Wednesday, 27 March 2019

वैदिकपशुबलि

वैदिक पशुबलि समर्थन -

वैदिक पशुबलि का सबसे मूल सिद्धान्त ये है कि पशु को तिलमात्र भी किसी भी प्रकार के किसी  कष्ट का कोई अनुभव ही ना हो ,  वह स्वयं ये कहे कि मुझे  यह पशु  शरीर नहीं चाहिये , मुझे इस  अधम देह से विमुक्त कीजिये ! ,    जिस पशु का पशु शरीर बलि हो , उसे दिव्य देव शरीर प्राप्त हो !

ये सब  असम्भव घटनाऐं   मन्त्रों  व यज्ञविज्ञान की अचिन्त्य सामर्थ्य से  घटित होती हैं , जिसका कि वेदादि  ने  विधान किया है ।   जैसे अलौकिकवेदमन्त्रों के बल से     विषबाधाहरण होता है  तद्वत् । शिखाहीन ब्राह्मणों के यजमानों के सिर के उपर से हमारे ये वचन जायें तो कोई आश्चर्य नहीं ।

इस्लाम पन्थ में कुरबानी जो होती है, उसकी वैदिक बलि से तुलना की कल्पना भी नहीं हो सकती ।  दोनों में धरती आकाश का अन्तर है ।   हम वैदिक  लोग  अपने  परोपकारमय उपर्युक्त मूल सिद्धान्तों  का जहॉ पर व्यवहार में  हनन होता  देखते हैं , वहॉ पर स्वयं  उसका विरोध कर  पुनः अहिंसात्मक  वैकल्पिक विधान करते हैं ( श्रीफल आदि के रूप में)  ,  परन्तु इस्लामिक पन्थ में ना तो ऐसा कोई परोपकारमय विधान है, ना ही वैकल्पिक व्यवस्था , वहॉ केवल  पाप है ।

यही कारण है कि हमारी वैदिक  पशुबलि की वैदिक परम्परा में  विकृति आने पर सभी विद्वान्,  अधिकृत,  वैदिक धर्माचार्य  एक स्वर से  स्वयं वहॉ पर  उसका विरोध करते हैं , क्योंकि  वैदिक धर्म  किसी को कष्ट देने, या किसी प्राणी की  हिंसा करने का  समर्थक नहीं ,  अपितु मा हिंस्यात् सर्वभूतानि , किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो-इस अहिंसा-सिद्धान्त पर आधारित है,  किन्तु कथित मौलानाओं आदि ने  कभी  समाजशोधक  फतवे नहीं निकाले क्योंकि वहॉ पर ऐसी  कोई  अन्तर्निहित अवधारणा ही नहीं !

सनातन परम्परा के शुद्ध संवाहक  सुदुर पश्चिमांचल   नेपाल में आज भी ऐसे  परम्पराचूड़ामणि  दैवीय स्थल हैं , जहॉ पर यज्ञीय पशु स्वयं स्वबलि का अनुमोदन करता हुआ  यज्ञस्थल पर आता है , और बिना किसी भी  कष्टादि के बलि के माध्यम से  अपना निकृष्ट  देह त्याग करता है ।

उत्तराखण्ड  की नन्दा देवी राजजात यात्रा , जो कि  विश्व की सबसे लम्बी पैदलयात्रा है, उसमें चौसिंग्या खाड़ू के रूप में भी इस सिद्धान्त का कुछ अंशों में दर्शन कर सकते हैं ।

http://devbhoomi.xyz/?p=430

आजकल बलि नहीं अपितु उसके नाम पर   समाज में पशुहत्या ही अधिक होती है ।  और मूर्ख लोग धूर्तों की इस  लौकिक पशुहत्या को देखकर वेद और  तत्प्रतिपादित    वैदिक पशुबलि के सिद्धान्त  को ही  स्वाक्षेपों से  दूषित  करने लगते हैं ! 

बलि परोपकार है , हत्या पाप । वेद परोपकार का उपदेशक है , पाप का नहीं ।   अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् । परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीड़नम् ।।  हमने लोकमंगल की भावना से इतने सरल रूप में  वैदिक  धर्म का मौलिक स्वरूप  समझा दिया है पर  कतिपय   श्वानपुच्छ  कलिचेलों को  अब भी  यह  सन्देश  समझ नहीं आयेगा ।

।। जय श्री राम  ।।

Tuesday, 26 March 2019

विवाह संस्कार का महत्व

विवाह संस्कार का महत्त्व -
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हमारे सनातन वैदिक धर्म की विहित  विवाह संस्कार. की प्राचीन     परम्परा  में जो   आज विकृति आयी है, उस कारण प्रायः-  प्रायः  सारे युवा   आजकल के  परस्त्री -लम्पट हो गये हैं ।

वैदिक परम्परा में बहुत शीघ्र   ही यह संस्कार  सम्पन्न कर लिया जाता था ।  क्यों?    परिणाम स्वयं चीख चीख कर कारण बता रहे हैं !

सही समय पर  शास्त्रीय संस्कारों  का कितना गम्भीर महत्त्व है, ये स्पष्ट है ।

ऋषि-मुनियों से ज्यादा समझदार समझने का   कुछ कलिग्रसित   अज्ञानियों का अभिमान सारे  मानव -समाज को ले डूबा ।

कहते हैं , // अपना जीवनसाथी चुनने का  अधिकार हमको स्वयं होना चाहिये, जिन्दगी हमने बितानी है , मॉ बाप को नहीं ///

अरे   अज्ञानी बालक !    जीवनसाथी  जिन्दगी बिताने के लिये नहीं चुनते , अपितु जीवन और मृत्यु के चक्रव्यूह  से पार उतर कर  आत्मकल्याण पाने के लिये  चुनते हैं !

और तेरे शरीर पर तो तुझसे पहले तेरे माता पिता का अधिकार है !  क्योंकि तू उनका ऋणी है !  तुझे ऐसा क्यों लगता है कि तेरे माता पिता का निर्णय तेरा निर्णय नहीं ?  यही तो है  तेरे सिर पर चढा हुआ  कलियुग !   तू तो  उनका ही अधिकार   कुचल गया!

।। जय श्री राम ।।

Monday, 25 March 2019

जन्म से ही ब्राह्मण क्यों होता है ?

