Tuesday, 27 March 2018

अध्यापन में ब्राह्मण का ही अधिकार क्यों

प्रश्न - अध्यापनादि कार्य में ब्राह्मणमात्र का अधिकार क्यों हैं ?

उत्तर - तैत्तिरीय ब्राह्मण , द्वितीय काण्ड, अष्टम प्रपाठक , अष्टम अनुवाक के अन्तर्गत पुरोडाश का पुरोनुवाक्यरूप में एक ऋक्मन्त्र आम्नात हैं - 

" ब्रह्म देवानजनयत् ब्रह्म विश्वमिदं जगत् । ब्रह्मणः क्षत्रं निर्मितम् ब्रह्म ब्राह्मण आत्मना ।। "

इसपर भाष्यकार सायणाचार्य ने लिखा हैं -

// यज्जगत्कारणं ब्रह्म तदेव देवान् इन्द्रादिनजनयत् । तथैव तत्ब्रह्म अन्यदपि विश्वं सर्वमिदं जगदजनयत् । ....... अतएव अध्यापनाद्यविधिक्रियते । // 

~ तैत्तिरीय ब्राह्मण , द्वितीय काण्ड, अष्टम प्रपाठक , अष्टम अनुवाक , सायणभाष्य द्रष्टव्य

भावार्थ - जगत्कारण ब्रह्म इन्द्रादि देवों को उत्पन्न करते हैं, उस ब्रह्म से इन्द्रादि देवों की तरह इस परिदृश्यमान जगत् की उत्पत्ति हुई, ब्रह्म से क्षत्रिय जाति का जन्म हुआ एवं ब्रह्म स्वस्वरुप में ही ब्राह्मण बन गए , इसलिए ब्राह्मणदेह में परब्रह्म का विशेष आविर्भाव हैं । इसलिए ब्राह्मण ही अध्यापनादि कर्म में अधिकृत् हैं ।

साभार :- वेदमन्त्रादि प्रतिपादित जन्मद्वारा ब्राह्मणादि वर्णव्यवस्था, महामहोपाध्याय श्रीयोगेन्द्रनाथ तर्कसांख्यवेदान्ततीर्थ

विवाह संस्कार का महत्त्व

हमारे सनातन वैदिक धर्म की विहित  विवाह संस्कार. की प्राचीन     परम्परा  में जो   आज विकृति आयी है, उस कारण प्रायः-  प्रायः  सारे युवा   आजकल के  परस्त्री -लम्पट हो गये हैं ।

वैदिक परम्परा में बहुत शीघ्र   ही यह संस्कार  सम्पन्न कर लिया जाता था ।  क्यों?    परिणाम स्वयं चीख चीख कर कारण बता रहे हैं !

सही समय पर  शास्त्रीय संस्कारों  का कितना गम्भीर महत्त्व है, ये स्पष्ट है ।

ऋषि-मुनियों से ज्यादा समझदार समझने का   कुछ कलिग्रसित   अज्ञानियों का अभिमान सारे  मानव -समाज को ले डूबा ।

कहते हैं , // अपना जीवनसाथी चुनने का  अधिकार हमको स्वयं होना चाहिये, जिन्दगी हमने बितानी है , मॉ बाप को नहीं ///

अरे   अज्ञानी बालक !    जीवनसाथी  जिन्दगी बिताने के लिये नहीं चुनते , अपितु जीवन और मृत्यु के चक्रव्यूह  से पार उतर कर  आत्मकल्याण पाने के लिये  चुनते हैं !

और तेरे शरीर पर तो तुझसे पहले तेरे माता पिता का अधिकार है !  क्योंकि तू उनका ऋणी है !  तुझे ऐसा क्यों लगता है कि तेरे माता पिता का निर्णय तेरा निर्णय नहीं ?  यही तो है  तेरे सिर पर चढा हुआ  कलियुग !   तू तो  उनका ही अधिकार   कुचल गया!

।। जय श्री राम ।।

Monday, 26 March 2018

मायावी लोग सिद्धान्ति को भी मायावादी कहने से नहीं चूकते

जब मनुष्य को भ्रम तथा मोह घेर लेता है तो वो अपना मत उलटे प्रकार से रखने लगता है , जो सत्य है उसको असत्य रूप से ग्रहण करता है l जो विषय श्रेय के कारण हैं उसको वो असाध्य सिद्ध करता है l
ऐसे अनेक उदाहरण आपको देखने को मिलते रहे होंगे l
उदाहरण के लिये जो वेदवेद्य तत्व का प्रतिपादन सर्वत्र हुआ है , उसको ग्रहण ना करके कुछ और प्रकार के अर्थ भी हो सकते हैं इस भ्रम में भ्रान्तमति  अवैदिक सिद्धान्त को प्रसारित करते हैं l
उससे भी नहीं होता है तृप्ति , तो संपूर्ण वेद के उद्धार करने वाले साक्षात् वेदस्वरूप भगवान् को भी ये मायावी कह देने से नहीं चुकते l
और ये भ्रान्ति जब पूर्ण रूप से बुद्धि में स्थिरता को प्राप्त हो जाती है तो इन भ्रान्त पशुओं को हम धूर्त कहते हैं , क्योंकि वे फिर वेदों पर भी तर्क करते हैं , इसलिये तार्किकों को हम धूर्त ही कहते हैं l ये मायाजाल भी प्रसारित करते हैं l
मायावी जो मायाजाल फैलाते हैं उनमें उनकी भावना यहीं होती है कि हमारे माया में आने वाले लोग सिद्धान्त ना रख दें l अन्यथा फिर उनकी माया का तिरोभाव हो जायेगा l
इसलिये ऐसे मायाजाल के कर्ता जो वेदों में प्रतिपादित अनन्त श्रुति को मिथ्या कह कर भ्रम में डाल कर माया का प्रसार करे उस धूर्त द्वारा प्रवर्तित मत ही मोह में डालने वाला है l

-------सनातन वैदिक धर्म में प्रतिपादित अद्वैत मत ही सकल वेदादि शास्त्रों द्वारा स्वीकृत है l
इस मत के खण्डन में जो वेद विरुद्ध मत रखा जाये , वो मायाजाल है l
और मायावी तो सिद्धान्त रखने वाले को भी मायावादी कहने से नहीं चुकते l

सावधान ---------

साभार रत्नेश तिवारी
ll जय श्री मन्नारायण ll

Sunday, 25 March 2018

व्रज अर्थ पर रामपाल के चेलों का दंभदमन

रामपाल तो  सामने  आने  से  रहा  ,  तथापि  रामपाल के कथित चेलों के माध्यमेन  इसे  सामने ( लाइन हाजिर ) लाकर  इसकी  पोल  खोली जा रही  है ,   यद्यपि   हतबुद्धि  रामपाल  का मूर्खत्व    सर्वविदित  है ,  तथापि    सनातन धर्मानुरागी   सहृदयों  के  स्वान्तः सुखाय   किंचित्    कारुण्य-क्रीडा  अवतरित  की  जा  रही  है  -

रामपाल चेलों  का  घोष      -
ज्ञान चर्चा करो जी हमसे-- ओर सतलोक आश्रम आकर कल्याण करायें जी -- ईस धरती पर तत्वदर्शी संत केवल रामपाल -जी महाराज है जी-- (मुनिश दास)

श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
तुम और तुम्हारे  जेल की हवा खा रहे गुरु आदि पहले संस्कृत  पढ़ना सीख लो  इस जन्म में , वही पर्याप्त है,  संस्कृत के शास्त्रों का विश्लेषण तो बहुत दूर की बात है ।  भूर्लोक  का  फन्दा  तो  उतर   नहीं  रहा  ,  निकले   हैं  सतलोक  का  कल्याण  करने !  शब्दब्रह्मणि निष्णातः परब्रह्माधिगच्छति - ऐसा  कहा  गया  है  ,  जिसे  वेदादि स्वरूप  शब्दब्रह्म का  क ख   अवबोध  नहीं  ,  वो  क्या  परब्रह्म  को  प्राप्त  करेगा  ।

रामपाल -
पण्डित ज्ञानी जी--- अंग्रेजी सीखने से कोई डाक्टर नही बनता --तत्वज्ञान होना जरुरी है-- संस्कृत सीखने से भगवान नही मिलते जी

श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
जिसे  ए बी सी डी  नही आती , ऐसा   डॉक्टर  आज तक तो मेडिकल लाइन में हुआ नही , सतलोक आश्रम ने नया मेडिकल कॉलेज खोला है  तो वे जाने ।

रामपाल -
मै ज्यादा संस्कृत तो नही जानता किंतु गीता के श्लोको मे जहां जहां तुम पण्डितो ने चालाकी करकर अनर्थ किया है वो जानता हु जी

श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
ज्यादा कम  छोडिये , आप तो संस्कृत की अ आ क ख तक नहीं जानते  ।  जानते हो तो कहो , अभी खोल देते हैं तुम्हारी कुण्डली  ।  अतः तुम  और  तुम्हारे जैसे ही  अन्य कबीरपंथी  सब  अन्धकार में भटक रहे हैं

रामपाल ---- व्रज का अर्थ जाना होता है उसे आना बनाकर बेवकुफ बना रहे थे जनता को -- गीता कृष्ण ने नही बोली ईसके भी पचास प्रमाण है जी -- अर्जुन ने जब युद्ध के बाद दोबारा गीता सुनाने को कहा तो क्यो भुल गये कृष्ण गीता को?? ये क्यो कहा की मै अब दोबारा नही सुना सकता??  जबाव है पण्डित जी???  गीता मे 11/32 मे कहा की मै काल हु ओर ईस समय सबको खाने आया हु-- विचार करें कृष्ण तो पहले से ही खडे थे तो ये कौन बोल रहा है की अब आया हू--  कितने प्रमाण दु पण्डित जी??
वामन शिवराम आप्टे मे देखिये वहां व्रज का अर्थ "आना" नही लिखा-- व्रज का अर्थ जाना ,चलना ये लिखा है-- तो व्रज का अर्थ आना कैसे किया?? किस प्रमाण से??-- अंग्रेजी मे Go को come नही कह सकते तो व्रज का अर्थ चलना यानि जाना है तो आना क्यो किया??  शब्दकोष मे दिखाओ   गमन का अर्थ जाना है जी -- प्राप्ति का अर्थ आना कैसे होगा पण्डित जी??

श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
मैंने संस्कृत में क्या लिखा ,  यदि तुमने समझा  होता  तो  ये सब तुम  बोलते ही  नहीं
डिक्शनरी  का  अभिप्राय  समझने  के  लिए  भी  मूल  सिद्धांत अवबोध चाहिए,   व्याकरण का  यदि सामान्य ज्ञान भी तुमको होता  तो ज्ञात होता कि     गति  शब्द   ज्ञान, गमन, प्राप्ति  स्वरूप अर्थत्रय का  अवबोधक होता  है  ।

//////कृष्ण तो पहले से ही खडे थे तो ये कौन बोल रहा है की अब आया हू//////

अब आया हूं - ऐसा मूल संस्कृत श्लोक में  कहीं भी नहीं लिखा है ।  ये सब भ्रम भी तुमको हिन्दी की बैसाखी के चलते हो रहा है।   मूल श्लोक में श्री कृष्ण  कह रहे हैं - कालोsस्मि - अर्थात् मैं ही काल हूं  ,  जो कि लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः - अर्थात् लोक का समाहरण  करने में यहॉ ( युद्धस्थल में ) प्रवृत्त हूं ।  प्रवृत्ति  प्रवर्तकाश्रित हो कर ही व्यवहृत हुआ करती हैं ।

रामपाल -
तो व्रज शब्द की व्याख्या बताईय  ?

श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
व्रज की व्याख्या तो सुस्पष्ट है , व्रज पद गत्यर्थक है और गति आने और जाने दोनो प्रकार में होती है ।

रामपाल -
आप  ये बताईये की की अर्जुन तो पहले से ही शरण मे था तो गीता ज्ञानदाता ये क्यो कहेगा की मेरी शरण आ-- अर्जुन तो कह चुका की  साधि मां त्वाम्......

श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
जैसे किसी गृहस्थ के घर में अतिथि के आने पर  घर का गृहस्वामी उस अतिथि से कहता है कि मेरे  घर आया करो , इसी प्रकार ।

रामपाल -  उचित अनुचित  ,उदार अनुदार ये सब विपरीत है तो उत्तम अनुत्तम होना चाहिये ,--- तो अनुत्तम के दो अर्थ किस आधार पर बनाए??? अगर गीता मे अनुत्तमाम् का अर्थ अति उत्तम है तो गीता ज्ञानदाता  पंद्रहवे अध्याय मे ये क्यो कह रहा है की उत्तम पुरुष तु अन्य:--  18/62  मे अपने से अलग परमात्मा की शरण मे भेज रहा है तो जब गीता ज्ञानदाता से अलग परमात्मा है तो गीता मे अनुत्तम का अर्थ( न उत्तमो यस्मात) क्यो किया?? जबकि   18/62  मे अन्य प्रभु की ओर सकेत है

श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
उत्तम का विपरीत अनुत्तम नही अपितु अधम होता है । संस्कृत का अनुत्तम पद  न उत्तम अस्यान्यत्  इस विग्रह से  सर्वोत्तम अभिप्राय का वाचक होता है ।  देखो शास्त्रान्तर प्रमाण –
सन्तोषाद् अनुत्तमसुखलाभः ( पातञ्लयोगसूत्र २|४२)   व्याकरण के आचार्य पतञ्जलि  अपने योगसूत्र मे सर्वोत्तम अभिप्राय मे  अनुत्तम  शब्द दर्शा रहे हैं ।

गीता ज्ञान दाता के प्रति /// अपने से अन्य उत्तम पुरुष// का  आक्षेप  करना भी  व्यर्थ है ,  क्योंकि उत्तमः पुरुषः  को ही संस्कृत में #पुरुषोत्तम कहा जाता है । गीता ज्ञानदाता श्री कृष्ण ने  अपने इस पुरुषोत्तम  स्वरूप को परिचय  देकर इसे  निम्न श्लोक में  अपना ही परिचय प्रमाणित किया है -

उत्तम पुरुष का परिचय -

उत्तम पुरुष अन्य ही है,  जो परमात्मा कहलाता है और जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण करने वाला अव्यय ईश्वर है-

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।। ( श्रीमद्भगवद्गीता १५|१७)

यह  उत्तम पुरुष श्रीभगवान् कृष्ण हैं -

क्योंकि मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी #उत्तम_हूँ, इसलिये लोक में और वेद में भी  #पुरुषोत्तम  ( अर्थात् उत्तम पुरुष)   के नाम से प्रसिद्ध हूँ-

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।। ( श्रीमद्भगवद्गीता १५|१८)

रामपाल -
तो फिर चारो शंकराचार्यो ने अनुत्तम का सामान्य अर्थ घटिया क्यो कहा? ये  देखो https://m.youtube.com/watch?v=4UvbRydpzlI&itct=CAwQpDAYASITCJrg4tnmutICFeGwnAod-gsFqlIi4KSF4KSo4KWB4KSk4KWN4KSk4KSuIOCkqOCkpOCksuCkrA%3D%3D&gl=IN&hl=en&client=mv-google

श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
शास्त्रीय विषय में शास्त्र ही प्रधान प्रमाण होते हैं , तदनुकूल ही अन्य किसी भी वक्ता का कथन प्रमाण होता है , प्रतिकूल नहीं । अतः ये  किसने क्या कहा  किसने  क्या  नहीं  -  ये सब व्यर्थ  के  स्वनिर्मित वीडियो आप किसी अनपढ़ हरयाणवी मूर्ख को बहला फुसला  के  चेला बनाने हेतु दिखावें ।

रामपाल -
तो एसा कौनसा सिद्धांत है की अनुचित अनुदार ईनका प्रयोग संस्कृत मे विपरीत अर्थ के लिए प्रयोग होता ह ओर अनुत्तम का अति उत्तम????

श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-

सिद्धान्त ये है -

शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानात्कोषाप्तवाक्याद्व्यवहारतश्च। वाक्यस्य शेषाद्विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः ।।

रामपाल -
आपने जो व्रज शब्द की व्याख्या की वो आपके अनुसार ठीक होगा क्योकि आप कृष्ण को गीता ज्ञानदाता मानते हो लेकिन जब कृष्ण ने गीता बोली ही नही तो जिसने गीता बोली उसके अनुसार अर्थ बनेगा-- मामेकं शरणं व्रज-- अर्थात् सब धर्मो को मुझे त्यागकर एक परमात्मा की शरण मे जाओ ये अनुवाद बनेगा(एकम् शरणम् व्रज)

श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-
"एकम् यानि अद्वितिय परमात्मा की शरण में "        एकस्य परमात्मनः   - ऐसा कोई  सम्बन्धार्थक  षष्ठ्यन्त  प्रयोग  यहाँ  नहीं  है , ‘नासङ्गतं प्रयुञ्जीत’   इस नियम  का तुमको ज्ञान नहीं है ।   एकम् शरणम् व्रज - यहॉ पर एकम् पद  न तो षष्ठ्यन्त  पद  है ना   ही  विशेषणेतर  है , अतः  ये  मनमुखीपने के जुगाडपन्थी तिकडम  कहीं अन्यत्र भिड़ाना , ये संस्कृत भाषा  है , यहॉ कुटिलता नहीं चलती ।  /// मेरे सब धर्मों  को  छोड़कर  ///  के लिए /// मां सर्वधर्मान्  परित्यज्य ///// कहा जाएगा  या  /// मम सर्वधर्मान् परित्यज्य /////  ये  किसी  संस्कृत  पढ़ने  वाले   नौवीं,  दसवीं  के   छोटे  से  बच्चे  से  पूछना, तुमको  बहुत  अच्छी  तरह  से  समझाएगा ।

