संस्कारविमर्श ८ (पुंसवन)
अनादि सृष्टि परम्परा के रक्षणहेतु परब्रह्म परमात्मा ने अखिल धर्ममूल वेदों को प्रदान किया हैं। अपौरुषेय वेद "श्रुति" हैं और उनपर आधृत धर्मशास्त्र "स्मृति" हैं। श्रुति-स्मृति-पुराणादि के आलय सर्वज्ञ भगवत्पाद श्री शङ्कराचार्यजी ने श्रीमद्भगवद्गीताभाष्य के आरम्भ में स्पष्ट किया हैं कि उस भगवान् ने जगत् की सृष्टि कर प्रवृत्तिलक्षण-धर्म का प्रबोध किया और सनक,सनन्दन,सनातन और सनती कुमारों को उत्पन्न करके ज्ञान,वैराग्यप्रधान निवृत्तिलक्षण-धर्म का मार्ग प्रशस्त किया। ये ही दो वैदिक धर्ममार्ग हैं "( स भगवान् सृष्ट्वा इदं जगत् तस्य च स्थितिं चिकीर्षुः मरीच्यादीन् अग्रे सृष्ट्वा प्रजापतीन् प्रवृत्तिलक्षणं धर्मं ग्राहयामास वेदोक्तम्। ततः अन्यान् च सनकसनन्दनादीन् उत्पाद्य निवृत्तिलक्षणं धर्मं ज्ञानवैराग्यलक्षणं ग्राहयामास। द्विविधो हि वेदोक्तो धर्मः प्रवृत्तिलक्षणो निवृत्तिलक्षणश्च । जगतः स्थिति कारणम्...।। गीता शांकरभाष्य )"
वेदों की संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक , उपनिषद् भागों में प्रवृत्तिलक्षण और निवृत्तिलक्षण धर्मों का विशदीकरण द्रष्टव्य हैं। समुचित व्यवस्था के अभाव में यह सृष्टि सम्पन्न नहीं हुईं हैं। सृष्टि के वैविध्य दृष्टि में रखकर धर्माचरण की व्यवस्था की गयी हैं। प्रवृत्तिलक्षण और निवृत्तिलक्षण धर्म एतदर्थ ही हैं। "(धर्मो रक्षति रक्षितः)" का अर्थ यही हैं कि इहलोक और परलोक के अभ्युदय तथा निःश्रेयस की सिद्धि के लिये वेदोक्त धर्ममार्ग का अनुसरण करना चाहिये। सब के हित को दृष्टि में रखकर वेदोक्त धर्माचरण के निमित्त हमारे आदरणीय ऋषि-मुनियों ने युगानुरूप अथवा देश,काल के अनुसार स्मृति ग्रन्थों के प्रणयनद्वारा सरल और सुबोध रीति से धर्माचरण-विधान को स्पष्ट किया हैं। श्रुत्यर्थ प्रतिपादक ये ही ग्रन्थ धर्मशास्त्र के ग्रन्थ हैं। पुराणों में भी श्रुति-स्मृतिसारभूततत्त्व निहित हैं।
परमेश्वर ने यह सृष्टि क्यों की हैं और इसका रहस्य क्या हैं ? यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता हैं। मनीषियों ने नाना प्रकार से इस प्रश्न का समाधान किया हैं। शिवानन्दलहरी में कहा गया हैं -- "( छंद शार्दूलविक्रिड़ीत/// क्रीडार्थं सृजसि प्रपञ्चमखिलं - क्रीडामृगास्ते जनाः - यत्कर्माचरितं मया च भवतः - प्रीत्यै भवत्येव तत्। शम्भो स्वस्य कुतूहलस्य करणं - मच्चेष्टितं निश्चित्तं - नित्यं मामकरक्षणं पशुपते - कर्तव्यमेव त्वया।।)" अर्थात् हे शम्भो ! अखिल प्रपञ्च यानी जगत् की सृष्टि, तुम अपनी क्रीडा के लिये करते हो एवं यहाँ के लोग तो तुम्हारी क्रीडा के मृग हैं। मुझ से जो कर्म आचरित हैं, वे तुम्हारी प्रीति के लिये ही हैं। मुझ द्वारा जो किया गया हैं, वह तुम्हारे कुतूहल का साधन हैं। अतएव पशुपते ! मेरी नित्य रक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य ही हैं।
जिस सृष्टिकर्ता ने इतनी व्यापक सृष्टि की हैं, क्या वह नहीं जानता कि यहाँ के जीवों को कैसे रखना चाहिये ? इसलिये मनुष्य की सृष्टि उसकी प्रकृति के अनुसार हुई हैं और इहलोक तथा परलोक में श्रेयप्राप्ति की दृष्टि से संस्कारों का विधान निश्चित हुआ हैं।
इन विधानों को कर्तव्य समझना चाहिये। जगत् में जो भी वस्तु हैं , उसका संस्कार उसके सौन्दर्य का अथवा आकर्षण का कारण बनता हैं। प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ मानव संस्कारों से ही समाजयोग्य तथा वर्णों के अधिकृतकर्मों को करने योग्य होता हैं, संस्कारों से उसका आत्मविकास होताहैं और वह लक्ष्यप्राप्ति के पथपर अग्रसर हो सकता हैं। संस्कार माने क्या हैं ? संस्कार तो विहितक्रियाजन्य तथा पापनाशक हैं। स्मृतिकारों ने संस्कार के विषय में कहा हैं "( तत्रात्मशरीरान्यतरनिष्ठो विहितक्रियाजन्योऽतिशयविशेषः संस्कारः। स च द्विविधः, एकस्तावत् कर्मान्तराधिकारेऽनुकूलः, यथोपनयनजन्यो वेदाध्ययनाद्यधिकारापादकः। अपरस्तूत्पन्नदुरितमात्रनाशको यथा बीजगर्भसमुद्भवैनोनिबर्हणो जातकर्मादिजन्यः।।)" अर्थात् संस्कार तो आत्मशरीररान्यतरनिष्ठ विहितक्रियाजन्य अतिशय हैं। वह दो प्रकार का हैं। एक तो दूसरे कर्मों की योग्यता का हेतु हैं, जैसे - उपनयन आदि से प्राप्त होनेवाला संस्कार वेदों के अध्ययन की योग्यता हेतु हैं। दूसरा, जो पाप प्राप्त होता हैं, उसका नाशक हैं। जैसे - जन्मग्रहण करने से पूर्व गर्भ के कारण समुत्पन्न दुरित को दूर करने के लिये किया जानेवाला जातकर्मादि से प्राप्त होनेवाला संस्कार हैं। शास्त्रग्रन्थों में संस्कार की विशेष आवश्यकता बतायी गयी हैं। संस्कार के अभाव में मनुष्य का जन्म व्यर्थ समझा जाता हैं। कहा गया हैं ---> "(संस्काररहिता ये तु तेषां जन्म निरर्थकम्)"। गर्भाधानादि चूडाकरण तक के संस्कारों के फल के विषय में बताया हैं कि बैजिकदोष और गार्भिक दोषों का निरासन होता हैं । जो व्यक्ति वेद की जिस शाखा का अपनी कुल परम्परा से अध्ययन करनेवाला हैं, उसका कर्तव्य होता हैं कि वह पहिले अपनी शाखा का अध्ययन करें। अपनी वेद शाखा का अध्ययन किये बिना दूसरी शाखा का अध्ययन करना उचित नहीं हैं। इसी प्रकार जो जिसका शाखा का गृह्यसूत्र ,श्रौतसूत्र आदि हैं उसको उस सूत्र के अनुसार अनुष्ठान भी सर्वथा कर्तव्य हैं --- अङ्गिरा का कथन हैं स्वगृह्यसूत्र में कथित सभी संस्कार यथोक्त रीति से सम्पन्न करने चाहिये,अन्यथा ऐहिकामुष्मिक फल की प्राप्ति नहीं होती " ( स्वे स्वे गृह्ये यथा प्रोक्तास्तथा संस्कृतयोऽखिलाः। कर्तव्या भूतिकामेन नान्यथा सिद्धिमृच्छति।।अङ्गिरा।।)"
ऋषिमुनियों ने स्वशाखासूत्रत्याग को दोष माना हैं, जान-बूझकर अथवा अज्ञान से जो स्वशाखा सूत्र का परित्यागकर कर्माचरण करता हैं, वह उसके फलका भागी न होकर पतित हो जाता हैं --- "( स्वसूत्रोक्तं परित्यज्य यदन्यत् कुरुते द्विजः। अज्ञानादथवा ज्ञानाद् यत्नेन पतितो भवेत्।।) अतः सभी संस्कारों को अपने अपने गोत्र में कही वेद-शाखा सम्बन्धित गृह्यसूत्रों में निर्दिष्ट पद्धति से ही करना हैं।
पूर्व लेखों में गर्भाधान और गर्भाधान के बाद आचरनेयोग्य आचरणों की चर्चा की थी, अब गर्भ के कौनसे मास में क्या खाना पीना चाहिये यह विचार करने के बाद पुंसवन संस्कार पर विचार करेंगे - गर्भावस्था में शिशु अपने पोषण के लिये माँ पर निर्भर रहता हैं। इस दौरान माँ को सामान्य की अपेक्षा ३०० कैलोरी से अधिक ऊर्जा सेवन करना पड़ता हैं। अतः उसे विशेष ऊर्जा , शक्ति तथा पोषक तत्त्वों की आवश्यकता पड़ती हैं। इस सम्बन्ध में यहाँ सूचित किया जाता हैं -- > दूध, दूध से बने पदार्थ, अखरोट, बादाम, पिस्ता आदि से कैलशियम प्राप्त होता हैं जो भ्रूण की हड्डियाँ एवं दाँतो के विकास के लिये जरूरी पोषकतत्त्व हैं। सूखे फल, हरी पत्तेदार सब्जियाँ,ताजे फल आदि से आयरन प्राप्त होता हैं जो भ्रूण में रक्तकोशिकाओं के निर्माण के लिये बहुत आवश्यक हैं। ताजे फल, हरी सब्जियाँ, भिगौएँ हुए अनाज(अंकुर नहीं), सलाद आदि से विटामिन्स नाल तथा आयरन के शोषण के लिये हैं। हरी पत्तेदार सब्जियाँ, अनाज आदि से फोलिक-एसिड़ जो शिशु के स्नायुतन्त्र के विकास के लिये हैं। अनाज,दालें इत्यादि से जिंक जो बच्चे के ऊतकों के विकास के लिये हैं।
कैलशियम, फास्फोरस तथा विटामिन ड़ी प्राप्त करने के लिये गर्भिणी को चाहिये कि वह सिरपर तौलिया रखकर प्रतिदिन थोड़ी देर तक ताजी धूप लेती रहे। कैलशियम की कमी के कारण बच्चों को सूखा रोग हो जाता हैं तथा उनके दाँत जीवनभर खराब रहते हैं। इसलिये गर्भवती महिला के आहार का विशेष ध्यान रखना चाहिये। (१)पहिले महिने के दौरान सुबह-शाम मिस्री-मिला दूध पीना चाहिये। सुबह नाश्ते में एक चम्मच मख्कन, एक चम्मच पिसी मिस्री और दो-तीन काली मिर्च मिलाकर चाट ले। उसके बाद नारियल की सफेद गिरि के दो-तीन टुकड़े खूब चबा-चबाकर खा ले , और अन्त में पाँच दस ग्राम सौंफ खूब चबा-चबाकर खाये - ध्यान रहे की अष्टमी तिथि में नारियल नहीं खाना हैं । (२) दूसरा महीना शुरू होनेपर रोजाना दस ग्राम शतावरी का बारिक पाउड़र और पिसी मिस्री को दूध में ड़ालकर उबाले। जब दूध थोड़ा गर्म रहे तो इसे घूँट-घूँट करके पी ले। पूरे माह सुबह और रात में सोने से पहिले इसका सेवन करें। (३) तीसरा महीना शुरू होनेपर सुबह-शाम एक प्याला ठंडे किये गये दूध में एक चम्मच शुद्ध देशीगाय का घी और तीन चम्मच शहद घोलकर पीये। इसके अलावा गर्भवती को तीसरे महीने से ही #सोमघृत का सेवन शुरु कर देना चाहिये और आठवे महीने तक जारी रखना चाहिये। (४)चौथे महीने में दूध के साथ मख्कन का सेवन करे। (५) पाँचवे महीने में सुबह-शाम दूध के साथ एक चम्मच शुद्धदेशीगाय के घी का सेवन करें। (६) छठे महीने में भी शतावरी का चूर्ण और पिसी मिस्री डालकर दूध उबाले, थोड़ा ठंडा करके पीये। (७) सातवे महीने में भी छठे महीने की तरह ही दूध पीये, साथ ही सोमघृत का सेवन बराबर करती रहे। (८)आठवे महीने में भी दूध,घी, सोमघृत का सेवन जारी रखना चाहिये। साथ ही शाम को हलका भोजन करें। इस महीने में गर्भवती को अक्सर कब्ज या गैस की शिकायत रहने लगती हैं,इसलिये तरल पदार्थ ज्यादा ले। यदि कब्ज फिर भी रहे तो रात में दूध के साथ एक दो चम्मच ईसबगोल ले। (९) नवें महीने में खान-पान का सेवन आठवे महीने की तरह ही रखे । बस इस महीने में सोमघृत का सेवन बिलकुल बंद कर दे।
कोई भी दवा(सामान्य से सामान्य भी) लेने से पूर्व आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह ले। पूर्व भी चर्चा की थी कि गर्भावस्था के समय आयुर्वेदिक से भिन्न दवाएँ द्विजों के लिये उचित नहीं, इन्हीं दवाओं से बालकों में कुसंस्कारों का प्रत्यारोपण हो जाता हैं अतः - यन्त्रयुग में "जस्ट डा़यल, गुगल आदि पर " आयुर्वेदिक हॉस्पिटल, स्टोर्स" आदि सर्च करने पर आसानी से अपने स्थानीय प्रदेशों में प्राकृत्तिक चिकित्सक प्राप्त हो जायेंगे। शास्त्रो में तो कहा हैं कि अपने घर पर ही प्रसूति करवाना ही उचित हैं क्योकि चारमास की जबतक संतान नहीं होती तबतक बिना गृहनिष्क्रमण संस्कार किएँ सूर्य आदि के प्रकाश में शिशु को लाना चैतन्यात्मक अंङ्गो तथा आखें कमजोर हो जाती हैं, और पूतनादि बालग्रह नामक ऊपरी उपद्रव बालकों के लिये अनिष्टकर्ता माने गये हैं। जातकर्म संस्कार की चर्चा के बाद इन ऊपद्रवों के उपायों की चर्चा करेंगे। गौशाला में जाकर या व्यैक्तिक रूप से प्रतिदिन गायों की सेवा आदि सपर्या करने से गाय माता की कृपा से संतान सम्बन्धित समस्या दूर होती हैं।
वस्तुतः शास्त्रों में वर्णित स्व स्व वेद-शाखानुसार संस्कारविधा के द्वारा यदि माता-पिता अपने बच्चों को सुसंस्कृत करें तो वह बालक वास्तविक मानव बन सकता हैं। वेदविरुद्ध आचरण होनेपर मानव का मानवधर्म निभाना असम्भव हैं। मनुष्य की मनुष्यता वेदानुकूल आचरण करने में ही सिद्ध होती हैं । योगवासिष्ठ का यह श्लोक इस तथ्य को सम्पुष्टि करता हैं-- "(येषां गुणेष्वसन्तोषो रागो येषां श्रुतं सति। सत्यव्यवसिनो ये च ते नराः पशवोऽपरे।।)"
अतः "आचारहीनं न पुनन्तु वेदाः।।देवी भागवत।।" कहने का आशय यह हैं कि आचारहिन व्यक्ति न पवित्र होते हैं और न पवित्र आचरण करते हैं;क्योंकि "(यन्नवे भाजने लग्न संस्कारो नान्यथा भवेत्)" बाल्यावस्था में जो संस्कार प्राप्त होता हैं वह अमिट होता हैं, परंतु आजकल बालकों को गुरुकुल - आश्रमों में भी सुसंस्कार मिलने धीरे धीरे बंद हो रहे हैं, क्योंकि प्रायः आधुनिक पाश्चात्य पद्धति का वातावरण भी बिगड़ता जा रहा हैं, जो अत्यंत दुःख की बात हैं। आज भी यदि वेद विहित आचरण कराये जायँ तो मानव का अभ्युत्थान होना सुनिश्चित हैं। धन-दौलत बढ़ाने से मानव की अभ्युन्नति नहीं होगी। रावण के पास सोने की लङ्का थी, किंतु संस्कारहीन होने से लङ्का का एवं उसके सम्बन्धियों का विनाश हो गया। उसी परिवार में विभीषण कुसंस्कारी था, अतएव उसे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम का सान्निध्य मिला और जब परमप्रभु परमात्मा का सान्निध्य मिल गया तो समझिये कि जीवन कृतकृत्य हो गया तथा प्रभु का अनुग्रह प्राप्त हो गया - सात चिरञ्जीवीयों में आज भी कहीं न कहीं पौलत्स्यकुलतिलक विभिषण विद्यमान हैं, जन्मतिथि के सुअवसर पर मार्कण्डेयपूजन(वर्द्धापन)विधा में आज भी पूजनीय हैं --> "( अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः। कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः॥)"
गर्भाधानातिक्रमण दोष प्रायश्चित्त
हमारे वैदिकसंस्कारों का प्रयोजन हैं पिता के बैजीक और माता के गार्भिक दोषों का निबर्हण । यथा --> "गार्भैर्होमैर्जातकर्म चौडमौञ्जीनिबन्धनैः। *बैजिकं गार्भिकं* चैनो द्विजानामपमृज्यते।। मनुः २/२७।।"" -- इस कारण से विधापूर्वक गर्भाधान न करने में जितना दोषी पिता हैं उतनी ही दोषी "पति को कर्तव्य का भान न कराने में और स्वैच्छिक जातीयसुख भुगतने में पत्नी भी दोषी हैं, पिता यदि इस कर्तव्य से अज्ञानता के कारण संस्कार विमुख होता हैं तो बैजिकदोष और माता के विमुखता के कारण गार्भिकदोष -- साथ में विधिहिन काम्यप्रवृत्ति केवल जातीयसुख की लिप्सा । इस कारणों से भ्रूण में भी धर्मप्रजा का नहीं अपितु कामप्रजा का विकास होता हैं। (वर्तमान द्विजों का वेदाध्ययनादि कर्तव्यविमूढ़ों के लिये उचित - वेद और वेदव्रतातिक्रमण सहित वेद के अतिक्रमण के चान्द्रायण,ब्रह्मचर्यकर्म लोप के लिये चान्द्रायण और वेदव्रतों के अतिक्रमण के लिये एक,एक यथा चारप्राजापत्य तथा , #गर्भाधानातिक्रमण_के_तीनप्राजापत्य --- कुल ४+३ =७ प्राजापत्य और दो चान्द्रायण।। चतुर्वर्ग चिंता०प्राय०खंड ५२५/५२८/५३१/५०७ पृष्ठेषु।।)
#यह_प्रायश्चित्त_कब_करना_चाहिये ?
सामान्यतः स्त्री की ऋतुकाल षोडश रात्रियाँ होती हैं और जबतक स्त्री जन्मराशि से अनुपचयस्थान में आनेवाले चन्द्रमा पर मंगल की दृष्टि का सम्बन्ध नहीं होगा तथा पुरुष की राशि से उपचयस्थ में चन्द्रमा पर गुरु की दृष्टि सम्बन्ध नहीं होगा तबतक गर्भ ठहर नहीं सकेंगा " *( कुजेन्दुहेतु प्रतिमासमार्तवं गते तु पीडर्क्षमनुष्णदीधितौ। अतोऽन्यथास्थे शुभपुंग्रहेक्षिते नरेण संयोगमुपैति कामिनी बृहज्जातक निषेका०४/१।। /// स्त्रीणां गतोऽनुपचयर्क्षमनुष्णरश्मिः संदृश्यते यदि धरातनयेन तासाम्। गर्भग्रहार्तवमुशन्ति तदा न बन्ध्यावृद्धातुराल्पवयसामपि ।।)"* । इसलिये गर्भाधान संस्कार का प्रारंभिक कर्म यथा ( संस्कार के संकल्प पूर्वक , गणपतिपूजन, पुण्याहवाचन,मातृकापूजन, नान्दीश्राद्ध गर्भाधानादि होम) केवल प्रथम समय होता हैं। परंतु गर्भाधान की प्रधान क्रिया का महत्त्व तो तब सार्थक होती हैं कि जब जब संतानोत्पत्ति की कामना से पत्नी के साथ संयोग हो और दैवयोगवशात् गर्भ का आधान हो, इस प्रधान गर्भाधान प्रधान-विधा की क्रिया गर्भाधानांग (१ सूर्यावलोकन, २पत्नी की नाभि-अभिमर्शन,४ संयोग(अभिगमन-क्रिया), तथा पत्नी का ५- हृदयावलम्भन के मंत्रो प्रमुख हैं।) इसे प्रति संयोग समय किया जाय।
इस प्रकार से बिना गर्भाधान-संस्कार के संयोग हो जाय तो दूसरे संयोग से पहिले उचित तीनप्राजापत्य प्रायश्चित्त करना चाहिये। पत्नी को आधा प्रायश्चित्त उचित हैं ।