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जन्म से ही क्यों होते हैं ब्राह्मण,  कर्म से क्यों नहीं हो  सकते ?

#उत्तर - जो जन्म से ब्राह्मण होते हैं , वे कर्म से ही ब्राह्मण हुए होते हैं । किन्तु कर्म का सिद्धान्त  न जानने से तथाकथित बुद्धिजीवी    लोग भ्रमित हो गये हैं ।

देखो ऐसे समझो -

हम जो भी पाप या पुण्य कर्म करते हैं , वे कर्म एक बीज की भॉति होता है ।

वो बीज  समय के गर्भ में संचित हो जाता है और फिर   हमें ही फल बनकर मिलता है।

ये है प्रकृति का नियम ।
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जो कर्म हम अभी वर्तमान् काल में  कर रहे हैं , उसे कहते हैं क्रियमाण कर्म ।   

और कर्म के फल को ही कहते हैं प्रारब्ध या भाग्य ।

क्रियमाण ---->( संचित )----->प्रारब्ध(फल) /भाग्य ।

बीज ------------------------------------> फल

जो कर्म आज हम कर रहे हैं, उसका फल आने वाले  कल में हमें मिलेगा ।  और वो फल  ईश्वर ही हमें देता है ।

कर्म का फल तीन रूप में मिलता है -

जाति , आयु और भोग ।।

इसीलिये   ब्राह्मण  जन्म से ही होते हैं ।

चार वर्ण भगवान् ने बनाये हैं - अर्थात्  जीव को  जाति रूपी  कर्मफल भगवान् ने ही दिये हैं ।

।। जय श्री राम  ।।

Tuesday, 19 March 2019

अग्नि और ब्राह्मण सहोदर है

अग्नि और ब्राह्मण की सहोदरता का प्रमाण हैं कि ब्राह्मण तथा अग्नि विराट् पुरुष के मुख से उत्पत्ति कही गयी हैं। ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्।। यजुः वा०शा ३१/११।।
मुखाद् अग्निरजायत।।३१/१२।।

इसलिये शास्त्रों में ब्राह्मणों को आग्नेय या अग्नि कहा गया हैं। तभी मीमांसा दर्शन १/४/२४सूत्र के शाबरभाष्य में आग्नेयो वै ब्राह्मणः।। पर प्रकाश डालने के लिये इस प्रकार प्रश्नोत्तरी हुई हैं--

*अथाग्नेयेषु (ब्राह्मणेषु) आग्नेयादि शब्दाः केन प्रकारेण ?

उ - गुणवादेन

को गुणवादः ?
उ - अग्निसम्बन्धः।

कथम् ?
उ-एकजातीयकत्वात् (अग्निब्राह्मणयोः)

किमेकजातीयकत्वम् ?
उ - प्रजापतिरकामयत प्रजाः सृजेयमिति। स मुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत। तमग्निर्देवता अन्वसृज्यत"" ब्राह्मणो मनुष्याणाम्।। तस्मात् ते मुख्याः। मुखतोऽन्वसृज्यन्त।।

यहाँ पर अग्नि और ब्राह्मण की एकजातीयता स्पष्ट जानी जाती हैं।

अग्न्याऽभावे तु विप्रस्य पाणावेवोपपादयेत्।। मनुः ३/२१२।। यदि साग्निक न होतों विप्र के हाथ में अग्नौकरण आहुतिद्वय दे

इसमें हेतु यह दिया हैं -- *यो ह्यग्निः स द्विजो विप्रैर्मन्त्रदर्शिभिरुच्यते ।।मनुः तत्रैव।।*

गोपथ ब्रा०में कहा हैं --*ब्राह्मणो ह वा इममग्निं वैश्वानरं बभार।। १/२/२०।।*
कठोंपनिषद् से ब्राह्मण का अग्नित्व इस प्रकार कहा हैं - *वैश्वानरः प्रविशत्यतिथिर्बाह्मणो गृहान्।। १/१/७।।* भविष्य पुराण -  *ब्राह्मणा ह्यग्निदेवास्तु।। ब्राह्म पर्व लगभग १३ अ०।।*

महाभारत में निषाद के आचारवाले भी ब्राह्मण को निगलने के समय गरुड़ के कण्ठ में अग्निदाह जैसा प्रतित होने लगा था। आदिपर्व २९।।

*सास्य देवता ।। पार ०गृ सूत्र ४/२/२४।।* सूत्र के व्याख्यान में सिद्धान्तकौमुदी में कहा हैं *आग्नेयो वै ब्राह्मणो देवतया* - इसपर बालमनोरमा - *अग्निर्नाम यो देवताजातिविशेषो लोकवेद प्रसिद्धः, तदभिमानिको ब्राह्मणः।।*

उपर महाभारत का भी दृष्टांत दिया हैं इससे ब्राह्मण यह न समजें कि स्वकर्मपथभ्रष्ट ब्राह्मण भी इस कलियुग में श्रेष्ठ हैं, जो ब्राह्मण नित्यकर्म से रहित -आयाज्यों के याजन , अभक्ष्यादि दोषों से द्विजत्वभ्रष्टरूपी हलाहलविष लेकर स्वयं घूमते फिर रहे हैं वे इस प्रत्वयाय के कारण उनके संसर्गी व स्वकुल के  भी नाशक होतें ही हैं।। हलाहल की दाहक असर धारक के पर भी निश्चितता से होती ही हैं।। मार्गपर आ जायें।  इसलिये तो कहा हैं कि कलियुग में पापकर्ता यदि अपनी उचित प्रायश्चित्तविधा मार्गसे शुद्धि न करें तो त्यागने योग्य हैं -->  #कर्तारं_तु_कलौयुगे।।पाराशर।। #कलौ_पतति_कर्मणा।। तत्रैव।।

Thursday, 14 March 2019

दुकान करने वाले ब्राह्मणों के नियम

आपत्कालीन वैश्यकर्म  (वाणिज्य) में संलग्न ब्राह्मणाें के लिए विशेष वैदिक शास्त्रीय निषेध

