Monday, 19 March 2018

यज्ञोपवीत 96 परिमाण का क्यों होता है

षोडशसंस्काराः (यज्ञोपवीतम्)खंड११३~ यज्ञोपवीतके निर्माणके सम्बन्धमें प्रथम प्रश्न यह उपस्थित होता हैं कि यज्ञोपवीतका परिमाण ९६ ही क्यों निर्धारित किया गया? यदि इसका परिमाण कम या अधिक हो जाता तो उससे क्या हानि होती?
दूसरा प्रश्न- यह हैं कि प्रत्येक वर्णमें हर व्यक्ति एक ही कद और  काठीका नहीं होता हैं | कोइ ऊँचे कदका होता हैं तो कोई नाटा| कुछ स्थूल शरीरवालें होतें हैं तो अन्य दूबले-पतले | अतः सभी व्यक्तियोंके लिये एक ही परिमाणका यज्ञोपवीत धारण करनेका नियम क्यों बनाया गया ?
इस सम्बन्धमें महर्षियों और शास्त्रकारोंने इस आधारपर यज्ञोपवीतका परिम्ण निर्धारित किया कि-" पृष्ठदेशे च नाभ्यां च धृतं यद्विन्दते कटिम् | तद्धार्यमुपवीतं स्यान्नातिलम्बं न चोच्छ्रितम् ||"  धारण करनेपर वह पुरुषकें बायें कन्धेके ऊपरसे आता हुआ नाभिको स्पर्शकर कटितक ही पहुँचे | इससे न तो ऊपर रहैं और न ही नीचे | " आयुर्हरत्यति ह्रस्वमतिदीर्घं तपोहरम् | यशोहरत्यतिस्थूलमतिसूक्ष्मं धनापहम्||वीरमित्रोदय|| अत्यन्त छोटा होनेपर यज्ञोपवीत आयुका तथा अधिक बड़ा होनेपर तपका विनाशक होता हैं | अधिक मोटा रहेगा तो वह यशनाशक और अधिक पतला होगा तो धनकी हानि होगी | इस निर्णयको सामुद्रिक शास्त्रने उचित ठहराया हैं | उसके अनुसार मनुष्यका कद और स्वास्थ्य कैसाभी हो,मानव-शरीर आयाम ८४ अँगुलसे १०८ अँगुलतक ही होता हैं | इसका मध्यमान ९६ अँगुल ही होता हैं | अतः इस परिमाणवाला यज्ञोपवीत हर स्थितिमें कटितक ही रहेगा न उपर और न ही नीचे |
गायत्री वेदमाता हैं | प्रत्येक मन्त्रका उद्भव इन्हींसे हुआ हैं,यगोपवीत -निर्माण और उसे अभिमन्त्रित करते समय गायत्रीमन्त्रको प्रधानता दी गयी हैं | " चतुर्वेदेषु गायत्री चतुर्विंशतिकाक्षरी | तस्माच्चतुर्गुणं कृत्वा ब्रह्मतन्तुमुदीरयेत्|| वसिष्ठ स्मृति||" गायत्रीमन्त्रमें चौबीस अक्षर होते हैं | चारौं वेदोंमें व्याप्त गायत्रीछन्दके सम्पूर्ण अक्षरोंको मिला दैं तो २४×४=९६ अक्षर होतें हैं,इसीके आधारपर द्विजबालकको गायत्री और वेद दोनोंका अधिकार प्राप्त होता हैं | इसलिये ९६ चौआवाले यज्ञोपवीतको ही धारण करनेका विधान किया हैं | वर्णाश्रम व्यवस्थामें ब्रह्मचर्याश्रमके अन्तर्गत द्विजबालकको गुरुके सांनिध्यमें उनकी सेवा करते हुए वेदाध्ययनसहित नैतिक कर्म,उपासना आदिकी शिक्षा प्राप्त करनेके अनन्तर गृहस्थाश्रमका अधिकार प्राप्त होता हैं | चतुर्थाश्रम संन्यास ग्रहण करनेपर वह कर्म और उपासनासे पूर्णतः मुक्त होकर केवल ज्ञानप्राप्तिका अधिकारी रह जाता हैं | इस स्थितिमें वह शिखा और सूत्र - दोनोंका त्याग कर देता हैं | वेदकी मर्यादाके अनुसार उपनीत होनेवाले द्विजको ही वेद और कर्मकाण्डका अधिकारी बताया गया हैं|" लक्षं तु चतुरो वेदा लक्षमेकं तु भारतम् ||" इस आप्तवचन में वैदिक ऋचाओंकी संख्या एकलाख बतायी गयी हैं | वेदभाष्यमें पतञ्जलिने भी इसकी पुष्टि की हैं | इन लक्षमन्त्रोंमें ८०,००० कर्मकाण्ड-सम्बन्धी ४,००० ज्ञानकाण्ड और१६००० उपासनाकाण्ड सम्बन्धी ऋचाएँ हैं | चूँकि उपनीतको कर्मकाण्ड और उपासना -काण्डका अध्ययन करनेका अधिकार प्राप्त होता हैं,अतः ९६०००ऋचाओंके अधिकारके आधारपर उपवीतका परिमाण ९६ चौआ निर्धारित किया गया हैं | मानव जीवन भाग्यसे प्राप्त होता हैं |" तिथिवारं च नक्षत्रं तत्त्ववेदगुणान्वितम् | कालत्रयं च मासाश्च बारह्मसूत्रं हि षष्णवम् ||सामवेद छन्दोगपरिशिष्ट||" यह जीवन तत्त्वों,गुण,तिथि,वार,नक्षत्र,काल,मास आदि विविध भागोंसे निरन्तर सम्पर्कमें रहनेके कारण उनसे प्रभावित होता रहता हैं | अतः जीवनके एक-एक क्षणको प्रभुका अमित वरदान समझनेवाले महर्षियोंने इन भागोंके महत्त्वको समझकर उनका अवलम्बन करके ब्रह्म-प्राप्तिका शाश्वत लक्ष्य मनुष्यके लिये निर्धारित किया | इन सभी पदार्थोंकी संख्याका समन्वित योग किया जाय तो आश्चर्य होगा कि यह भी ९६ का योग बनता हैं,यथा- (१)मनुष्यके सत्,रज,और तमोगुणमय त्रिविध शरीरमें प्रकृतिप्रदत्त पाँचभूत,पाँच कर्मेन्द्रियाँ,पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ,पाँच प्राण और चार अन्तःकरणका योग २४ तत्त्वोका समावेश रहता हैं | तीन ग्रन्थियाँ स्थूल,सूक्ष्म और कारण शरीरवाले मनुष्यके आत्मरूपपर त्रिगुणात्मक आवृत्तिसे बहत्तरका योग बनाती हैं | इस शरिरके निराकरण एवं भेदनके लिये चौबीस अक्षरात्मक गायत्रीमन्त्रका जप किया जाता हैं | यही प्रकृतिके तत्त्वोंसे आत्माको मुक्त कराती हैं | यदि इन सबका योग करैं तो परिमाण ७२+२४=९६ आता हैं | अतः इन तत्त्वों और गायत्रीमन्त्रका प्रभाव दरसाने और मुक्तिके लिये गायत्रीमन्त्र जपते रहनेका संकेत करते रहने हेतु द्विजको ९६ परिमाणवाले यज्ञोपवीतको धारण करानेका विधान किया गया हैं |(२) इस गूढ तथ्यको इस दृष्टिकोणसे भी समझा जा सकता हैं | हमारा शरीर २५ तत्त्वोंसे बना हैं | इसमें सत्त्व,रज और तम - ये तीन गुण सर्वदा व्याप्त रहतें हैं | फलतः २८ संख्यात्मक समुदायवाले शरीरको तिथि,वार,काल,नक्षत्र,मास,वेदादि विविध भागोंमें विभक्त,अनेक संवत्सरपर्यन्त इस संसारमें जीवन धारण करना पड़ता हैं | यदि इनका योग करैं तो यह भी ९६ ही होता हैं |  देखिये- तिथि१५+वार७+ नक्षत्र२७+तत्त्व२५+ वेद ४+ गुण ३+ काल ३+ और मास १२इनका कुलयोग =९६ आता हैं|

                      ॐस्वस्ति ||पु ह शास्त्री. उमरेठ|| शेष पुनः

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