मुदित मित्तल भ्रमोच्छेदन -
#आक्षेप :
सनातन धर्म में विदेशयात्रा गमन
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सनातन धर्म के सभी शास्त्रों में भारतभूमि को साक्षात देवभूमि माना गया है, जहाँ ईश्वर के अवतार हुए, असंख्य ऋषि मुनि, तपस्वी हुए। समस्त शास्त्र जहाँ प्रकट हुए। इस भारतभूमि पर जन्म अनेक पुण्यों के फलस्वरूप कहा गया है जहाँ देवता भी आने को लालायित रहते हैं। इसका कारण है कि भारत की पवित्र भूमि पर वैदिक कर्म सर्वाधिक सुलभ होता है, यहाँ वर्णाश्रम का पालन होता है, यहाँ यज्ञ होते हैं, यहाँ साधु संतों का सान्निध्य होता है, यहाँ उत्तम मूल्य, धर्म पुण्य होते हैं, यहाँ कण कण में देवताओं का वास, गौमाता की पूजा, गंगा की धारा, गायत्री का पाठ, काशी मथुरा अयोध्या जैसे तीर्थ होते हैं। इसलिए यहाँ जन्म लेने वाला अपना सहज उद्धार करने में बहुत सक्षम होता है। जबकि भारतबाह्य विश्व की अथाह भूमि पर मलेच्छत्व होता है, धर्म नहीं होता इसलिए वहाँ जन्म लेने वाले में धर्म का स्फुरण अत्यंत कठिन होता है।
500 ईसापूर्व से शुरू हुए बौद्धों के उदय से पूर्व समस्त भूमण्डल पर किसी न किसी रूप में सनातन संस्कृति रही थी। बौद्धों के उदय के बाद एक ऐसी अपसंस्कृति का जन्म हुआ जिसने विश्वभर में वेदधर्म का अवमूल्यन शुरू किया। वैदिकता से, यज्ञों से, शाश्वत धर्म से, देवताओं से संस्कृतियों को विलग किया। बौद्धों ने तंत्र के साथ खिलवाड़ करके वज्रयान जैसे व्यभिचारी पंथ बनाए और समाज को आसुर मनोवृत्तियों की ओर मोड़ा। ऐसी स्थिति में भगवान आद्य शंकराचार्य का प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने बौद्धों को खदेड़कर भारत की मुख्यभूमि से अलग करके सुदूर अफगानिस्तान, तिब्बत, ताजीकिस्तान आदि में खदेड़ दिया। व बहुसंख्य बौद्ध बन चुके भारत में पुनः वेदधर्म की स्थापना की। इस समय कठिनता से स्थापित हुई वैदिक मर्यादा को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए कई नियम बनाए गए। उनमें से एक था "विदेशयात्रा गमन निषेध"। विदेशगमन निषेध का कारण यह था कि वैदिकधर्मी फिर से मलेछों के संसर्ग में न आएं और उनका धर्म भ्रष्ट न हो। इस नियम में समुद्र पार करने को निषेध किया गया। क्योंकि ज्यादातर मलेच्छ देशों में समुद्रयात्रा करके ही जाया जा सकता था।
विदेशगमन निषेध मुख्यतया द्विजों पर लगाया गया क्योंकि विदेश जाने से द्विजत्व की हानि की बहुत संभावना होती है जो हम आज भी स्पष्टता से देख सकते हैं। विदेश में पूजापाठ, यज्ञ हेतु उचित द्रव्य मिलना उस समय सुलभ नहीं था। आज भी विदेश जाने पर खानपान में मुश्किल होती है खासकर शाकाहारियों के लिए और मजबूरी के कारण कई को अखाद्य खाना पड़ जाता है। मलेछों से संसर्ग के कारण उनमें अनेक दोष आने की संभावना होती है। धर्म के प्रति निष्ठा डगमगा सकती है। आदि आदि। इन सब कारणों से विदेशगमन निषेध किया गया जो तात्कालिक परिस्थितियों को देखते हुए एक आवश्यक निर्णय था। जो स्वयं पर आवश्यक अंकुश रखने में अक्षम हैं, राज्य व धर्म को उनपर नियम का अंकुश लगाना पड़ता है।
