Sunday, 31 December 2017

गीतासार

गीता का सार :-

" दस वार गीता का उच्चारण करनेसे जो होता हैं वही गीता का सार हैं - त्यागी ! त्यागी ! अर्थात् ' हे जीव  ! सर्वस्व त्याग कर एकमात्र ईश्वर की आराधना करो ' । " 
~ श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव

(** सर्वस्व त्याग - अहं-ममत्व का त्याग समेत)
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// अधुना सर्वस्य गीताशास्त्रस्य सारभूतः अर्थः निःश्रेयसार्थः अनुष्ठेयत्वेन समुच्चित्य उच्यते –

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ।।  //

~ श्रीमच्छङ्कराचार्य

** अब समस्त गीताशास्त्रका सारभूत अर्थ संक्षेपमें कल्याणप्राप्तिके लिये कर्तव्यरूपसे बतलाया जाता है --, जो मुझ परमेश्वरके लिये कर्म करनेवाला है और मेरे ही परायण है -- सेवक स्वामीके लिये कर्म करता है परंतु मरनेके पश्चात् पानेयोग्य अपनी परमगति उसे नहीं मानता और यह तो मेरे लिये ही कर्म करनेवाला,और मुझे ही अपनी परमगति समझनेवाला होता है, इस प्रकार परमगति मैं ही हूँ ऐसा जो मत्परायण है। तथा मेरा ही भक्त है अर्थात् जो सब प्रकारसे सब इन्द्रियोंद्वारा सम्पूर्ण उत्साहसे मेरा ही भजन करता है, ऐसा मेरा भक्त है। तथा जो धन, पुत्र, मित्र, स्त्री और बन्धुवर्गमें सङ्ग -- प्रीति -- स्नेहसे रहित है। तथा सब भूतोंमें वैरभावसे रहित है अर्थात् अपना अत्यन्त अनिष्ट करनेकी चेष्टा करनेवालोंमें भी जो शत्रुभावसे रहित है। ऐसा जो मेरा भक्त है, हे पाण्डव वह मुझे पाता है अर्थात् मैं ही उसकी परमगति हूँ, उसकी दूसरी कोई गति कभी नहीं होती। यह मैंने तुझे तेरे जाननेके लिये इष्ट उपदेश दिया है।

Sunday, 24 December 2017

अग्नि परिचय

=========== श्रौत अग्नि, स्मार्त अग्नि एवं लौकिक अग्निका परिचय ===========

१. #श्रौत_अग्नि - गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, आहवणीय, सभ्य एवं आवसथ्य - यह पांच संस्कृत अग्निको एकसाथ " #पञ्चाग्नि " कहते हैं । प्रथामोक्त अग्नित्रयमें सारे श्रौतयज्ञों संपन्न होता हैं । यज्ञवेदीके पश्चिमांशमें रक्षित गार्हपत्याग्नि ही साग्निक गृहस्थके यज्ञशालामें सर्वदा रक्षित होती हैं । इसे " #आकर_अग्नि " भी कहते हैं क्योंकि अन्य अग्नियाँ यहाँ से गृहीत होती हैं । जिस कुण्डमें यह रक्षित होती हैं, उसे गार्हपत्य कुण्ड कहा जाता हैं ।

यज्ञानुष्ठानकालमें उस गार्हपत्य कुण्डसे मन्त्रपाठ पुरःसर अग्नि ग्रहणकरतः दक्षिणाग्नि कुण्डमें एवं आहवणीय कुण्डमें रक्षित होती हैं - इस अग्निद्वयको #दक्षिणाग्नि एवं #आहवणीय अग्नि कहते हैं । यज्ञवेदीके पूर्वभागमें स्थित आहवणीय अग्निमें #देवगणके प्रति एवं दक्षिणभागमें स्थित दक्षिणाग्निमें #पितृगणके प्रति आहुति प्रदत्त होती हैं । उपरोक्त अग्नित्रय को एकसाथ #त्रेताग्नि कहते हैं ।

