Saturday, 1 June 2019

सम्बन्ध क्या है ?

#आक्षेप -  जब आपसे व्यक्तिगत  परिचय ही नहीं है तो  बिना सम्बन्ध के  मत बोलिये ।

#उत्तर -    जब कोई वैदिक धर्म का  नाम लेकर  तत्सम्बद्ध विचार प्रस्तुत करता है , तो एक ही वैदिक  धर्म के  कारण सम्बन्ध स्वतः  स्थापित हो रहा है ।  सम्बन्ध का बोध होगा तो सम्बन्धी का भी  पता तो चल ही जायेगा ।  वे जब हमारे धर्म की धज्जियॉ उड़ाते हैं , तो  हमारे धर्म  के आधार पर सम्बन्ध तो उनसे  स्वतः बन जाता है  । विशिष्ट बुद्धि की नियामकता से सम्बन्ध की संस्थापना होती है कि   नहीं?

सुनिये !   ये सम्बन्ध है क्या ? 

वैयाकरण से पूछा जाये तो वो कहेंगे  दृष्टत्वे सति  विशेषप्रतीतिनियामकत्वम्,

नैयायिक कहते हैं, दृष्टत्व की कोई आवश्यकता नहीं है ,  आधेयत्व कहेंगे तो आधेयत्व सापेक्ष किसका होगा ? आधार का होगा ।  बिना आधार के आधेय  हो ही नहीं सकता । बिना वाचक के वाच्यत्व  नही आ सकता ।  तो  अपने आप बोलूंगा , उसके लिये दृष्टत्व मानने की कोई आवश्यकता नहीं है ।

इसीलिये उन्होंने क्या किया कि विशिष्टबुद्धिनियामकत्वं सम्बन्धत्वम् । याने विशिष्टबुद्धि का जो नियामक होगा , वो सम्बन्ध ही होगा ।

जैसे हम कहते हैं नीलो घटः । आप जब   परामर्श पढेंगे तो आप वहॉ पायेंगे  विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहि ज्ञानम् । वहॉ  विशिष्ट बुद्धि को जानेंगे, तब तो  विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहि बुद्धि को जानेंगे ! तो विशिष्ट बुद्धि क्या ?  जिसमें  एक विशेषण होगा और एक विशेष्य होगा और इन दोनों को जोड़ने वाला  कोई सम्बन्ध होगा ।   तभी जाकर हमें विशिष्ट बुद्धि होगी ।

तो जोड़ेगा कब   ?  जब विशेषण बनेगा !  जब तक विशेषण  का बोध नहीं होगा  , विशिष्ट बुद्धि नहीं बनेगी ।  जैसे  नीलो घटः , दण्डवान् पुरुषः । दण्डवान् पुरुषः कहते हैं , तो दण्डविशिष्टपुरुषः, दण्ड पुरुष में संयोग सम्बन्ध से रहेगा । ये दोनों को जो जोड़ रहा है, ये ही विशिष्ट बुद्धि का नियामक है सम्बन्ध । यही विशिष्टबुद्धि की नियामकता  सम्बन्ध की संस्थापना कर देती है ।

अच्छा आप थोड़ा आगे चलिये, विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहि बुद्धि की बात कही जाती है , वह्निव्याप्यधूमवानयं पर्वतः इत्याकारकं ज्ञानं परामर्शः  (व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मता)

दण्डवान् पुरुषः तो था ही विशिष्ट बुद्धि , उसके साथ हमने जोड़ दिया  रक्तदण्डवान् पुरुषः , तो रक्त से विशिष्ट दण्ड और उस दण्ड की  विशिष्टता  कहॉ भासित हुई ?  पुरुष  में - यही विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहि  बुद्धि । उसी तरह हम कहते हैं वह्निव्याप्यधूमवान् पर्वतः, वह्नि व्याप्य विशिष्ट कौन ? धूम , उस धूम का वैशिष्ट्य कहॉ भासित हो रहा है ? पर्वत में । इसी लिये विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहि बुद्धि कही गयी ।

अतः  विशिष्ट बुद्धि में विशेषण भी आता है,  विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहि बुद्धि में विशेषणतावच्छेदप्रकारकज्ञान कारण है ।

अब ये जो सम्बन्ध हमने उपर कहा  , इसके  दो प्रकार हम कहते हैं -

पहला तो है, वृत्तिता का नियामक सम्बन्ध ,  दूसरा,  वृत्तिता  का अनियामक सम्बन्ध ।

जहॉ हमको आधाराधेयभाव साक्षात् प्रतीत हो  जाये, उसे तो कहेंगे  वृत्तिता का नियामक सम्बन्ध  ।  और जहॉ हमें प्रतीति नहीं होगा । जैसे तादात्म्य सम्बन्ध ।

इसलिये संयोग, समवाय , कालिक और स्वरूप - ये सम्बन्ध चतुष्टय वृत्तिता का नियामक सम्बन्ध है ।

यहॉ भी  दो  सम्बन्ध  हैं , साक्षात् , परम्परा ।  साक्षात् सम्बन्ध में तो उक्त चार सम्बन्ध आ गये , परम्परा सम्बन्ध में रूपत्वव्याप्य-जातिमत्वान् पृथिवीत्वाद् , दण्डिमान् दण्डिसंयोगात् इत्यादि आते हैं ।   जैसे हम कहते हैं, घटकादि के प्रति  कपाल क्या है ?  सीधे समवाय सम्बन्ध से कारण हो जाता है, किन्तु दण्ड को जो कारण मानते हैं , वो साक्षात् सम्बन्ध नहीं होता  ।   तो   परम्परा सम्बन्ध, इनमें भी कुछ वृत्तिता के नियामक सम्बन्ध  होते हैं, कुछ अनियामक ।

कौन कौन नियामक होगा ?  उसके लिये भी हम सोचते हैं कि हमने जो संन्निकर्ष बनाया ,  लौकिक सन्निकर्ष छः बना दिया , इन  छः में संयोग को ग्रहण किया , संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेत समवाय को ले लिया और समवाय को भी ले लिया , ये तो हैं , वृत्तिता का नियामक सम्बन्ध परम्परा सम्बन्ध । और उससे अतिरिक्त जितने भी परम्परा सम्बन्ध होंगे , वे  वृत्तिता के अनियामक सम्बन्ध  परम्परा सम्बन्ध होते हैं । इसमें भी मतविशेष है, जो  विषयता सम्बन्ध है , इसमें कुछ लोग वृत्तिता का नियामक सम्बन्ध मानते हैं, कुछ  लोग वृत्तिता का अनियामक सम्बन्ध भी मानते हैं ।

तो  सम्बन्ध को  लेकर   इतना आप न्यायशास्त्र का सामान्य ज्ञान रख लीजिये , फिर हम पर  अपने  उक्त  आक्षेप  का  विचार कीजिये ।

।। जय श्री राम ।।

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