पर विदेशयात्रा गमन कभी भी धर्मप्रचार, व्यापार या युद्ध हेतु भारत में प्रतिबंधित नहीं था। इतिहास उठाकर देखें तो लगभग ईसा के समकाल में भारत से ही कौण्डिन्य ब्राह्मण दक्षिणपूर्वी एशिया के कम्बोडिया वियतनाम आदि देशों में गए और वहां महान हिन्दू चंपा साम्राज्य की स्थापना की। इसी कालखंड में आसुरी यहूदी मजहब में आमूलचूल सुधार करने वाले ईसा मसीह के जन्म की भविष्यवाणी करने सम्राट विक्रमादित्य के दरबार से 3 ज्योतिषी येरुशलम तक गए थे जिसका जिक्र बाइबिल में भी आया है। विश्वव्यापार में भारत के वैश्यों की धाक हमेशा से ही रही है और विश्वभर में जाकर वे व्यापार करते थे। ईसापूर्व 300-400 से पहले चन्द्रगुप्त के ऐतिहासिक काल से ही हिन्दूराष्ट्र की वाणिज्य नौका और रणनौका दूर दूर के विदेशों तक अव्यवहत रूप से जाया आया करती थी। हिंदू राष्ट्र के लिये सागर तो एक सड़क बनी हुई थी। एक जगह सीमित होकर कभी भी व्यापार नहीं बढ़ सकता इसलिए मध्यकाल में तुर्की पर इस्लामी आधिपत्य के बाद यूरोप का भारत से व्यापार बन्द हो गया तो वे दूसरे रास्ते खोजने लगे।
चोल वंश के राजा राजेन्द्र प्रथम ने नौसेना के बल पर समुद्र मार्ग द्वारा ही मलाया, सुमात्रा, जावा, बाली आदि द्वीपों पर विजय प्राप्त की थी। इस पूर्व समुद्र में से मगध, आध्र, पाण्ड्य, चेर, चोल आदि हिंदूराज्यों ने बड़े बड़े दिग्विजयी जहाज (बेड़े) भेजकर सयाम, जावा, बोर्नियो से फिलीपींस तक हिंदू उपनिवेश, राज्य, धर्म और संस्कृति स्थापित की थी। इंडोचाइना और फिलीपींस में हिंदुराज्य स्थापित थे। इसके अकाट्य ताम्रपट शिलालेख प्राप्त हैं। वैदिक क्षत्रियवंशीय हिन्दूओं के वहाँ स्थापे हुए उपनिवेशों को दिए हुए नाम, शिव, विष्णु आदि देवताओं के भीषण मन्दिर, वेद, मनुस्मृति आदि संस्कृत ग्रन्थों के ग्रन्थालय, हिन्दू वाणिज्य, कला, संस्कृति आदि, सयाम, जावा, म्यांमार, चाइना, बाली से फिलीपींस तक सदियों तक पूर्ण विकसित अवस्था में थे। यह निर्मल इतिहास है।
हिंदूओं के त्रिविक्रमशील चरण पूर्व पश्चिम दक्षिण समुद्रों और महासागरों को लांघकर, राजकीय, धार्मिक, सामाजिक, दिग्विजय करते हुए हिंदुओं के महासाम्राज्य निनादित करते चला करते थे। हिंदू रणतरियों के प्रचण्ड नौसाधन दिग्दिगन्त में अप्रतिहत रूप से संचार किया करते थे। इससे साबित होता है कि विदेशयात्रा निषेध केवल देश काल परिस्थिति सापेक्ष नियम था।
विदेशयात्रा निषेध का कोई भी स्पष्ट श्रुति या स्मृति प्रमाण उपलब्ध नहीं है। भगवान शंकराचार्य आदि आचार्यों ने तात्कालिक परिस्थितियों की आवश्यकता समझकर वैदिक धर्म की रक्षा हेतु इसे निषेध किया। यदि आज भगवान आदि शंकराचार्य होते तो समस्त विश्व में अप्रतिहत विचरण करके सनातन धर्म का डिंडिम घोष करके हिन्दू विश्व का निर्माण करते। वेद का स्पष्ट आदेश है "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्" सारे विश्व को आर्य बनाओ। यह कौण्डिन्य ब्राह्मण जैसे विदेश में वैदिक धर्म प्रवर्तन करके ही हो सकता है। आज के समय में विदेश में व्यक्ति चाहे तो धर्म/द्विजत्व व मर्यादा की रक्षा के