रामपाल तो सामने आने से रहा , तथापि रामपाल के कथित चेलों के माध्यमेन इसे सामने ( लाइन हाजिर ) लाकर इसकी पोल खोली जा रही है , यद्यपि हतबुद्धि रामपाल का मूर्खत्व सर्वविदित है , तथापि सनातन धर्मानुरागी सहृदयों के स्वान्तः सुखाय किंचित् कारुण्य-क्रीडा अवतरित की जा रही है -
रामपाल चेलों का घोष -
ज्ञान चर्चा करो जी हमसे-- ओर सतलोक आश्रम आकर कल्याण करायें जी -- ईस धरती पर तत्वदर्शी संत केवल रामपाल -जी महाराज है जी-- (मुनिश दास)
श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
तुम और तुम्हारे जेल की हवा खा रहे गुरु आदि पहले संस्कृत पढ़ना सीख लो इस जन्म में , वही पर्याप्त है, संस्कृत के शास्त्रों का विश्लेषण तो बहुत दूर की बात है । भूर्लोक का फन्दा तो उतर नहीं रहा , निकले हैं सतलोक का कल्याण करने ! शब्दब्रह्मणि निष्णातः परब्रह्माधिगच्छति - ऐसा कहा गया है , जिसे वेदादि स्वरूप शब्दब्रह्म का क ख अवबोध नहीं , वो क्या परब्रह्म को प्राप्त करेगा ।
रामपाल -
पण्डित ज्ञानी जी--- अंग्रेजी सीखने से कोई डाक्टर नही बनता --तत्वज्ञान होना जरुरी है-- संस्कृत सीखने से भगवान नही मिलते जी
श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
जिसे ए बी सी डी नही आती , ऐसा डॉक्टर आज तक तो मेडिकल लाइन में हुआ नही , सतलोक आश्रम ने नया मेडिकल कॉलेज खोला है तो वे जाने ।
रामपाल -
मै ज्यादा संस्कृत तो नही जानता किंतु गीता के श्लोको मे जहां जहां तुम पण्डितो ने चालाकी करकर अनर्थ किया है वो जानता हु जी
श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
ज्यादा कम छोडिये , आप तो संस्कृत की अ आ क ख तक नहीं जानते । जानते हो तो कहो , अभी खोल देते हैं तुम्हारी कुण्डली । अतः तुम और तुम्हारे जैसे ही अन्य कबीरपंथी सब अन्धकार में भटक रहे हैं
रामपाल ---- व्रज का अर्थ जाना होता है उसे आना बनाकर बेवकुफ बना रहे थे जनता को -- गीता कृष्ण ने नही बोली ईसके भी पचास प्रमाण है जी -- अर्जुन ने जब युद्ध के बाद दोबारा गीता सुनाने को कहा तो क्यो भुल गये कृष्ण गीता को?? ये क्यो कहा की मै अब दोबारा नही सुना सकता?? जबाव है पण्डित जी??? गीता मे 11/32 मे कहा की मै काल हु ओर ईस समय सबको खाने आया हु-- विचार करें कृष्ण तो पहले से ही खडे थे तो ये कौन बोल रहा है की अब आया हू-- कितने प्रमाण दु पण्डित जी??
वामन शिवराम आप्टे मे देखिये वहां व्रज का अर्थ "आना" नही लिखा-- व्रज का अर्थ जाना ,चलना ये लिखा है-- तो व्रज का अर्थ आना कैसे किया?? किस प्रमाण से??-- अंग्रेजी मे Go को come नही कह सकते तो व्रज का अर्थ चलना यानि जाना है तो आना क्यो किया?? शब्दकोष मे दिखाओ गमन का अर्थ जाना है जी -- प्राप्ति का अर्थ आना कैसे होगा पण्डित जी??
श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
मैंने संस्कृत में क्या लिखा , यदि तुमने समझा होता तो ये सब तुम बोलते ही नहीं
डिक्शनरी का अभिप्राय समझने के लिए भी मूल सिद्धांत अवबोध चाहिए, व्याकरण का यदि सामान्य ज्ञान भी तुमको होता तो ज्ञात होता कि गति शब्द ज्ञान, गमन, प्राप्ति स्वरूप अर्थत्रय का अवबोधक होता है ।
//////कृष्ण तो पहले से ही खडे थे तो ये कौन बोल रहा है की अब आया हू//////
अब आया हूं - ऐसा मूल संस्कृत श्लोक में कहीं भी नहीं लिखा है । ये सब भ्रम भी तुमको हिन्दी की बैसाखी के चलते हो रहा है। मूल श्लोक में श्री कृष्ण कह रहे हैं - कालोsस्मि - अर्थात् मैं ही काल हूं , जो कि लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः - अर्थात् लोक का समाहरण करने में यहॉ ( युद्धस्थल में ) प्रवृत्त हूं । प्रवृत्ति प्रवर्तकाश्रित हो कर ही व्यवहृत हुआ करती हैं ।
रामपाल -
तो व्रज शब्द की व्याख्या बताईय ?
