समुद्रपार विदेशयात्रा समर्थकों की नाक में नकेल ---
#कृण्वन्तो_विश्वमार्य्यम् - इस मन्त्रांश को लेकर प्रायः समुद्रपार विदेशयात्रा के समर्थक यह तर्क देते देखे जाते हैं कि यह वेदमन्त्र कहता है कि सारे विश्व को आर्य बनाओ , अतः जब सारे विश्व को आर्य बनाना ही है तो उसके लिये विदेशयात्रा अपेक्षित है ।
#खण्डन --- कृण्वन्तो विश्वमार्य्यम् - इस मन्त्रांश का यह अर्थ कथमपि नहीं कि सारे म्लेच्छ , दस्युओं से भरे हुए विश्व को आर्य बना लिया जाये, क्योंकि ऋग्वेद के इस मन्त्र में इन्द्र ने दस्युओं के लिये आर्य नाम प्रदान नहीं किया है ।
व्याकरणशास्त्रीय दृष्टि से वैश्य एवं स्वामी को आर्य नहीं कहा जा सकता , उसे तो अर्य ही कहा जा सकता है : #अर्यः_स्वामिवैश्ययोः (पा०अष्टा० ३।१।१०३)
उक्त मन्त्रांश अभिप्रिय तो यही है कि हे ऋत्विजों ! आप लोग सोम आदि सभी द्रव्य को आर्य अर्थात् भद्र/ श्रेष्ठ बनाते हुए कार्य करें ।
कदाचित् दुर्जनतोष न्याय से समस्त विश्व को श्रेष्ठ बनाने की कामना भी स्वीकार ही ली जाये , तो भी #एतद्देशप्रसूतस्य० इत्यादि शास्त्रवचनों के अनुसार पृथ्वी के समस्त मानवों को ब्रह्मावर्त भारतभूमि के अग्रजन्मा महान् ब्राह्मणों की शरणागतिपूर्वक ही उत्तम चरित्र की शिक्षा को लाभ करके स्वयं को श्रेयमार्गस्थ करना शास्त्रीय विधा है, ना कि समुद्रोल्लंघन करके विदेशयात्रा कर स्वयं जाति-धर्मभ्रष्ट होकर समस्त विश्व के सम्मुख अपना मुंह काला किया जाना संगत है ।
।। श्री राम जय राम जय जय राम।।
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