=========== श्रौत अग्नि, स्मार्त अग्नि एवं लौकिक अग्निका परिचय ===========
१. #श्रौत_अग्नि - गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, आहवणीय, सभ्य एवं आवसथ्य - यह पांच संस्कृत अग्निको एकसाथ " #पञ्चाग्नि " कहते हैं । प्रथामोक्त अग्नित्रयमें सारे श्रौतयज्ञों संपन्न होता हैं । यज्ञवेदीके पश्चिमांशमें रक्षित गार्हपत्याग्नि ही साग्निक गृहस्थके यज्ञशालामें सर्वदा रक्षित होती हैं । इसे " #आकर_अग्नि " भी कहते हैं क्योंकि अन्य अग्नियाँ यहाँ से गृहीत होती हैं । जिस कुण्डमें यह रक्षित होती हैं, उसे गार्हपत्य कुण्ड कहा जाता हैं ।
यज्ञानुष्ठानकालमें उस गार्हपत्य कुण्डसे मन्त्रपाठ पुरःसर अग्नि ग्रहणकरतः दक्षिणाग्नि कुण्डमें एवं आहवणीय कुण्डमें रक्षित होती हैं - इस अग्निद्वयको #दक्षिणाग्नि एवं #आहवणीय अग्नि कहते हैं । यज्ञवेदीके पूर्वभागमें स्थित आहवणीय अग्निमें #देवगणके प्रति एवं दक्षिणभागमें स्थित दक्षिणाग्निमें #पितृगणके प्रति आहुति प्रदत्त होती हैं । उपरोक्त अग्नित्रय को एकसाथ #त्रेताग्नि कहते हैं ।
सभ्य एवं आवसथ्य अग्निद्वय प्रथम अग्निहोत्र-ग्रहणकालमें विकल्पके रूपमें गृहीत होती हैं अर्थात् कोई व्यक्ति पूर्वोक्त त्रेताग्निमात्रका ग्रहण करते हैं, तो दूसरा कोई पूर्वोक्त त्रेताग्निके साथ अन्तिम अग्निद्वयका भी ग्रहण करते हैं - इन्हें " #पञ्चाग्निक " कहते हैं ।
सभ्याग्निकी स्थापना आहवणीय कुण्डसे पूर्वभागमें और भी दूरी पर, जो स्थान साधारणतः यजमान अपना आरामगृहके रूपमें व्यवहार करते हैं, वहाँ की जाती हैं । यज्ञकालमें कई आहुतियाँ इस अग्निमें दी जाती हैं ।
#आवसथ्य_अग्नि - यह भी आहवणीय इत्यादि अग्नि की तरह संस्कृत अग्नि हैं । सभ्याग्निसे पूर्व दिशामें कुछ दूरी पर इस अग्निकी स्थापना होती हैं । यज्ञकालमें कई आहुतियाँ इस अग्निमें भी दी जाती हैं । मीमांसकों का कहना हैं कि प्रधानतः साग्निक गृहस्थका #रन्धनादि_कार्य इस अग्निमें संपन्न होता हैं ।
शाखान्तरमें शेषोक्त अग्निद्वयका निम्नोक्त व्यवहार भी कई दक्षिणदेशीय मीमांसकगण कहते हैं -
सभ्य एवं आवसथ्य अग्निद्वयकी स्थापना #सोमयज्ञमें होती हैं । कौषीतकि शाखाध्यायीगण सोमयज्ञमें #१७_ऋत्विकोंका वरण करते हैं, अन्य शाखाध्यायीगण #१६_ऋत्विकोंका वरण करते हैं । इनमें से यह " सभ्य " नामकी अग्नि भी एक #ऋत्विक् हैं । तत्कालमें उस अग्निमें कोई आहुति प्रदत्त नहीं होती । अन्य ऋत्विकोंका कार्य विध्यानुसार संपन्न हो रहा हैं अथवा नहीं इसी का पर्यवेक्षण यह सभ्याग्नि-देवता करते है ।
आवसथ्याग्निमें भी कोई आहुति प्रदत्त नहीं होती । यह अग्नि अतिथियों की अभ्यर्थना हेतु सम्पादित होती हैं । जबतक यह अग्नि प्रज्ज्वलित रहती हैं, तब तक अतिथियाँ स्वयंको सत्कृत समझते हैं । अतिथिगणको " #आवास_प्रदान " से इस अग्निका यह नाम कल्पित हैं, इत्यादि ।
~ (मीमांसकोंसे संगृहीत)
सभ्याग्निकी स्थापना देवनशालामें (आरामगृह, अध्ययनशाला, बैठकखाना) एवं आवसथ्याग्निकी स्थापना अतिथिशालामें की जाती हैं ।
~ (सत्याषाढ़ हिरण्यकेशीसूत्र ३/३/३०६ पृः)
तादृश स्थान उपलब्ध न होनेपर प्रधान यज्ञशालामें ही आहवणीय कुण्डसे हस्तपरिमित दूरी पर उसका ईशान कोणमें एक कुण्ड बनाकर आवसथ्याग्नि एवं उसका अग्निकोणमें और एक कुण्ड बनाकर सभ्याग्नि रखी जाती हैं । याज्ञिकगण कहते हैं कि साग्निक सभ्याग्निके सामने वेदाध्ययनादि कार्य करते हैं ।
आवसथ्याग्नि श्रौताग्नि नहीं हैं । यदि स्मार्तकर्म करनेके लिए किसीने पहले से ही आवसथ्याग्निका ग्रहण कर लिया हो, तब श्रौत अग्न्याधानकालमें (४१२ पृः) उसे इसका आधान नहीं करना हैं एवं तत्कालमें सभ्याग्निका ग्रहण अथवा अग्रहण भी कई शाखाध्यायी यजमानोंके इच्छाधीन हैं, यथा -
" आश्वल्यायनसूत्राध्यायिनां तू त्रयः एव, सत्याषाढ़सूत्राध्यायिनां विकल्पः "
~ (आधानपद्धति, ११ पृः) इत्यादि ।
२. #स्मार्त_अग्नि - विवाहकालमें जिस अग्निसे #लाजहोम सम्पादित होता हैं, परवर्ती कालमें गृह्यसूत्रोक्त नित्यनैमित्तिक कर्मसमूहका अनुष्ठानके लिए वही अग्नि रक्षित होती हैं - इसे स्मार्ताग्नि कहते हैं । स्मार्ताग्निको " #सख्याग्नि ", " #गृह्याग्नि " एवं " #औपासनाग्नि " भी कहा जाता हैं ।
~ (मनु सं, ३/६७ सर्वज्ञनारायण, राघवानन्द)
यदि विवाहकालमें इस अग्निका ग्रहण न किया गया हो, तब भातृगणके साथ संपत्तिविभागकालमें स्वशाखासम्मत गृह्यसुत्रोक्त विधनानुसार इस अग्निका ग्रहण किया जाता हैं । इस अग्निमें साग्निक गृहस्थका #नित्यपाककर्म एवं #वैश्वदेवादि कर्मका अनुष्ठान होता हैं । यज्ञशालामें पाकक्रिया संभव न होनेपर इस अग्निद्वारा अन्यत्र अग्नि प्रज्ज्वलितकरतः उसमें पाकक्रियाका संपादन करना चाहिए । जो श्रौत सभ्याग्निके साथ स्मार्त अग्निका ग्रहण करते हुए " पञ्चाग्निक " न बन पाया हो, वह पुंसवनादि स्मार्तकर्मादिका अनुष्ठान हेतु आवसथ्याग्निका ग्रहण कर सकते हैं, अथवा उनका समार्तकर्मसमूह लौकिकाग्निमें ही संपन्न होता हैं ।
~ (गौतम धर्मसूत्र ५/८ भाष्य)
३. #लौकिक_अग्नि - जो अग्नि श्रौत एवं स्मार्त नहीं, वही लौकिकाग्नि हैं अर्थात् होमसंपादन हेतु तत्कालमें प्रज्ज्वलित एवं मन्त्रद्वारा संस्कृत अग्निको लौकिकाग्नि कहते हैं । उदाहरणतः - आधुनिक कालमें देवपूजांगभूत #होमाग्नि, इत्यादि ।
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