Wednesday, 13 February 2019

भूमिहार कैसे हुए

ब्राह्मण का पतन और उत्थान :--
जो अपनी शाखा के वेद को स्मृति द्वारा बचाकर रखे और उसकी व्यवहारिक विधि का ज्ञाता हो उसे ब्राह्मण कहते हैं | ऐसे ब्राह्मण अब बहुत कम हैं जो वेद का पाठ भी नियमित रूप से करते हैं | अब वेद का लाभ भी नहीं जानते, उसमें सन्देह करते हैं |
अपनी शाखा के बाद अन्य वेद पढ़ने वाले को द्विवेदी, त्रिवेदी और चतुर्वेदी कहते थे | यज्ञ में चतुर्वेदी ही ब्रह्मा बन सकता था | अब वास्तविक चतुर्वेदी कोई नहीं है, केवल नाम के लिए हैं | रामायण आदि का पाठ करने वाले पाठक हुए | मिश्रित ब्राह्मणोचित कर्म वाले 'मिश्र' हैं |
प्राचीन काल में वेद पढ़ाने वाले शिक्षक को उपाध्याय कहते थे  ; (उप) पास नीचे बैठे शिष्य को उसका (स्वशाखा का वेद) अध्याय पढ़ाने वाला |
अपभ्रंश में उसका उपाज्झा > ओझा और झा हो गया, आज से लगभग एक सहस्र वर्ष पूर्व |
काशी विद्वानों के प्रभाव में रही, अतः वहां और आसपास 'उपाध्याय' बना रहा |
बंगाल में इन्हीं शिक्षकों ने आर्य संस्कृति का प्रसार किया और वंदोपाध्याय, चट्टोपाध्याय, गंगोपाध्याय एवं मुखोपाध्याय कहलाये जो वहां आज भी प्रवासी ब्राह्मण माने जाते हैं | उधर अपभ्रंश में झा के बदले जी हो गया, जैसे कि वंदोपाध्याय से बनर्जी | अतः शिक्षक या बुजुर्ग को जी कहने की परिपाटी चली जो हिन्दी क्षेत्र ने भी सीख ली |
बंगाल के स्थानीय ब्राह्मण हैं सान्याल , और ईद जैसे त्यौहारों के इफ्तार में मुसलमानों का जूठा खाने वाले जाति-बहिष्कृत ब्राह्मण बंगाल में "पिराली" कहलाते हैं जिनमें सबसे प्रसिद्ध (कुख्यात) है टैगोर |
प्राचीन काल में देश भर में सारे ब्राह्मण शर्मन आस्पद (surname) धारण करते थे जिससे शर्मा बना, आज भी कर्मकाण्डों में सभी ब्राह्मणों को उपाध्याय, झा, मिश्र, आदि हटाकर  "अमुक शर्मन"  कहना पड़ता है | क्षत्रिय वर्मन कहलाते थे |
जिन ब्राह्मणों ने वेद त्यागकर भूमि ग्रहण (हरण) किया और कृषक या जमीन्दार बने वे भूमिहार कहलाये, यहीं से ब्राह्मणों में एकरूपता टूटी और ब्राह्मणों के भीतर उपजातियां आरम्भ हुई | मध्ययुग में अन्य ब्राह्मणों में भी भूमि वाली बीमारी फैली |
किन्तु 1793 में स्थायी बन्दोबस्त के बाद सभी ब्राह्मण भूमि रखने के लिए विवश हो गए | उस समय तक भारतीय गाँवों में पंचायतें भूमि की मिलकियत रखती थी (जो इतिहासकार नहीं पढ़ाते), किन्तु कॉर्नवॉलिस ने सारी जमीनें छीनकर एक नया जमींदार वर्ग सर्जित किया -- यहीं से ग्रामीण भारत की बर्बादी आरम्भ हुई और ब्राह्मणों का व्यापक पैमाने पर पतन हुआ -- वे पत्नी को पास रखने और कृषक बनने के लिए विवश कर दिए गए, पंचायत के भरोसे जीना और मुफ्त में गाँव को पढ़ाना कठिन हो गया | फिर भी ग्रामीणों के सहयोग के कारण ब्राह्मणों के बिना फीस वाले गुरुकुल चलते रहे रहे जिन्हें बलपूर्वक मैकॉले ने बन्द कराया और संसार के एकमात्र शिक्षित देश को एक ही पीढी में लगभग निरक्षर बना दिया |
अब ब्राह्मणों की कोई भी शाखा वैदिक ब्राह्मण (श्रोत्रिय) नहीं हैं , जो स्वयं को श्रोत्रिय कहते हैं वे भी  कृषि या नौकरी से जुड़े है | कर्म में ऐसी संकरता ही वर्णसंकरता है | अन्य वर्णों में भी ऐसी ही वर्णसंकरता है | किन्तु अध्ययन-अध्यापन से जुड़े रहने के कारण ब्राह्मण का दायित्व समाज को दिशा दिखाना है | फलस्वरूप ब्राह्मण यह बहाना नहीं बना सकते कि सभी वर्णों में संकरता आयी है अतः उनका दोष सबके बराबर है | ब्राह्मणों का दोष बड़ा है क्योंकि वे शिक्षक थे, विराट पुरुष के सिर थे | अतः आज ब्राह्मणों को सबसे अधिक अपमानित होना पड़ रहा है जो उचित ही है | सच कटु भी हो तो स्वीकारना चाहिए, तभी सुधार होगा |
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वैदिक व्याकरण के अनुसार स्वर में परिवर्तन होने से अर्थ बदल जाते हैं, जैसे कि इन्द्रशत्रु में पूर्वपद प्रधान (उदात्त स्वर) हो तो इन्द्र का महत्त्व है,  उत्तरपद प्रधान ओ तो शत्रु का महत्त्व है | अतः अर्थ दो प्रकार के बनेंगे, (1) इन्द्र जिसका शत्रु है उसका अन्य शत्रु = सूर्य, एवं (2) इन्द्र का शत्रु = वृतासुर ; स्वर न समझ पाने के कारण मन्त्र का गलत प्रयोग के कारण वृतासुर मारा गया ऐसी श्रुति है |
प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में भी यह परिघटना लक्षित होती है, यद्यपि पढ़ाई नहीं होती | एक उदाहरण है :--
पूर्वपद की प्रधानता के कारण बंगाल में ब्राह्मण पूजनीय रहे (मुख, वन्द, आदि) किन्तु अपना वेद पहले भूल गए और जमींदार बन गए (वर्णसंकर), किन्तु काशी और मिथिला के अधिकाँश ब्राह्मण उत्तरपद ("अध्याय) के प्राधान्य के कारण अपने "अध्याय"  (वेद की अपनी शाखा) को बहुत बाद तक बचाकर रखने में सफल रहे और मुग़लों  द्वारा ब्राह्मणों को भूमि देकर भ्रष्ट करने के बाद ही जमींदार बने | मिथिला में खण्डवा से आये भील राज्य के पुरोहित महेश ठाकुर के वंश (दरभंगा राज) को अकबर द्वारा जागीरदार बनाने से मिथिला में ब्राह्मणों के जमींदार बनने का आरम्भ हुआ, किन्तु अगले दो-तीन सौ वर्षों के बाद ही इस वंश की इतनी शक्ति बढ़ी कि वह दुसरे ब्राह्मणों को भी अपने रास्ते पर लाने में सफल हुआ | यह एक उदाहरण है पूर्वपद और उत्तरपद की प्रधानता के कारण अर्थ में परिवर्तन का प्रभाव | पश्चिम में कहीं-कहीं "सोशल साइकोलॉजी" और "लिंगविस्टिक साइकोलॉजी" की पढ़ाई भी होती है, किन्तु इतिहास, भाषाविज्ञान, सामाजिक मनोविज्ञान, आदि अनेक विषयों को समेटकर उपरोक्त तरीके से multi-disciplinary अध्ययन का भाषा में उपयोग कोई नहीं करता -- रूचि और योग्यता ही नहीं है |
जबकि सच्चाई यह है कि संसार के हर विषय मूलतः भाषाई विषय हैं -- शब्दों की परिभाषाएं और सहसम्बन्ध ठीक से समझ में आएं तो सारी समस्याएं हल हो जाएंगी -- क्योंकि शब्द ब्रह्म है |
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वर्तमान पीढी अपने जीवनकाल में निम्नोक्त  भविष्यवाणी का आरंभिक साक्ष्य देख लेगी :--
विपरीत खण्डकल्प (उत्सर्पिणी) आरम्भ हो चुका है | जो सुधरेंगे केवल वे ही बचेंगे, शेष को पृथ्वी त्यागना ही पडेगा | धीरे-धीरे पृथ्वी की जनसँख्या घटकर केवल 36 लाख 28 हज़ार 800 रह जायेगी | बारह शती के पश्चात पुनः विकास होगा, सनातन धर्म के शुद्ध नियमों के आधार पर ; सप्तर्षि स्वयं गोत्रों तथा वर्णों की व्यवस्था आरम्भ करेंगे | अन्य कोई सम्प्रदाय नहीं बचेगा | केवल वैदिक मार्ग बचेगा | किन्तु उस नये कालचक्र (अवसर्पिणी) के आरम्भ से ही वैदिक वाममार्ग का दुरुपयोग करने वाले भोगवादी भौतिकवादी असुर भी उत्पन्न होने लगेंगे | वे भी हिन्दू ही होंगे, किन्तु असुर, कंस या जरासंध की तरह , उनके मार्गदर्शक होंगे कौलमार्गी तान्त्रिक ब्राह्मण | संस्कृत एकमात्र भाषा रहेगी |  43,200 वर्षों के एक खण्डकल्प के अंतिम एक हज़ार वर्षों में भारत का पतन होगा, शेष काल में भारतीय संस्कृति का वर्चस्व रहेगा |
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इस्लाम मनुष्य के द्वारा आरम्भ किया गया | वर्ण-व्यवस्था किसी मनुष्य के द्वारा आरम्भ नहीं किया गया, यह सनातन धर्म की नींव है और गीता के अनुसार ईश्वर इसके संस्थापक हैं | ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद में "पुरुषसूक्त" है जिसके अनुसार विराट पुरुष के विभाग ही वर्ण बने, उसी विराट पुरुष को पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने सनातन "राष्ट्र" कहा (हिन्दू राष्ट्र) जो मनुष्यों के समूह से नहीं बनता बल्कि स्वयं एक जीवन्त प्राणी है और अनश्वर है ! हिन्दू राष्ट्र न तो कभी पैदा होता है और न कभी नष्ट होता है, सृष्टि के प्रकट होने पर यह प्रकट होता है और महाप्रलय होने पर सुषुप्ति में चला जाता है, अगले कल्प में पुनः प्रकट होने के लिए |
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महाभारत में अष्टावक्र का वचन है -- ब्राह्मण में जो ज्ञानवान वह श्रेष्ठ, क्षत्रिय में बलवान श्रेष्ठ, वैश्यों में धनवान श्रेष्ठ, और शूद्रों में आयु में ज्येष्ठ होने वाला श्रेष्ठ |
प्राचीन युग में ब्राह्मण की श्रेष्ठता का निर्णय शास्त्रार्थ द्वारा ज्ञान के आधार पर होता था | सामंतवादी युग में जातीय आधार पर समाज बँटा और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता भी अनुवांशिक आधार पर होने लगा -- पचास पुश्त पहले पूर्वज विद्वान थे अतः मैं श्रेष्ठ हूँ --  भले ही भैंस चराते-चराते बुद्धि भैंस की हो गयी और कुत्तों के बीच रहने से संस्कार कुत्तों के !! ऊपर से नौकरी में "आरच्छन" भी चाहिए !!
जिनके मुख में वेद का वास था और श्रद्धा से लोग जिन्हें भूदेव कहते थे, जिनके मुख से निकली बात ब्रह्मवाक्य मानी जाती थी, आज उनके मुख से माँ-बहन की गालियाँ निकलती हैं !!
"एकरूपता टूटी" --- इसका गोत्र से कोई सम्बन्ध नहीं है, यह सामंतवादी युग में क्षेत्रीय आधार पर ब्राह्मणों के विभाजन का उल्लेख है, जब ब्राह्मण भूमि से बंध गए |
गोत्र सात ही थे, उनके ही विभाजन से अन्य गोत्र बाद में बने | ऋषि कभी नहीं मरते, अतः गोत्र का प्रभाव डीएनए और संस्कार से कभी नष्ट नहीं होता, यही कारण है कि समगोत्री विवाह वर्जित था | किन्तु नेहरू और अम्बेडकर ने समगोत्री विवाह को कानूनन मान्यता दे दी क्योंकि नास्तिकों को ऋषियों का महत्त्व पता नहीं रहता | गोत्र जन्मना है, उपाधियां कर्म पर हैं |

