#आक्षेप - जब आपसे व्यक्तिगत परिचय ही नहीं है तो बिना सम्बन्ध के मत बोलिये ।
#उत्तर - जब कोई वैदिक धर्म का नाम लेकर तत्सम्बद्ध विचार प्रस्तुत करता है , तो एक ही वैदिक धर्म के कारण सम्बन्ध स्वतः स्थापित हो रहा है । सम्बन्ध का बोध होगा तो सम्बन्धी का भी पता तो चल ही जायेगा । वे जब हमारे धर्म की धज्जियॉ उड़ाते हैं , तो हमारे धर्म के आधार पर सम्बन्ध तो उनसे स्वतः बन जाता है । विशिष्ट बुद्धि की नियामकता से सम्बन्ध की संस्थापना होती है कि नहीं?
सुनिये ! ये सम्बन्ध है क्या ?
वैयाकरण से पूछा जाये तो वो कहेंगे दृष्टत्वे सति विशेषप्रतीतिनियामकत्वम्,
नैयायिक कहते हैं, दृष्टत्व की कोई आवश्यकता नहीं है , आधेयत्व कहेंगे तो आधेयत्व सापेक्ष किसका होगा ? आधार का होगा । बिना आधार के आधेय हो ही नहीं सकता । बिना वाचक के वाच्यत्व नही आ सकता । तो अपने आप बोलूंगा , उसके लिये दृष्टत्व मानने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
इसीलिये उन्होंने क्या किया कि विशिष्टबुद्धिनियामकत्वं सम्बन्धत्वम् । याने विशिष्टबुद्धि का जो नियामक होगा , वो सम्बन्ध ही होगा ।
जैसे हम कहते हैं नीलो घटः । आप जब परामर्श पढेंगे तो आप वहॉ पायेंगे विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहि ज्ञानम् । वहॉ विशिष्ट बुद्धि को जानेंगे, तब तो विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहि बुद्धि को जानेंगे ! तो विशिष्ट बुद्धि क्या ? जिसमें एक विशेषण होगा और एक विशेष्य होगा और इन दोनों को जोड़ने वाला कोई सम्बन्ध होगा । तभी जाकर हमें विशिष्ट बुद्धि होगी ।
तो जोड़ेगा कब ? जब विशेषण बनेगा ! जब तक विशेषण का बोध नहीं होगा , विशिष्ट बुद्धि नहीं बनेगी । जैसे नीलो घटः , दण्डवान् पुरुषः । दण्डवान् पुरुषः कहते हैं , तो दण्डविशिष्टपुरुषः, दण्ड पुरुष में संयोग सम्बन्ध से रहेगा । ये दोनों को जो जोड़ रहा है, ये ही विशिष्ट बुद्धि का नियामक है सम्बन्ध । यही विशिष्टबुद्धि की नियामकता सम्बन्ध की संस्थापना कर देती है ।
अच्छा आप थोड़ा आगे चलिये, विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहि बुद्धि की बात कही जाती है , वह्निव्याप्यधूमवानयं पर्वतः इत्याकारकं ज्ञानं परामर्शः (व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मता)
दण्डवान् पुरुषः तो था ही विशिष्ट बुद्धि , उसके साथ हमने जोड़ दिया रक्तदण्डवान् पुरुषः , तो रक्त से विशिष्ट दण्ड और उस दण्ड की विशिष्टता कहॉ भासित हुई ? पुरुष में - यही विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहि बुद्धि । उसी तरह हम कहते हैं वह्निव्याप्यधूमवान् पर्वतः, वह्नि व्याप्य विशिष्ट कौन ? धूम , उस धूम का वैशिष्ट्य कहॉ भासित हो रहा है ? पर्वत में । इसी लिये विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहि बुद्धि कही गयी ।
अतः विशिष्ट बुद्धि में विशेषण भी आता है, विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहि बुद्धि में विशेषणतावच्छेदप्रकारकज्ञान कारण है ।
अब ये जो सम्बन्ध हमने उपर कहा , इसके दो प्रकार हम कहते हैं -
पहला तो है, वृत्तिता का नियामक सम्बन्ध , दूसरा, वृत्तिता का अनियामक सम्बन्ध ।
जहॉ हमको आधाराधेयभाव साक्षात् प्रतीत हो जाये, उसे तो कहेंगे वृत्तिता का नियामक सम्बन्ध । और जहॉ हमें प्रतीति नहीं होगा । जैसे तादात्म्य सम्बन्ध ।
इसलिये संयोग, समवाय , कालिक और स्वरूप - ये सम्बन्ध चतुष्टय वृत्तिता का नियामक सम्बन्ध है ।
यहॉ भी दो सम्बन्ध हैं , साक्षात् , परम्परा । साक्षात् सम्बन्ध में तो उक्त चार सम्बन्ध आ गये , परम्परा सम्बन्ध में रूपत्वव्याप्य-जातिमत्वान् पृथिवीत्वाद् , दण्डिमान् दण्डिसंयोगात् इत्यादि आते हैं । जैसे हम कहते हैं, घटकादि के प्रति कपाल क्या है ? सीधे समवाय सम्बन्ध से कारण हो जाता है, किन्तु दण्ड को जो कारण मानते हैं , वो साक्षात् सम्बन्ध नहीं होता । तो परम्परा सम्बन्ध, इनमें भी कुछ वृत्तिता के नियामक सम्बन्ध होते हैं, कुछ अनियामक ।
कौन कौन नियामक होगा ? उसके लिये भी हम सोचते हैं कि हमने जो संन्निकर्ष बनाया , लौकिक सन्निकर्ष छः बना दिया , इन छः में संयोग को ग्रहण किया , संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेत समवाय को ले लिया और समवाय को भी ले लिया , ये तो हैं , वृत्तिता का नियामक सम्बन्ध परम्परा सम्बन्ध । और उससे अतिरिक्त जितने भी परम्परा सम्बन्ध होंगे , वे वृत्तिता के अनियामक सम्बन्ध परम्परा सम्बन्ध होते हैं । इसमें भी मतविशेष है, जो विषयता सम्बन्ध है , इसमें कुछ लोग वृत्तिता का नियामक सम्बन्ध मानते हैं, कुछ लोग वृत्तिता का अनियामक सम्बन्ध भी मानते हैं ।
तो सम्बन्ध को लेकर इतना आप न्यायशास्त्र का सामान्य ज्ञान रख लीजिये , फिर हम पर अपने उक्त आक्षेप का विचार कीजिये ।
।। जय श्री राम ।।
No comments:
Post a Comment