Thursday, 25 October 2018

बाल्मिकी ब्राह्मण होने के प्रमाण

अधिकांश हिंदुओं का यह मानना है कि वाल्मीकि ऋषि शूद्र वर्ण से थे ऐसा नही है।

वाल्मीकि ऋषि ब्राह्मण ही थे, प्रत्येक विषय हमारे शास्त्रों में लिखित है, स्वाध्याय करें, समाधान पाएं, मूर्खों कर जाल में न फंसें।

वाल्मीकि रामायण के यह 2 श्लोक देखें...

संनिबद्धं हि श्लोकानां चतुर्विंशत्सहस्रकम् ।
उपाख्यानशतं चैव #भार्गवेण तपस्विना ॥ 26॥
(7/94/26 वा.रा.)

उन भृगुवंशी(ब्राह्मण) तपस्वी कवि के बनाये हुए इस महाकाव्य मे चौबीस हजार श्लोक ओर एक सौ उपाख्यान है ।

प्रचेतसोऽहं दशमः पुत्रो राघवनन्दनः ।
न स्मराम्यनृतं वाक्यमिमौ तु तव पुत्रकौ ॥ 19॥
(7/96/19 वा.रा.) 

हे रघुवंशी राम मैं प्रचेता नामक ऋषि का दशवां पुत्र हुं ।

अहं प्रजाः सिसृक्षुस्तु तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् ।
पतीत् प्रजानामसृजं महर्षिनादितो दश ॥
मरीचिमत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् ।
प्रचेतसं वशिष्ठं च भृगुं नारदमेव च ॥

मनु स्मृति के अनुसार ब्रह्माजी के सर्व प्रथम 10 पुत्र हुए जो ब्राह्मण ऋषि थे ।

मरीची
अत्री
अङ्गिरस
पुलत्स्य
पुलह
क्रतु
प्रचेता
वशिष्ठजी
भृगुजी
नारदजी ।

(मनु.स्मृ. 1/34-35)

इनमे से प्रचेता नामक ब्राह्मण ऋषि के 10 वे पुत्र वाल्मीकि जी थे ।

प्रचेता का पुत्र होने के कारण उन्हें प्रचेतस भी कहा जाता है।

Wednesday, 24 October 2018

पूजा में कच्छे वनियाम आदि का निषेध

"( न स्यूते न दग्धेन पारक्येन विशेषतः | मूषिकोत्कीर्ण जीर्णेन कर्म कुर्याद्विचक्षणः ||महा भा०||)" सिले हुए वस्त्र से , जले हुए वस्त्र से, विशेषकर दूसरे के वस्त्र से, चूहे से कटे हुए वस्त्र से धर्मकार्य नहीं करना चाहिए.
"(जीर्णं नीलं संधितं च पारक्यं मैथुने धृतम् | छिन्नाग्रमुपवस्त्रं च कुत्सितं धर्मतो विदुः ||आचारादर्शे नृसिंहपुराणवचन)"
जीर्ण, नीला, सीला हुआ, दूसरे का, संभोगावस्था में पहना हुआ, जिसका तत्र भाग कटा हो एवं छोर रहित वस्त्र धर्मकी दृष्टि से धारण न करें,
"(अहतं यन्त्र निर्मुक्तं वासः प्रोक्तं स्वयंभुवा | शस्तं तन् मांगलिक्येषु तावत् कालं न सर्वदा ||कश्यपः||)"
यन्त्र(मील) से निकले हुए बने हुए वस्त्र को "अहत" वस्त्र माना हैं | वह यन्त्र से निकला हुआ कपड़ा विवाह आदि मांगलिक कार्य में उतने ही समय तक ठीक हैं, हमेशा के लिए नहीं.
"( अन्यत्र यज्ञादौ तु इषद्धौतमिति | #न_च_यज्ञादिकमपि #मांगलिक्यमेवेत्याशंकनीयम् / विवाहोत्सवादेरैहिकसुखस्याभ्युदयस्य च मांगलिकत्वात् / यज्ञोदेस्तु #धर्मरूपादृष्टफलदत्वेन मांगलिकत्वाभावात् "  ||मदन पारि० शातातपः || )"

म०पारि ग्रन्थ में शातातप नामक ऋषि की व्याख्या अहतवस्त्र का -- अन्यत्र यज्ञादि अनुष्ठान में (प्रशस्त )नहीं , यज्ञादि कर्म तो अदृष्ट (अप्रत्यक्ष) फल देनेवाले हैं, इस कारण से वे मांगलिक कर्म में नहीं आते | निष्कर्ष यह हैं कि विवाहादि मांगलिक कार्यों का प्रत्यक्ष संस्काररूपी फल हैं, ऐसा यज्ञादिकर्मों का दृष्ट फल नहीं |
"( इषद्धौतमरजकादिना सकृद्धौतमिति नागदेवाह्निके व्याख्यातम् ||मदन पारि०| )--- इषद्धौत का मतलब बिना धोबी के एकबार धुला वस्त्र |
" ( स्वयं धौतेन कर्त्तव्या क्रिया धर्म्या विपश्चिता / न तु तेजकधौतेन नोपभुक्तेन च क्वचित् ||चतुर्वर्ग चिंता०वृद्धमनुवचन|| )"
विद्वान् कर्मकर्ता को स्वयं(ब्रह्मचारी स्वयं/ गृहस्थी स्वयं वा पत्नी द्वारा)धूले वस्त्र से धार्मिक क्रिया को सम्पन्न करे | धोबी से धुले हुए एवं भोजन में पहने हुए या दूसरे के पहने हुए वस्त्र से कभी भी धार्मिक कर्म न करे..

आभार शास्त्री पुलकित आचार्य  जी

Wednesday, 17 October 2018

दयानन्द मतभंजन

#स्वामी_दयानंद_सरस्वती_मत_भञ्जन

स्वामी दयानन्द सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश जब लिखने बैठा था मानो वे भांग पी कर ही बैठा था ऐसा आप को भी विश्वास हो जाएगा सत्यार्थप्रकाश का स्क्रीनशॉट देख कर
स्वामी दयानन्द अपने प्रथम समुल्लास के पृष्ठ संख्या  9 में  जो लिखा है वह उनकी  मूर्खता की पराकाष्ठा देखने को मिलता है ।
स्वामी दयानंद  कहते है की #ब्रह्मा_विष्णु_महादेव नामक पूर्वज विद्वान थे जो प्रब्रह्मपरमेश्वर की उपासना करते थे ||
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मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कभी भी ऋग वेदादि का मुख दर्शन भी न  किया हो यदि किया होता तो ऐसा कहने का दुःसाहस न करते ।
वेदो में स्पष्ट रूप से आया है कि जो इंद्र है वही ब्रह्मा है वही विष्णु है वही शिव है |

त्वम॑ग्न॒ इंद्रो॑ वृष॒भः स॒ताम॑सि॒ त्वं विष्णु॑रुरुगा॒यो न॑म॒स्यः॑ ।
त्वं ब्र॒ह्मा र॑यि॒विद्ब्र॑ह्मणस्पते॒ त्वं वि॑धर्तः सचसे॒ पुरं॑ध्या ॥(ऋ २/१/३)

त्वमिन्द्रस्त्वँ रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं ब्रह्म त्वं प्रजापतिः (तैत्तरीय आरणक्यम् )
स ब्रह्मा स शिवः स हरिः सेन्द्रः सोऽक्षरः परमः स्वराट् (नृसिंहतापनि उपनिषद )

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवन स्वयं कहते है
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां (गीता)

उस परब्रह्म परमात्मा के दिब्य विभूतियों का अंत नही वही कार्यकारण रूप से ब्रह्मा ,विष्णु ,और शिव है ।
जिस कारण श्रुतियों में नेति नेति कह कर उस परब्रह्म परमात्मा के विभूतियों के अनन्त को दर्शाया है ||
सत्व ,रज:,तम: यह तीनों गुण प्रकृति के है एक परम पुरुष उक्त तीन गुणों से युक्त होकर इस विश्व की सृष्टि स्थिति एवं संहार हेतु  सत्व गुण से हरी: रजो गुण से ब्रह्मा,एवं तम गुण से हर संज्ञा को प्राप्त होते है ।

Monday, 15 October 2018

पितृदोष और प्रेतबाधाओं से बचना चाहिये ।

पितृदोष और प्रेतबाधाओं से बचना चाहिये ।

यदि स्वप्न में आपको अपने  पितर मलिन वेष में दिखें, किसी का अन्न छीनते हुए दिखें, गाय, बौल, घोड़े या पक्षी की भाषा में बोलते दिखें, तो समझ लो कि आपके पितर पिशाचयोनि में हैं ।

यदि   स्वप्न में आपको अपने ही  जीवित भाई, पुत्र, पुत्री आदि सम्बन्धी मृत दिखाई दें, तो ऐसा  प्रेतबाधा के कारण होता  है ।