सभ्य एवं आवसथ्य अग्निद्वय प्रथम अग्निहोत्र-ग्रहणकालमें विकल्पके रूपमें गृहीत होती हैं अर्थात् कोई व्यक्ति पूर्वोक्त त्रेताग्निमात्रका ग्रहण करते हैं, तो दूसरा कोई पूर्वोक्त त्रेताग्निके साथ अन्तिम अग्निद्वयका भी ग्रहण करते हैं - इन्हें " #पञ्चाग्निक " कहते हैं ।

सभ्याग्निकी स्थापना आहवणीय कुण्डसे पूर्वभागमें और भी दूरी पर, जो स्थान साधारणतः यजमान अपना आरामगृहके रूपमें व्यवहार करते हैं, वहाँ की जाती हैं । यज्ञकालमें कई आहुतियाँ इस अग्निमें दी जाती हैं ।

#आवसथ्य_अग्नि - यह भी आहवणीय इत्यादि अग्नि की तरह संस्कृत अग्नि हैं । सभ्याग्निसे पूर्व दिशामें कुछ दूरी पर इस अग्निकी स्थापना होती हैं । यज्ञकालमें कई आहुतियाँ इस अग्निमें भी दी जाती हैं । मीमांसकों का कहना हैं कि प्रधानतः साग्निक गृहस्थका #रन्धनादि_कार्य इस अग्निमें संपन्न होता हैं ।

शाखान्तरमें शेषोक्त अग्निद्वयका निम्नोक्त व्यवहार भी कई दक्षिणदेशीय मीमांसकगण कहते हैं -

सभ्य एवं आवसथ्य अग्निद्वयकी स्थापना #सोमयज्ञमें होती हैं । कौषीतकि शाखाध्यायीगण सोमयज्ञमें #१७_ऋत्विकोंका वरण करते हैं, अन्य शाखाध्यायीगण #१६_ऋत्विकोंका वरण करते हैं । इनमें से यह " सभ्य " नामकी अग्नि भी एक #ऋत्विक् हैं । तत्कालमें उस अग्निमें कोई आहुति प्रदत्त नहीं होती । अन्य ऋत्विकोंका कार्य विध्यानुसार संपन्न हो रहा हैं अथवा नहीं इसी का पर्यवेक्षण यह सभ्याग्नि-देवता करते है ।

आवसथ्याग्निमें भी कोई आहुति प्रदत्त नहीं होती । यह अग्नि अतिथियों की अभ्यर्थना हेतु सम्पादित होती हैं । जबतक यह अग्नि प्रज्ज्वलित रहती हैं, तब तक अतिथियाँ स्वयंको सत्कृत समझते हैं । अतिथिगणको " #आवास_प्रदान " से इस अग्निका यह नाम कल्पित हैं, इत्यादि ।

~ (मीमांसकोंसे संगृहीत)

सभ्याग्निकी स्थापना देवनशालामें (आरामगृह, अध्ययनशाला, बैठकखाना) एवं आवसथ्याग्निकी स्थापना अतिथिशालामें की जाती हैं ।

~ (सत्याषाढ़ हिरण्यकेशीसूत्र ३/३/३०६ पृः)

तादृश स्थान उपलब्ध न होनेपर प्रधान यज्ञशालामें ही आहवणीय कुण्डसे हस्तपरिमित दूरी पर उसका ईशान कोणमें एक कुण्ड बनाकर आवसथ्याग्नि एवं उसका अग्निकोणमें और एक कुण्ड बनाकर सभ्याग्नि रखी जाती हैं । याज्ञिकगण कहते हैं कि साग्निक सभ्याग्निके सामने वेदाध्ययनादि कार्य करते हैं ।
आवसथ्याग्नि श्रौताग्नि नहीं हैं । यदि स्मार्तकर्म करनेके लिए किसीने पहले से ही आवसथ्याग्निका ग्रहण कर लिया हो, तब श्रौत अग्न्याधानकालमें (४१२ पृः) उसे इसका आधान नहीं करना हैं एवं तत्कालमें सभ्याग्निका ग्रहण अथवा अग्रहण भी कई शाखाध्यायी यजमानोंके इच्छाधीन हैं, यथा -

