*यज्ञादिमें त्याज्य पदार्थ*
भावदुष्टं क्रियातुटं कालिदृष्टं तथैव च ।
संसर्गदुष्टं जातिदुष्टं वर्जयेद् यज्ञकर्मणि ।।
( वृद्धहारीतस्मृति ११/११२
यज्ञ-कर्म में भावदुष्ट, क्रियादष्ट कालदुष्ट, संसर्गदुष्ट तथा
जातिदुष्ट- इन पदाथोंका त्याग करना चाहिये।
रूपतो गन्धतो वापि यच्चाभक्ष्यैः समं भवेत् ।।
भावदुष्टं च तत्प्रोषतं मुनिभिर्धर्मपारगैः ।
( वृत्रहारीतस्मृति ११.१२३ )
‘जो पदार्थ रूपसे अथवा गन्धसे भी अभक्ष्य पदार्थों के सदृश हो। उसे धर्मके पारङ्गत मुनियने *‘भावदुष्ट'* कहा है ।
आरनालं च मथं च करनिर्मथितं दधि ।
हस्तद्वत्तं च लवणं क्षीरं घृतपयांसि च ।
हस्तेनोद्धृत्य तोयं च पीतं वप्रेण वैकदा।।
शब्देन पोतं भुक्तं च गध्यं ताम्रमेण संयुतम् । ।
क्षीरं च लवणोन्मित्रं क्रियादुमिहोच्यते ॥
( वृद्धहारीतस्मृति ११/१२५-१२६ )
आरनाल ( काञ्जिक ), मद्य, हाथसे मथा हुआ दही, हाथसे या हाथ में दिया गया नमक, दूध, घी और जल, हाथसे उठा कर मुंहसे एक बार पीया हुआ जल, बोलते हुए पाया और खाया गया, तांबेके पात्रसे संयुक्त गोदुग्ध तथा नमक मिला हुआ दूध- ये सब *‘क्रियादुष्ट"* कहे जाते हैं ।
एकादश्यां तु यच्चनं यच्चान्नं राहुदर्शने ।
सूतके मृतके चान्नं शुष्कं पर्युषितं तथा ॥
प्रसूता के पञ्चगव्यके होम, प्राशन आदि द्वारा शुद्ध होकर जबतक बाहर न आवे ऐसी स्त्री द्वारा दृष्ट, व्यभिचारिणी स्त्रियों तथा व्यभिचारी पुरुषसे देखा गया, जूआ गया, दिया गया तथा उनके भोजनसे बचा हुआ एवं अभक्ष्य (लसुन) अदिसे संयुक्त अन्नं *संसर्गदुष्ट* ' कहलाता है।
बिम्बं शिष्यं च कालिङ्ग तिलपिष्टं च मूलकम् ।
कोशातकीमला खं च तथा कट्फलमेव च ॥
वालिका नारिकेलादि जातिदुष्टमिहोच्यते।
एवं सर्वाण्यभक्ष्याणि तत्सङ्गान्यपि सन्यजेत् । ।
(वृद्धहारीतस्मृति ११/१३३-१३४ )
‘बिम्ब (बिम्बी फल अर्थात् कुन्दरू), शिशु (एक प्रकारका साग या सहिजन ), कालिङ्ग ( भूरा (सफेद) कुम्हड़ा यानी पेठा ), तिलपिष्ट ( तिलकी खली ), शलगम, तोरई, तुम्बा, कायफल, वालिका, नारिका (नालिका) इत्यादि *‘जातिदुष्ट'* कहे जाते हैं ।
इस प्रकार के सब अभक्ष्योंका एवं उनसे संसृष्ट वस्तुओंका भी त्याग करना चाहिये ।
अनिर्दशाहगोक्षीरं षष्ठयां तैलं तथापि च ।।
नदीष्वसमुद्रगाउं सिहकर्कटयोर्जलम् ।
निःशेषजलवाप्यादौ यत्प्रविष्टं नवोदकम् ।
नातीतपञ्चरात्रं तत्कालदुष्टमिहोच्यते ।। ।
(वृत्रहारीतस्मृति ११।१२७-१२६)
‘एकादशी के दिन अन्न ( भात, रोटी, पूर्व आदि ), ग्रहण के
समय में अन्न, जननाशौच तथा मरणाशौचमें अन्न, सूखा अन, बासी अन्न, व्यायी गौका दश दिन बीतनेके पहले का दूध, षष्ठी तिथिमें तेल, श्रावण और भाद्रपद महीनोंमें उन नदियोंका जल जो समुद्रगामिनी नहीं हैं। निःशेष जलवाली (सूखी ) बावड़ी आदिमें प्रविष्ट नतन जल जबतक पाँच रातें न बीतेतब तक वे सब *‘कालदुष्ट'* कहे जाते हैं।
शैवपाषण्डपतितैर्विकर्मस्थैर्निरीश्वरैः ।
अवैष्णवैद्विजैः शूद्रेर्हरिवासर भोक्तृभिः ।
श्व-काकसूकरोद्धैरुदया- सूतिकादिभिः ।
पुंश्चलीभिश्च नारीभिर्जुषली- पतिभिस्तथा ।।
दृष्टं स्पृष्टं च दत्तं च भुक्तशेषं तथैव च ।।
अभक्ष्याणां च संयुक्त संसर्गदुष्टमुच्यते ।
( वृत्रहारीतस्मृति ११।१३०-१३३ )
‘शैवों (कापालिक , माहेश्वर आदिकों), पाखण्डियों ( वेदविरुद्ध आचरणकारियों ), पतित ( स्वधर्म भ्रष्ट ) पुरुषों, कर्म भ्रष्ट ( विकर्मस्थ ), ईश्वरको न माननेवाले (नास्तिक ) अवैष्णव, द्विजों (ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्यों), शूद्रों और एकादशीके अन्नभोजी दिन पुरुषोंसे कुत्ते, कौए, सूअर, ऊँट आदिसे तथा रजस्वला, सूतिका से दृष्ट, पीत, भुक्त और स्पर्श के साथ ही अभक्ष्य वस्तुओं से संसर्ग हुए पदार्थ *संसर्ग दुष्ट* कहे जाते हैं।
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