Wednesday, 29 January 2020

अहल्या से इन्द्र ने बलात्कार किया कहने वालों की धज्जियां

: #आक्षेप - इन्द्र ने अहल्या का बलात्कार किया , उनका पुतला दहन क्यों नहीं  ।

#धज्जियॉ -

पहली बात तो इन्द्र  किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं वरन्  पद का नाम है , जैसे प्रधानमन्त्री यह एक पद है । उस  इन्द्र पद पर जो देवताविशेष   होता है, उसे इन्द्र कहा जाता है ।  इसलिये इन्द्र का पुतला दहन करो कहना - ये  मूर्खतापूर्ण कथन  तो सीधे- सीधे  पद का ही अपमान है ।

रावण सीता जी को बलपूर्वक उठाकर ले जाता है , ये है बलात् किया हुआ कार्य  ।

अब सुनो उत्तर -

देवताओं का यह स्वभाव होता है कि वह तपस्वियों के तप की परीक्षा लेकर उसे और अधिक निखारते हैं , और  दैवीय स्वभाव वाले मानवों की तपस्या को सफल करने के लिये  अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं ।

देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्युस्थानीयाद्वा । देवता देते हैं, प्रकाशित करते हैं,  श्रेष्ठ पद  पर विराजमान् रहते हैं , ये उनका परिचय है । उनका शरीर हम मानवों की भॉति  नौ नौ मलद्वारों का मांसपिंड नहीं होता , वरन्     अत्यन्त  निर्मल ,  मन्त्र- तन्त्र- यन्त्रात्मक हुआ करता है ।   देवताओं की गति अव्याहत होती है , वे मानवों  के शुभ अशुभ को जानते हैं ।  एक साथ अनेक स्थलों पर विराजित होने में वे समर्थ होते हैं ।

जिस इन्द्र पदस्थ देवविशेष  ने अहल्या से भोगसम्पादन  किया , वो कोई  बलात्कार न था  ।।  बलात्कार उसे कहते हैं  जो  कार्य   बलपूर्वक किया जाये ।

देवराज इन्द्र ने तो कहीं भी अहल्या के प्रति  कहीं भी अपने बल का दुरुपयोग नहीं किया, फिर बलात्कार कैसा ?

  अहल्या तो महान् तपस्विनी थीं,  और देवराज इन्द्र  तो उनके उस तपःदीप्त आश्रम की तक पूजा करते थे -

आश्रमो दिव्यसंकाशः सुरैरपि सुपूजितः ।।(वा०रा०४८।२५)

  देवराज   इन्द्र ने अहल्या की  भगवत्प्राप्ति रूप  तपस्या में जो  परपुरुषवासना रूप न्यूनता थी , उसे ही बडी ही चतुराई से   समाप्त करके  उनका महान् उपकार किया था  ,

  सुनिये कैसे -

इन्द्र  अहल्या के तप की परीक्षा करने हेतु    स्वयं उन्ही के पति गौतम ऋषि का स्वरूप धारण करके आते  हैं, और  ऋतुकाल  के विपरीत समय में समागम का प्रस्ताव रखते हैं ।

शास्त्र का ये सिद्धान्त है कि ऋतुकालके विपरीत काल में स्त्री को  अपने पति से सम्भोग नहीं करना चाहिए ।

  इस प्रकार इन्द्र ऋतुकाल विपरीत समय में प्रस्ताव रखकर उनके धर्मपालन की परीक्षा लेते हैं ।


देवयोनि भोगयोनि होती है , वह मानवयोनि  की भॉति कर्मयोनि नहीं होती ।   देवराज इन्द्र जानते थे कि  मेरे द्वारा उपभुक्त होने पर भी  यह   कृत्य  अनैसर्गिक न होगा और अहल्या के अन्तःकरण में जो सुप्त वासना है, वह चरितार्थ भी हो जायेगी, जिससे उसका नाश किया जा सके ।   जैसे भूमि में पड़ा हुआ बीज   पल्लवित होने के बाद   विच्छिन्न किया जाये तो वह  विनष्ट हो जाता है ।

अहल्या अपने तपः प्रभाव  से  ये जान  जाती हैं कि ये इन्द्र हैं  ।यहॉ पर तो इन्द्रदेव की परीक्षा में अहल्या सफल हो जाती हैं किन्तु  देवराज इन्द्र जानते थे कि  अहल्या का तप तब तक  परमपुरुष स्वरूप भगवत्प्राप्ति रूप फल का जनक नहीं हो सकता , जब तक उसके अन्तःकरण में  तदन्य  श्रेष्ठपुरुषवरणस्वरूप  कामना निकल नहीं जाती ।  