यदि ऐसी कोई स्थितियॉ  जीवन में बन रही हों  तो ,    प्रामाणिक,  परम्परागत  गुरुजनों  ( कुलीन, विद्वान् ब्राह्मण कुलगुरुओं) की शरण में  आकर  सन्मार्ग  लाभ करना चाहिए   ।

जब परिवार के किसी पूर्वज की मृत्यु के पश्चात् उनका भली प्रकार से अंतिम संस्कार संपन्न ना किया जाए, या जीवित अवस्था में उनकी कोई इच्छा अधूरी रह गई हो तो उनकी आत्मा अपने घर और आगामी पीढ़ी के लोगों के बीच ही भटकती रहती है।

मृत पूर्वजों  आदि  की अतृप्त आत्माऐं   परिवार के लोगों के जीवन में  तरह तरह की  विसंगतियों के   जन्म  की कारण बनती हैं ।

।। जय श्री राम ।।

Monday, 8 October 2018

सूतक निर्णय

सूतक निर्णय भाग-

*अस्थिःस्पर्शे विचारः- मानुषास्थिनि सरसे बुद्धिपूर्वकं स्पृष्टे त्रिदिनम् विरसेैकदिनम् ,अबुद्ध्या मानुषास्थिनि सरसे स्पृष्टे स्नानं ,विरसे त्वाचमनम्|*

अर्थात् - बुद्धि पूर्वक मनुष्य के दग्ध भीगे हुअे अस्थि स्पर्श करने से तीन दिनका सूतक, सूखे अस्थि स्पर्श में एक दिन का सूतक, यदि अनजाने में भीगे अस्थि स्पर्श हो जायँ तो स्नान, सूखे अस्थि स्पर्श से त्रिः आचमन,

*अमानुषास्थि संस्पर्शे स्नानं विरसे त्वाचमनम्*

अर्थात् पशु पक्षी आदि के मनुष्येतर भीगे अस्थी स्पर्श में स्नान, सूखे अस्थि स्पर्श में तीन आचमन,

*इदंचाशौचमाहिताग्नेरुपरमे संस्कारदिवसप्रभृतिकर्तव्यम्|अनाहिताग्नेस्तु मरणदिवसप्रभृति||*

अर्थात् अग्निहोत्री के मरण में दाह के दिन से सूतक माना जाता हैं, अग्निहोत्री न हो तो मृत्यु दिन से सूतक,

*अस्थिसंचयनंतु "प्रथमे$द्वि द्वितीये$द्वि"इत्यादिना विहितमुभयोः*

अर्थात् अस्थि संचयन पहले दूसरे तीसरे चौथे सातवेँ या नवमें दिन में करैं.

*आशौचिनामन्ने सकृद् भुक्ते यस्मिन् दिने भुक्तं ततः शिष्टाहान्याशौचम्*

अर्थात् सूतकी के स्पर्श का अन्न खाने से जिस दिन खाया हों उस दिन से जितना सूतक बाकी हों उतना खाने वाले को लगता हैं.
*सजातीयस्योत्कृष्टसजातीयस्य वानुगमने सचैलस्नानमग्निस्पर्शो घृतप्राशनं च*

अर्थात् सजातीय या वर्णोच्च सजातीय के शव के पीछे स्मशान में जाने से पहने हुए कपडें में स्नान, अग्नि का स्पर्श और घी का प्राशन करैं.

*ब्राह्मणस्य क्षत्रियानुगमनएकरात्रमाशौचम् ,वैश्यानुगमने पक्षिणी,शूद्रानुगमने त्रिरात्रमिति,एवं क्षत्रियादेरपि हीनवर्णानुयाने एकाहादि*

अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय के शव के पीछे स्मशान में जायँ तो एक रात्रि सूतक, ब्राह्मण वैश्य के शव के पीछे स्मशान में जायँ तो पक्षिणी, ब्राह्मण शुद्र के शव के पीछे स्मशान में जायँ तो तीन रात्रि सूतक. वैसे क्षत्रिय वैश्य के शव के पीछे स्मशान में जायँ तो एकरात्रि, शूद्र के शव के पीछे जाने से भी एक रात्रि, वैश्य शूद्रो के शव के पीछे जायँ तो एकरात्रि सूतक,

*धर्मार्थद्विजनिर्हरणे तु पदे पदे ज्योतिष्टोमफलं भवति,अवगाहनात् सद्यः शुद्धिः*

अर्थात् धर्म के लिए ब्राह्मण यदि क्षत्रिय वैश्य या शुद्र के शव को कन्धे पर वहन करैं तो पद पद पर ज्योतिष्टोम यज्ञका फल मिलता हैं. नदी या जलाशय में डुबकी मारने से उनकी तुरंत शुद्धि होतीं हैं.

*शुद्रस्य त्वनाथस्यापि धर्मार्थमपि  द्विजैर्निर्हरणादि न कार्यमेव*

अर्थात् अऩाथ शुद्र के शव का धर्म के लिए भी वहन न करैं अर्थात् पैसै दैकर शूद्रो से शव वहन करायें जिससे अनाथप्रेत संस्कारका फल मिलता हैं,
*स्नेहादिना सजातीय शवनिर्हरणे एकाह:*

अर्थात् स्नेह से अपनी जाती के शव का वहन करैं तो एक दिन का सूतक लगता हैं. अर्थात् शवदाह दिन में किया हो तो तारेँ दिखने से शुद्धि. रात्रि के प्रारंभ में सूर्यास्त के बाद शवदाह किया हो तो सूर्यदर्शन से शुद्धि होती हैं.

जय श्री राम

Wednesday, 3 October 2018

व्रात्य

व्रात्य माने जिस ब्राह्मण का जनेऊ संस्कार 5 वर्ष से 16 के बीच न हुआ हो |

व्रात्यदोष  दो प्रकार हैं (१)सद्योव्रात्य  - जिस ब्राह्मण की परम्परा में यथाकाल जनेऊ संस्कार होता आया हो परंतु किसी कारणवशात् पुत्र का जनेऊ संस्कार उम्रवर्ष ५ से १६ तक में न करवाया हो, वह पुत्र व्रात्य हैं। इस प्रकार क्षत्रिय कुमार का  ११ से २२वर्ष तक में और वैश्यकुमार का १२ से २४ वर्ष तक में जनेऊ-संस्कार सम्पन्न न हुए हो वे कुमारों क्रमसे व्रात्यब्राह्मण, व्रात्यक्षत्रिय और व्रात्यवैश्य कहे जाते हैं।

(२) जिसकी तीनपिढ़ी से अथवा तीन से भी अधिक पिढ़ी से जनेऊ-संस्कार ही न हो रहे हो वे चाहे ब्राह्मण हो ,क्षत्रिय हो या वैश्य हो ,,, जिस पैढ़ी से जनेऊ-संस्कार सम्पन्न होना बंध हुआ वहाँ से असंस्कृत समस्त  चलती आ रही असंस्कृत परम्परा की सभी संतानों को अपने वर्णविशेष व्रात्य कही जाती हैं

(3) तीसरा व्रात्य केवल ब्राह्मण में ही कर्मसंकरता वा अज्ञान  के कारण  होने वाली व्रात्यता हैं शाखारण्ड का जनेऊ । अपने गोत्र में कही वेद-शाखा के अनुसार स्वशाखीय जनेऊ न हुए हो तो उम्र १६वर्ष बीत जाने पर व्रात्य बनता हैं।।
यहाँ होना क्या चाहिये कि परशाखा का जनेऊ हुआ तो १०वर्ष के बाद वर्षक्रम से  जो प्रायश्चित्त हो उसका आचरण कर १६वर्ष से पहिले - उस कुमार का कुमार के गोत्र में कही वेद-शाखा माने स्वशाखीय उपनयन करवाना चाहिये, परंतु ऐसा न करने पर परशाखा के जनेऊ से द्विजत्व प्राप्त न होने पर भी प्रायश्चित और स्वशाखीय जनेऊ न करवाने से १६ वर्ष के बाद परशाखीय जनेऊ वाला शाखारण्डोपमा से व्रात्य बन जाता हैं
और यह शाखारण्डदोष ब्राह्मण में ही होता हैं अन्य वर्ण में नहीं, क्योंकि गोत्रपरम्परा के स्वशाखीय वेदाध्ययन का कर्तव्योचित दायित्व ब्राह्मणों पर हैं, क्षत्रियादि को तो आचार्यादि के गोत्र पहिले से लगे हुए हैं।

Monday, 1 October 2018

न पुरानी न नई अछी होती है ....

पुरानी होने से ही न तो सभी वस्तुएँ अच्छी होती हैं और न नयी होने से बुरी तथा हेय।

विवेकशील व्यक्ति अपनी बुद्धि से परीक्षा करके श्रेष्ठकर वस्तु को अंगीकार कर लेते हैं और मूर्ख लोग दूसरों द्वारा बताने पर ग्राह्य अथवा अग्राह्य का निर्णय करते हैं।


पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम़्।
सन्त: परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढ: परप्रत्ययनेयबुद्धि:।।

पूजा आदि में सिर नहीं ढंका चाहिए

शास्त्र प्रमाण:- उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।  प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥ अर्थात् - पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग...