Thursday, 13 September 2018

अद्वयज्ञाननिष्ठ कट्टर स्मार्त्त की महिमा

स्मृतियों में वर्णित   तथाकथित गाणपत्य/ शैव /वैष्णव/शाक्त/सौर परम्पराओं का औचित्य और कट्टर स्मार्त्त परम्परा से उसका अन्तः सम्बन्ध ~

हमारे भगवान्  शिव / विष्णु/गणेश/सूर्य/शक्ति ही  एकमात्र  हमारे देवता हैं  , शेष अन्य देवता भगवान्   शिव / विष्णु/गणेश/सूर्य/शक्ति की ही महिमा का विस्तार  हैं ,   भक्तिराज्य  में यह भाव      निःसन्देह  सम्भव है ।

और कोई भक्ति को ही अपना  सिद्धान्त स्वीकार बैठा है, तो ऐसे भावुक से हम   अखण्डाद्वयज्ञाननिष्ठ कट्टर स्मार्त्तों को  कोई समस्या भी नहीं ।   अपनी नासमझी के कारण  कदाचित् वह हमें  (  अखण्ड , अद्वय ज्ञान को )   पचा न सके , परन्तु हम   उसे  सरलतापूर्वक  पचा लेते हैं ।

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचारन्।

हम जिस पञ्चायतनोपासना  का उपदेश करते हैं, वह वस्तुतः  शास्त्रोपदिष्ट  समस्त सम्प्रदायों को उक्त मातृ  -आश्रय  ही   प्रदान करती  है ।

लोक में जैसे एक अबोध नवजात  बालक अपनी माता के स्तन को ही   विश्व का एकमात्र परम दुग्ध भण्डार ,  गोद को ही  अपनी शैय्या , उसके स्कन्ध भुजा, वक्षादि को  ही  आवास  आदि समझता  है, कदाचित् पिता के बुलाये जाने पर भी  वह माता की गोद नहीं छोड़ता ,

उसका कोई पिता   विरोध नहीं करता , ना ही उसे कुछ समझाने/ सिखाने  ही बैठता है , किन्तु  माता की ही गोद में उस बालक को पिता  पलने देता है ।

आयु बढने पर उसे स्वतः बोध होता है कि माता के स्तन क्षीर सागर नहीं होते ,  उसकी गोद  शैय्या नहीं होती, उसके भुजदण्ड, वक्ष, स्कन्धादि     आवास  नहीं हुआ करते ।

त्रयी साङ्ख्यं योगः  पशुपतिमतं वैष्णवमिति प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।

।। जय श्री राम ।।

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