Monday, 27 May 2019

अपनी वेदशाखा का अध्ययन अावश्यक

अपने वेद ऋग्/यजु/साम की जो शाखा अपने पूर्वजों की परम्परा से प्राप्त है, उसी का अध्ययन गुरुमुखोच्चारण अनूच्चारण से प्राप्त करना चाहिए ।  अपनी शाखा का अध्ययन कर वेदान्तर की एक शाखा , जो अपने सूत्रकार  निर्देश करते हैं, उसका अध्ययन करना चाहिये ।

यह अध्ययन संस्कार कर्म कहलाता है । उत्पत्ति , आप्ति, विकृति, संस्कृति  भेद से संस्कार कर्म चार प्रकार के होते हैं । इनमें अध्ययन  आप्ति संस्कार कर्म है ।

'भूतभाव्युपयोगं हि द्रव्यं संस्कारमर्हति ' - जो द्रव्य भूतकाल में उपयुक्त है अथवा भाविकाल में उपयोक्ष्यमाण है , वह संस्कार का अर्ह है - इस न्याय से प्रश्न होता है कि अध्ययन संस्कार से संस्कृत स्वाध्याय का क्या भूत में उपयोग है या भाव्युपयोग है ?

तो भूतोपयोग असम्भव होने से भावि अग्निहोत्र आदि कर्मों में उपयोग माना जाता है ।

और इस प्रकार उपयोग होने पर भी आकांक्षा बनी रहती है कि  कर्मों में उपयुक्त स्वाध्याय  का प्रयोजन क्या है ?  तो अन्ततः स्वीकार करना होगा कि दूसरे प्रमाणों से अनधिगत प्रयोजनवान् जो अर्थ है , उसका ज्ञान ही  प्रयोजन है । 

वैदिक शास्त्र  अनन्त हैं , इसलिये उनका अध्ययन सम्भव नहीं, ऐसा सोचकर  स्वाध्याय से उपरत नहीं होना चाहिये ,  वरन् अपनी शाखा के  वेदाध्ययन में  प्रवृत्त होना चाहिये, ( #स्वाध्यायोsध्येतव्यः   में स्व पद का ग्रहण इसी अभिप्राय से  है )  क्योंकि   वैदिक कर्मों का अनुष्ठान करते समय  स्वशाखागत  मन्त्रों का ही  विनियोग होता है । 

।। श्री राम जय राम जय जय राम ।।

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