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आपत्काल में ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा शूद्र वर्ण के व्यक्ति को वाणिज्य (व्यापार) कर्म से वृत्ति करने की अनुमति वैदिक शास्त्र ने दी है । उस अवस्था में ब्राह्मण को दूध, दूध के विकार, तेल, घी आदि कतिपय वस्तु विक्री करने का निषेध किया गया है । उन में भी कतिपय वस्तु के विक्री को अत्यन्त निषेध किया गया है । उनका विवरण प्राचीनतम गौतमधर्मसूत्र में इस प्रकार पाया जाता है——
प्रथम प्रश्न सप्तम अध्याय-
तस्याऽपण्यम् ।।८।।

हरदत्तकृत मिताक्षरा वृत्ति— तस्य वैश्यवृत्तेर् ब्राह्मणस्याऽपण्यमविक्रेयं वक्ष्यते । तस्येति वचनात् क्षत्त्रि¬यस्य वैश्यवृत्त्युपजीविनो वक्ष्यमाणमपण्यं न भवति ।।८।।

हिन्दी— आपत्काल में वैश्यकर्म से जीवननिर्वाह करनेवाले ब्राह्मण को आगे निर्दिष्ट वस्तु को नहीं बेचना चाहिए ।

विशेष— वृत्तिकार के अनुसार तस्य कहने के कारण क्षत्त्रिय के लिए यह निषेध लागू नहीं होगा ।।८।।

गन्ध–रस–कृतान्न–तिल–शाण–क्षौमाऽऽजिनानि ।।९।।

हरदत्तकृत मिताक्षरा वृत्ति— गन्धश्चन्दनादिः । रसस् तैल–घृत–लवण–गुडादिः । कृतान्नं मोदकापूपादि । तिलाः प्रसिद्धाः । शाणं शणविकारो गोण्यादिः । क्षौमं क्षुमोद्भूतम्, पट्ट¬वस्त्र¬विशेषः । अजिनं चर्म कटादि । एतान्यविक्रेयाणि । शाण–क्षौमयोर् विकार¬निषेधात् प्रकृते¬रप्रतिषेधः ।।९।।

हिन्दी— गन्ध  (चन्दन आदि), रस (तेल, घी, नमक, गुड इत्यादि), बना हुआ भोजन  लड्डू, रोटी इत्यादि), तिल, सन से बने हुए पदार्थ, क्षुमा से बने वस्त्र, मृगादिचर्म, ये सब  आपत्काल में वैश्यकर्म से जीविका करनेवाले ब्राह्मण के लिए अविक्रेय होते हैं ।

विशेष— वृत्तिकार ने सन और क्षुमा से निर्मित वस्तु का निषेध होने से प्रकृति का   अविकार का (सन का और क्षुमा का) विक्रेय अनिषिद्ध होने की बात बताई है ।।९।।

रक्तनिर्णिक्ते वाससी ।।१०।।

रक्तं लाक्षादिना विकृतम् । निर्णिक्तं रजकादिना धौतम् । एवंभूते अपि वाससी अपण्ये ।।१०।।

हिन्दी— लाक्षा आदि रङ्गों से रङ्गे हुए और धोबी द्वारा धोए गए वस्त्र भी  (आपत्काल में वैश्यकर्म से जीवननिर्वाह करनेवाले ब्राह्मण के लिए) अविक्रेय होते हैं ।।१०।।

क्षीरं सविकारम् ।।११।।

दध्यादिभिर् विकारैः सह क्षीरमपण्यम् ।।११।।

हिन्दी— दूध और दूध से बने दही, खुआ, मलाई इत्यादि भी  आपत्काल में वैश्यकर्म से जीवननिर्वाह करनेवाले ब्राह्मण के लिए अविक्रेय होता है ।।११।।

मूल–फल–पुष्पौषध–मधु–मांस–तृणोदका–ऽपथ्यानि ।।१२।।

मूलमाद्र्घकहरिद्घादि । फलं पूगादि । पुष्पं चम्पकादि । औषधं पिप्पल्यादि । मधु माक्षिकम् । मांसतृणोदकानि प्रसिद्धानि । अपथ्यं विषादि । एतान्यपण्यानि । रसशब्देन पूर्वमेव निषिद्धेऽपि पुनर् मधुग्रहणं “सर्वथा वृत्तिरशक्तौ”   (गौतम. १।७।२२) इत्यादिपक्षे निषेधार्थम् ।।१२।।

हिन्दी— मूल   हल्दी इत्यादि), फल   क्रेमुकादि), फूल  (दमनकादि), औषध, मधु, मांस, तृण, जल और अपथ्य पदार्थ  (विषादि) भी  आपत्काल में वैश्यकर्म से जीविका करनेवाले ब्राह्मण के लिए अविक्रेय हैं ।

विशेष— वृत्तिकार ने रस कहने से ही गतार्थ मधु का फिर ग्रहण अशक्ति में सर्वथा वृत्ति हो सकने की अवस्था में भी निषेध के लिए माना है ।।१२।।

पशवश्च हिंसासंयोगे ।।१३।।

पशवोऽजादयः । हिंसासंयोगे सौनिकादिभ्यो हिंसार्थे न विक्रेयाः ।।१३।।

हिन्दी— पशुओं का भी हिंसा से जुडी हुई अवस्था में बिक्री न करे ।।१३।।

पुरुष–वशा–कुमारी–वेहतश्च नित्यम् ।।१४।।

पुरुषा दासादयः । वशा वन्ध्या गौः । कमासरी वत्सतरी । वेहद् गर्भो-पघातिनी । एते नित्यमपण्याः । नित्यमित्युक्तत्वाद् धिंसासंयोगादन्यत्राऽपि निषेधः । अपर आह— इह नित्यग्रहणात् पूर्वेषु तिलादिष्वनित्यः प्रतिषेध इति । तत्र वसिष्ठः— “कामं वा स्वयमुत्पाद्य तिलान् विक्रीणीरन्” इति (वा.ध.सू. २।३१) ।।१४।।

हिन्दी— पुरुष  (दासादि), वन्ध्या गाय, बछिया तथा वेहत् (सदा गर्भ गिरा देनेवाली गाय) का विक्रेय भी  आपत्काल में वैश्यकर्म से जीविका करनेवाले ब्राह्मण के लिए नित्य ही वर्जित है ।।१४।।

