अपने वेद ऋग्/यजु/साम की जो शाखा अपने पूर्वजों की परम्परा से प्राप्त है, उसी का अध्ययन गुरुमुखोच्चारण अनूच्चारण से प्राप्त करना चाहिए । अपनी शाखा का अध्ययन कर वेदान्तर की एक शाखा , जो अपने सूत्रकार निर्देश करते हैं, उसका अध्ययन करना चाहिये ।
यह अध्ययन संस्कार कर्म कहलाता है । उत्पत्ति , आप्ति, विकृति, संस्कृति भेद से संस्कार कर्म चार प्रकार के होते हैं । इनमें अध्ययन आप्ति संस्कार कर्म है ।
'भूतभाव्युपयोगं हि द्रव्यं संस्कारमर्हति ' - जो द्रव्य भूतकाल में उपयुक्त है अथवा भाविकाल में उपयोक्ष्यमाण है , वह संस्कार का अर्ह है - इस न्याय से प्रश्न होता है कि अध्ययन संस्कार से संस्कृत स्वाध्याय का क्या भूत में उपयोग है या भाव्युपयोग है ?
तो भूतोपयोग असम्भव होने से भावि अग्निहोत्र आदि कर्मों में उपयोग माना जाता है ।
और इस प्रकार उपयोग होने पर भी आकांक्षा बनी रहती है कि कर्मों में उपयुक्त स्वाध्याय का प्रयोजन क्या है ? तो अन्ततः स्वीकार करना होगा कि दूसरे प्रमाणों से अनधिगत प्रयोजनवान् जो अर्थ है , उसका ज्ञान ही प्रयोजन है ।
वैदिक शास्त्र अनन्त हैं , इसलिये उनका अध्ययन सम्भव नहीं, ऐसा सोचकर स्वाध्याय से उपरत नहीं होना चाहिये , वरन् अपनी शाखा के वेदाध्ययन में प्रवृत्त होना चाहिये, ( #स्वाध्यायोsध्येतव्यः में स्व पद का ग्रहण इसी अभिप्राय से है ) क्योंकि वैदिक कर्मों का अनुष्ठान करते समय स्वशाखागत मन्त्रों का ही विनियोग होता है ।
।। श्री राम जय राम जय जय राम ।।
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