वैदिक पशुबलि समर्थन -
वैदिक पशुबलि का सबसे मूल सिद्धान्त ये है कि पशु को तिलमात्र भी किसी भी प्रकार के किसी कष्ट का कोई अनुभव ही ना हो , वह स्वयं ये कहे कि मुझे यह पशु शरीर नहीं चाहिये , मुझे इस अधम देह से विमुक्त कीजिये ! , जिस पशु का पशु शरीर बलि हो , उसे दिव्य देव शरीर प्राप्त हो !
ये सब असम्भव घटनाऐं मन्त्रों व यज्ञविज्ञान की अचिन्त्य सामर्थ्य से घटित होती हैं , जिसका कि वेदादि ने विधान किया है । जैसे अलौकिकवेदमन्त्रों के बल से विषबाधाहरण होता है तद्वत् । शिखाहीन ब्राह्मणों के यजमानों के सिर के उपर से हमारे ये वचन जायें तो कोई आश्चर्य नहीं ।
इस्लाम पन्थ में कुरबानी जो होती है, उसकी वैदिक बलि से तुलना की कल्पना भी नहीं हो सकती । दोनों में धरती आकाश का अन्तर है । हम वैदिक लोग अपने परोपकारमय उपर्युक्त मूल सिद्धान्तों का जहॉ पर व्यवहार में हनन होता देखते हैं , वहॉ पर स्वयं उसका विरोध कर पुनः अहिंसात्मक वैकल्पिक विधान करते हैं ( श्रीफल आदि के रूप में) , परन्तु इस्लामिक पन्थ में ना तो ऐसा कोई परोपकारमय विधान है, ना ही वैकल्पिक व्यवस्था , वहॉ केवल पाप है ।
यही कारण है कि हमारी वैदिक पशुबलि की वैदिक परम्परा में विकृति आने पर सभी विद्वान्, अधिकृत, वैदिक धर्माचार्य एक स्वर से स्वयं वहॉ पर उसका विरोध करते हैं , क्योंकि वैदिक धर्म किसी को कष्ट देने, या किसी प्राणी की हिंसा करने का समर्थक नहीं , अपितु मा हिंस्यात् सर्वभूतानि , किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो-इस अहिंसा-सिद्धान्त पर आधारित है, किन्तु कथित मौलानाओं आदि ने कभी समाजशोधक फतवे नहीं निकाले क्योंकि वहॉ पर ऐसी कोई अन्तर्निहित अवधारणा ही नहीं !
सनातन परम्परा के शुद्ध संवाहक सुदुर पश्चिमांचल नेपाल में आज भी ऐसे परम्पराचूड़ामणि दैवीय स्थल हैं , जहॉ पर यज्ञीय पशु स्वयं स्वबलि का अनुमोदन करता हुआ यज्ञस्थल पर आता है , और बिना किसी भी कष्टादि के बलि के माध्यम से अपना निकृष्ट देह त्याग करता है ।
उत्तराखण्ड की नन्दा देवी राजजात यात्रा , जो कि विश्व की सबसे लम्बी पैदलयात्रा है, उसमें चौसिंग्या खाड़ू के रूप में भी इस सिद्धान्त का कुछ अंशों में दर्शन कर सकते हैं ।
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आजकल बलि नहीं अपितु उसके नाम पर समाज में पशुहत्या ही अधिक होती है । और मूर्ख लोग धूर्तों की इस लौकिक पशुहत्या को देखकर वेद और तत्प्रतिपादित वैदिक पशुबलि के सिद्धान्त को ही स्वाक्षेपों से दूषित करने लगते हैं !
बलि परोपकार है , हत्या पाप । वेद परोपकार का उपदेशक है , पाप का नहीं । अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् । परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीड़नम् ।। हमने लोकमंगल की भावना से इतने सरल रूप में वैदिक धर्म का मौलिक स्वरूप समझा दिया है पर कतिपय श्वानपुच्छ कलिचेलों को अब भी यह सन्देश समझ नहीं आयेगा ।
।। जय श्री राम ।।
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