जय श्री राम

Wednesday, 6 February 2019

गोमुखप्रसवशान्ति प्रयोग

पुराणोक्त गोमुखप्रसवशांति प्रयोगः -- सपत्नीको यजमानः प्राङ्गमुख उपविश्य, देवब्राह्मणान् नमस्कृत्य, सुमुखश्चेत्यादि पठित्वा, देशकालौ संकीर्त्य- अस्य(अस्याः) बालकस्य(बालिकायाः) "अमुक" उत्पत्ति सूचितारिष्टशान्त्यर्थं गोमुखप्रसवशांतिं करिष्ये। तत्रादौ गणपतिपूजनमाचार्यवरणं च करिष्ये। तत आचार्यः - श्वेतचूर्णैः गृहाद्बहिरीशानदिग्भागे पद्मं(अष्टदलं)कृत्वा तत्र व्रीहिराशिं कृत्वा, तत्र वंशनिर्मितशूर्पं स्थापयित्वा ,शूर्पे रक्तवस्त्रं प्रसार्य तत्र तिलान् विकीर्य, शूर्पे प्राङ्गमुखं शिशुं निधाय सूत्रेण सशिशुं शूर्पं वेष्टयित्वा शिशुसमीपे गोमुखमानीय(गाय को लाकर , गायके मुख को शिशु के अभिमुख करे)प्रसवं विभाव्य (गाय के मुख से शिशु का प्रसव हुआ ऐसी कल्पना करे)
ततो गां सर्वांगेषु वामाङ्गेषु वा स्पृष्ट्वा पठेत् - "गवामंगेषु तिष्ठन्ति भुवनानि चतुर्दश।यस्मात् तस्माच्छिवं मे स्यादिहलोके परत्र च।।" तत आचार्यः शिशुमादाय "मात्रे" दद्यात्, ततो मात्रा पित्रे दद्यात्, पिता मात्रे दद्यात्, ततः पिता वस्त्रमुद्घाट्य शिशुमुखमीक्षेत् , तत आचार्यः कृत पञ्चगव्येन "अपवित्रः पित्रे वा०" इति मन्त्रेण शिशुमभिषिंचेत्, ततः पिता त्रिवारं शिशुं मूर्धनि जिघ्रेत्, ततो ब्राह्मणैः पञ्चवाक्यैः पुण्याहं वाचयेत्, भो ब्राह्मणाः अस्य कर्मणः पुण्याहं, कल्याणं,ऋद्धिं, स्वस्तिं, श्रीरस्तु इत्यादि ब्रूयुः, तत आचार्याय गां वा गोरभावे निष्कं तदर्द्धं पादमेव वा सुवर्णं रजतं वा दद्यात् --(१ निष्क=८०रत्ती, ८०रत्ती=४०ग्राम, तदर्द्धम् - २०ग्राम, पादम्=१०ग्राम)
स्थंडिलोपरि अग्निं संस्थाप्य, "(अधिप्रत्यधिदेवता रहितानाम्)-केवल सूर्यादिनवग्रहाणां स्थापनं कृत्वा, यथाशक्त्या पूजनं कुर्यात्, ततो अग्नेरीशान्यां पीठोपरि श्वेतवस्त्रं प्रसार्य तदुपरि तंडुलेनाष्टदलं निर्माय, मध्ये " विश्वाधारासित्यादिना कलशं संस्थाप्य," तस्मिन् कलशे पञ्चगव्यं , तिलान्, अश्वत्थवटोदुम्बरवृक्षाणां क्वाथितं जलं क्षिप्त्वा, वस्त्रयुग्मेन वेष्टयित्वा, तदुपरि कृताग्नुत्तारणपूर्वकं विष्णोः,वरुणस्य यक्ष्मणश्च मूर्तित्रयं संस्थाप्य, नाममंत्रेणावाह्य , विष्णवाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः इति यथाशक्त्या पूजनं कुर्यात्। चरुवर्जं ब्रह्मासनाद्याज्यभागान्तं कृत्वा - यजमानः द्रव्यत्याग संकल्पं कुर्यात् - इमानि सम्पादितानि मिलित दधिमध्वाज्यद्रव्याणि या या यक्ष्माण देवताः ताभ्यस्ताभ्यो ब्राह्मण द्वारा परित्यक्तं न मम।।
ब्राह्मणत्रय द्वारा- मिलित दधिमध्वाज्यैः विष्णुं सकृत् अपश्चतुर्वारं यक्ष्माणमष्टवारं नाममन्त्रैः "(ह्रीं विष्णवे स्वाहा १, ह्रीं वरुणाय स्वाहा ४, ह्रीं यक्ष्मणे स्वाहा ८)"  होमं कुर्यात् - यजमानः भाण्डे जलं त्यजेत् - इदं अमुकाय न मम"
ततो ग्रहमंत्रैश्चैकैकाहुतिं दधिमध्वाज्येन जुहुयात्, स्विष्टकृन्नवाहुतीः - "(हुत शेषेण - ह्रीं अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा-इदमग्नये स्विष्टकृते न मम, ह्रीं अग्नये स्वाहा-इदं अग्नये न मम, ह्रीं वायवे स्वाहा-इदं वायवे न मम, ह्रीं सूर्याय स्वाहा-इदं सूर्याय न मम, ह्रीं अग्निवरुणाभ्यां स्वाहा- इदमग्निवरुणाभ्यां न मम, पुनः
ह्रीं अग्निवरुणाभ्यां स्वाहा- इदमग्निवरुणाभ्यां न मम, ह्रीं अग्नये अयसे स्वाहा- इदमग्नये अयसे न मम, ह्रीं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्योदेवेभ्यः मरुद्भ्यः स्वर्क्केभ्यश्च स्वाहा- इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्योदेवेभ्यः मरुद्भ्यः स्वर्क्केभ्यश्च न मम, ह्रीं वरुणायादित्यादितये च स्वाहा- इदं वरुणायादित्यादितये च न मम, मनसा- ह्रीं प्रजापतये स्वाहा-इदं प्रजापतये न मम)"
संस्रवप्राशनं पवित्राभ्यां जलेन मार्जनं , अग्नौ पवित्रप्रतिपत्तिः ब्रह्मणे पूर्णपात्रदानम् (४०मुष्टि तंडुल)- "ब्रह्मन् इदं पूर्णपात्रं तुभ्यमहं सम्प्रददे न मम",