यह भी संभव न हुआ तो पुंसवन संस्कार से पहिले दोगुना प्रायश्चित्त यथा -- तीन प्राजापत्य के दोगुने छः करना चाहिये,पत्नी को सार्धप्राजापत्य का दोगुना तीनप्राजापत्य करना चाहिये, (कामकृते तद् द्विगुणम्।प्राय०शेखर।।)" //////// "(प्राजापत्य प्रायश्चित्त का पूर्ण पृथक् पृथक् क्रम संभव न हो तो पादकृच्छ्र को चतुर्गुण विधा से करतें हुए भी एक प्राजापत्य पूर्ण होता हैं इस तरह --- द्वितीयादि संयोग से पहिले मूल अथवा असंभवे पुंसवन से पहिले दोगुना प्रायश्चित्त करना चाहिये।
संस्कारों के क्रम में #पुंसवन-संस्कार द्वितीय संस्कार हैं। गर्भस्थ भ्रूण को सत्त्व या आत्मिक बल से करने के लिये होता आया हैं। इस में चन्द्रमा, ओषधि और पुंञ्सज्ञनक्षत्र का प्रभाव के योग द्वारा माङ्गलिक मन्त्रानुष्ठानों से गर्भस्थ भ्रूण को ऊर्जा और तेज प्रदान करने का सुयत्न होता हैं।
"( पुमान् प्रसूयते येन तत् पुंसवनमिति)" - जिस संस्कार के द्वारा निश्चितरूप से पुत्रोत्पत्ति होती हैं, उसे पुंसवन-संस्कार कहा गया हैं। गर्भ से पुत्र उत्पन्न हो, इसलिये पुंसवन- संस्कार का विधान हैं --> "( गर्भाद् भवेच्च पुंसुते पुंस्त्वरूपप्रतिपादनात्।। स्मृति संग्रह)"
आयुर्वेद के विद्वान् वाग्भट्ट ने अष्टाङ्ग-हृदय में इसी संस्कार को पुत्री प्राप्ति करने में भी उपयुक्त माना हैं, अतः मूलतः भ्रूण में संस्कारों का उद्धेश्य जो हैं कि - बैजिक एवं गार्भिकदोष की निवृत्ति हो यह आवश्यक होने से -- शिशु के जन्म से पूर्व १-गर्भाधान, २- पुंसवन और ३ सीमन्तोन्नयन संस्कार आदि वीर्य एवं गर्भ से उत्पन्न दोष नष्ट करने के प्रयोजन में और गर्भ के भी संस्कार माने गये हैं। इसलिये प्रत्येक संतानोत्पत्ति के कारणभूत गर्भाधान, प्रतिगर्भ समय पुंसवन और सीमन्तोन्नयन संस्कार को अवश्य करना चाहिये। "पुंम्" नामक नरक से त्राण करने के कारण ही पुत्र नाम पड़ा। महर्षि मनु ने भी कहा हैं - "( पुत्रेण लोकाञ्जयति पौत्रेणानन्त्यमश्नुते।। मनु ९/१३७)" । पुत्र से लोकों पर विजय और पौत्र से आनन्त्य की प्राप्ति होती हैं। पारस्कर गृह्यसूत्र १/१४/२ पर गदाधरभाष्य हैं कि - गर्भ के कम्पन से पहिले अर्थात् जब पेट में बच्चा कुछ हिलने डुलने लगे, गर्भधारण के प्रथम, दूसरे या तीसरे महीने में यह संस्कार करवाना चाहिये---> "( पुरा गर्भस्पन्दनात् भवतीति हेतोः शुद्धे द्वितीये वा मासे तृतीये वा मासे गर्भाधानाद्भवति प्रथमे मासे वा पूर्णे भवति द्वितीये वा तृतीये वेति।।)"
भाष्यकार गदाधर ने हेमाद्री में कहे यमवचन को उद्धृत करके भी कहा हैं कि प्रथम,द्वितीय अथवा तृतीय मासों में पुष्यप्रभृति किसी पुरुषनक्षत्र का योग जब चन्द्रमा के साथ हो तब गर्भके संस्कार होने के कारण प्रतिगर्भ रहने के उचित समय पर दोहराया जाय ---> "( प्रथमे मासि द्वितीये वा तृतीये वा यदा पुन्नक्षत्रेण चन्द्रमा युक्तः स्यादिति। गर्भसंस्कारत्वात् प्रतिगर्भमावर्तनीयमेतत्।।) इस प्रकार के उचित समय तथा गर्भ के संस्कार विचार को भाष्यकार कर्काचार्य ने भी संपुष्ट किया हैं --" ( गर्भसंस्कार एवायमिति कर्कस्य सम्मतिः। अतस्तद् गर्भसंस्काराद् गर्भं गर्भं प्रयुज्यते।।)"
प्रथम, द्वितीय या तृतीय मास में यदि सम्भव न हो तो केवल संस्कारों का अतिक्रमण न हो इसके लिये भी पारस्कर गृहसूत्र में "पुरा स्पन्दत इति।। १/१४/२।। सूत्र से जब गर्भ कुछ हिलने डुलने लगे तब सीमन्तोन्नयन संस्कार से पूर्व भी करवाना चाहिये इस वचन की पुष्ट्यर्थ भाष्यकार गदाधर ने बृहस्पति के वचन को उद्धृत इस प्रकार से किया हैं - " (एतदेव पुरा गर्भचलनादकृतं यदि। सीमन्तात् प्राक् विधातव्यं स्पन्दितेऽपि बृहस्पतिः।।)"