रामपाल -
अरे पण्डित जी अगर मै अब शांकर भाष्य की धज्जियां उडाना शुरु कर दुं तो कहां तक बचोगे???-- शांकर भाष्य मे खुद द्वितिय विभक्ति के साथ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है-- लो एक प्रमाण देता हु गीताप्रैस का-- आप कहते हो की एकस्य यानि षष्ठी विभक्ति के साथ (का ,के,की) लगता है तो अब सुनो-- गीताप्रैस ने मामेकं का अनुवाद "मुझ एक की" किया है-- अब बताओ माम् एकम् ये दोनो द्वितिय विभक्ति है तो ईसके साथ "को" की बजाय षष्ठी विभक्ति (की) क्यो प्रयोग की??-- ये मत सोचना की रामपाल -दास जी महाराज के शिष्य संस्कृत नही जानते--बडे बडे विद्वानो ने हार मानकर नामदान ले लिया-- तुम किस दुनिया मे हो

श्री आद्य शंकराचार्य-सन्देश-

तुमसे नामदान लेने  वाला  तुमसे  भी  चार  चरण  आगे  का पहुंचा  हुआ   होगा  , इसमें  तो  कोई  संशय  नहीं  ।
  ////// शांकर भाष्य मे खुद द्वितिय विभक्ति के साथ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है ///// - बिना  सिर  पाँव  की  कोरी   बकवास  करना  तो  कोई  तुम  कबीरपंथियों से  सीखे  !   मुख  है  तो  कहने  में  क्या  जाता  है  हर्रे  दश  हाथ  के होते  हैं  [ मुखमस्यास्तीति वक्तव्यं दशहस्ता हरीतिकी ]
///// माम् एकम् ये दोनो द्वितिय विभक्ति है तो ईसके साथ "को" की बजाय षष्ठी विभक्ति (की) क्यो प्रयोग की?//////   ये भी  तुम्हें  इसीलिये  समझ  नहीं  आ  रहा  क्योंकि  तुमको  संस्कृत  की  क  ख  पता  नहीं । कर्त्तुरीप्सिततमं कर्म (पा०अष्टा० १।४।४९) इस सूत्र  से  व्रज – इस क्रियापद से  अभिहित गति रूप व्यापार के  कर्त्ता की   स्वगत्यात्मिका क्रिया  उक्त  द्वितीयान्त पद से  विशिष्ट सम्बन्ध रखने  से  कर्त्ता के क्रिया व्यापार   के  ईप्सिततम  में   कर्म संज्ञा हुई  है   और  कर्म संज्ञा  होने  पर  कर्मणि द्वितीया  (पा० अष्टा० २।३।२) सूत्र   से द्वितीया  विभक्ति  हुई  है  ।

ईश्वर  तुम्हें  सद्बुद्धि  प्रदान  करें ।

इत्यलम्  ।।

।। जय श्री  राम  ।।

Wednesday, 21 March 2018

शयन के नियम

घर में अकेला नहीं सोना चाहिए। देवमन्दिर और श्मशान में भी नहीं सोना चाहिए। *(मनुस्मृति)*
**किसी सोए हुए मनुष्य को अचानक नहीं जगाना चाहिए। *(विष्णुस्मृति)*
--विद्यार्थी, नौकर औऱ द्वारपाल, ये ज्यादा देर तक सोए हुए हों तो, इन्हें जगा देना चाहिए। *(चाणक्यनीति)*
~~स्वस्थ मनुष्य को आयुरक्षा हेतु ब्रह्ममुहुर्त में उठना चाहिए। *(देवीभागवत)*
~बिल्कुल अंधेरे कमरे में नहीं सोना चाहिए। *(पद्मपुराण)*
__भीगे पैर नहीं सोना चाहिए। सूखे पैर सोने से लक्ष्मी (धन) की प्राप्ति होती है। *(अत्रिस्मृति)*
©टूटी खाट पर तथा जूठे मुंह सोना वर्जित है। *(महाभारत)*
°°नग्न होकर नहीं सोना चाहिए। *(गौतमधर्मसूत्र)*
++पूर्व की तरफ सिर करके सोने से विद्या, पश्चिम की ओर सिर करके सोने से प्रबल चिन्ता, उत्तर की ओर सिर करके सोने से हानि व मृत्यु, तथा दक्षिण की तरफ सिर करके सोने से धन व आयु की प्राप्ति होती है। *(आचारमय़ूख)*
∆∆दिन में कभी नही सोना चाहिए। परन्तु जेष्ठ मास मे दोपहर के समय एक मुहूर्त (48 मिनट) के लिए सोया जा सकता है। *(जो दिन मे सोता है उसका नसीब फुटा है)*
★★दिन में तथा सुर्योदय एवं सुर्यास्त के समय सोने वाला रोगी और दरिद्र हो जाता है। *(ब्रह्मवैवर्तपुराण)*
◆◆सूर्यास्त के एक प्रहर (लगभग 3 घंटे) के बाद ही शयन करना चाहिए।
●●बायीं करवट सोना स्वास्थ्य के लिये हितकर हैं।
÷÷दक्षिण दिशा (South) में पाँव रखकर कभी नही सोना चाहिए। यम और दुष्टदेवों का निवास रहता है। कान में हवा भरती है। मस्तिष्क में रक्त का संचार कम को जाता है स्मृति- भ्रंश, मौत व असंख्य बीमारियाँ होती है।
■■ह्रदय पर हाथ रखकर, छत के पाट या बीम के नीचें और पाँव पर पाँव चढ़ाकर निद्रा न लें।
=शय्या पर बैठकर खाना-पीना अशुभ है।
*सोते सोते पढना नही चाहिए।
----ललाट पर तिलक लगाकर सोना अशुभ है। इसलिये सोते वक्त तिलक हटा दें।
#प्रश्न_नही_स्वाध्याय_करे!!

Tuesday, 20 March 2018

स्त्रीयों के यज्ञोपवीत का खण्डन

#वेदानुरागी -
काली को नाग  यज्ञोपवीताङ्गी कहा है इसलिये स्त्रियॉ जनेउ पहनती है । पण्डिता कहा , इसलिये स्त्रियॉ  वेदाध्ययन  करतीं हैं ।

#उत्तर -    नाम वेदानुरागी है, काम है  पाखण्डानुराग करना ।  नागों  को यज्ञोपवीत  के रूप में धारण करना  किस वेद मन्त्र  में कहा गया है  ? ये वेदानुरागी को बताना चाहिये । स्वामी दयानन्द ने संस्कार विधि या सत्यार्थ प्रकाश आदि में कहीं पर ऐसा उल्लेख किया हो तो वही बता दो !

जब यज्ञोपवीत के रूप में नाग धारण करने का कोई विधि वाक्य है ही नहीं , ना ही तुम सामाजिकों के मत में ऐसा कोई विधान है तो  एक  नाग यज्ञोपवीताङ्गी  सम्बोधन वाली कोई स्त्री  , स्त्रियों के यज्ञोपवीत की प्रमाण कैसे हुई ?   नाग के यज्ञोपवीत  रूप में धारित न होने से तो यहॉ     मुख्यार्थ बाध हुआ है और शास्त्र का नियम है कि मुख्यार्थ बाध होने पर  लक्षणा प्रवृत्त होती है । 

नाग और यज्ञोपवीत दोनों विषय और विषयी में मृदुता अर्थात्  लचीलेपन  रूपी गुण की  साम्यता है । इसलिये सादृश्य सम्बन्ध से गौणी तथा यज्ञोपवीत का आरोप होने से सारोपा लक्षणा हुई ।

अब क्योंकि   उन  नाग यज्ञोपवीताङ्गी की उक्त  सादृश्यता का प्रयोजन  भगवती कालिका में  स्कन्ध से कटिप्रदेश की ओर  अथवा कण्ठ में माला सदृश्  एक  यज्ञोपवीत की भॉति  सव्य /अपसव्यादि रूप में  अवस्थित  नागों से  देह  में भयानकरसोपेत गात्रशोभा  द्वारा  भगवती कालिका की उग्रता का  सूचन करना  है, फलतः  गौणी सारोपा नामक  प्रयोजनवती लक्षणा यहॉ विहित होगी ।

अरे वेदानुरागी!
मोटी बुद्धि से ही  समझो कि सिंहो माणवकः ( यह बालक शेर है )  इत्यादि स्थलों पर  उपमान के शौर्यादि  गुणों का आरोप उपमेय में किया जाता है कि नहीं !  तो क्या इस आरोप से उपमेय उपमान हो जाता है क्या  ? एक बालक  सिंह सदृश्  शूरता और क्रूरता  के गुणों वाला  है तो क्या  हरेक बालक  को , उसी बालक या  सिंह  जैसा ही मानेगे क्या ?

पण्डिता कहलाने के लिये वेदाध्ययन  ही करना कोई अनिवार्यता नहीं ।  धर्मं चरति पण्डितः - इस स्मृति से  अपने  वर्णाश्रमाद्यनुरूप  स्वधर्माचरण का पालन करने वाले को पण्डित  कहा गया है । इसी रीति से जो स्त्री अपने  नारी धर्म की मर्यादा का पालन करे वो पण्डिता कहलायेगी ।

वहीं काली सहस्रनाम में नृमुण्डहस्ता ( हाथ में मानव का सिर लिये हुए) कहा गया है काली को , तो वेदानुरागी बतायें कि क्या आर्य कन्याऐं हाथ में खोपडी भी  रखती थीं ?  यदि यही बात है तो    दिगम्बरा   (नग्न ), श्मशानवासिनी -  मरघट में रहने वाली  आदि शब्दों पर क्या करेंगे न जाने  !  

  सकल - विरुद्ध- धर्माश्रयता - ये भगवती कालिका का स्वरूप है ।   नृमुण्डहस्ता, मदिरोन्मादा , रक्तप्रिया  ,    शवासना  आदि अशुद्ध , अपवित्र ,  अमंगल वेष धारण करके भी  स्वदर्शन , स्मरणादि से प्राणिमात्र  का मंगल करने के     स्वरूप वाली भगवती कालिका  अज्ञानी समाजियों के समझ नहीं आयेंगी ।

।। जय श्री राम  ।।

Monday, 19 March 2018

यज्ञोपवीत 96 परिमाण का क्यों होता है

षोडशसंस्काराः (यज्ञोपवीतम्)खंड११३~ यज्ञोपवीतके निर्माणके सम्बन्धमें प्रथम प्रश्न यह उपस्थित होता हैं कि यज्ञोपवीतका परिमाण ९६ ही क्यों निर्धारित किया गया? यदि इसका परिमाण कम या अधिक हो जाता तो उससे क्या हानि होती?
दूसरा प्रश्न- यह हैं कि प्रत्येक वर्णमें हर व्यक्ति एक ही कद और  काठीका नहीं होता हैं | कोइ ऊँचे कदका होता हैं तो कोई नाटा| कुछ स्थूल शरीरवालें होतें हैं तो अन्य दूबले-पतले | अतः सभी व्यक्तियोंके लिये एक ही परिमाणका यज्ञोपवीत धारण करनेका नियम क्यों बनाया गया ?
इस सम्बन्धमें महर्षियों और शास्त्रकारोंने इस आधारपर यज्ञोपवीतका परिम्ण निर्धारित किया कि-" पृष्ठदेशे च नाभ्यां च धृतं यद्विन्दते कटिम् | तद्धार्यमुपवीतं स्यान्नातिलम्बं न चोच्छ्रितम् ||"  धारण करनेपर वह पुरुषकें बायें कन्धेके ऊपरसे आता हुआ नाभिको स्पर्शकर कटितक ही पहुँचे | इससे न तो ऊपर रहैं और न ही नीचे | " आयुर्हरत्यति ह्रस्वमतिदीर्घं तपोहरम् | यशोहरत्यतिस्थूलमतिसूक्ष्मं धनापहम्||वीरमित्रोदय|| अत्यन्त छोटा होनेपर यज्ञोपवीत आयुका तथा अधिक बड़ा होनेपर तपका विनाशक होता हैं | अधिक मोटा रहेगा तो वह यशनाशक और अधिक पतला होगा तो धनकी हानि होगी | इस निर्णयको सामुद्रिक शास्त्रने उचित ठहराया हैं | उसके अनुसार मनुष्यका कद और स्वास्थ्य कैसाभी हो,मानव-शरीर आयाम ८४ अँगुलसे १०८ अँगुलतक ही होता हैं | इसका मध्यमान ९६ अँगुल ही होता हैं | अतः इस परिमाणवाला यज्ञोपवीत हर स्थितिमें कटितक ही रहेगा न उपर और न ही नीचे |
गायत्री वेदमाता हैं | प्रत्येक मन्त्रका उद्भव इन्हींसे हुआ हैं,यगोपवीत -निर्माण और उसे अभिमन्त्रित करते समय गायत्रीमन्त्रको प्रधानता दी गयी हैं | " चतुर्वेदेषु गायत्री चतुर्विंशतिकाक्षरी | तस्माच्चतुर्गुणं कृत्वा ब्रह्मतन्तुमुदीरयेत्|| वसिष्ठ स्मृति||" गायत्रीमन्त्रमें चौबीस अक्षर होते हैं | चारौं वेदोंमें व्याप्त गायत्रीछन्दके सम्पूर्ण अक्षरोंको मिला दैं तो २४×४=९६ अक्षर होतें हैं,इसीके आधारपर द्विजबालकको गायत्री और वेद दोनोंका अधिकार प्राप्त होता हैं | इसलिये ९६ चौआवाले यज्ञोपवीतको ही धारण करनेका विधान किया हैं | वर्णाश्रम व्यवस्थामें ब्रह्मचर्याश्रमके अन्तर्गत द्विजबालकको गुरुके सांनिध्यमें उनकी सेवा करते हुए वेदाध्ययनसहित नैतिक कर्म,उपासना आदिकी शिक्षा प्राप्त करनेके अनन्तर गृहस्थाश्रमका अधिकार प्राप्त होता हैं | चतुर्थाश्रम संन्यास ग्रहण करनेपर वह कर्म और उपासनासे पूर्णतः मुक्त होकर केवल ज्ञानप्राप्तिका अधिकारी रह जाता हैं | इस स्थितिमें वह शिखा और सूत्र - दोनोंका त्याग कर देता हैं | वेदकी मर्यादाके अनुसार उपनीत होनेवाले द्विजको ही वेद और कर्मकाण्डका अधिकारी बताया गया हैं|" लक्षं तु चतुरो वेदा लक्षमेकं तु भारतम् ||" इस आप्तवचन में वैदिक ऋचाओंकी संख्या एकलाख बतायी गयी हैं | वेदभाष्यमें पतञ्जलिने भी इसकी पुष्टि की हैं | इन लक्षमन्त्रोंमें ८०,००० कर्मकाण्ड-सम्बन्धी ४,००० ज्ञानकाण्ड और१६००० उपासनाकाण्ड सम्बन्धी ऋचाएँ हैं | चूँकि उपनीतको कर्मकाण्ड और उपासना -काण्डका अध्ययन करनेका अधिकार प्राप्त होता हैं,अतः ९६०००ऋचाओंके अधिकारके आधारपर उपवीतका परिमाण ९६ चौआ निर्धारित किया गया हैं | मानव जीवन भाग्यसे प्राप्त होता हैं |" तिथिवारं च नक्षत्रं तत्त्ववेदगुणान्वितम् | कालत्रयं च मासाश्च बारह्मसूत्रं हि षष्णवम् ||सामवेद छन्दोगपरिशिष्ट||" यह जीवन तत्त्वों,गुण,तिथि,वार,नक्षत्र,काल,मास आदि विविध भागोंसे निरन्तर सम्पर्कमें रहनेके कारण उनसे प्रभावित होता रहता हैं | अतः जीवनके एक-एक क्षणको प्रभुका अमित वरदान समझनेवाले महर्षियोंने इन भागोंके महत्त्वको समझकर उनका अवलम्बन करके ब्रह्म-प्राप्तिका शाश्वत लक्ष्य मनुष्यके लिये निर्धारित किया | इन सभी पदार्थोंकी संख्याका समन्वित योग किया जाय तो आश्चर्य होगा कि यह भी ९६ का योग बनता हैं,यथा- (१)मनुष्यके सत्,रज,और तमोगुणमय त्रिविध शरीरमें प्रकृतिप्रदत्त पाँचभूत,पाँच कर्मेन्द्रियाँ,पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ,पाँच प्राण और चार अन्तःकरणका योग २४ तत्त्वोका समावेश रहता हैं | तीन ग्रन्थियाँ स्थूल,सूक्ष्म और कारण शरीरवाले मनुष्यके आत्मरूपपर त्रिगुणात्मक आवृत्तिसे बहत्तरका योग बनाती हैं | इस शरिरके निराकरण एवं भेदनके लिये चौबीस अक्षरात्मक गायत्रीमन्त्रका जप किया जाता हैं | यही प्रकृतिके तत्त्वोंसे आत्माको मुक्त कराती हैं | यदि इन सबका योग करैं तो परिमाण ७२+२४=९६ आता हैं | अतः इन तत्त्वों और गायत्रीमन्त्रका प्रभाव दरसाने और मुक्तिके लिये गायत्रीमन्त्र जपते रहनेका संकेत करते रहने हेतु द्विजको ९६ परिमाणवाले यज्ञोपवीतको धारण करानेका विधान किया गया हैं |(२) इस गूढ तथ्यको इस दृष्टिकोणसे भी समझा जा सकता हैं | हमारा शरीर २५ तत्त्वोंसे बना हैं | इसमें सत्त्व,रज और तम - ये तीन गुण सर्वदा व्याप्त रहतें हैं | फलतः २८ संख्यात्मक समुदायवाले शरीरको तिथि,वार,काल,नक्षत्र,मास,वेदादि विविध भागोंमें विभक्त,अनेक संवत्सरपर्यन्त इस संसारमें जीवन धारण करना पड़ता हैं | यदि इनका योग करैं तो यह भी ९६ ही होता हैं |  देखिये- तिथि१५+वार७+ नक्षत्र२७+तत्त्व२५+ वेद ४+ गुण ३+ काल ३+ और मास १२इनका कुलयोग =९६ आता हैं|

                      ॐस्वस्ति ||पु ह शास्त्री. उमरेठ|| शेष पुनः

ज्ञ वर्ण का उच्चारण

'ज्ञ' वर्ण के उच्चारण पर शास्त्रीय दृष्टि- संस्कृत भाषा मेँ उच्चारण की शुद्धता का अत्यधिक महत्त्व है। शिक्षा व व्याकरण के ग्रंथोँ म...