स्मृतियों में वर्णित तथाकथित गाणपत्य/ शैव /वैष्णव/शाक्त/सौर परम्पराओं का औचित्य और कट्टर स्मार्त्त परम्परा से उसका अन्तः सम्बन्ध ~
हमारे भगवान् शिव / विष्णु/गणेश/सूर्य/शक्ति ही एकमात्र हमारे देवता हैं , शेष अन्य देवता भगवान् शिव / विष्णु/गणेश/सूर्य/शक्ति की ही महिमा का विस्तार हैं , भक्तिराज्य में यह भाव निःसन्देह सम्भव है ।
और कोई भक्ति को ही अपना सिद्धान्त स्वीकार बैठा है, तो ऐसे भावुक से हम अखण्डाद्वयज्ञाननिष्ठ कट्टर स्मार्त्तों को कोई समस्या भी नहीं । अपनी नासमझी के कारण कदाचित् वह हमें ( अखण्ड , अद्वय ज्ञान को ) पचा न सके , परन्तु हम उसे सरलतापूर्वक पचा लेते हैं ।
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचारन्।
हम जिस पञ्चायतनोपासना का उपदेश करते हैं, वह वस्तुतः शास्त्रोपदिष्ट समस्त सम्प्रदायों को उक्त मातृ -आश्रय ही प्रदान करती है ।
लोक में जैसे एक अबोध नवजात बालक अपनी माता के स्तन को ही विश्व का एकमात्र परम दुग्ध भण्डार , गोद को ही अपनी शैय्या , उसके स्कन्ध भुजा, वक्षादि को ही आवास आदि समझता है, कदाचित् पिता के बुलाये जाने पर भी वह माता की गोद नहीं छोड़ता ,
उसका कोई पिता विरोध नहीं करता , ना ही उसे कुछ समझाने/ सिखाने ही बैठता है , किन्तु माता की ही गोद में उस बालक को पिता पलने देता है ।
आयु बढने पर उसे स्वतः बोध होता है कि माता के स्तन क्षीर सागर नहीं होते , उसकी गोद शैय्या नहीं होती, उसके भुजदण्ड, वक्ष, स्कन्धादि आवास नहीं हुआ करते ।
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।
।। जय श्री राम ।।
No comments:
Post a Comment