" आश्वल्यायनसूत्राध्यायिनां तू त्रयः एव, सत्याषाढ़सूत्राध्यायिनां विकल्पः "

~ (आधानपद्धति, ११ पृः) इत्यादि ।

२. #स्मार्त_अग्नि - विवाहकालमें जिस अग्निसे #लाजहोम सम्पादित होता हैं, परवर्ती कालमें गृह्यसूत्रोक्त नित्यनैमित्तिक कर्मसमूहका अनुष्ठानके लिए वही अग्नि रक्षित होती हैं - इसे स्मार्ताग्नि कहते हैं । स्मार्ताग्निको " #सख्याग्नि ", " #गृह्याग्नि " एवं " #औपासनाग्नि " भी कहा जाता हैं ।

~ (मनु सं, ३/६७ सर्वज्ञनारायण, राघवानन्द)

यदि विवाहकालमें इस अग्निका ग्रहण न किया गया हो, तब भातृगणके साथ संपत्तिविभागकालमें स्वशाखासम्मत गृह्यसुत्रोक्त विधनानुसार इस अग्निका ग्रहण किया जाता हैं । इस अग्निमें साग्निक गृहस्थका #नित्यपाककर्म एवं #वैश्वदेवादि कर्मका अनुष्ठान होता हैं । यज्ञशालामें पाकक्रिया संभव न होनेपर इस अग्निद्वारा अन्यत्र अग्नि प्रज्ज्वलितकरतः उसमें पाकक्रियाका संपादन करना चाहिए । जो श्रौत सभ्याग्निके साथ स्मार्त अग्निका ग्रहण करते हुए " पञ्चाग्निक " न बन पाया हो, वह पुंसवनादि स्मार्तकर्मादिका अनुष्ठान हेतु आवसथ्याग्निका ग्रहण कर सकते हैं, अथवा उनका समार्तकर्मसमूह लौकिकाग्निमें ही संपन्न होता हैं ।

~ (गौतम धर्मसूत्र ५/८ भाष्य)   

३. #लौकिक_अग्नि - जो अग्नि श्रौत एवं स्मार्त नहीं, वही लौकिकाग्नि हैं अर्थात् होमसंपादन हेतु तत्कालमें प्रज्ज्वलित एवं मन्त्रद्वारा संस्कृत अग्निको लौकिकाग्नि कहते हैं । उदाहरणतः - आधुनिक कालमें देवपूजांगभूत #होमाग्नि, इत्यादि ।

Friday, 22 December 2017

गृहस्थाश्रम

गृहस्थाश्रम परिचय :-

गृहस्थ चार प्रकारका होता हैं -

१. #वार्ताक - कृषि एवं गौरक्षा आदि वैश्यवृत्तिसे निर्वाह करनेवाला और नित्यनैमित्तिकादि कर्मोंका अनुष्ठान करनेवाला गृहस्थ को वार्ताक कहा जाता हैं । (रत्नप्रभा)

२. #यायावर - उस गृहस्थ को कहते हैं जो सदा अयाचित वृत्ति होकर याजन, अध्यापनशील और प्रतिगृहसे विमुख हो । (रत्नप्रभा)

अथवा, उस गृहस्थ को कहते हैं जो यजन, याजन, दान, अध्यापन एवं प्रतिग्रह करते हैं । (प्रकटार्थ)

३. #शालीन - षट्कर्मोंमें (याग, अध्ययन, दान, अध्यापन, याजन, प्रतिग्रह ; अथवा, स्नान, दान, तपस्या, होम, सन्ध्यादि, पितृतर्पण ) रत होकर याजन आदि वृत्तिकरके सञ्चय करनेवाला गृहस्थ शालीन कहलाता हैं । (रत्नप्रभा)

अथवा, यजनशील परन्तु याजनविमुख, स्वयं अध्ययनरत परन्तु अध्यापन नहीं करते, दानशील  और प्रतिग्रहविमुख गृहस्थको शालीन कहते हैं । (प्रकटार्थ)