भूमि–व्रीहि–यवा–ऽजा–ऽव्यश्व–ऋषभ–धेन्वनडुहश्चैके ।।१५।।

भूमिर् गृहम् । व्रीहियवाऽजाऽव्यश्वाः प्रसिद्धाः । ऋषभः सेचनसमर्थः पुङ्गवः । धेनुः सकृत्प्रसूता । अनड्वाननोवहनयोग्यो बलीवर्दः । एते चाऽपण्या इत्येके मन्यन्ते । एक¬शब्दाद् वयं त्वनुजानीमः । अत्राऽप्यजाविग्रहणं हिंसा¬संयोग¬विषयपरम् ।।१५।।

हिन्दी—भूमि, धान, जौ, बकरी, भेड, घोडा, ऋषभ  (सेचनसमर्थ साँड), धेनु  (दोग्ध्री गाय) और बैल का विक्रेय भी  आपत्काल में वैश्यकर्म से जीविका करनेवाले ब्राह्मण को नहीं करना चाहिए ऐसा कतिपय स्मृतिकारों का मत है ।

विशेष— मस्करिभाष्य में निघण्टु का प्रमाण देकर भूमि से घर का ग्रहण होने की बात कही गई है ।।१५।।

निमयस् तु ।।१६।।

निमयो विनिमयः परिवर्तनं तुशब्देन निमयोऽनुज्ञायत इति ।।१६।।

हिन्दी— किन्तु उपर्युक्त विक्रेय के लिए निषिद्ध पदार्थों का भी विनिमय  अदल बदल) करना तो  आपत्काल में वैश्यकर्म से जीविका करनेवाले ब्राह्मण के लिए अनुमत है ।

विशेष— आनन्दाश्रम  (पुणे) से प्रकाशित गणेशशास्त्री गोखलेद्वारा सम्पादित मिताक्षरा व्याख्या से युक्त गौतमधर्मसूत्र की पुस्तक में और चौखम्बा संस्कृत संस्थान  वाराणसी) से प्रकाशित उमेशचन्द्र पाण्डेयद्वारा सम्पादित मिताक्षरा व्याख्या और हिन्दी अनुवाद से युक्त पुस्तक में इस सूत्र का पाठ “नियमस्तु” है । मिताक्षरा व्याख्या में “नियमो विनिमयः परिवर्तनम्” मुद्रित है । मोतीलाल बनारसी¬दास¬द्वारा प्रकाशित अमेरिकन लेखक प्याट्रिक ओलिविलद्वारा सम्पादित अङ्ग्रेजी अनुवाद युक्त संस्करण में भी “नियमस्तु” पाठ ही छपा है । किन्तु काष्ठमण्डपस्थ हस्तलिखितग्रन्थागार राष्ट्रिय अभिलेखालय में स्थित तीन हस्तलेखों में से तीसरे हस्तलेख में “विनिमयस्तु” पाठ पाया जाता है । अन्य दो हस्तलेखों में यद्यपि मूल सूत्र में भ्रमवश “नियमस्तु” लिखा गया मिलता है, तथापि इसी प्रकरण के अन्य सूत्रों की मिताक्षरा वृत्ति में बहूत स्थलों पर “निमय” और “विनिमय” लिखा गया मिलता है । एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु देने के अर्थ में संस्कृत भाषा में वि उपसर्ग से युक्त और वि उपसर्ग से रहित भी “निमय” शब्द प्रयुक्त होता है । अतः “निमयस्तु” अथवा “विनिमयस्तु” पाठ ही वास्तविक पाठ है ऐसा अवतग होता है । मस्करिभाष्य युक्त मैसुरु से प्रकाशित संस्करण में सूत्र और व्याख्या दोनों में “निमय” पाठ पाया जाता है ।।१६।।

तत्र निमयमाह—

रसानां रसैः ।।१७।।

तैलघृतगुडादीनां रसैरेव निमयः कार्यः ।  तद् यथा— “तैलं दत्त्वा घृतं ग्राह्यमिति रसैः समतो हीनतो वा” इति वसिष्ठः ।।१७।।

हिन्दी— विनिमय करते समय रसों (तेल, घी इत्यादि पदार्थों) का विनिमय रस  गुड इत्यादि पदार्थ) से ही करना चाहिए ।।१७।।

पशूनां च ।।१८।।

पशूनां चतुष्पदां पशुभिर् निमयः कार्यः ।।१८।।

हिन्दी— पशुओं का  (चौपायों का) विनिमय भी इसी प्रकार (पशुओं से ही) करना चाहिए ।

विशेष— मस्करिभाष्य में यह नियम जिन पशुओं का विक्रय निषिद्ध है, उन्हीं पशुओं के विषय में लागू होने की बात व्याख्यात है ।।१८।।

न लवण–कृतान्नयोः ।।१९।।

लवणस्य कृतान्नस्य च निमयेऽपि प्रतिषेधः ।।१९।।

हिन्दी— नमक और पके हुए अन्न का विनिमय  (अदलाबदली) नहीं करना चाहिए ।

विशेष— “रसानां रसैः”  (गौतम. १।७।१७) से नमक का भी विनिमय प्राप्त होता है, उसी का यहाँ निषेध किया गया है ।।१९।।

साभार ।

तिलानां च ।।२०।।

तिलानां च विनिमयो न कार्यः । लवण–कृतान्न–तिलानां द्रव्यान्तरस्वीकारेण प्रदानं निषिद्धम् । समानद्घव्यविषये प्रवत्त्यसंभवात् ।।२०।।

हिन्दी— तिल का भी विनिमय  (अदलाबदली) नहीं करना चाहिए ।।।२०।।

समेनाऽऽमेन तु पक्वस्य सम्प्रत्यर्थे ।।२१।।

समेन समपरिमाणेनाऽऽमेन तण्डुलेन सम्प्रत्यर्थे तादात्विकोपयोगार्थे पक्वान्न¬स्य निमयः कार्यः । मनुस् तु “तिला धान्येन तत्समाः” इति  (१०।९४) समेन धान्येन तिलानां निमयमनुजानीते । अपण्यमिति विक्रेयनिषेधात् सर्वत्र यावदुपयोगक्रेये निषेधो न स्यात् । रसादीनामपि निमयशब्देन प्रदानमेव विवक्षितम् । अन्यथा त्वविद्यमानरसान्तरादिद्रव्यस्य प्रवृत्त्यसम्भवात् ।।२१।।