सम्पूर्ण साधन हैं। पहले जैसी कठिनाई नहीं है। और जिसे नहीं करनी हो वह तो भारत में भी मलेच्छ जैसा आचरण करते हैं। पर धर्म के लिए विदेशगमन के नाम पर कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तिविशेषों को अपना वह आचार भ्रष्ट नहीं करना चाहिए जो विदेश में पूरा न हो सके और यहाँ करना अनिवार्य हो। परमहंस योगानंद, स्वामी विवेकानंद, महर्षि महेश योगी, स्वामी श्री प्रभुपाद, स्वामी शिवानंद, स्वामी चिन्मयानंद, स्वामीनारायण आदि महात्माओं ने सम्पूर्ण विश्व में सनातन धर्म का डिंडिम घोष किया और आज लाखों नहीं करोड़ों विदेशी हिन्दू धर्म के छत्र के नीचे आ चुके हैं।
ईसाई मुसलमान आदि अंडमान के वीभत्स सेंटिनल द्वीप में प्राणों की बाजी लगाकर भी अपने धर्म का प्रचार करना चाह रहे हैं और यहां कुछ लोग विदेशगमन निषेध की बातें कर पाषाणकाल लाना चाह रहे हैं। विश्वभर में धर्मप्रचार वेदादेश है। विद्वान, सन्त को चाहिए कि प्रजा को मार्गदर्शन कराए। विधर्म में कोई जा न पाए, न स्वधर्म में लौटने में कोई परेशानी आए। आपद्धर्म को जो विद्वान नहीं समझता वह राष्ट्र और समाज का शत्रु है। मलेच्छों व नियम धर्महीनों के संसर्गजनित दोष से बचाने हेतु विदेशगमन निषेध हुआ पर आज विदेश में भी हिन्दू साधकों भक्तों के संघ उपलब्ध हैं। आज भव्य हिन्दू मन्दिरों पर भगवा पताकाएं विश्वगगन में लहरा रही हैं। और धीरे धीरे यह विश्व, हिंदू विश्व बनने की ओर बढ़ता जा रहा है जहाँ एक सनातन धर्म का साम्राज्य होगा और विदेश कहने लायक कोई भूमि नहीं बचेगी।
जय हिन्दूराष्ट्र
जय हिन्दूविश्व
जय श्री राम
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-----------विदेशयात्रावाद- विभञ्जनम् -------
#भ्रमोच्छेदन - आरम्भ की तेरह - चौदह पंक्तियों तक कोई भी आपत्ति पूर्व पक्षी की ओर से विदेश यात्रा पर नहीं प्रदर्शित की गई अतः आरम्भ की १४ पंक्तियां लगभग किसी भी प्रकार से विदेश गमन को शास्त्रीय सिद्ध नहीं करती । वरन् जिस तरह का भारतभूमि का पूर्वपक्षी ने महिमागान किया है, वह उल्टा उस विदेशयात्रासमर्थन पर संशय ही प्रकट करती हैं ।
उसके पश्चात् ४३ पंक्तियों पंक्तियों में मात्र ५०० ईसा पूर्व से ४०० ईसवी के आसपास का इतिहास दर्शाने का प्रयास इस रूप में किया गया है कि तत्काल में होती थी ,
वेद स्मृति सिद्धान्त विरुद्ध ऐतिहासिक घटनाएं धर्म में प्रमाण न होने से ये भी सब व्यर्थ प्रलाप मात्र है ।
उसके पश्चात् ये स्वाध्यायहीन कथन किया गया है कि श्रुति स्मृति में कहीं भी विदेशयात्रा का वर्णन नहीं है ।
जबकि हमारे वेदों - शास्त्रों में वर्णित डिण्डिम घोष के साथ समुद्रपारम्लेच्छदेश गमन का निषेध किया गया है । किसी भी शुद्ध कुलीन ब्राह्मण को कभी भी म्लेच्छ देशों की समुद्रपार यात्रा कर सनातन वैदिक धर्म की धज्जियॉ नहीं उड़ानी चाहिये , इसे पापकर्म बताया गया है किन्तु एक से बढ कर एक ये आधुनिक कथित धर्माचार्य समुद्रोल्लङ्घन कर म्लेच्छ देशों में डिण्डिम कर आये , और अब भी सनातनधर्मनाश का ये क्रम अनवरत चल रहा है ।
क्या ऐसे लोग #आचार्य कहाने लायक हैं ?
देखें प्रमाण --->
(क) वेदे म्लेच्छदेशगमननिषेधाे यथा-
न जनमियान् नान्तमियात् ।(माध्यन्दिनीयवाजसनेयिशुक्लयजुर्वेदशतपथब्राह्मणे १४।४।१।११,
काण्ववाजसनेयिशुक्लयजुर्वेदशतपथब्राह्मणे १६।३।३।१०, काण्वबृहदारण्यकाेपनिषदि १।३।१०)।
(ख) स्मृताै म्लेच्छदेशगमननिषेधाे यथा -
न गच्छेन् म्लेच्छविषयम् (विष्णुधर्मसूत्रे ८४।२),
म्लेच्छदेशे न च व्रजेत् (शङ्खस्मृताै १४।३०),
(ग) पुराणे म्लेच्छदेशगमननिषेधाे यथा -
सिन्धाेरुत्तरपर्यन्तं तथाेदीच्यतरं नरः।
पापदेशाश् च ये केचित् पापैरध्युषिता जनैः ।।
शिष्टैस् तु वर्जिता ये वै ब्राह्मणैर् वेदपारगैः।
गच्छतां रागसम्माेहात् तेषां पापं न नश्यति ।।
(ब्रह्माण्डपुराणे ३।१४।८१,८२, वायुपुराणे २।१६।७०,७१)
इत्यादि अनगिनत शास्त्र प्रमाण विदेशयात्रा की धज्जियॉ उड़ा रहे हैं ।
इसके बाद पूर्वपक्षी ने भगवान् आद्य शंकराचार्य को तत्कालीन परिस्थितियों में बाध्य बता डाला है, जबकि इन महाशय को इतना भी नहीं पता कि प्रामाणिक भगवदावतार का भाष्य कभी भी परिस्थिति सापेक्ष नहीं होता , वरन् वह परम्परानुगत श्रुति सापेक्ष हुआ करता है , भाष्य का लक्षण ही होता है -सूत्रार्थो वर्ण्यते यत्र, पदैः सुत्रानुसारिभिः।स्वपदानि च वर्ण्यन्ते, भाष्यं भाष्यविदो विदुः ।। अतः श्रुति पर प्रकट भाष्य कालखण्डविशेष की बाध्यता के अनुसार परिवर्तनशील कैसे हो सकता है भला ! आक्षेपकर्ता के मत में श्रुतियॉ क्या शाश्वत नहीं हैं ? आक्षेपकर्ता को भाष्य का ही अभिप्राय ही अधिगत नहीं ।
इसके पश्चात् कृण्वन्तो विश्वमार्य्यम् को स्मरण किया गया है , इस मन्त्रांश का जैसा अर्थ इन महाशय को अभिप्रेत है, कदाचित् उसे भी विचार किया जाये तो ये भी विदेशयात्रावाद का मंडन नहीं करता क्योंकि पहली बात तो यह समस्त प्रजा महाराज मनु की है , और मनु महाराज का आदेश इस प्रजा को यह है कि पृथ्वी के समस्त मानव भारत के ब्राह्मणों के पास आकर उनसे अपने चरित्र की शिक्षा लें । (एतद्देशप्रसूतस्य०) अतः हम मनुवादी लोग मनु महाराज के प्रदत्त धर्मोपदेश का अतिक्रमण अनुचित समझते हैं । शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करना अपना मुख काला करना है , अपना मुंह काला करके दूसरे का मुख धोने का प्रयास हास्यास्पद् है ।
दूसरी बात यह है कि "अकुर्वन्नपि विध्युक्तं निषिद्धं परिवर्जयेत् | निषिद्धपरिहारेण विहिते लभते मतिम् " इस सूतसंहितोक्त वचनानुसार " एक विधि हैं, अगर आपके मन में श्रद्धा हैं तो आप उसे मानिये , पर जहाँ शास्त्र में निषेध हैं, वहाँ मानो ख़तरा ही ख़तरा हैं , निषेध हम दर्शा ही चुके हैं ।
इसके पश्चात् पुनः आधुनिक ऐतिहासिक घटनाओं की आपत्ति को दिया गया है , इस तर्क का निरसन हम उपर दर्शा चुके हैं । इसके पश्चात् वक्ता ने वैदिक धर्म पर भावी संकट की कल्पना प्रस्तुत की है, उससे भी विदेशयात्रा का शास्त्रीय होना सिद्ध नहीं होता । वैदिक सिद्धान्त के अनुसार वैदिक धर्म श्रुति स्मृति प्रतिपादित है, उसके भूत वर्तमान् व भविष्य के संरक्षण की परम चिन्ता स्वयं परमेश्वर को स्वतः है । (यदा यदा हि०) हमें उन सर्वशक्तिमान् ईश्वर की आज्ञा ( वेदादि शास्त्रों ) पर चलना चाहिये ।
वेद समस्त धर्म के मूल हैं, और उस वेदप्रतिपादित धर्म की यह दिव्य महिमा है कि इस धर्म के सम्यक् परिपालन से व्याधि दूर होती है, ग्रहों का हरण होता है, शत्रु का नाश होता है । जहाँ धर्म है, वहीं जय है ।
धर्मेण हन्यते व्याधिः हन्यन्ते वै तथा ग्रहाः ।
धर्मेण हन्यते शत्रुः यतो धर्मस्ततो जयः ।।
अस्तु ।
धर्म की जय हो ! अधर्म का नाश हो !
।। जय श्री राम ।।
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