विदेश की धरती के अन्न और जनों से बचें -
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श्री छान्दोग्योपनिषद् में कहा है - भुक्तमन्नं त्रेधा परिणमते अर्थात् खाया हुआ अन्न तीन रूपों में परिणत होता है -
१. स्थूल - मल- पुरीषादि के रूप में ।
२. मध्यम - रक्त, मेदादि के रूप में ।
३. सूक्ष्म- मन के रूप में ।
श्री आद्य शंकराचार्य भगवान् ने मन को भौतिक मानते हुए अन्न का परिणाम स्वीकार किया है । आज जो वैदिक मार्ग अन्धविश्वास कहा जाने लगा है, उसका एकमात्र कारण है - विदेश की धरती का अन्न भोजन ।
यद्यपि मन से उदरपूर्ति तो होती है , किन्तु मन भी प्रभावित होता ही है । जो शिशु मॉ के दूध को न पीकर पाउडर का दूध पीते हैं , उनके हृदय का निर्माण कैसे सम्भव है, निश्चय ही वे हृदयहीन होंगे ।
हम भारतीय हैं तथा भारत हमारा देश है , क्योंकि हमारे अस्थि-पञ्जर ऋषि-महर्षियों , राजा-महाराजाओं तथा गण्य-मान्यों के पवित्र रक्त से बने हैं । वही रक्त प्रत्येक भारतवासी की नस -नस में विद्यमान है ।
जिन पवित्र नदियों की शीतल जलधाराओं में वे स्नान करते थे, जिस धरती से उत्पन्न अन्न , कन्द-मूल, फलादि के द्वारा वे जीवन निर्वाह करते थे, तथा जिसके परिणामस्वरूप उनकी मनोवृत्तियॉ सदैव अच्छे कार्यों में लगा करतीं थीं, उन्हीं नदियों में स्नान करते हुए भी, उसी धरती के अन्न आदि का सेवन करते हुए भी उन्हीं महान् ऋषियों के वंशज यदि आज वेदों को अन्धविश्वास और वैदिक मार्ग को अकर्तव्य समझते हैं, तो उसके पीछे यह विदेशी अन्न एवं विदेशी / विदेशयात्री जनों का संक्रमण ही सबसे प्रधान कारण है ।
विदेशी धरती का दूषित अन्न जिनके ग्रास में है, विदेशयात्री पापिष्ठ कथाकारों की कथाओं के जो श्रोता यजमान बने हैं, विदेशी गीत -संगीत , शिक्षा-दीक्षा, वस्त्र, वाणी आदि जिनके जीवन का अभिन्न अंग बन चुके हैं, उनके माध्यम से वैदिक संस्कृति के उत्थान की बात तो बहुत दूर, आत्मोत्थान की भी परिकल्पना नहीं की जा सकती ।
।। जय श्री राम ।।
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