हिन्दी— समान परिमाण के विना पकाये हुए अन्न (चावल) से पके हुए अन्न का तात्कालिक उपयोग के लिए विनिमय किया जा सकता है ।।२१।।

इस प्रकार ब्राह्मण के लिए कतिपय वस्तुओं की बिक्री का निषेध वैदिक शास्त्रों में की गई है । इस पर ब्राह्मण समुदाय का ध्यान जाना आवश्यक है ।

Wednesday, 13 March 2019

वृषलीकन्याया: कुम्भविवाहपद्धति:

वृषलीकन्याया: कुम्भविवाहपद्धति:--
(शास्त्रार्थ परिच्छेद --> अष्टवर्षा भवेद्गौरी नववर्षा च रोहिणी। दशवर्षा भवेत्कन्या अत ऊर्ध्वं रजस्वला।। द्वादशे वृषली भवेत् -- अंतिमचरणे पाठभेद:।।गौरीं ददन्नाकलोके वैकुण्ठे रोहिणीं ददन्। कन्यां ददन् ब्रह्मलोके रौरवे तु रजस्वलाम्। कन्या द्वादशवर्षाणि याऽप्रदत्ता वसेद्गृहे। ब्रह्महत्या पितुस्तस्या:००।।पराशरमाधवीये ।।"अत ऊर्ध्वं रजस्वला"इत्यादेश्च दशवर्षादूर्ध्वं विवाहो निषिद्ध:।। पाणिग्रहणिका मन्त्राः कन्यास्वेव प्रतिष्ठिताः । नाकन्यासु क्व चिन्नॄणां लुप्तधर्मक्रिया हि ताः ॥मनु:।।  पितुर्गेहे तु या कन्या रजः पश्यत्यसंस्कृता || सा कन्या वृषली ज्ञेया तत्पतिर्वृषलीपतिः ||हारीतः|| यस्तां समुद्वेत्कन्यां ब्राह्मणो ज्ञानदुर्बलः | अश्राद्धेयमपांक्तेयं तं विद्याद्वृषलीपतिम् ||देवल-अत्रि-कश्यपाः|| शुद्धिं च कारयित्वा तामुदहेदानृशस्यधीः || ऋतुसंख्या गाः शक्तः कन्यापिता यदि | दातव्यैकापि निःस्वेन दाने तस्या यथाविधि || तामुद्वहन्वरश्चापि कूष्माण्डैर्जुहुयाद्विजः ||आश्वालायन||)
विधान- अद्येत्यादि देशकालौ संकीर्तनान्ते अस्याः  कन्यायाः गर्भाधानपुंसवनसीमन्तोन्नयनजातकर्म नामकरणनिष्क्रमणान्नप्राशनकर्णवेधचौलसंस्कारान्  जन्मकालिक नक्षत्रादियोगेन ग्रहयोगेन पुनर्भूदोषभावेन च विषाख्ययोगसंभववैधव्यारिष्टपरिहारार्थं तथा च कन्याकाले कन्यादान अकरणजनित प्रत्यवायपरिहारार्थं प्रायश्चित्त पूर्वकं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं कुम्भविवाहाख्यं कर्म करिष्ये।
तत्रादौ गणपतिपूजनं स्वस्तिपुण्याहवाचनं(कर्मांगदेवता: ब्रह्मा,प्रजापतिर्धाता मृत्युः सविता,सविता,सविता,सविता,श्रोत्रं,केशिनश्च कुम्भस्वरूपीमहाविष्णुः प्रीयन्ताम्)मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं आचार्यादि ब्राह्मणवरणं च करिष्ये। "(शूद्रसमानामनुपनीतद्विज-स्त्री-कुंड-गोलक-संकरजात्यादीनामपिज्ञेया:।।शूद्रकमलाकरे।। वेदमंत्रस्वधास्वाहावषट्कारादिभिर्विना |व्यास।।)"-> यथाधिकारेण ब्राह्मणवरणान्तानि कर्माणि समाप्य।
(शास्त्रार्थ परिच्छेद -नवैताः कर्णवेधान्ता मन्त्रवर्जं स्त्रीयां क्रिया:। व्यास:।।मन्वपि - अमन्त्रका तु कार्येयं स्त्रीणामावृदशेषत:।। /// द्विजानां षोडशैव स्युः शूद्राणां द्वादशैव हि। पञ्चैव मिश्रजातीनां संस्कारा: कुलधर्मत:।।शार्ङ्गधरः।।अष्टमांगल्यमाद्यः स्यान्नामकर्मतथैव च अन्नप्राशनचौले च विवाह: पंचम: स्मृत:।।श्रीस्थलेप्र०।।)" --> अथेदानीं कन्याया विवाहसमय एव सर्वे संस्काराः समानतन्त्रेण प्रायोऽनुष्ठीयन्त इति तदनुसारं यत् संस्कारप्रयोगक्रमो लिख्यते
कन्यापिता- अस्याः कन्याया गर्भाधानादि चौलान्तसंस्काराणां स्वस्वकाले अकरणजनितदोष परिहारार्थं अनादिष्टप्रायश्चित्तहोमं  ब्राह्मण द्वारा कारयिष्ये --> प्रादेशमात्रे स्थंडिले पञ्चभूसंस्कारपूर्वकं अग्निं संस्थाप्य , विट्नामाग्निमावाह्य ध्यात्वा ब्रह्मासनादिवर्जं ,आज्यं निरूप्य,अधिश्रित्य,पर्यग्निंकृत्वा,स्रुवं प्रतप्य,संमृज्य,उद्वास्य,उत्पूय,अवेक्ष्य,पर्युक्षणान्ते जुहुयात् - ॐभूू:स्वाहा-इदमग्नये न मम। ॐ भुवः स्वाहा-इदं वायवे न मम। ॐस्वः स्वाहा -इदं सूर्याय न मम। ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा-इदं प्रजापतये न मम।।इत्येतान् प्रत्यनतितसंस्कारेषु पुनरावर्तनम्।।"