प्रणीताविमोकोदकेन मार्जनं ब्राह्मणभोजन पर्याप्तामान्नदान संकल्पं कुर्यात् - " ब्राह्मणभोजनपर्याप्तामान्नं द्विगुणं त्रिभ्योधिकेभ्यः ब्राह्मणेभ्यः सदक्षिणाकमहं सम्प्रददे न मम ", देवताविसर्जनमग्नेश्च - " यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय पार्थिव। इष्टकाम प्रसिद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च।। गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ स्वस्थाने परमेश्वर। यत्र ब्रह्मादयो देवा तत्र गच्छ हुताशन।।

हेमाद्री---> "(स्वजातिं प्रसवं त्यक्त्वा अन्यनारी प्रसूयते। तदा प्रभृत्यसौधेनुः सर्वपापविवर्द्धिनी। तस्मादेनां द्विजोधृत्वा सद्यः पातित्यमर्हसि।मृतो नरकमाप्नोति पुलिन्देष्वभिजायते।। *तस्योपनयनं भूयः* कार्यों चान्द्रायणत्रयम्।एषा निष्कृतिरस्येह नाऽन्यथाशुद्धिरिष्यते।। इति गोमुखजनन धेनुप्रतिग्रह प्रायश्चित्त।।

उपनयनाधिकारी क: ?

#अष्टवर्षं_ब्राह्मणमुपनयेद्गर्भाष्टमे_वैकादशवर्षं_राजन्यं ..... ।
             इत्यादिभि: शास्त्रवचनै: ब्रह्मक्षत्रविशाञ्चोपनयनकालो विहित:।          
        ननु तपश्रुताभ्यां हीनस्य शिशो: "ब्राह्मणोsयं" इति कथनं प्रमादमात्रमेव। कथमत्र विहितकर्महीनस्य अयं ब्राह्मण: क्षत्रिय: वेति निर्णय: ? तस्माज्जन्मना सर्वेषां शूद्रत्वमिति कल्पनं वरम्। न तु ब्राह्मणादिकल्पनम्। अपि च "ब्रह्म जानातीति ब्राह्मण:" इत्यनेन यो ब्रह्म जानाति सो ब्राह्मण: इति सिद्ध्यति।
      इति चेत् न। अष्टवर्षं....इत्यादिशास्त्रवचने ब्राह्मणादिपदेन ब्राह्मणदम्पत्यो: उपनेतुं योग्य: पुत्रो गृह्यते। एवं क्षत्रियादिपदेनापि बोध्यम्।

#ब्राह्मण्यां_ब्राह्मणाज्जातो_ब्राह्मण: #स्यान्न_संशय:। इति
      _____महा.अनु.पर्व -४७/२८

तप: श्रुताभ्यां हीनोsपि ब्राह्मणाज्जात: ब्राह्मण: इति कथनं न प्रामादिकम्। यत: तप:श्रुताभ्यां यो हीन: सो जातिब्राह्मण एव भवति। यदाह भगवान् पतञ्जलि: :--

#तप:#श्रुतञ्च_योनिश्चेत्येतद्_ब्राह्मणकारणम्।
#तप:#श्रुताभ्यां_यो_हीनो_जातिब्राह्मण_एव_स:।।
                  ____पा.भा.२/२/६,५/१/११५
    चेज्जन्मना शूद्रत्वं भवदूक्तदिशा कल्पयेत्तर्हि अष्टवर्षं....... इत्यादिशास्त्रवचनानां वैयर्थ्यापत्ति:। अतो व्यर्थमिदं स्वमतपोषकपरं कपोलकल्पनं व:।
#ब्रह्म_जानाति_ब्रह्मज्ञ: न तु ब्राह्मण:। इत्यलं भ्रमोच्छेदेन। शम्

जय श्री राम।।

Tuesday, 5 February 2019

ब्राह्मण के १२ मुख्य वातें

प्रत्येक सनातनधर्मलम्बी को अपनी कुल परम्परा का सम्पूर्ण परिचय निम्न  ११ (एकादश) बिन्दुओं के माध्यम से ज्ञात होना चाहिए -

[१ ]  गोत्र ।

[२ ]  प्रवर ।

[३ ]  वेद ।

[४]  उपवेद ।

[५]  शाखा ।

[६]  सूत्र ।

[७]  छन्द ।

[८]  शिखा ।

[९]  पाद  ।

[१०]  देवता ।

[११]  द्वार ।

  [१] गोत्र - गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषिकुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है । किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया । इन गोत्रों के मूल ऋषि – विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। इन गोत्रों के अनुसार इकाई को । इस प्रकार कालांतर में ब्राह्मणो की संख्या बढ़ते जाने पर पक्ष ओर शाखाये बनाई गई । इस तरह इन सप्त ऋषियों पश्चात उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों के नामो से अन्य गोत्रों का नामकरण हुआ यथा पाराशर गोत्र वशिष्ट गोत्र से ही संबंधित है।

[२ ] प्रवर -

प्रवर का अर्थ हे 'श्रेष्ठ" । अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें । अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। इसका अर्थ है कि आपके कुल में आपके गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर तीन अथवा पाँच आदि अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे ।

[३ ] वेद -

वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने लाभ किया है , इनको सुनकर  कंठस्थ किया जाता है , इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं। प्रत्येक  का अपना एक विशिष्ट वेद होता है , जिसे वह अध्ययन -अध्यापन करता है ।

[४] उपवेद -

प्रत्येक वेद  से  सम्बद्ध  विशिष्ट  उपवेद  का  भी  ज्ञान  होना  चाहिये  ।

[५]  शाखा -

वेदो के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है , कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।

[६]  सूत्र -

प्रत्येक वेद के अपने 2 प्रकार के सूत्र हैं।श्रौत सूत्र और ग्राह्य सूत्र।यथा  शुक्ल यजुर्वेद का कात्यायन श्रौत सूत्र और पारस्कर ग्राह्य सूत्र है।

[७]  छन्द  -

उक्तानुसार ही प्रत्येक ब्राह्मण को  अपने परम्परासम्मत   छन्द का  भी  ज्ञान  होना  चाहिए  ।

[८]  शिखा -

अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बांधने  की परम्परा शिखा कहलाती है ।

[९]  पाद -

अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं । ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है । अपने -अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं ।

[१०]  देवता - 

प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते है वही उनका कुल देवता  विष्णु, शिव , दुर्गा ,सूर्य इत्यादि  देवों में से कोई एक ] उनके आराध्‍य देव है ।

[११]  द्वार - 

यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता )  जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार या दिशा  कही जाती है।

Friday, 1 February 2019

विदेशयात्रा निषेध

मुदित मित्तल भ्रमोच्छेदन -

#आक्षेप : 

सनातन धर्म में विदेशयात्रा गमन
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सनातन धर्म के सभी शास्त्रों में भारतभूमि को साक्षात देवभूमि माना गया है, जहाँ ईश्वर के अवतार हुए, असंख्य ऋषि मुनि, तपस्वी हुए। समस्त शास्त्र जहाँ प्रकट हुए। इस भारतभूमि पर जन्म अनेक पुण्यों के फलस्वरूप कहा गया है जहाँ देवता भी आने को लालायित रहते हैं। इसका कारण है कि भारत की पवित्र भूमि पर वैदिक कर्म सर्वाधिक सुलभ होता है, यहाँ वर्णाश्रम का पालन होता है, यहाँ यज्ञ होते हैं, यहाँ साधु संतों का सान्निध्य होता है, यहाँ उत्तम मूल्य, धर्म पुण्य होते हैं, यहाँ कण कण में देवताओं का वास, गौमाता की पूजा, गंगा की धारा, गायत्री का पाठ, काशी मथुरा अयोध्या जैसे तीर्थ होते हैं। इसलिए यहाँ जन्म लेने वाला अपना सहज उद्धार करने में बहुत सक्षम होता है। जबकि भारतबाह्य विश्व की अथाह भूमि पर मलेच्छत्व होता है, धर्म नहीं होता इसलिए वहाँ जन्म लेने वाले में धर्म का स्फुरण अत्यंत कठिन होता है।

500 ईसापूर्व से शुरू हुए बौद्धों के उदय से पूर्व समस्त भूमण्डल पर किसी न किसी रूप में सनातन संस्कृति रही थी। बौद्धों के उदय के बाद एक ऐसी अपसंस्कृति का जन्म हुआ जिसने विश्वभर में वेदधर्म का अवमूल्यन शुरू किया। वैदिकता से, यज्ञों से, शाश्वत धर्म से, देवताओं से संस्कृतियों को विलग किया। बौद्धों ने तंत्र के साथ खिलवाड़ करके वज्रयान जैसे व्यभिचारी पंथ बनाए और समाज को आसुर मनोवृत्तियों की ओर मोड़ा। ऐसी स्थिति में भगवान आद्य शंकराचार्य का प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने बौद्धों को खदेड़कर भारत की मुख्यभूमि से अलग करके सुदूर अफगानिस्तान, तिब्बत, ताजीकिस्तान आदि में खदेड़ दिया। व बहुसंख्य बौद्ध बन चुके भारत में पुनः वेदधर्म की स्थापना की। इस समय कठिनता से स्थापित हुई वैदिक मर्यादा को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए कई नियम बनाए गए। उनमें से एक था "विदेशयात्रा गमन निषेध"। विदेशगमन निषेध का कारण यह था कि वैदिकधर्मी फिर से मलेछों के संसर्ग में न आएं और उनका धर्म भ्रष्ट न हो। इस नियम में समुद्र पार करने को निषेध किया गया। क्योंकि ज्यादातर मलेच्छ देशों में समुद्रयात्रा करके ही जाया जा सकता था।

विदेशगमन निषेध मुख्यतया द्विजों पर लगाया गया क्योंकि विदेश जाने से द्विजत्व की हानि की बहुत संभावना होती है जो हम आज भी स्पष्टता से देख सकते हैं। विदेश में पूजापाठ, यज्ञ हेतु उचित द्रव्य मिलना उस समय सुलभ नहीं था। आज भी विदेश जाने पर खानपान में मुश्किल होती है खासकर शाकाहारियों के लिए और मजबूरी के कारण कई को अखाद्य खाना पड़ जाता है। मलेछों से संसर्ग के कारण उनमें अनेक दोष आने की संभावना होती है। धर्म के प्रति निष्ठा डगमगा सकती है। आदि आदि। इन सब कारणों से विदेशगमन निषेध किया गया जो तात्कालिक परिस्थितियों को देखते हुए एक आवश्यक निर्णय था। जो स्वयं पर आवश्यक अंकुश रखने में अक्षम हैं, राज्य व धर्म को उनपर नियम का अंकुश लगाना पड़ता है।

पर विदेशयात्रा गमन कभी भी धर्मप्रचार, व्यापार या युद्ध हेतु भारत में प्रतिबंधित नहीं था। इतिहास उठाकर देखें तो लगभग ईसा के समकाल में भारत से ही कौण्डिन्य ब्राह्मण दक्षिणपूर्वी एशिया के कम्बोडिया वियतनाम आदि देशों में गए और वहां महान हिन्दू चंपा साम्राज्य की स्थापना की। इसी कालखंड में आसुरी यहूदी मजहब में आमूलचूल सुधार करने वाले ईसा मसीह के जन्म की भविष्यवाणी करने सम्राट विक्रमादित्य के दरबार से 3 ज्योतिषी येरुशलम तक गए थे जिसका जिक्र बाइबिल में भी आया है। विश्वव्यापार में भारत के वैश्यों की धाक हमेशा से ही रही है और विश्वभर में जाकर वे व्यापार करते थे। ईसापूर्व 300-400 से पहले चन्द्रगुप्त के ऐतिहासिक काल से ही हिन्दूराष्ट्र की वाणिज्य नौका और रणनौका दूर दूर के विदेशों तक अव्यवहत रूप से जाया आया करती थी। हिंदू राष्ट्र के लिये सागर तो एक सड़क बनी हुई थी। एक जगह सीमित होकर कभी भी व्यापार नहीं बढ़ सकता इसलिए मध्यकाल में तुर्की पर इस्लामी आधिपत्य के बाद यूरोप का भारत से व्यापार बन्द हो गया तो वे दूसरे रास्ते खोजने लगे।

चोल वंश के राजा राजेन्द्र प्रथम ने नौसेना के बल पर समुद्र मार्ग द्वारा ही मलाया, सुमात्रा, जावा, बाली आदि द्वीपों पर विजय प्राप्त की थी। इस पूर्व समुद्र में से मगध, आध्र, पाण्ड्य, चेर, चोल आदि हिंदूराज्यों ने बड़े बड़े दिग्विजयी जहाज (बेड़े) भेजकर सयाम, जावा, बोर्नियो से फिलीपींस तक हिंदू उपनिवेश, राज्य, धर्म और संस्कृति स्थापित की थी। इंडोचाइना और फिलीपींस में हिंदुराज्य स्थापित थे। इसके अकाट्य ताम्रपट शिलालेख प्राप्त हैं। वैदिक क्षत्रियवंशीय हिन्दूओं के वहाँ स्थापे हुए उपनिवेशों को दिए हुए नाम, शिव, विष्णु आदि देवताओं के भीषण मन्दिर, वेद, मनुस्मृति आदि संस्कृत ग्रन्थों के ग्रन्थालय, हिन्दू वाणिज्य, कला, संस्कृति आदि, सयाम, जावा, म्यांमार, चाइना, बाली से फिलीपींस तक सदियों तक पूर्ण विकसित अवस्था में थे। यह निर्मल इतिहास है।

हिंदूओं के त्रिविक्रमशील चरण पूर्व पश्चिम दक्षिण समुद्रों और महासागरों को लांघकर, राजकीय, धार्मिक, सामाजिक, दिग्विजय करते हुए हिंदुओं के महासाम्राज्य निनादित करते चला करते थे। हिंदू रणतरियों के प्रचण्ड नौसाधन दिग्दिगन्त में अप्रतिहत रूप से संचार किया करते थे। इससे साबित होता है कि विदेशयात्रा निषेध केवल देश काल परिस्थिति सापेक्ष नियम था।

विदेशयात्रा निषेध का कोई भी स्पष्ट श्रुति या स्मृति प्रमाण उपलब्ध नहीं है। भगवान शंकराचार्य आदि आचार्यों ने तात्कालिक परिस्थितियों की आवश्यकता समझकर वैदिक धर्म की रक्षा हेतु इसे निषेध किया। यदि आज भगवान आदि शंकराचार्य होते तो समस्त विश्व में अप्रतिहत विचरण करके सनातन धर्म का डिंडिम घोष करके हिन्दू विश्व का निर्माण करते। वेद का स्पष्ट आदेश है "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्" सारे विश्व को आर्य बनाओ। यह कौण्डिन्य ब्राह्मण जैसे विदेश में वैदिक धर्म प्रवर्तन करके ही हो सकता है। आज के समय में विदेश में व्यक्ति चाहे तो धर्म/द्विजत्व व मर्यादा की रक्षा के सम्पूर्ण साधन हैं। पहले जैसी कठिनाई नहीं है। और जिसे नहीं करनी हो वह तो भारत में भी मलेच्छ जैसा आचरण करते हैं। पर धर्म के लिए विदेशगमन के नाम पर कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तिविशेषों को अपना वह आचार भ्रष्ट नहीं करना चाहिए जो विदेश में पूरा  न हो सके और यहाँ करना अनिवार्य हो। परमहंस योगानंद, स्वामी विवेकानंद, महर्षि महेश योगी, स्वामी श्री प्रभुपाद, स्वामी शिवानंद, स्वामी चिन्मयानंद, स्वामीनारायण आदि महात्माओं ने सम्पूर्ण विश्व में सनातन धर्म का डिंडिम घोष किया और आज लाखों नहीं करोड़ों विदेशी हिन्दू धर्म के छत्र के नीचे आ चुके हैं।

ईसाई मुसलमान आदि अंडमान के वीभत्स सेंटिनल द्वीप में प्राणों की बाजी लगाकर भी अपने धर्म का प्रचार करना चाह रहे हैं और यहां कुछ लोग विदेशगमन निषेध की बातें कर पाषाणकाल लाना चाह रहे हैं। विश्वभर में धर्मप्रचार वेदादेश है। विद्वान, सन्त को चाहिए कि प्रजा को मार्गदर्शन कराए। विधर्म में कोई जा न पाए, न स्वधर्म में लौटने में कोई परेशानी आए। आपद्धर्म को जो विद्वान नहीं समझता वह राष्ट्र और समाज का शत्रु है। मलेच्छों व नियम धर्महीनों के संसर्गजनित दोष से बचाने हेतु विदेशगमन निषेध हुआ पर आज विदेश में भी हिन्दू साधकों भक्तों के संघ उपलब्ध हैं। आज भव्य हिन्दू मन्दिरों पर भगवा पताकाएं विश्वगगन में लहरा रही हैं। और धीरे धीरे यह विश्व, हिंदू विश्व बनने की ओर बढ़ता जा रहा है जहाँ एक सनातन धर्म का साम्राज्य होगा और विदेश कहने लायक कोई भूमि नहीं बचेगी।

जय हिन्दूराष्ट्र
जय हिन्दूविश्व
जय श्री राम

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-----------विदेशयात्रावाद- विभञ्जनम् -------

#भ्रमोच्छेदन -   आरम्भ  की तेरह - चौदह पंक्तियों तक कोई भी आपत्ति पूर्व पक्षी की ओर से विदेश यात्रा पर नहीं प्रदर्शित की गई अतः आरम्भ की १४  पंक्तियां लगभग किसी भी प्रकार से विदेश गमन को शास्त्रीय सिद्ध नहीं करती । वरन्  जिस तरह का भारतभूमि का पूर्वपक्षी ने महिमागान किया है, वह उल्टा उस विदेशयात्रासमर्थन  पर संशय ही प्रकट करती हैं ।

उसके पश्चात् ४३ पंक्तियों पंक्तियों में  मात्र   ५०० ईसा पूर्व से ४०० ईसवी के आसपास का इतिहास दर्शाने का प्रयास  इस रूप में किया गया है कि तत्काल में  होती थी ,
वेद स्मृति सिद्धान्त  विरुद्ध ऐतिहासिक घटनाएं धर्म में प्रमाण न होने से ये भी  सब व्यर्थ प्रलाप मात्र  है ।

उसके पश्चात् ये  स्वाध्यायहीन कथन किया गया है कि श्रुति स्मृति में कहीं भी विदेशयात्रा  का वर्णन  नहीं है ।

जबकि  हमारे वेदों - शास्त्रों  में वर्णित  डिण्डिम घोष के साथ समुद्रपारम्लेच्छदेश गमन का निषेध  किया गया है  । किसी भी शुद्ध कुलीन ब्राह्मण को कभी भी म्लेच्छ देशों की समुद्रपार यात्रा कर  सनातन वैदिक धर्म की धज्जियॉ नहीं उड़ानी चाहिये , इसे पापकर्म बताया गया है  किन्तु  एक से बढ कर एक ये आधुनिक  कथित धर्माचार्य   समुद्रोल्लङ्घन कर  म्लेच्छ देशों में डिण्डिम कर  आये , और अब भी  सनातनधर्मनाश का ये  क्रम अनवरत  चल रहा है ।

क्या  ऐसे लोग #आचार्य कहाने लायक हैं ?

