दर्भ में  वेद में     वृक्ष के दो पक्षी के रूप मे  तथा       आत्मा को  बालाग्रशतभागस्य  इत्यादि पूर्वक  अणु क्यों  कहा  है  ?

#उत्तर  -   आत्मा को  दो  पक्षी  के  रूप  में  बताना  उसके व्यावहारिक  भेद के बोध  के लिए  तथा  आत्मा  का  अणुत्व  उसकी   सूक्ष्मता  को  बताने   के  लिए  कहा गया  है  ।

।। जय श्री राम  ।।

Tuesday, 21 November 2017

महानुशासनम्

#महानुशासनाम्

आम्नायाः कथिता ह्येते यतीनाञ्च पृथक्-पृथक् । तैः सर्वेश्चतुराचार्यैर्नियोगेन यथाक्रमम् ॥१॥

प्रयोक्ततव्याः स्वधर्मेषु शासनीयास्ततोऽन्यथा । कुर्वन्तु एव सततमटनं धरणीतले ॥२॥

विरुद्धाचरणप्राप्तावाचार्याणां समाज्ञया । लोकान् संशीलयन्त्वेव स्वधर्माप्रतिरोधतः ॥३॥

स्व-स्वराष्ट्रप्रतिष्ठित्यै सञ्चारः सुविधीयताम् । मठे तु नियतो वास आचार्यस्य न युज्यते ॥४॥

वर्णाश्रमसदाचारा अस्माभिर्ये प्रसाधिताः । रक्षणीयाः सदैवैते स्व-स्व भागे यथाविधि ॥५॥

यतो विनष्टिर्महती धर्मस्यास्य प्रजायते । मान्द्यं सन्त्याज्यमेवात्र दाक्ष्यमेव समाश्रयेत् ॥६॥

परस्परविभागे तु न प्रवेशः कदाचन । परस्परेण कर्तव्या ह्याचार्येण व्यवस्थितिः ॥७॥

मर्यादाया विनाशेन लुप्येरन्नियमाः शुभाः । कलहाङ्गारसम्पत्तिरतस्तां परिवर्जयेत् ॥८॥

परिव्राडार्यमर्यादो मामकीनां यथाविधि । चतुष्पीठाधिगां सत्तां प्रयुञ्ज्याच्च पृथक्-पृथक् ॥९॥

शुचिर्जितेन्द्रियो वेद-वेदाङ्गादिविशारदः । योगज्ञः सर्वशास्त्राणां स मदास्थानमाप्नुयात् ॥१०॥

उक्तलक्षणसम्पन्नः स्याच्चेन्मत्पीठभाग् भवेत् । अन्यथारूढपीठोऽपि निग्रहार्हो मनीषिणाम् ॥११॥

न जातु मठमुच्छिन्द्यादिधिकारिण्युपस्थिते । विघ्नानामपि बाहुल्यादेष धर्मः सनातनः ॥१२॥

अस्मत्पीठसमारूढः परिव्राडुक्तलक्षणः । अहमेवेति विज्ञेयो यस्य देव इति श्रुतेः ॥१३॥

एक एवाविषेच्यः स्यादन्ते लक्षणसम्मतः । तत्तत्पीठे क्रमेणैव न बहु युज्यते क्वचित् ॥१४॥

सुधन्वनः समौत्सुक्यनिवृत्यै धर्म-हेतवे । देवराजोपचारांश्च यथावदनुपालयेत् ॥१५॥

केवलं धर्ममुद्दिश्य विभवो ब्रह्मचेतसाम् । विहितश्चोपकाराय पद्मपत्रनयं व्रजेत् ॥१६॥

सुधन्वा हि महाराजस्तथान्ये च नरेश्वराः । धर्मपारम्परीमेतां पालयन्तु निरन्तरम् ॥१७॥

चातुर्वर्ण्यं यथायोग्यं वाङ्मनः कायकर्मभिः । गुरोः पीठं समर्चेत विभागानुक्रमेण वै ॥१८॥

धरामालम्ब्य राजानः प्रजाभ्यः करभागिनः । कृताधिकारा आचार्या धर्मतस्तद्वदेव हि ॥१९॥