श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
व्रज की व्याख्या तो सुस्पष्ट है , व्रज पद गत्यर्थक है और गति आने और जाने दोनो प्रकार में होती है ।
रामपाल -
आप ये बताईये की की अर्जुन तो पहले से ही शरण मे था तो गीता ज्ञानदाता ये क्यो कहेगा की मेरी शरण आ-- अर्जुन तो कह चुका की साधि मां त्वाम्......
श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
जैसे किसी गृहस्थ के घर में अतिथि के आने पर घर का गृहस्वामी उस अतिथि से कहता है कि मेरे घर आया करो , इसी प्रकार ।
रामपाल - उचित अनुचित ,उदार अनुदार ये सब विपरीत है तो उत्तम अनुत्तम होना चाहिये ,--- तो अनुत्तम के दो अर्थ किस आधार पर बनाए??? अगर गीता मे अनुत्तमाम् का अर्थ अति उत्तम है तो गीता ज्ञानदाता पंद्रहवे अध्याय मे ये क्यो कह रहा है की उत्तम पुरुष तु अन्य:-- 18/62 मे अपने से अलग परमात्मा की शरण मे भेज रहा है तो जब गीता ज्ञानदाता से अलग परमात्मा है तो गीता मे अनुत्तम का अर्थ( न उत्तमो यस्मात) क्यो किया?? जबकि 18/62 मे अन्य प्रभु की ओर सकेत है
श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
उत्तम का विपरीत अनुत्तम नही अपितु अधम होता है । संस्कृत का अनुत्तम पद न उत्तम अस्यान्यत् इस विग्रह से सर्वोत्तम अभिप्राय का वाचक होता है । देखो शास्त्रान्तर प्रमाण –
सन्तोषाद् अनुत्तमसुखलाभः ( पातञ्लयोगसूत्र २|४२) व्याकरण के आचार्य पतञ्जलि अपने योगसूत्र मे सर्वोत्तम अभिप्राय मे अनुत्तम शब्द दर्शा रहे हैं ।
गीता ज्ञान दाता के प्रति /// अपने से अन्य उत्तम पुरुष// का आक्षेप करना भी व्यर्थ है , क्योंकि उत्तमः पुरुषः को ही संस्कृत में #पुरुषोत्तम कहा जाता है । गीता ज्ञानदाता श्री कृष्ण ने अपने इस पुरुषोत्तम स्वरूप को परिचय देकर इसे निम्न श्लोक में अपना ही परिचय प्रमाणित किया है -
उत्तम पुरुष का परिचय -
उत्तम पुरुष अन्य ही है, जो परमात्मा कहलाता है और जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण करने वाला अव्यय ईश्वर है-
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।। ( श्रीमद्भगवद्गीता १५|१७)
यह उत्तम पुरुष श्रीभगवान् कृष्ण हैं -
क्योंकि मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी #उत्तम_हूँ, इसलिये लोक में और वेद में भी #पुरुषोत्तम ( अर्थात् उत्तम पुरुष) के नाम से प्रसिद्ध हूँ-
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।। ( श्रीमद्भगवद्गीता १५|१८)
रामपाल -
तो फिर चारो शंकराचार्यो ने अनुत्तम का सामान्य अर्थ घटिया क्यो कहा? ये देखो https://m.youtube.com/watch?v=4UvbRydpzlI&itct=CAwQpDAYASITCJrg4tnmutICFeGwnAod-gsFqlIi4KSF4KSo4KWB4KSk4KWN4KSk4KSuIOCkqOCkpOCksuCkrA%3D%3D&gl=IN&hl=en&client=mv-google
श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
शास्त्रीय विषय में शास्त्र ही प्रधान प्रमाण होते हैं , तदनुकूल ही अन्य किसी भी वक्ता का कथन प्रमाण होता है , प्रतिकूल नहीं । अतः ये किसने क्या कहा किसने क्या नहीं - ये सब व्यर्थ के स्वनिर्मित वीडियो आप किसी अनपढ़ हरयाणवी मूर्ख को बहला फुसला के चेला बनाने हेतु दिखावें ।
रामपाल -
तो एसा कौनसा सिद्धांत है की अनुचित अनुदार ईनका प्रयोग संस्कृत मे विपरीत अर्थ के लिए प्रयोग होता ह ओर अनुत्तम का अति उत्तम????