प्रयोग पारिजात में जातूकर्ण्य का भी वचन इसी प्रकार से ही हैं -"( द्वितीये वा तृतीये वा मासि पुंसवनं भवेत्। व्यक्ते गर्भे भवेत्कार्यं सीमन्तोन्नयन सहाथ वा।।)"
यह संस्कार अष्टांगहृदय के अनुसार गर्भके प्रथममासान्तमें कहा हैं।
"(अव्यक्तः प्रथमेमासि सप्ताहात्कललीभवेत्| गर्भः पुंसवना न्यत्र पूर्वं व्यक्ते: प्रयोजयेत्" अष्टा०ह ३७)"
जिसके पति किसी कारण दूर हो या गर्भाधान के बाद दिवङ्गत हुए हो तो देवर भी पुंसवन संस्कार करवाने में अधिकारी हैं , और यह संस्कार प्रतिगर्भ समय करना चाहिये --> "(कर्त्ता स्याद्देवरस्तस्या यस्याः पत्युरसंभवः| आवर्त्तत इदं कर्म प्रतिगर्भमिति स्थिति:|| बृहदॄचकारिका)"
"(गर्भाधानादि संस्कर्त्ता पतिः श्रेष्ठतमः स्मृतः|| अभावे स्वकुलीनः स्याद्बान्धवोऽन्यत्र गोत्रजः|| ब्राह्मे)" अर्थात् गर्भाधानादिक संस्कार करनेमें पति ही सर्व श्रेष्ठ हैं. परंतु पति उपस्थित न हो तो सभी संस्कार पतिकुल बांधव या गोत्रजको करना चाहिये।
."( मृतो देशान्तरगतो भर्त्ता स्त्री यद्यसंस्कृता| देवरो वा गुरोर्वाऽपि वंश्यो वापि समातरेत्||मदनरत्ने"।)" गर्भाधान के बाद पति का देहांत हुआ हो या देशांतर में हो स्त्रीको पुंसवन-संस्कार न हुए हो तो स्त्रीके देवर, या पतिके कुलगुरु अथवा कुलवंशज द्वारा संस्कार हो सकतें हैं।
हस्त,मूल,श्रवण,पुनर्वसु,मृगशिरा, पुष्य, " (अनूराधान् हविषा वर्धयन्तः)" ऐसी श्रुति होने के कारण अनुराधा पुन्नक्षत्र ही माना गया हैं, इनमेंसे किसी एक रात्रिव्यापक नक्षत्रमें( जो नक्षत्र रात्रिमें चन्द्रोदयके बाद भी हो क्योंकी यह संस्कारका मूलकर्म ओषधि सेचन रात्रिमें हैं( सोम ओषधिनां अधिपतिः) सोम ओषघियोंका स्वामी हैं. इस लिये चन्द्रकी किरणें ओषधिमें सम्मिलित होना प्रभावशाली माना जाता हैं.रिक्ता- ४'८'१४ पर्व और नवमी तिथियों को त्याग करके अन्य तिथिओं में." (मृत्युश्च सौरे स्तनु हानि रिन्दोर्मृतप्रजा पुंसवने बुधस्य| काकी च वन्ध्या भवतीह शुक्रे स्त्री पुत्र लाभो रवि भौम जीवैः" ज्योतिर्निबन्धे वसिष्ठ:)" पुंसवन शनिवारमें करनेसे संकट,सोमवारमें शरीरहानी, बुधवारमें संतानको कष्ट,शुक्रवारमें काकवंध्या,रवि मंगल या गुरुवारमें करनेसे पुत्रलाभ हो ता हैं।
इस मुर्हूतों में जो भी तिथि और नक्षत्र का विचार हुआ हैं वह ओषधि के उपयोग समय रात्रिकाल में होने चाहिये क्योंकि ओषधिसेचन का मुख्य कर्म रात्रिकाल में ही कहा हैं।
यह ओषधिरस ड़ालने का स्व स्व वेद-शाखानुसार मंत्र पुंसवन-संस्कार से पहिले संस्कर्ता अधिकारी को अपनी शाखा के आचार्य से जानकर मुखपाठ कर लेना चाहिये।
#ऋग्वेद की शाखाओं में पुंसवन के साथ अनवलोभन संस्कार का भी साथ में महत्व दीया हैं, यह संस्कार पुंसवन संस्कार का ही अङ्ग माना गया हैं। केवल इतनी ही भिन्न विधा हैं कि ऋग्वेदीयों को " एक यव का दाना और उडिद के दो दानें के साथ गाय के दूध से बने हुएँ दहीं का गर्भिणी प्राशन अर्थात् इन मिश्र द्रव्यों का विधिवत् पुंसवन-पीती हैं। और अनवलोभन संस्कार में प्रजावदाख्य और जीवपुत्रसूक्त द्वय से असगंध,शतावरी आदि की जड़ पीसकर ओषधिकर्म करने के बाद गर्भिणी के हृदय का स्पर्श किया जाता हैं - इस अनवलोभन संस्कार में प्रयुक्त मंत्रो द्वारा भ्रूण को पुंस्त्व की प्राप्ति करवाने के भाव के साथ साथ मृत्वत्सा अर्थात् मरी हुई संतान न हो, दीर्घायु हो और गर्भ के दोष दुर होने की प्रार्थना हैं।
#सामवेद की कौथुमी शाखा में १-मंत्रात्मकपुंसवन और ओषधिसेचनात्मक शृंगाकर्म नामक दो विधियाँ उपलब्ध होती हैं दौनों में से किसी भी एक के अनुसार संस्कार सम्पन्न किये जाते हैं। मंत्रात्मकपुंसवन में केवल पुंस्त्वप्रतिपादक मंत्र से गर्भिणी की नाभि का स्पर्श करने को कहा हैं और शृंगाकर्म नामक पुंसवन में वटवृक्ष को निमंत्रणपूर्वक कोमलकूँपणों को लाकर इसको पीसकर ओषधि का गर्भिणी की नाक में नस्यकर्म होता हैं।
पारस्कर गृह्य सूत्र में शुक्ल-यजुर्वेद माध्यंदिनी शाखा वाले ब्राह्मणों के लिये जो पुंसवन संस्कार कहा हैं - काण्ड १/कण्डिका १४/सूत्र ३ पर गदाधर के भाष्यनुसार पुंसवन के उचित मुर्हूत के दिन गर्भिणी को स्नान तथा उपवास करवाकर सौम्यवस्त्रों को पहनाकर "( आचार्य की उपस्थिति में मार्गदर्शन अनुसार सपत्नीक यजमान को पूर्वाह्णकाल में नान्दीश्राद्ध तक के सभी कर्मों को पूर्ण करकें) बरगद की डाल में लटकतीं जटाओं को और उसके कोमल पत्तों को पानी में पीसकर ( कुछ समय बाईं करवट सुलाकर छती करवाँकर थोडा़ सिर शैयापर से नीचे हो जिससे ओषधिरस नाक में सरलता से चला जाय) उपदिष्ट " हिरण्यगर्भः०० तथा अद्भ्यः०० इत्यादि मंत्रों को पढ़कर गर्भिणी की दाहिनी नाक मे उस ओषधियुक्तजल की दो-चार बूँदे छोड़ देनी चाहिये (और पत्नी को वह ओषधिरस श्वासलेकर पेट में जाने देना चाहिये) ---- "( गर्भिणीमुपवास्यानाशयित्वा आप्लाव्य स्नापयित्वा महते वाससी परिधाप्य च न्यग्रोधो वटस्तस्यावरोहान् अव अधः रोहन्तीति - तथा तान् शुङ्गान् ऊर्ध्वाङ्कुरान् सन्निधानाद्वटस्यैव चकारः समुच्चये हिरण्यगर्भोद्भ्यःसम्भेृत इत्येताभ्यामृग्भ्याम् """आदि ।।)"
वहाँ पारस्करगृह्यसूत्र १/१४ के "(कुशकण्टकं सोमांशुञ्चैके।।)" इस चौथे सूत्र पर भाष्यकार गदाधर और हरिहर का मन्तव्य एक ही हैं कि - कुछ आचार्यों के मत से बरगद की जटाओं और उसके कोमल पत्तों के साथ कुश की जड़ और सोमलता भी पीसनी चाहिये, इस तरह से चार द्रव्य का मिश्रण होगा ---"( कुशकण्टकं कुशमूलं सोमांशुं =सोमलताखण्डं च पिष्यमाणेषु न्यग्रोधावरोहशुङ्गेषु प्रक्षेप मेत्येकया आचार्याः। अस्मिन्पक्षे द्रव्यचतुष्टयस्य पेषणम् ।।गदाधरः।।)
#अथर्ववेद में पुत्र ही उत्पन्न करनेवाले पुंसवन संस्कार का उल्लेख हुअा हैं | पुंसवन-संस्कार का साङ्गोपाङ्गविधान अपने अपने कुल से प्राप्त वेद-शाखा-सूत्रोंनुसार करना चाहिये औषधीवर्ग भी शाखासूत्रों में भिन्न भिन्नरूप से दिये हैं | पुंसवनौषधी किसी भी प्रकार की ग्रहण करें पर विधान स्ववेदशाखानुसार होना आवश्यक हैं | अथर्ववेद में पुंसवन के लिए जो औषधि उपभोग आती रही हैं उसमें अश्वत्थ(पीपल) के सम्बन्ध में कहा हैं ----> *#शमीमश्वत्थ_आरूढ़स्तत्र_पुंसवनं_कृतम् | #तद्वै_पुत्रस्य_वेदनं_तद्_स्त्रीष्वा_भरामसि ||६/११/१||
शमीवृक्ष(छोंकरा)पर उत्पन्न हुआ पीपल पुंसवन (पुत्रोत्पत्ति) करता हैं इसके लिए स्त्री को इसका स्ववेदविधान से सेवन करवाना चाहिए | विशेषरूप गर्भस्थिति के तीसरे महिने से लेकर सेवन करायें जबकि गर्भ में भ्रूण का लिंग बनता हैं | गर्भ स्थापना के दो महिने तक कुछ नहीं कहा जा सकता कि क्या लिंग होगा | गर्भाधान के पूर्व ही खिलाया जाय तो और भी अच्छा हैं पर पुंसवन-संस्कार के दूसरे वा तीसरे महिने में संस्कार करना अनिवार्य ही हैं, तीसरे महीने के बाद व्यर्थ हैं |
क्योंकि--- बलवान पुरुषार्थ देव को भी लांघ जाता हैं --> #बली_पुरुषकारो_हि_दैवमप्यतिवर्तते || अष्टाङ्ग हृ०||
तत्रैव चरकः --> बलवान कर्म दूसरे निर्बल कर्म को व्यर्थ कर देतें हैं ---> #देवं_पुरुषकारेण_दुर्बलं_ह्युपहन्यते | #दैवेन_चेतरत्कर्म_प्रकृष्टेनोपहन्यते ||
अश्वत्थ का पुंसवन के लिए अथर्ववेद में दूसरे रूप में भी प्रयोग किया गया हैं --> #पुमान्_पुंसः_परिजातोऽश्वत्थः_खदिरादधि ||३/६/१||
खैर(जिससे कत्था बनता हैं) वृक्ष के ऊपर चढ़े हुए पीपल के सेवन से भी उसी प्रकार पुत्र उत्पन्न होता हैं | वैसे पीपल में वाजीकरण गुण तो होता ही हैं |
वाग्भट्ट के अष्टाङ्गहृदय शारीरस्थान प्रथम अध्याय के अनुसार - पुष्य नक्षत्र में सोने, चाँदी या लोहे की पूर्णाङ्गोवाली प्रतिमा बनाकर इसको अग्नि में लालवर्ण करके दूध में बुझाकर इस दूध की एक अञ्जलीमात्रा गर्भिणी पियें ( यह प्रयोग जब रात्रिकाल में मुर्हूत न मिलें तो उचित मुर्हूतवाले दिन में उपयोग कर सकतें हैं) - --> "( पुष्ये पुरुषकं हैमं राजतं वाऽथवाऽऽसम्। कृत्वाऽग्निवर्णं निर्वाप्य क्षीरे तस्याञ्जलिं पिबेत्।। ३८।।)"
दूसरा उपाय - श्वेत दण्डो के अपामार्ग(ऑंगा)को जीवक, ऋषभक,झिण्टी(सैर्यक)- इन चार द्रव्यों को पुष्य नक्षत्र में पानी के साथ अलग-अलग या दो-दो अथवा तीन-तीन या चार-चारों द्रव्यों को एकसाथ पीसकर पियें(इस कर्म को रात्रिकाल में करना चाहिये)--- "(गोरदण्डमपामार्गं जीवकर्षभसैर्यकान्। पिबेत् पुष्येण जले पिष्ट्वानेकद्वित्रिसमस्तशः।।३९।।)
उपाय तीसरा - श्वेत कटेरी के मूल को दूध के साथ पीसकर स्त्री स्वयं ही पुत्र की कामना से अपनी दक्षिण नासा में और कन्या की इच्छा से अपनी वाम नासिका में ड़ालें ---> " ( क्षीरेण श्वेतबृहतीमूलं नासापुटे स्वयम्। पुत्रार्थं दक्षिणे सिञ्चेद्वामे दुहितृ वाञ्च्छया।।४००।। ---" मंत्रो यथा - देवकीसुत गोविंद वासुदेव जगत्पते देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणंगतः।।)"
उपाय चौथा - लक्ष्मणा के मूल को दूध के साथ पीसकर कभी तो मुख से और कभी नासा से पीने पर पुत्र की उत्पत्ति एवं पुत्र की स्थिति होती हैं । उपाय पाँचवाँ - बरगद के कोमल आठ अंकुरों को दूध के साथ पीसकर नासा या मुख से पिये --- "( पयसा लक्ष्मणामूलं पुत्रोत्पादस्थिति प्रदम्। नासयाऽऽस्येन वा पीतं वटशुङ्गाष्टकं तथा।।४१।।)"
जहाँ ओषधि का प्रयोग कहा हो वहाँ रात्रिकाल में ही उपाय करें क्योंकि ओषधि के अधिपति चन्द्रमा हैं। यह पाँचो उपायों पुराणोक्तविधा के अनुसार अनुपवीत , व्रात्यो भी "(देवकी सुत गोविंद") आदि मंत्र से कर सकतें हैं , सभी वेद-शाखाओं में विधा भले ही भिन्न भिन्न दी हो परंतु ओषधिकर्म का ही पुंसवन में महत्व हैं इसलिये विधा अपनी अपनी वेद-शाखा के अनुसार करें पुंसवन की ओषधि भले ही कीसी भी प्रकार की ग्रहण के अपनी शाखा में कहे मन्त्र द्वारा ही संस्कार करें।
इस प्रकार ओषधिकर्म के बाद पारस्कर गृह्यसूत्र में १/१४ ""कूर्मपित्तं चोपस्थे कृत्वा"" आदि पाँचवे सूत्र पर भाष्यकार गदाधर का कथन हैं कि गर्भस्थ शिशु का पिता यदि चाहे कि सन्तान शक्तिशाली हो तो जल सहित मिट्टी के पात्र को पत्नी की गोद में रखकर गर्भाशय का अनामिका से स्पर्श करते हुएँ अथवा गर्भाशय पर दृष्टि स्थिर करकें - विकृति छन्द में निबद्ध "सुपर्ण्णोऽसि" इस मन्त्र को प्रारम्भ कर "(व्विष्णोः क्क्रमोसि० इत्यादि १२/५ - १७)" विष्णुमंत्रों से पहिले तक पढ़े --"(स भर्ता यदि कामयेत अयं गर्भो वीर्यवान् शक्तिमान् भवतु तदा स्त्रिया उपस्थे=उत्सङ्गे अङ्के उदपूर्णं शरावं निधाय=मुक्त्वा विकृत्या=विकृतिच्छन्दस्क्या ऋचा एनं गर्भमभिमन्त्रयते = गर्भिण्या उदरं विकृत्या अनामिकाग्रेण स्पृशन् विलोकयित्वा वा मन्त्रों पठतीत्यर्थः।। अनामिका से स्पर्श या स्थिर दृष्टि से अवलोकन करके भी अभिमन्त्रण क्रिया हो सकती हैं --- "( स्पृशंस्त्वनामिकाग्रेण क्वचिदालोकयन्नपि। अनुमन्त्रणीयं सर्वत्र सदैवमनुमन्त्रयेत्।। कात्यायनः।।) सुपर्णोऽसि गरुक्त्मानित्यारभ्य विष्णुक्रममन्त्रेभ्यः प्राक् पूर्वं यावद्विकृतेः परिमाणमित्यर्थः।।गदाधरः।। कुछ आचार्यों के अनुसार कूर्मपितं के अर्थ में काँसे की कटौरी का उपयोग करतें हैं।
*जिस वेद-शाखा के पुंसवन संस्कार में होम कहा हो वहाँ उन उन शाखावालें को उचित शोभन नामक प्रतिष्ठित अग्नि में पके चावलचरु द्रव्य , घृत आदि से होम करकें ओषधिकर्म-पुंसवन सम्पादित करें ।*
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