धर्मो मूलं मनुष्याणां स चाचार्यावलम्बनः । तस्मादाचार्यसुमणेः शासनं सर्वतोऽधिकम् ॥२०॥

तस्मात् सर्वप्रयत्नेन शासनं सर्वसम्मतम् । आचार्यस्य विशेषेण ह्यौदार्यभरभागिनः ॥२१॥

आचार्याक्षिप्त दण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः । निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा ॥२२॥

इत्येवं मनुरप्याह गौतमोऽपि विशेषतः । विशिष्टशिष्टाचारोऽपि मूलादेव प्रसिद्ध्यति ॥२३॥

तानाचार्योपदेशांश्च राजदण्डांश्च पालयेत् । तस्मादाचार्यराजानावनवद्यौ न निन्दयेत् ॥२४॥

धर्मस्य पद्धतिर्ह्येषा जगतः स्थितिहेत्वे । सर्ववर्णाश्रमाणां हि यथाशास्त्रं विधीयते ॥२५॥

कृते विश्वगुरुर्ब्रह्मा त्रेतायामृषीसत्तमः । द्वापरे व्यास एव स्यात् कलावत्र भवाम्यहम् ॥२६॥

॥ इति महानुशासनम् ॥
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[२]

‘मठाम्नाय महानुशासनम् के   अद्यावधिपर्यन्त उपलब्ध समस्त श्लोक  –

॥ मठाम्नायमहानुशासनम् ॥

प्रथमः पश्चिमाम्नायः शारदामठ उच्यते । कीटवारः सम्प्रदायस्तस्य तीर्थाश्रमौ पदे ॥ १॥

द्वारकाख्यं हि क्षेत्रं स्याद् देवः सिद्धेश्वरः स्मृतः । भद्रकाली तु देवी स्याद् हस्तामलक देशिकः ॥ २॥

आचार्यो विश्वरूपकः गोमतीतीर्थममलं ब्रह्मचारी स्वरूपकः । सामवेदस्य वक्ता च तत्र धर्मं समाचरेत् ॥ ३॥

जीवात्मपरमात्मैक्य बोधो यत्र भविष्यति । तत्वमसि महावाक्यं गोत्रोऽविगत उच्यते ॥ ४॥

सिन्धु-सौवीर-सौराष्ट्र-महाराष्ट्रस्तथान्तराः । देशाः पश्चिमदिक्स्था ये शारदामठभागिनः ॥ ५॥

त्रिवेणीसङ्गमे तीर्थे तत्त्वमस्यादिलक्षणे । स्नायात्तत्त्वार्थभावेन तीर्थनाम्ना स उच्यते ॥ ६॥

आश्रमग्रहणे प्रौढ आशापाशविवर्जितः । यातायातविनिर्मुक्त एतदाश्रमलक्षणम् ॥ ७॥

कीटादयो विशेषेण वार्यन्ते यत्र जन्तवः । भूतानुकम्पया नित्यं कीटवारः स उच्यते ॥ ८॥

स्व-स्वरूपं विजानाति स्वधर्म-परिपालकः । स्वानन्दे क्रीडते नित्यं स्वरूपो बटुरुच्यते ॥ ९॥

पूर्वाम्नायो द्वितीयः स्याद् गोवर्धनमठः स्मृतः । भोगवारः सम्प्रदायो वनारण्ये पदे स्मृते ॥ १०॥

पुरुषोत्तमं तु क्षेत्रं स्याञ्ज्जगन्नाथोऽस्य देवता । विमलाख्याहि देवी स्यादाचार्यः पद्मपादकः ॥ ११॥

तीर्थं महोदधिः प्रोक्तं ब्रह्मचारी प्रकाशकः । महावाक्यं च तत्र स्यात् प्रज्ञानं ब्रह्म चोच्यते ॥ १२॥

ऋग्वेदपठनं चैव काश्यपो गोत्रमुच्यते । अङ्गबङ्गकलिङ्गाश्च मगधोत्कलबर्बराः ।

गोवर्धनमठाधीना देशाः प्राचीव्यवस्थिताः ॥ १३॥

सुरम्ये निर्जने स्थाने वने वासं करोति यः । आशाबन्धविनर्मुक्तो वननामा स उच्यते ॥ १४॥