श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
सिद्धान्त ये है -
शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानात्कोषाप्तवाक्याद्व्यवहारतश्च। वाक्यस्य शेषाद्विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः ।।
रामपाल -
आपने जो व्रज शब्द की व्याख्या की वो आपके अनुसार ठीक होगा क्योकि आप कृष्ण को गीता ज्ञानदाता मानते हो लेकिन जब कृष्ण ने गीता बोली ही नही तो जिसने गीता बोली उसके अनुसार अर्थ बनेगा-- मामेकं शरणं व्रज-- अर्थात् सब धर्मो को मुझे त्यागकर एक परमात्मा की शरण मे जाओ ये अनुवाद बनेगा(एकम् शरणम् व्रज)
श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
"एकम् यानि अद्वितिय परमात्मा की शरण में " एकस्य परमात्मनः - ऐसा कोई सम्बन्धार्थक षष्ठ्यन्त प्रयोग यहाँ नहीं है , ‘नासङ्गतं प्रयुञ्जीत’ इस नियम का तुमको ज्ञान नहीं है । एकम् शरणम् व्रज - यहॉ पर एकम् पद न तो षष्ठ्यन्त पद है ना ही विशेषणेतर है , अतः ये मनमुखीपने के जुगाडपन्थी तिकडम कहीं अन्यत्र भिड़ाना , ये संस्कृत भाषा है , यहॉ कुटिलता नहीं चलती । /// मेरे सब धर्मों को छोड़कर /// के लिए /// मां सर्वधर्मान् परित्यज्य ///// कहा जाएगा या /// मम सर्वधर्मान् परित्यज्य ///// ये किसी संस्कृत पढ़ने वाले नौवीं, दसवीं के छोटे से बच्चे से पूछना, तुमको बहुत अच्छी तरह से समझाएगा ।
रामपाल -
अरे पण्डित जी अगर मै अब शांकर भाष्य की धज्जियां उडाना शुरु कर दुं तो कहां तक बचोगे???-- शांकर भाष्य मे खुद द्वितिय विभक्ति के साथ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है-- लो एक प्रमाण देता हु गीताप्रैस का-- आप कहते हो की एकस्य यानि षष्ठी विभक्ति के साथ (का ,के,की) लगता है तो अब सुनो-- गीताप्रैस ने मामेकं का अनुवाद "मुझ एक की" किया है-- अब बताओ माम् एकम् ये दोनो द्वितिय विभक्ति है तो ईसके साथ "को" की बजाय षष्ठी विभक्ति (की) क्यो प्रयोग की??-- ये मत सोचना की रामपाल -दास जी महाराज के शिष्य संस्कृत नही जानते--बडे बडे विद्वानो ने हार मानकर नामदान ले लिया-- तुम किस दुनिया मे हो
श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
तुमसे नामदान लेने वाला तुमसे भी चार चरण आगे का पहुंचा हुआ होगा , इसमें तो कोई संशय नहीं ।
////// शांकर भाष्य मे खुद द्वितिय विभक्ति के साथ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है ///// - बिना सिर पाँव की कोरी बकवास करना तो कोई तुम कबीरपंथियों से सीखे ! मुख है तो कहने में क्या जाता है हर्रे दश हाथ के होते हैं [ मुखमस्यास्तीति वक्तव्यं दशहस्ता हरीतिकी ]
///// माम् एकम् ये दोनो द्वितिय विभक्ति है तो ईसके साथ "को" की बजाय षष्ठी विभक्ति (की) क्यो प्रयोग की?////// ये भी तुम्हें इसीलिये समझ नहीं आ रहा क्योंकि तुमको संस्कृत की क ख पता नहीं । कर्त्तुरीप्सिततमं कर्म (पा०अष्टा० १।४।४९) इस सूत्र से व्रज – इस क्रियापद से अभिहित गति रूप व्यापार के कर्त्ता की स्वगत्यात्मिका क्रिया उक्त द्वितीयान्त पद से विशिष्ट सम्बन्ध रखने से कर्त्ता के क्रिया व्यापार के ईप्सिततम में कर्म संज्ञा हुई है और कर्म संज्ञा होने पर कर्मणि द्वितीया (पा० अष्टा० २।३।२) सूत्र से द्वितीया विभक्ति हुई है ।
ईश्वर तुम्हें सद्बुद्धि प्रदान करें ।
इत्यलम् ।।
।। जय श्री राम ।।