आपको भ्रमित करने वाली शंका , हमारा समाधान :
#भ्रम - श्रीमद्भागवतानुसार अधर्म विराट् पुरुष की पीठ है , अतः अधर्म का नाश कहना अनुचित है क्योंकि परमात्मा के नाश का प्रसंग है । (पाठक शंका)
#निवारण - अधर्म कहते हैं बुद्धि के भाव को , और धर्म भी बुद्धि का ही भाव होता है । बुद्धि सूक्ष्म शरीर का अवयव है और सूक्ष्म शरीर इस अविद्यात्मक मायिक प्रपंच के अन्तर्गत है ।
नाश कहते हैं कार्य का अपने कारण में लय हो कर अधिष्ठानमात्र का अवशिष्ट रह जाना ।
वस्तुतः परमात्मा निर्विशेष हैं, अरूपवदेव हि तत्प्रधानत्वात् , प्रकाशवच्चावैयर्थ्यात् आह च तन्मात्रम् (ब्र०सू०३।२।१४,१५,१६) इत्यादि सूत्रों में यह वैदिक सिद्धान्त महर्षि वेदव्यास भगवान् ने सुस्पष्ट किया है , इसी कारण वह परमात्मा माया की उपाधि से विराट् , हिरण्यगर्भ अथवा ईश्वर के रूप में वैसे ही व्यवहृत होते हैं, जैसे मानो जल की उपाधि से उसमें प्रतिबिम्बित होने वाला सूर्य ही जल में प्रकाशमान् दिखे । (अत एव चोपमा सूर्यादिवत् - ब्र०सू० ३।२। १८)
ऐसे में अविनाशी परमात्मा के नाश की तो कभी कल्पना भी नहीं हो सकती , अधर्म के नष्ट होने पर भी परमात्मा वैसे ही अविनाशी बने रहते हैं, जैसे खारे जल के सूख जाने पर भी उस जल में प्रतिबिम्बित होने वाले वास्तविक सूर्य का कदापि नाश नहीं होता ।
तरु, गुल्म , लतादि से लेकर स्रोत (नदियॉ), पर्वतादि पर्यन्त सभी विराट् पुरुष के ही देह के भाग हैं , किन्तु आत्मरक्षा के लिये आप इनका भोग करते हो कि नहीं ? करते हो । आपके द्वारा भोग करने से उक्त पदार्थों का नाश होता है कि नहीं । होता है ।
और पुनः अपने ही तर्क से स्वयं ही के प्रति विचार कीजिये , आप देहेन्द्रियप्राणान्तःकरणवान् प्राणी स्वयं कहॉ विराट् पुरुष से पृथक् हो ? तो ऐसे में दुःखदायक अधर्म को त्रिकाल में बाधित कर देने और सुखदायक धर्म की त्रिकाल में सत्ता बनाये रखने का आपका सहज स्वभाव विराट् पुरुष परमात्मा का ही निजी स्वभाव हुआ कि नहीं ! अस्तु ।
अधर्म का अपने कारण रूप महत् में लय हो जाये , और महत् का अविद्या में, वह अविद्या भी रज्जुगत सर्प के रज्जुमात्रैकज्ञान की भॉति निवृत्त हो कर केवल परमात्मा रूप सर्वाधिष्ठान ही अवशेष रह जाये, ये महान् अद्वैत-भावना इस उद्घोष में समाहित है ।
अतः खुलकर कहिये कि -
धर्म की जय हो ! अधर्म का नाश हो !
।। श्री राम जय राम जय जय राम ।।
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