हम अद्वैती सबसे महान् -----
कोई कहते हैं हमें तो अपने उपर कोई ईश्वर चाहिये, जो हम पर शासन करे, यही हमारा बढ़प्पन है , यही स्वराज है ।
कोई कहते हैं , हमें तो हमसे नीचे कोई दास चाहिये, जिन पर हम शासन करें, यही हमारा बढ़प्पन है , यही स्वराज है ।
पर हम कहते हैं ----
'आत्मा' को जान लेने के बाद कौन किसका दास बने रहना चाहता है ? और कौन किस पर शासन करेगा?
सेवक हो या स्वामी - दोनों को सेवा विषयक सम्भावित त्रुटि का वास्तविक भय बना रहता है । स्वामी को भय है कि सेवक सेवा से विमुख न हो जाये, और सेवक को भय है कि स्वामी सेवा से असन्तुष्ट न हो जाये ! जहॉ दो हैं, वहॉ तो भय भी है ।
पर हमें तो पूर्णतः अभय चाहिये ।
हमें वस्तुतः ना तो हमारे उपर कोई अन्य ईश्वर चाहिये ना हमारे नीचे कोई अन्य दास , हमें तो ये चाहिये कि हम ही वस्तुतः सब हो जायें, ये जितना भी उपर होना, नीचे होना है, ये भी हम ही से सब कल्पित हो । यही वास्तविक बढ़प्पन है । यही तो असली स्वराज है ।
सर्वत्र हम ही हम हों । इसी में परम सन्तुष्टि है, इसी बढ़प्पन में असली सुख है । इसी अपने स्वराज में परम आनन्द है ।
यो वै भूमा तत् सुखम्, नाल्पे सुखमस्ति,भूमैव सुखम् - यही हमारी विचारधारा है ।
।। जय श्री राम ।।
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