(पुराणोक्ते ह्रीं प्रजापतये स्वाहा-इदं प्रजापतये न मम।। इति प्रत्यनतितसंस्कारमुद्दिश्य जुहुयात्)" ॐ त्वन्नोऽअग्ने ००इत्यादि उदुत्तमं०० इत्यन्तैः "(पुराणोक्ते - अग्निवरुणाभ्याम् द्विर्वारं, अग्नयेऽयसे,वरुणायसवित्रेविष्णवेविश्वेभ्योदेवेभ्योमरुद्भ्यःस्वर्क्केभ्यश्च, वरुणायादित्यादितये च)" अनेन ब्राह्मण द्वारा अनादिष्टप्रायश्चित्तहोमकृतेन अस्याः कन्याः गर्भाधानादि चौलान्तानां संस्काराणां कालातिक्रमदोषनिवृत्तिरस्तु।। "( शास्त्रार्थ परिच्छेद-- आरभ्याधानमाचौलात्कालातीते तु कर्मणाम्। व्याहृत्याज्यं सुसंस्कृत्य हुत्वा कर्म यथाक्रमम् ( ऐकैकसंस्कारमुद्दिश्य व्याहृतिभिः पृथक् पृथक्)। एतेष्वेकैकलोपेऽपि पादकृच्छ्रं समाचरेत्। चूडायामर्धकृच्छ्रं स्यादापदि त्वेवमीरितम्( आपत्ति-- मृताशौचादि आब्दिकशौचादि विषय)। अनापदि तु सर्वत्र द्विगुणं द्विगुणं चरेत्।।भगवानाश्वालयन।।)" कन्यापिता- अस्याः कन्यायाः गर्भाधानादि चौलान्तानां संस्काराणां मुख्यकालातिपत्तिदोष परिहारार्थं स्मृत्युक्त सार्द्धचतुष्टयकृच्छ्रप्रत्याम्नाय गोनिष्क्रयभूतं हिरण्यं रजतं वा दातुमहमुत्सृजे"इति संकल्प्य तदेवं दद्यात् अदाने प्रत्यवायी भवति। (ततोऽतीतानां गर्भाधानादिसीमन्तोन्नयनान्तसंस्काराणां प्रधानमन्त्रान् "रेतोमूत्रंव्विज००।।१९/७६।। हिरण्यगर्ब्भः०।।अद्भ्यःसम्भृेतः०।। ॐभूर्भुवःस्वरोम्।।" पठित्वा "अस्याः कन्यायाः बीजगर्भसमुद्भवैनोनिबर्हणपुरस्सरमायुः श्रीबलवृद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं जातकर्म,नामकरण,निष्क्रमणान्नप्राशनकर्णवेधचौलकर्माणि समानतन्त्रेण करिष्ये , इति संकल्प्य तूष्णीं कन्यां दृष्ट्वा मधुघृतमिश्रणं हिरण्येन चतुर्वारं तूष्णीं प्राशयित्वा मुखं प्रक्षाल्य " मार्कण्डेय महाभाग००" मंत्रं वामकर्णे पठेत्।। इति जातकर्म।। अस्याः कन्यायाः आयुःश्रीबलवृद्धिपूर्वकं व्यवहारसिद्धये नामकरण संस्कारं करिष्ये इति संकल्प्य - यथाचारं तण्डुलपूर्णे पात्रे सुवर्णशलाकया कुशेन वा "गणपति भक्ता" कुलदेवीभक्ता" ///मार्गशीर्षादि क्रमेण तत्तन्मासनाम -- लक्ष्मीः श्रीः कमला भद्रा सीता सत्या च रुक्मिणी। माधवी चैत्रिका भूमिस्तुलसी जाह्नवी तथा।।इति।। अवहकडाचक्रानुसारेण नामं, व्यवहारनामं च लेख्यम् -- "नामदेवताभ्यो नमः इत्यावाह्य पंचोपचारैः सम्पूज्य -- हे कन्ये त्वां गणपतिभक्तासि, त्वां कुलदेवीभक्तासि, त्वां मासनाम्ना अमुकासि, त्वां नक्षत्रनाम्ना अमुकासि, त्वां व्यवहारनाम्ना अमुकासि, सर्वान् ब्राह्मणान् अभिवादय 🙏 स्वस्ति भवन्तो ब्रुवन्तु " स्वस्ति"।। इति नामकरणम्।।
मंगलघोष घंटानादपुरस्सरं कुमार्या सह मंडपाद्बहिनिष्क्रम्य गंधाक्षतपुष्पैः "नमः सवित्रे जगदेकचक्षुषे००" इति सूर्यं पूजयेत् , नमस्कारः - चन्द्रार्कयोर्दिगीशानां दिशां च गगनस्य च। निक्षेपार्थमिमां दद्मि तेऽमुं रक्षन्तु सर्वदा।। अप्रमत्तां प्रमत्तां वा दिवा रात्रमथापि वा । रक्षन्तु सततं सर्वे देवाः शक्रपुरोगमाः" इति सम्रार्थ्य।।इति निष्क्रमणम्।। सुवर्णादि पात्रे दधिमधुघृतजलैरोदनं समुदायुत्य हिरण्येन मातुरङ्कोपविष्टां कुमारीं "अन्नपूर्णायै नमः" इत्यनेन प्राशयित्वा,मुखं प्रक्षाल्य हस्तं क्षालयेत्।। इत्यन्नप्राशनम्।। लोहितसूच्या कण्टकेन वा कुमार्या वामदक्षिणकर्णौ क्रमेण "सवित्रे नमः" इति वेधयेत्।। (वा कर्णौ  कुडले स्पर्शनम्)।।इति कर्णवेधनम्।। एकस्मिन् पात्रे शीतास्वप्सूष्णाऽअप आसिंचति। सर्वं तूष्णीं कुर्यादित्येके।। चौलकर्मसांगतासिद्ध्यर्थं गां हिरण्यं रजतं वा दद्यात् इत्यन्ये ।।तद्यथाचारं कृत्वाशिषो वाचयेत्।। इति कन्या विवाहपूर्वे संस्काराः।।
(मिश्रजातीनां कन्यानाम् - एवमेवविधिना नामकरणान्नप्राशनचौलान्त संस्काराः गर्भाधानादि सीमन्तोन्नयनान्तवर्जं कार्याः)"