अरण्ये संस्थितो नित्यमानन्दे नन्दने वने । त्यक्त्वा सर्वमिदं विश्वमारण्यं परिकीर्त्यते ॥ १५॥

भोगो विषय इत्युक्तो वार्यते येन जीविनाम् । सम्प्रदायो यतीनाञ्च भोगवारः स उच्यते ॥ १६॥

स्वयं ज्योतिर्विजानाति योगयुक्तिविशारदः । तत्त्वज्ञानप्रकाशेन तेन प्रोक्तः प्रकाशकः ॥ १७॥

तृतीयस्तूत्तराम्नायो ज्योतिर्नाम मठो भवेत् । श्रीमठश्चेति वा तस्य नामान्तरमुदीरितम् ॥ १८॥

आनन्दवारो विज्ञेयः सम्प्रदायोऽस्य सिद्धिदः । पदानि तस्य ख्यातानि गिरिपर्वतसागराः ॥ १९॥

बदरीकाश्रमः क्षेत्रं देवो नारायणः स्मृतः । पूर्णागिरि च देवी स्यादाचार्यस्तोटकः स्मृतः ॥ २०॥

तीर्थं चालकनन्दाख्यं आनन्दो ब्रह्मचार्यभूत् । अयमात्मा ब्रह्म चेति महावाक्यमुदाहृतम् ॥ २१॥

अथर्ववेदवक्ता च भृग्वाख्यं गोत्रमुच्यते । कुरुकाश्मीरकाम्बोजपाञ्चालादिविभागतः ।

ज्योतिर्मठवशा देशा उदीचीदिगवस्थिताः ॥ २२॥

वासो गिरिवने नित्यं गीताध्ययनतत्परः । गम्भीराचलबुद्धिश्च गिरिनामा स उच्यते ॥ २३॥

वसन् पर्वतमूलेषु प्रौढं ज्ञानं विभर्ति यः । सारासारं विजानाति पर्वतः परिकीर्त्यते ॥ २४॥

तत्वसागरगम्भीर ज्ञानरत्नपरिग्रहः । मर्यादां वै न लङ्घ्येत सागरः परिकीर्त्यते ॥ २५॥

आनन्दो हि विलासश्च वार्यते येन जीविनाम् । सम्प्रदायो यतीनां चानन्दवारः स उच्यते ॥ २६॥

सत्यं ज्ञानमनन्तं यो नित्यं ध्यायेत तत्त्ववित् । स्वानन्दे रमते चैव आनन्दः परिकीर्त्यते

Monday, 20 November 2017

शास्त्र का अभिप्राय

सनातन वैदिक शास्त्र - श्री आद्य शंकराचार्य

शास्त्र : परिभाषा और स्वरूप विचार

शास्त्र शब्द अनुशासन अर्थ वाली शास् धातु से ष्ट्रन प्रत्यय पूर्वक (सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन –उणादि० ४/१५८ ) निष्पन्न होता है | “शासनात् शास्त्रम्” शासन करने वाला होने से शास्त्र कहलाता है तात्पर्य यह है कि इसके द्वारा धर्मों का अनुशासन किया जाता है -

शिष्यन्ते धर्माः अनेनेति शास्त्रम् ।

अतः इसकी ( शास्त्र की ) परिभाषा है -

“ शिष्यतेsनुशिष्यतेsपूर्वोsर्थो बोध्यते अनेनेति शास्त्रं वेदस्तादुपजीविस्मृतिपुराणादि च । ”

​​

अर्थात् शासन किया जाता है - अनुशासन किया जाता है , अर्थात् अपूर्व अर्थ का बोध कराया जाता है
इसके द्वारा इसलिए शास्त्र अर्थात् वेद कहलाता है , इस शास्त्र (वेद) के उपजीवी स्मृति पुराणादि हैं (इसलिए ये भी शास्त्र हैं )

इस प्रकार शास्त्र एक व्यवस्था का नाम है जिसे सरल भाषा में इस प्रकार समझा सकते हैं कि -

शासन करने वाले अर्थात् सत्कार्य में प्रवृत्त और असत्कार्य से निवृत्त करने वाले विधि -निषेधात्मक सकल वेदादि आर्ष ग्रन्थ शास्त्र कहलाते हैं और केवल “शासनात् शास्त्रम् “ इस रूप में विधि-प्रतिषेध करने वाले ग्रन्थ ही नहीं वरन् “ शंसनात् शास्त्रम्” अर्थात् किसी गूढ़ तत्व का शंसन –प्रतिपादन करने वाले वेदान्त आदि भी शास्त्र ही कहलाते हैं ।

स्वरूप दृष्टि से  शास्त्र  दो  प्रकार  के होते   हैं-

१- श्रुति  ।
२- स्मृति ।

श्रुति का   अभिप्राय होता है - वेद
। तथा स्मृति का अभिप्राय होता  है - धर्मशास्त्र ।
स्मृतियाँ श्रुतियों का अनुगमन करती  हैं  , अतः  एक तो  ये ज्ञातव्य है  कि स्मृतियों की  अपेक्षा  श्रुतियों का  प्राबल्य  होता  है, दूसरा ये कि श्रुतियों का  मर्म स्मृतियों से  समझा जाता है   ।

(...क्रमशः )
​शास्त्र रूपी शासन की क्या आवश्यकता है ?

                जब हम शास्त्र के “शिष्यते अनेन” अर्थ से अनुशासनात्मक स्वरूप पर विचार करते हैं तो शङ्का यह होती है कि लोकव्यवहार से ही स्वरूप द्वारा अर्थबोध हो सकता है , अर्थात् लोक व्यवहार से प्राप्त होता ही है तो फ़िर् शास्त्र रूपी शासन की क्या आवश्यकता है ?

                         तब कहा गया कि शास्त्रेण धर्मनियमः क्रियते , अर्थात् शास्त्र केवल धर्म नियम ही करता है | धर्म नियम का अर्थ है जो नियम धर्म के लिये हो धर्म प्रयोजन वाले हो, धर्म के कारण हो , उन नियमो का विधान करना शास्त्र का कार्य है -

धर्माय नियमो धर्मनियमः , धर्मार्थो वा नियमो धर्मनियमः , धर्मप्रयोजनो वा नियमो धर्मनियमः | ( महाभाष्य, पस्पसाह्निक )

              लोक व्यवहार से अवज्ञात होने वाले अनुशासन का भी शास्त्रपूर्वक प्रयोग व्यवहार से ही अभ्युदय होता है ( शास्त्रपूर्वके प्रयोगेsभ्युदयः ) |

           शास्त्र स्वयं भगवान की आज्ञा हैं ( श्रुतिस्मृती ममेवाज्ञे ० ) , इसलिए बिना शास्त्र के सिद्धि , सुख अथवा परमगति प्राप्त नहीं होती -

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्
।।
( गीता १६/२३ )

            भगवान् के इसी शास्त्र रूपी शासन की महत्ता स्पष्ट करते हुए श्री आद्यशंकराचार्य भगवान् कहते हैं कि भगवान् का श्रुति और स्मृति रूप शासन अत्यंत उत्कृष्ट है इसीलिये उनको उर्जितशासन भी कहा जाता है ,

जैसा कि -

श्रुतिस्मृतिलक्षणमूर्जितं शासनमस्येति ऊर्जितशासनः ।
( शांकरभाष्य , वि० सह० ११०)

यह शास्त्र स्वयं साक्षात् श्री भगवान के ही अवतार स्वरूप हैं -

अवतीर्णो जगन्नाथः शास्त्ररूपेण वै प्रभुः ।
(शाण्डिल्यस्मृ० ४/१९३ )

        इसलिए शास्त्र-वचनों पर शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि शास्त्र पर शंका का अर्थ होता है स्वयं श्री भगवान् पर शंका । इसीलिये श्री आद्य शंकराचार्य जी ने स्वभाष्य में कहा है की शास्त्रयुक्त कोई भी बात अकर्तव्य नहीं हो सकती । राम , कृष्ण आदि मे हम जितनी दृढ निष्ठा रखते हैं , उतनी ही शास्त्र मे भी रखनी आवश्यक है -

