वेदान्त का सिद्धान्तानुसार ईश्वरचैतन्य जगत् का अभिन्न निमित्तोपादानकारण हैं, अतः सर्वव्यापी हैं । विचार करनेपर घटादि प्रत्येक जड़ वस्तु स्वयंप्रकाश निर्विशेष चैतन्यस्वरुप सिद्ध होता हैं । स्वयंज्योतिस्वभाव आनन्दघन असंग उदासीन आत्मचैतन्य ही अज्ञान के सम्बन्ध से द्वैताकार प्रतीत हो रहा हैं - यह #वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावलीकार श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य प्रकाशानन्द स्वामी ने तर्क द्वारा सिद्ध करते हैं ।
' अचेतन मूर्ति की पूजा ' - कहनेवाले लोग क्या करते हैं ? सर्वव्यापी ईश्वरचैतन्य में अज्ञान से मृन्मयत्वादि धर्मों का आरोप ! वास्तव में तो ' मूर्तिपूजा ' कभी होती ही नहीं, केवल चिन्मय भगवान् की पूजा होती हैं सर्वत्र । अग्नि सूक्ष्मतत्त्व के रूप में सर्वत्र वर्तमान होते हुए भी काष्ठादि में उनकी दाह्यशक्ति का विशेष प्राकट्य हैं, वैसे ही ईश्वर सर्वत्र समान रूप से व्याप्त होकर भी मूर्ति आदि में उनकी शक्ति की विशेष अभिव्यक्ति होती हैं ।
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