(कुम्भविवाहः)-- मुख्यदेवतायाः स्थापने कलशं निधाय तस्मिन् वरुणं आवाह्य , कलशस्यमुखे ००इति श्लोकान् पठित्वा , "(सतीर्थवरुणाय नमः)" इति पञ्चोपचारैः सम्पूज्य, स्वर्णमयविष्णुरूपाश्वत्थद्रुमप्रतिमाया ब्राह्मणद्वारा अग्न्युत्तारणं कृत्वा प्राणप्रतिष्ठां कुर्यात्। गर्भाधानादि संस्कारार्थं प्रणवान् जपित्वा -- "विष्णुस्वरूपाश्वत्थाय नमः" इत्यावाहनादि षोडशोपचारैः पूजनं कृत्वा प्रार्थयेत्। "वरुणाङ्गस्वरूपाय जीवनानां समाश्रय।पतिं जीवय कन्यायाश्चिरं पुत्रसुखं कुरु। देहि विष्णो वरं देहि कन्यां पालय दुःखतः।।" इति संप्रार्थ्य अनेन पूजनेन स्वर्णमयविष्णुस्वरूपाश्वत्थः प्रीयताम्।।
कन्यादाता- वृषलीकन्यादानदोष परिहारार्थं ऋतुसंख्या गा: वा एकापि गां तन्निष्क्रियभूतं उत्तममध्यमाधमानुमानेन निष्कं तदर्धं पादमेव वा अत्यशक्तौ अष्टमांशमानेन सुवर्णं रजतं वा तन्मूल्यं रुद्रदैवत्यं गंधपूष्पाद्यर्चितायाचार्याय तुभ्यमहं सम्प्रददे। स्वस्ति।। तेन मम च पितृणां कन्याकाले कन्यादान अकरणेन जनित प्रत्यवाय परिहारोस्तु। कन्यादानाधिकारोस्तु।।
आचार्य:- आचम्य प्राणानायम्य, देशकालौ संकीर्त्य_अनया ऋतुमत्या वृषलीत्वदोषयुक्तया सह करिष्यमाण कुंभविवाहेन जनिष्यमाण वृषलीपतित्व दोषनिवृत्तये कुष्माण्ड संज्ञकैर्मन्त्रैः प्रायश्चित्त होमं आज्येन करिष्ये... स्थंडिले पञ्चभूसंस्कार पूर्वकमग्निं संस्थाप्य | ब्रह्मासनादि(चरुवर्ज) आज्यभागान्तं कुशकण्डिकां समाप्य || वीट् नामाग्नये नमः इत्यग्निं सम्पूज्य | आज्येन- ॐ जद्देवा देवहेडनं देवासश्चकृेमा वयम् | अग्निर्मातस्मादेन सो विश्वान्मुञ्चन्त्व गूँ हसः स्वाहा - इदं अग्नये न मम || ॐ जदिदिवा जदि नक्तमेना गुं सि चकृेमा वयम् | वायुर्मातस्मादेनसो विश्वान् मुञ्चन्त्व गूँ हसः स्वाहा - इदं वायवे न मम ||  ॐ जदि जाग्रद्यदि स्वप्नऽएना गुँ सि चकृेमा वयम् | सूर्ज्जो मा तस्मादेनसो विश्वान्मुञ्चन्त्व गूँ हसः स्वाहा - इदं सूर्य्याय न मम || भूराद्यानवाहुतयः || स्विष्टकृतम् | संस्रवजलं कुंभमय-विष्णुहस्ते दद्यात्।।प्रणिता विमोकान्तम् | अनेन कुष्माण्ड संज्ञकैर्मन्त्रैः प्रायश्चित्त होम कर्मणा परमेश्वरः प्रीयताम् | तेन वृषलीपतित्व दोषनिवृत्तिरस्तु ||
(विष्णुं मधुपर्केणार्चयेत्) --> कुम्भविवाङ्गत्वेन विष्णुंं मधुपर्केणार्चयिष्ये। गणपतिं स्मृत्वा।। साधु भवानास्तामर्चयिष्यामो भवन्तम्| दाता- अहं अर्चयिष्यामि| पंचविंशतिकुशात्मकं विष्टरं गृहित्वा- विष्टरो विष्टरो विष्टरः प्रतिगृह्यताम्|विष्टरं स्थापनोपरि उदगाग्रं स्थापयेत् - ॐवर्ष्मोस्मि समानानामुद्यतामिव सूर्य्यः|इमन्तमभितिष्ठामि यो मा कश्चाभिदासति|| (पुराणोक्ते - श्रेष्ठोऽस्मि वै समानानामुद्यतामिव भास्करः। तिष्ठामि त्वामधः कृत्वा य इदं मेऽभिदीयते।।) तत्रोपरि वरोपवेशनं भावयित्वा|दाताः- पाद्यपात्रं गृहित्वा पादार्थं उदकं पादार्थं उदकं पादार्थं उदकं प्रतिगृह्यताम्|| महाविष्णोः द्दक्षिणं प्रथमं पश्चात् वामं पादं प्रक्षालयेत्  |  ॐविराजो दोहोसि विराजो दोहमशीय मयि पाद्यायै विराजो दोहः|| (पुराणोक्ते - विराजो दोहो भवसि विराजोदोहमश्नवै। विराजो दोहः पाद्याय मयि त्वं भव भो जल)" दाताः- (द्वितीयः)विष्टरो गृहित्वा  विष्टरो विष्टरो विष्टरः प्रतिगृह्यताम्| द्वितीय विष्टरं स्थापनादधो उदगाग्रं निधाय- ॐवर्ष्मोस्मि समानानामुद्यतामिव सूर्य्यः| इमन्तमभितिष्ठामि यो मा कश्चाभिदासति|| (पुराणोक्ते - श्रेष्ठोऽस्मि वै समानानामुद्यतामिव भास्करः। तिष्ठामि त्वामधः कृत्वा य इदं मेऽभिदीयते।।)भगवन्तं तत्रासने पादौ करोत्यति ध्यायन् ||दाता- गंधपुष्पाक्षतैर्युतं अर्घ्यपात्रं गृहित्वा " अर्घो अर्घो अर्घः प्रतिगृह्यताम्||शिरसाभिवंदनं कृत्वा विष्णोः समिपे स्थापयित्वा- ॐ आपस्थ युष्माभिः सर्वान् कामानवाप्नवानि|| (पुराणोक्ते- वयं वरुण युष्माभिः सर्वान् कामानशेषतः। अतोर्घं त्वं गृहाणेमं भो ह्यापस्थमवाप्नुयात्।।)" अर्घ्यदानवत् प्राग्वा उदग्वासिंचेत् ॐसमुद्रं वः प्रहिणोमि स्वां योनिमभि गच्छत| अरिष्टाऽस्माकं वीरा मा परा सेचिमत्पयः||(पुराणोक्ते- गमयामि समुद्रं स्वां योनिमापप्रयान्तु वै। वीरा अरिष्टाश्चास्माकं मापरासेचिमत्पयः)" दाता- आचमनीयपात्रं गृहित्वा " आचमनीयं उदकं/आचमनीयं उदकं/आचमनीयं उदकं प्रतिगृह्यताम्| ॐआमागन्यशसास गूं सृेज वरेचसा|तं मा कुरु प्रियं प्रजानामधिपतिं पशूनामरिष्टिं तनूनाम्|| (पुराणोक्ते - प्रियं जनानां यशसा पशूनां स्वामिनं कुरु। शरीरीणामरिष्टानि वरुणाचमयाम्यहम्।।)" इति अश्वत्थाय आचमनं मंत्रेण दत्वा || तूष्णींद्विवारम्|| दाता- काँस्यपात्रे विषममात्रया दधिमधुघृतम् एकीकृत्य तदुपरि द्वितीयं पात्रमधोमुखं निधाय||कांस्यपात्रेण संपुटं गृहित्वा मधुपर्को मधुपर्को मधुपर्कः प्रतिगृह्यताम्|| कांस्यपात्रमुद्घाट्य |विष्णोः मधुपर्कं प्रतीक्षते"ॐमित्रस्य त्वा चक्षुखा प्रतिक्षे||(पुराणोक्ते- समीक्षामि यथा सर्वाण्यह भूतानि चक्षुषा। तथाहं मधुपर्कं च प्रतीक्षामि खलु प्रभो)"इति निरिक्ष्य|| ॐदेवस्यत्त्वा सवितुः प्प्रसवेश्विनोर्ब्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्| प्रतिगृह्णामग्ग्नेेष्ट्वास्येन प्राश्नामि|| (पुराणोक्ते -पूष्णो देवस्य सवितुर्हस्ताभ्यामाददे किल। मधुपर्कं भर्ग रूपमाश्विनं सूर्य दैवतम्।।)"प्रतिगृह्णामिति दक्षिणेन प्रगृह्य वामेकृत्वा  अनामिकया मधुपर्कं त्रिः प्रदक्षिणमालोडयति ॐ नमः श्यावाश्यायान्नशने यत्तऽआविद्धं तत्ते निष्कृन्तामि| (पुराणोक्ते- प्रयौमि मधुपर्कं च नाशने नादनीयकं। निष्क्रन्तामि च यत्तद् द्वैश्यावास्याय नमो नमः।।)" अनामिकाअंगुष्ठेनच त्रिर्निरुक्षयति||विष्णुस्वरूपाश्वत्थाय  प्राशनार्थं स्थापनोपरि  स्थापयेत् - ॐमधुव्वाता(१)इति प्रथमवारं/ ॐमधुनक्त०(२)इति द्वितीयवारं/ ॐमधुमान्नो०(३)इति तृतीयवारम् (पुराणोक्ते- परमेण मधव्येन रूपेणान्नाद्यकेचन। मधव्यं परमं तेन ह्यश्नामि मधुनोशनम्।।इति त्रिर्वारम् )"देवं प्राश्नीवन्तं विभाव्य | दाता-आचमनीय जलं दद्यात्- अङ्गन्यासार्थं जलं दद्यात् मंत्रान्पठेत्  ||मुखे ॐवाङ्मऽआस्येस्तु|| नासिकयोः ॐनर्सो मे प्राणोस्तु||नेत्रयोः ॐअक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु||कर्णयोः ॐकर्णयोर्मे श्रोतमस्तु||बाह्वोः ॐबाह्वोर्मे बलमस्तु|| उर्वोः ॐउर्वोर्मे ओजोस्तु||सर्वांगेषु ॐअरिष्टानिमेङ्गानि तनूस्तन्वामे सह सन्तु|| (पुराणोक्ते - जलेन तूष्णींऔष्ठौ,नासिका,अक्ष्णोः,कर्णौ,बाहुद्वयं,उरुद्वयं, सर्वाङ्गाणि च स्पृशेत्)"दाता- गोर्मूल्यं वा तन्निष्क्रयी मनसोद्दिष्ट द्रव्यं गृहित्वा"गोर्मूल्यं वा तन्निष्क्रयी मनोद्दिष्टं द्रव्यं गंधपुष्पाद्यर्चितं रुद्रदैवतं वराय तुभ्यमहं सम्प्रददे न मम||तद् द्रव्यं वराय दत्वा  स्वस्ति||इति ब्रुयात्|| मम च अमुष्य च पाप्मानं हनोमि|| अथ यद्युसिसृक्षेन्मम ____यजमानस्य उभयोः पाप्माहतः||(पुराणोक्ते- वसूनां दुहिता माता रुद्राणां भास्करस्वसा। ब्रवीमि गां मावधिष्ट जनाय चेतना वृते।।) ॐपरिधास्यै०इति वस्त्रं, ॐयज्ञोपवीतं परमं० इति उपवीतं,ॐसुचक्षा अह० इति गंधं,ॐअनाधृेष्टा० इति अक्षतान्, ॐओषधीः प्रति० इति पुष्पमालां, ॐवसोः पवित्रमसि शत० इति सुगंधितैलं वराय समर्प्य| (पुराणोक्ते वस्त्राद्युपहारान् सर्वं तूष्णीं दद्यात्)"हस्ते जलमादाय अनेन मधुपर्कार्चनेन परमेश्वरः प्रीयतां न मम||


ज्ञ वर्ण का उच्चारण

'ज्ञ' वर्ण के उच्चारण पर शास्त्रीय दृष्टि- संस्कृत भाषा मेँ उच्चारण की शुद्धता का अत्यधिक महत्त्व है। शिक्षा व व्याकरण के ग्रंथोँ म...