हम अद्वैती सबके अपने --------
जैसे मिट्टी का उससे बनाये जाने वाले घड़ों से कोई विरोध नहीं होता , वैसे ही हम अद्वैतियों का द्वैतवादी वैष्णव सम्प्रदायों से कोई विरोध नहीं है ।
#अद्वैतं_परमार्थो_हि #द्वैतं_तद्भेद_उच्यते ।
#तेषामुभयथा_द्वैतं #तेनायं_न_विरुध्यते ।।
एकमेव अद्वितीय आत्मा का कौन अपना विरोधी हो सकता है भला ? सब हम ही में कल्पित हैं, सबके परमाधिष्ठान हम ही हैं । अतः हम. अद्वैतियों को अपनत्व का उपदेश देना सूर्य को दीपक दिखाने तुल्य है ।
वेदत्रयी, सांख्य, योग, पाशुपत मत और वैष्णव मत इत्यादि इन भिन्न, भिन्न प्रस्थानों में से रुचि की विचित्रता के अनुसार कोई एक को श्रेष्ठ और अन्य को कनिष्ठ तप कहेगा !
(पर) सरल, अथवा टेढे मार्ग से जानेवाली सभी नदियाँ, जैसे अंत में समुद्र में जा मिलती है, वैसे हि रुचि वैचित्र्य से भिन्न भिन्न मार्गो का अनुसरण करनेवाले, सभी का अन्तिम स्थान स्वयं भगवान् शंकर ही हैं -
त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।
रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।
।। श्री राम जय राम जय जय राम ।।
No comments:
Post a Comment