देखें प्रमाण --->

(क) वेदे म्लेच्छदेशगमननिषेधाे यथा-

न जनमियान् नान्तमियात् ।(माध्यन्दिनीयवाजसनेयिशुक्लयजुर्वेदशतपथब्राह्मणे १४।४।१।११,
काण्ववाजसनेयिशुक्लयजुर्वेदशतपथब्राह्मणे १६।३।३।१०, काण्वबृहदारण्यकाेपनिषदि १।३।१०)। 

(ख) स्मृताै म्लेच्छदेशगमननिषेधाे यथा -

न गच्छेन् म्लेच्छविषयम् (विष्णुधर्मसूत्रे ८४।२),

म्लेच्छदेशे न च व्रजेत् (शङ्खस्मृताै १४।३०), 

(ग) पुराणे म्लेच्छदेशगमननिषेधाे यथा -

सिन्धाेरुत्तरपर्यन्तं  तथाेदीच्यतरं नरः।
पापदेशाश् च ये केचित् पापैरध्युषिता  जनैः ।।

शिष्टैस् तु वर्जिता ये वै ब्राह्मणैर् वेदपारगैः।
गच्छतां रागसम्माेहात् तेषां पापं न नश्यति ।।

(ब्रह्माण्डपुराणे ३।१४।८१,८२, वायुपुराणे २।१६।७०,७१)

इत्यादि अनगिनत शास्त्र प्रमाण विदेशयात्रा की धज्जियॉ उड़ा रहे हैं ।

इसके बाद पूर्वपक्षी ने भगवान् आद्य शंकराचार्य को तत्कालीन परिस्थितियों में बाध्य बता डाला है, जबकि  इन महाशय को इतना भी नहीं पता कि प्रामाणिक भगवदावतार का  भाष्य कभी भी परिस्थिति सापेक्ष नहीं होता , वरन् वह  परम्परानुगत श्रुति सापेक्ष हुआ करता है ,  भाष्य का लक्षण ही होता है -सूत्रार्थो वर्ण्यते यत्र, पदैः सुत्रानुसारिभिः।स्वपदानि च वर्ण्यन्ते, भाष्यं भाष्यविदो विदुः ।।  अतः श्रुति पर प्रकट भाष्य कालखण्डविशेष की बाध्यता के अनुसार परिवर्तनशील  कैसे हो सकता है भला ! आक्षेपकर्ता के मत में श्रुतियॉ क्या शाश्वत नहीं हैं ?  आक्षेपकर्ता को भाष्य का ही अभिप्राय ही अधिगत नहीं  ।

इसके पश्चात् कृण्वन्तो विश्वमार्य्यम् को  स्मरण किया गया है , इस मन्त्रांश का  जैसा अर्थ इन महाशय को अभिप्रेत है, कदाचित् उसे भी विचार किया जाये तो ये भी विदेशयात्रावाद का मंडन नहीं करता क्योंकि पहली बात तो  यह समस्त प्रजा महाराज मनु की है , और मनु महाराज का आदेश  इस प्रजा को यह  है  कि  पृथ्वी  के समस्त  मानव भारत के ब्राह्मणों के पास आकर उनसे अपने चरित्र की शिक्षा लें । (एतद्देशप्रसूतस्य०)  अतः हम मनुवादी  लोग मनु महाराज के प्रदत्त धर्मोपदेश का अतिक्रमण अनुचित समझते हैं । शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करना अपना मुख काला करना है , अपना मुंह काला करके दूसरे का मुख धोने का प्रयास  हास्यास्पद् है ।

  दूसरी बात यह है कि  "अकुर्वन्नपि विध्युक्तं निषिद्धं परिवर्जयेत् | निषिद्धपरिहारेण विहिते लभते मतिम् " इस  सूतसंहितोक्त वचनानुसार  " एक विधि हैं, अगर आपके मन में श्रद्धा हैं तो आप उसे मानिये ,  पर जहाँ शास्त्र में निषेध हैं, वहाँ मानो ख़तरा ही ख़तरा हैं , निषेध हम दर्शा ही चुके हैं ।

   इसके पश्चात् पुनः आधुनिक ऐतिहासिक घटनाओं की   आपत्ति  को  दिया गया है , इस तर्क का निरसन  हम उपर दर्शा चुके हैं । इसके पश्चात् वक्ता ने वैदिक धर्म पर भावी संकट की कल्पना प्रस्तुत की है, उससे भी विदेशयात्रा का शास्त्रीय होना सिद्ध नहीं होता ।  वैदिक सिद्धान्त के अनुसार वैदिक धर्म श्रुति स्मृति प्रतिपादित है, उसके भूत वर्तमान्  व भविष्य के संरक्षण की परम  चिन्ता स्वयं परमेश्वर को स्वतः  है । (यदा यदा हि०)  हमें उन सर्वशक्तिमान्   ईश्वर की आज्ञा ( वेदादि शास्त्रों )  पर चलना चाहिये ।

वेद समस्त धर्म के मूल हैं, और उस  वेदप्रतिपादित  धर्म की यह दिव्य महिमा है कि इस धर्म के सम्यक् परिपालन  से व्याधि दूर होती है, ग्रहों का हरण होता है, शत्रु का नाश होता है । जहाँ धर्म है, वहीं जय है ।

धर्मेण हन्यते व्याधिः हन्यन्ते वै तथा ग्रहाः ।
धर्मेण हन्यते शत्रुः यतो धर्मस्ततो जयः  ।।

अस्तु ।  

धर्म की जय हो !      अधर्म का नाश हो !

।। जय श्री राम ।।

पूजा आदि में सिर नहीं ढंका चाहिए

शास्त्र प्रमाण:- उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।  प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥ अर्थात् - पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग...