वेदार्थपारिजात में वेदसंज्ञाविचार विषयक प्रकरण में युधिष्ठिर मीमांसक के खण्डन पर युधिष्ठिर मीमांसक की आक्षेपात्मक प्रतिक्रिया -
#मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् यह सूत्र केवल कृष्णयजुर्वेद के ही श्रौतसूत्रों में क्यों उपलब्ध होता है , ऋग्वेद, शुक्लयजुर्वेद , सामवेद और अथर्ववेद के श्रौतसूत्रों में क्यों नहीं मिलता? इस प्रश्न का सप्रमाण उत्तर आज तक किसी विद्वान् ने न दिया ।श्री करपात्री जी ने वेदार्थपारिजात में मेरे उक्त निबन्ध के खण्डन में पचासों पृष्ठ लिखे , परन्तु उक्त प्रश्न का सीधा उत्तर न दिया । वस्तुतः इस श्रौतवचन के आधार पर ब्राह्मण ग्रन्थों की वेद-संज्ञा मानने वालों के पास उक्त प्रश्न का उत्तर है ही नहीं ।
यदि कोई किसी पाणिनीय वैयाकरण से पूछे कि पाणिनि ने वृद्धिरादैच् (१।१।१) से आ , ऐ , औ की वृद्धि संज्ञा और अदेङ् गुणः (१।१।२) से अ, ए , ओ की गुण संज्ञा क्यों की ? तो वहस्पष्ट उत्तर देगा कि पाणिनि ने अपनी शब्दान्वाख्यान-प्रक्रिया की सुगमता और संक्षेप के लिये वृद्धि और गुण कृत्रिम संज्ञाऐं कीहैं । इन संज्ञाओं का सम्बन्ध केवल पाणिनीय शास्त्र तक ही सीमित है । इसी प्रकार कृष्ण यजुर्वेदीय श्रौतसूत्रकारों ने ही मन्त्र और ब्राह्मण की वेद संज्ञा क्यों कही ? इसका भी यही उत्तरहोगाकि उन्होंने अपने शास्त्र की प्रवृत्ति-विशेष के लिये मन्त्र और ब्राह्मण की वेदसंज्ञा कही है । ...
( युधिष्ठिर मीमांसक, वेद-श्रुति-आम्नाय-संज्ञा-मीमांसा , पृ० ९४)
यद्यपि वेदार्थपारिजात के समनुशीलन से उक्त समस्त आक्षेपों का ध्वंसाधारत्व ही सिद्ध होता है तथापि इस प्रतिक्रिया के प्रत्युत्तर में पारिजात वार्तिक में क्या कहा गया है , वह जिज्ञास्य है ।
इसी तरह कल्पद्रुम के माध्यम से भी जो प्रत्याक्षेप सामाजिकों द्वारा किये गये हैं, जिनके उत्तर स्वामी निरञ्जन देव तीर्थ जी महाराज द्वारा दिये गये हैं, वह सभी सनातन वैदिक धर्मावलम्बियों को पारिजात वार्तिक जैसे प्रत्युत्तरात्मक ग्रन्थों के पुनर्मुद्रण व प्रकाशन एवं प्रचार के माध्यम से सुलभ करने चाहिये ।
।। जय श्री राम ।।
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