तस्माच्छास्त्रे दृढा कार्या भक्तिर्मोक्षपरायणैः ।
​ (शाण्डिल्य स्मृ० ४/१९४ )
त्रिविधा प्रवृत्ति - उद्देश, लक्षण और परीक्षा
उद्देश कहते हैं जहां पर केवल नाम मात्र से वस्तु का संकीर्तन हो -
उद्देशस्तु नाममात्रेण वस्तुसंकीर्तनम् ।

असाधारण धर्मवचन लक्षण कहलाता है-

लक्षणं त्वसाधारणधर्मवचनम् जैसे - गलकम्बल (सास्ना ) गाय का लक्षण है ( सास्नादिमत्वं गोत्वमिति ) ।

ऐसे ही लक्षित का लक्षण ठीक है या नहीं इस का विचार परीक्षा कहलाता है -

लक्षितस्य लक्षणं उत्पद्यते नवेति विचारः परीक्षा ।

शास्त्रकारों ने कहा है कि किसी एक शास्त्र को ही पढ़कर शास्त्र का निर्णय नहीं प्राप्त किया जा सकता ( नैकशास्त्रमधीयानो गच्छति शास्त्रनिर्णयम् ) अपितु जो विविध प्रकार के शास्त्रों को सम्यक् रूप से रूप से जानता है , भूयोविद्य है , वही शास्त्रज्ञ रूप से प्रशंसनीय होता है ।

पारावर्यावित्सु तु खलु वेदितृषु भूयोविद्यः प्रशस्यो भवति । ( निरुक्त १/१६ )

​अतः भूयोविद्य होकर ही शास्त्र के वचनों को समझने का प्रयास करना चाहिए |अतः भूयोविद्य अर्थात् बहुत विद्याओं का ज्ञाता होकर ही शास्त्र के वचनों को समझने का प्रयास करना चाहिए | धर्मका निर्णय इन्हीं विद्याओं का आश्रय लेकर करना चाहिए । ये बहुत विद्याएँ क्या हैं ?

पुराणन्यायमीमांसा धर्मशास्त्राङ्गमिश्रिताः ।

वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ।। (याज्ञ० स्मृति० १/३ )

अर्थात् पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र और छः अङ्गों सहित चार वेद ये चौदह विद्या धर्म के स्थान है ।

शास्त्र का महत्त्व

प्रश्न - क्या शास्त्र पर विश्वास कर लेना अन्धभक्ति नहीं?

उत्तर - नहीं, क्योंकि शास्त्र को स्वीकारना स्वयं युक्तियुक्त है । युक्तियुक्त न होता तो शास्त्र भी स्वीकार्य न होता । शब्दप्रमाण का युक्तियुक्त होना न्यायसम्मत है।

प्रश्न - शास्त्र की युक्तियुक्तता क्या है ?

उत्तर - प्रत्यक्ष एवं अनुमान से भी जो वस्तु ज्ञेय नहीं होती , शब्दप्रमाण उसका अवबोध कराता है , यही शब्दप्रमाण की प्रधान युक्तियुक्तता है । एक ही वेद जो वैखरी रूप मे शास्त्रत्वेन लोकप्रसिद्ध है , वही तृण से लेकर ब्रह्मा पर्यन्त समस्त प्राणियों के अन्त:करण में मध्यमा और पश्यन्ति क्रमेण विराजमान है, एेसा तत्त्वज्ञ पुरुष जानते हैं । इस प्रकार समस्त प्राणियों में अनुस्यूत यह वेदात्मक शास्त्र प्राण-इन्द्रिय और मनोमय है । यही कारण है कि श्रुति द्वारा , वाणी के चार स्वरूपों को यथानुरूप जानने वाले ही शास्त्र के गूढ़ मर्म को समझ सकते हैं , ऐसा कहा गया ।

||जय श्री राम||

पूजा आदि में सिर नहीं ढंका चाहिए

शास्त्र प्रमाण:- उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।  प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥ अर्थात् - पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग...