Wednesday, 3 October 2018

व्रात्य

व्रात्य माने जिस ब्राह्मण का जनेऊ संस्कार 5 वर्ष से 16 के बीच न हुआ हो |

व्रात्यदोष  दो प्रकार हैं (१)सद्योव्रात्य  - जिस ब्राह्मण की परम्परा में यथाकाल जनेऊ संस्कार होता आया हो परंतु किसी कारणवशात् पुत्र का जनेऊ संस्कार उम्रवर्ष ५ से १६ तक में न करवाया हो, वह पुत्र व्रात्य हैं। इस प्रकार क्षत्रिय कुमार का  ११ से २२वर्ष तक में और वैश्यकुमार का १२ से २४ वर्ष तक में जनेऊ-संस्कार सम्पन्न न हुए हो वे कुमारों क्रमसे व्रात्यब्राह्मण, व्रात्यक्षत्रिय और व्रात्यवैश्य कहे जाते हैं।

(२) जिसकी तीनपिढ़ी से अथवा तीन से भी अधिक पिढ़ी से जनेऊ-संस्कार ही न हो रहे हो वे चाहे ब्राह्मण हो ,क्षत्रिय हो या वैश्य हो ,,, जिस पैढ़ी से जनेऊ-संस्कार सम्पन्न होना बंध हुआ वहाँ से असंस्कृत समस्त  चलती आ रही असंस्कृत परम्परा की सभी संतानों को अपने वर्णविशेष व्रात्य कही जाती हैं

(3) तीसरा व्रात्य केवल ब्राह्मण में ही कर्मसंकरता वा अज्ञान  के कारण  होने वाली व्रात्यता हैं शाखारण्ड का जनेऊ । अपने गोत्र में कही वेद-शाखा के अनुसार स्वशाखीय जनेऊ न हुए हो तो उम्र १६वर्ष बीत जाने पर व्रात्य बनता हैं।।
यहाँ होना क्या चाहिये कि परशाखा का जनेऊ हुआ तो १०वर्ष के बाद वर्षक्रम से  जो प्रायश्चित्त हो उसका आचरण कर १६वर्ष से पहिले - उस कुमार का कुमार के गोत्र में कही वेद-शाखा माने स्वशाखीय उपनयन करवाना चाहिये, परंतु ऐसा न करने पर परशाखा के जनेऊ से द्विजत्व प्राप्त न होने पर भी प्रायश्चित और स्वशाखीय जनेऊ न करवाने से १६ वर्ष के बाद परशाखीय जनेऊ वाला शाखारण्डोपमा से व्रात्य बन जाता हैं
और यह शाखारण्डदोष ब्राह्मण में ही होता हैं अन्य वर्ण में नहीं, क्योंकि गोत्रपरम्परा के स्वशाखीय वेदाध्ययन का कर्तव्योचित दायित्व ब्राह्मणों पर हैं, क्षत्रियादि को तो आचार्यादि के गोत्र पहिले से लगे हुए हैं।

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