माता- पिता और संन्यास -------
गुरु से आज्ञा पाकर ही आश्रम के भीतर या बाहर आना- जाना चाहिये , ये धर्ममर्यादा है ।
ब्रह्मचर्य और गृहस्थ : ये दोनों #आश्रम हैं , यहॉ माता- पिता ही ब्राह्मण के गुरुदेव हैं । शास्त्रों ने इन्हें गुरु कहा है , धर्मज्ञ महाराज मनु ने इन्हें साक्षात् अग्नि कहा है तथा वेदों ने स्पष्ट ' देवता' ही बताया है ।
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जो ब्राह्मण अपने गुरु की आज्ञा की अवमानना करके , उनको क्षुब्ध करके इन दो आश्रमों से दूसरे (संन्यास) आश्रम में जाता है, वे पाप का भागी होता है, उसका #संन्यास कभी सफल नहीं होता ।
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यदहरेव विरजेत् ० इत्यादि वचनों का अनर्थ करके कुछ लोग ये अभिप्राय करते हैं कि वैराग्य होने पर घर में झगड़ा -फसाद, छल- प्रपंच करके भी अपने कल्याण के लिये घर से संन्यास में जाओ , ये सरासर अनुचित है ।
शास्त्रीय मर्यादा का अतिक्रमण करके कभी भी आत्मकल्याण नहीं हो सकता ।
आज देश में यत्र तत्र उक्त मर्यादा का उलङ्घन करके ही तथाकथित नामधारी संन्यासी बने दिखाई देते हैं , उनका तो एक ही सत्य है - वस्तुतः वे न घर के रहे हैं , न घाट के ।।
।। जय श्री राम ।।
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