४. #घोरसंन्यासिक - उद्धृत (स्वयं संगृहीत) शुद्ध जलसे कार्य करता हुआ प्रतिदिन भैक्ष्यादि उञ्छवृत्ति करनेवाला ग्रामवासी घोरसंन्यासिक कहा जाता हैं, क्योंकि वह हिंसा आदिसे रहित हैं । (रत्नप्रभा)

मासिकधर्म की महानता

मासिकधर्म  के  विधि- विधान   : हिन्दू  गौरव -

मासिक धर्म (माहवारी/पीरियड) के काल में जीर्ण-शीर्ण ( फटे- पुराने)  वस्त्र पहन कर  गोशाला में एकान्तवास करना - ये हिन्दू धर्म की महिलाओं का #पिछड़ापन नहीं वरन् #गौरव है , क्योंकि ऐसा करके वह #त्रिरात्रव्रत का पालन करती हैं और फिर  चौथे दिन आप्लवन  स्नान करके   बिना फटे हुए शोभित नूतन वस्त्र  पहनती हैं ।

इस विशेष व्रत के पालनकाल में स्त्री ना ही अलंकरण करती है , ना ही स्नान करती है , ना ही दिन में सोती है , ना ही दन्तधावन करती है , ना ही ग्रहादि का निरीक्षण करती है , ना हंसती है , ना ही कुछ आचरण करती है , ना ही अंजलि से जल पीती है  ना ही लोहे या कॉसे  के पात्र में भोजन करती है । वह सनातनधर्मिणी नारी   गोशाला में  भूमि पर शयन कर इस महान् व्रत को सम्यक्  परिपालन कर आत्मसंयम का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत कर  आत्मशोधन  करती हुई  देवताओं को आनन्दित करती है ।

पाश्चात्यमुखी,  धर्ममूढ़,  अज्ञानी असुरों व विधर्मियों ने   हिन्दू महिलाओं के इस महान् व्रत को  हिन्दुओं का पिछड़ापन बताकर   हिन्दू मर्यादाओं  को तहस नहस करने का भारी प्रयास किया और कर रहे हैं ।

वस्तुतः स्त्रियों के  रजस्वला होने से पूर्वकाल में देवराज इन्द्र की विभाजित ब्रह्महत्या का इतिहास जुड़ा है ,  हिन्दू धर्म के विद्वान् मनीषी जानते हैं कि  उस दैवीय  विभाजन का ही एक भाग  स्त्रीजाति को भी प्राप्त हुआ था  , इस व्रत से उसी  ब्रह्महत्या-दोष का उपशमन होता है ।

#प्राणी_स्वकृत_कर्म_का_ही_भोग_करता_है - इस दार्शनिक  सिद्धान्त  से स्पष्ट है कि  वस्तुतः रजोधर्मप्रधान स्त्री देह के माध्यम से जीव वस्तुतः अपने ही पूर्वकृत  ब्रह्महनन दोष का ही  उपशमन करता है । इसीलिये गीतोक्त  #पापयोनयः विशेषण  का भाष्य  पापजन्मानः भगवान् भाष्यकार ने किया है ।

मात्र ब्राह्मण की हत्या ही  ब्रह्महत्या नहीं होती वरन् ब्राह्मण का अपमान भी ब्रह्महत्या ही होती है,  क्योंकि श्रेष्ठ पुरुषों का अपमान उन पर मृत्युदण्ड प्रहार ही होता है ।   इसीप्रकार,  शास्त्र का विकृतिकरण भी ब्रह्महत्या ही है । अतः सदैव  शास्त्रवचनों का अनर्थ , उनमें मनमानी व  कुतर्कों  के महान् पाप करने से बचना चाहिये ।

जो स्त्री रजस्वलावस्था में त्रिरात्रव्रत रूप धर्म का परिपालन नहीं करती , वह मृत्यु के अनन्तर नरकगामिनी होती है क्योंकि अनुपशमित पाप अंकुरित बीज की भॉति बढता हुआ दुख रूप महान् फलों को पैदा करता है । हमारे महान्  क्रान्तदर्शी तपोनिष्ठ ऋषि-मुनिजन   ये सनातन  रहस्य जानते थे , इसीलिये उन्होंने  इसका आचार -प्रचार किया था ।