इस वासनाविशेष स्वरूप  प्रतिबन्धक का नाश होते ही अतिशीघ्र भगवत्प्राप्ति रूप मार्ग का अनावरण अहल्या के लिये हो जायेगा , इसलिये देवराज इन्द्र ने सोच समझकर सही समय का चुनाव किया ,  

वह समय था अहल्या के ऋतुकाल का, और गौतम ऋषि के  आने का , जिसमें कि    गौतम ऋषि का   अहल्या का आत्म कल्याण करने वाला  शाप रूपी  परम वरदान मिले ।

जब अहल्या यह कहती हैं कि कृतार्थास्मि सुरश्रेष्ठ गच्छ शीघ्रमितः   प्रभो,  तब  देवराज इन्द्र  अपना उक्त  प्रयोजन  हंसते हुए बड़े ही गूढ़ शब्दों में इस प्रकार कहते हैं -

सुश्रोणि परितुष्टोsस्मि  गमिष्यामि यथागतम्  (वा०रा०१।४८।२१)

परितुष्ट शब्द का अर्थ होता है चारों दिशाओं से मैं सन्तुष्ट हूं , अर्थात् मुझ देवता को  बाहर के वातावरण का पूरा बोध है कि कहॉ क्या है क्या नहीं । गमिष्यामि   यथागतम् का तात्पर्य है कि जिस उद्देश्य से मैं आया हूं, उसी को पूरा सिद्ध करके जाऊंगा ।

तदनन्तर गौतम ऋषि आते हैं, देवराज उनके सम्मुख  विषादमुख    अभिव्यक्त कर उनको  आगे की लीला सम्पादन हेतु  प्रेरित  करते हैं, गौतम ऋषि इन्द्र के अहल्यापतिरूप वेषधारण को  अकर्तव्य कहकर उनको श्राप देते हैं, ताकि लोक में  किसी स्त्री के सम्मुख   उसके पति  का रूपधारण न करने रूपी  मर्यादा बनी रहे  । (मम रूपं समास्थाय कृतवानसि दुर्मते । अकर्तव्यमिदं यस्माद्... -वा०रा०१।४८।२७)   त्रिकालदर्शी   गौतम ऋषि भी यह जानते थे कि  परम कल्याणकारक देवराज  इन्द्र का प्रयोजन क्या है ।

  शाप के प्रभाव से अहल्या जी पथ्थर बनती हैं और फिर जब  मुनि के  ही शाप  के फल से भगवान् राम उनको मुक्त करते हैं, तब गौतम ऋषि के द्वारा प्राप्त इस आत्मकल्याणदायक शाप  का अनुभव स्वयं अहल्या भी करती हैं , -

मुनि श्राप जो दीन्हा अतिभल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना ।
देखेऊं भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना ।।
(श्री रामचरितमानस १। २१०-३)

अर्थात्  मुनि ने जो मुझे शाप  दिया सो बहुत ही अच्छा किया मैं उसे  परम  अनुग्रह मानती हूं कि जिसके कारण मैंने संसार से छुड़ाने वाले श्रीहरि आपको नेत्र भरकर देखा,  इसी आपके दर्शन को शंकर जी सबसे बड़ा लाभ समझते हैं ।

शाप मिलने के बाद देवराज इन्द्र देवताओं से कहते हैं कि मैंने देवताओं का कार्य सिद्ध करने लिये  गौतम ऋषि के तप में विघ्न  डाला है   -

कुर्वता तपसो विघ्नं गौतमस्य महात्मनः ।
क्रोधमुत्पाद्य हि मया सुरकार्यमिदं कृतम् ।।(वा०रा०१। ५०।२)

    मानवों का अन्तःकरण जानने वाले देवराज इन्द्र   गौतम ऋषि के क्रोध के निमित्त बनकर उनकी तपस्या का अपहरण करके उनको  स्वर्गविजय रूप अनिष्ट कर्म से भी बचाते हैं ।

तदनन्तर अग्नि आदि समस्त देवता मरुद्गणों सहित कव्यवाहन आदि पितृदेवताओं के पास जाकर देवराज इन्द्र को शापजन्य दुरित से  सदा सदा के लिये  मुक्त कर लेते हैं ।।

इस प्रकार देवराज इन्द्र तो पूज्य हैं, स्तुत्य हैं, वन्द्य हैं, उनका तो समस्त मानवजाति को ऋणी होना चाहिये ।

।। जय श्री राम ।।
#प्रतिलिपि
Arun shastri जबलपुर
प्रश्न नहीं स्वाध्याय करें।।

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