वेदों के ये विधि- निषेध  मानव के  ही कल्याण के साधन होते हैं , किन्तु घोर  अज्ञान में डूबे होने व  घोर कुसंगति  के कारण उन  दुर्भागी  मानवों  को  ये  वैदिक विधान बोझ लगते हैं, जिनको धर्मपालन, ईश्वरभक्ति   व आत्मकल्याण से कोई लेना -देना नहीं ,केवल पशुओं  की तरह अन्धभोगमय जीवन यापन कर चौरासीलाख योनियों के चक्रव्यूह  में ही भटकते जाना है ।

।। जय श्री राम  ।।

Tuesday, 19 December 2017

अवतार अनेक है

भगवान के अवतार असंख्य है , उनके
अवतारो की गिनती न
हो सकती है और न होगी ,अग्नि पुराण
कहता है कि ,
" अवतारा असंख्याता अतीतानागदादयः "
(अ.पु.16/12)

शूद्रों को शिखा नहीं रखनी चाहिए

*#न_शिखिनोपवीती_स्यान्नोच्चरेत्संस्कृतां_गिरम् ||श्री आद्य शंकाराचार्यकृत विष्णु सहस्र भाष्ये ||*

शूद्र को न तो शिखा न उपवीती-जनेऊ - न संस्कृत वाणी का उच्चारण करना चाहिए |

Sunday, 17 December 2017

कर्मकाण्ड का महत्व

#श्री_आद्य_शंकराचार्य के  अनुसार  #कर्मकाण्ड का महत्त्व -

श्री आद्य शंकराचार्य  के सिद्धान्त में  कर्मकाण्ड  का अत्यन्त महत्त्व है । 

आचार्य के मत में कर्मकाण्ड से ज्ञानकाण्ड की एकवाक्यता है ।   इस सम्बन्ध में यजुर्वेदीय की काण्वी शाखा के वाजसनेयब्राह्मण की श्रुतियों के भाष्यामृत सिन्धु में  श्रीभगवान् आद्य शंकराचार्य  का कथनरस इस प्रकार  उद्भावित   है कि -

वेदानुवचन , यज्ञ , दान और तप - इन शब्दों  से सारा ही नित्यकर्म उपलक्षित होता है , इस प्रकार काम्यकर्मरहित सम्पूर्ण नित्यकर्म आत्मज्ञान की उत्पत्ति के द्वारा मोक्ष के साधन होते हैं ।

इस प्रकार कर्मकाण्ड से ज्ञानकाण्ड की एकवाक्यता  ज्ञात होती है ।

श्रीमद्भगवत्पादाचार्य शंकर  का कथन  है कि कर्म चित्तशुद्धि के कारण हैं । कर्मों से संस्कारयुक्त हुए विशुद्धचित्त पुरुष ही उपनिषत्प्रकाशित  आत्मा को बिना किसी रुकावट के जान सकते हैं ।

ऐसा ही #विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु ०  इस आथर्वण श्रुति से भी सिद्ध होता है तथा #ज्ञानमुत्पद्यते_पुंसां० ऐसी स्मृति भी है ।

फलतः आत्मकल्याण के इच्छुक प्रत्येक ब्राह्मण को काम्य तथा निषिद्ध कर्मों  से दूर रहकर  नित्य , नैमित्तिक, प्रायश्चित्त तथा उपासनाप्रधान कर्मों का पूर्ण मनोयोग से   अनुपालन करना चाहिये ।

।। जय श्री राम  ।।

Friday, 8 December 2017

याज्ञवल्क्य परिचय

#महर्षियाज्ञवल्क्यजी_का_प्राकट्यदिवस_मंगलमय
महर्षि याज्ञवल्क्य जी के प्राकट्य दिवस के परम पावन अवसर पर हार्दिक अभिनंदन ।शुभकामनाएँ  ।बधाई हो।
शुल्क यजुर्वेद प्रवर्तक, याज्ञिक सम्राट, महान दार्शनिक एवं विधिवेत्ता महर्षि याज्ञवल्क्य की जयन्ती कार्तिक शुक्ल द्वादशी को मनाई जाती है।
जो हिन्दू परम्परा में ‘‘योगेश्वर द्वादशी’’ के नाम से जानी जाती है।
महर्षि याज्ञवल्क्य के पिता का नाम ब्रह्मरथ (वाजसनी और देवरथ नाम से भी जाने जाते हैं) और माता का नाम देवी सुनन्दा था।
पिता ब्रह्मरथ वेद-शास्त्रों के परम ज्ञाता थे।
माता ऋषि सकल की पुत्री थी।
महर्षि याज्ञवल्क्य यज्ञ सम्पन्न कराने में इतने निष्णात थे कि उनको याज्ञिक-सम्राट कहा जाता है। यज्ञ सम्पादन में उनकी इस सिद्ध- हस्तता के कारण ही उनका नाम ‘‘याज्ञवल्क्य’’ पड़ा।
याज्ञवल्क्य शब्द स्वयं दो शब्दों का योग है-
याज्ञ और वल्क्य अर्थात् यज्ञ सम्पादन कराना जिनके लिए वस्त्र बदलने के समान सहज और सरल था।
महर्षि याज्ञवल्क्य की दो पत्नियां थीं,मैत्रेयी और कात्यानी। मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थी। महर्षि याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के मध्य अनश्वरता पर हुए प्रसिद्ध संवाद का बृहदारण्य कोपनिषद् में उल्लेख मिलता है। महर्षि याज्ञवल्क्य की दूसरी पत्नि कात्यायनी, जो ऋषि भारद्वाज की पुत्री थीं, इनसे इनके तीन पुत्र थे - चन्द्रकान्त, महामेघ और विजय ।
एक बार राजा जनक को ब्रह्मविद्या जानने की इच्छा हुई।
इसके लिए उन्होने एक शास्त्रार्थ का आयोजन किया जिसमें यह शर्त रखी गयी कि जो भी ब्रह्मविद्या का परम ज्ञाता होगा उसे स्वर्ण मण्डित सींगों वाली एक हजार गायें दी जायेंगी।
इस शास्त्रार्थ में महर्षि याज्ञवल्क्य के अलावा कोई भी भाग लेने का साहस नहीं जुटा पाया।
उनसे ब्रह्मविद्या विषयक बहुत से प्रश्न पूछे गये। जिनका उन्होंने बड़ी सहजता व सटीकता से उत्तर दिया और अन्त में शास्त्रार्थ में विजयी हुए और राजा जनक के गुरूपद्भाक् रहे।
इन्होने ही प्रयाग में ऋषि भारद्वाज को श्रीराम के पावन चरित्र का श्रवण कराया था।
जिसका उल्लेख गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने श्रीरामचरितमानस में किया है
महर्षि याज्ञवल्क्य, उनके आध्यात्मिक गुरू एवं उनकी पत्नियों - कात्यायनी व मैत्रेयी की मूर्तियां स्थापित हैं।
इसी प्रकार दक्षिण अरकोट जिले में कुड्डालोर के पास सोर्नावूर में बंगलूर शहर में एवं वाराणसी में महर्षि याज्ञवल्क्य के मन्दिर है।
महर्षि याज्ञवल्क्य का हिन्दू धर्म एवं संस्कृति में अतुल्य एवं महत्वपूर्ण योगदान
महर्षि याज्ञवल्क्य शुक्ल यजुर्वेदकार रहे हैं।
शतपथ ब्राह्मण, बृहदारण्यकोपनिषद् ईशोपनिषद, याज्ञवल्क्य स्मृति, प्रतिज्ञासूत्र, योग याज्ञवल्क्य आदि ग्रन्थ महर्षि याज्ञवल्क्य के हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को अमूल्य योगदान है।
शत् शत् नमन। वंदनम्। सुमिरनम्।
सादर श्रीकृष्ण रात्रि वन्दनम्।
राकेश शर्मा
गौत्र- भारद्वाज
शुक्ल यजुर्वेदी माध्यंदिन ब्राह्मण.

Thursday, 7 December 2017

श्रुति स्मृति मेरी ही आज्ञा है

श्रुतिस्मृति ममेवाज्ञा यस्तु उल्लंध्य वर्तते ।
आज्ञाच्छेदी ममद्रोही मद्भक्तोपि न मे प्रियः ।।

Wednesday, 6 December 2017

मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्

वेदार्थपारिजात में वेदसंज्ञाविचार विषयक प्रकरण  में युधिष्ठिर मीमांसक के खण्डन पर  युधिष्ठिर मीमांसक की आक्षेपात्मक  प्रतिक्रिया -

#मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् यह सूत्र केवल कृष्णयजुर्वेद के ही श्रौतसूत्रों में क्यों उपलब्ध होता है , ऋग्वेद, शुक्लयजुर्वेद , सामवेद और अथर्ववेद के श्रौतसूत्रों में क्यों नहीं मिलता?  इस प्रश्न का सप्रमाण उत्तर आज तक  किसी विद्वान् ने न दिया  ।श्री करपात्री जी ने वेदार्थपारिजात में मेरे उक्त निबन्ध के खण्डन में पचासों पृष्ठ लिखे , परन्तु उक्त प्रश्न का सीधा उत्तर न दिया ।   वस्तुतः इस श्रौतवचन के आधार पर ब्राह्मण ग्रन्थों की वेद-संज्ञा  मानने वालों के पास उक्त प्रश्न का उत्तर है ही नहीं ।

यदि कोई किसी पाणिनीय वैयाकरण से पूछे कि पाणिनि ने वृद्धिरादैच् (१।१।१)  से आ , ऐ , औ की वृद्धि संज्ञा और अदेङ् गुणः (१।१।२)  से अ, ए , ओ की गुण संज्ञा क्यों की ? तो वहस्पष्ट उत्तर देगा  कि पाणिनि ने अपनी शब्दान्वाख्यान-प्रक्रिया की सुगमता और संक्षेप के लिये वृद्धि और गुण कृत्रिम संज्ञाऐं कीहैं । इन संज्ञाओं का सम्बन्ध केवल पाणिनीय शास्त्र तक ही सीमित है । इसी प्रकार कृष्ण यजुर्वेदीय श्रौतसूत्रकारों ने ही मन्त्र और ब्राह्मण की वेद संज्ञा क्यों कही ? इसका भी यही उत्तरहोगाकि उन्होंने अपने शास्त्र की प्रवृत्ति-विशेष  के लिये मन्त्र और ब्राह्मण की वेदसंज्ञा कही है । ...

( युधिष्ठिर मीमांसक, वेद-श्रुति-आम्नाय-संज्ञा-मीमांसा , पृ० ९४)

यद्यपि वेदार्थपारिजात के समनुशीलन से उक्त समस्त आक्षेपों का  ध्वंसाधारत्व  ही  सिद्ध होता है  तथापि  इस  प्रतिक्रिया के प्रत्युत्तर में पारिजात वार्तिक में क्या कहा गया है , वह जिज्ञास्य है ।

इसी तरह कल्पद्रुम  के माध्यम से भी जो  प्रत्याक्षेप सामाजिकों द्वारा किये गये हैं, जिनके  उत्तर स्वामी निरञ्जन देव तीर्थ जी महाराज द्वारा  दिये गये हैं,  वह  सभी सनातन वैदिक धर्मावलम्बियों को  पारिजात वार्तिक  जैसे प्रत्युत्तरात्मक ग्रन्थों के पुनर्मुद्रण व   प्रकाशन एवं प्रचार   के माध्यम से  सुलभ करने  चाहिये ।

।। जय श्री  राम ।।

पूजा आदि में सिर नहीं ढंका चाहिए

शास्त्र प्रमाण:- उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।  प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥ अर्थात् - पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग...