षोडशसंस्काराः (यज्ञोपवीतम्)खंड११२~ यज्ञोपवीत किन्हीं परवर्ती ऋषियोंद्वारा निर्मित सूत्र नहीं था और न ही किसी सामाजिक या विद्याचिन्हके रूपमें स्थापित किया गया हैं | यज्ञोपवीत निर्माणकी जो विशेष प्रक्रिय् निश्चित की गयी हैं,वह स्पष्टतया यह प्रतिपादित करती हैं कि यज्ञोपवीत ईश्वरद्वारा द्विजातिको सौंपे गये उत्तरदायित्वोंके विर्वहणके लिये गुरुके सांनिध्यमें आवश्यक शिक्षा और योग्यता प्राप्त करने हेतु प्रस्थित होनेका उदात्त भावनाओंसे युक्त संकेत हैं |
**यज्ञोपवीत निर्माण विधिः***-" ग्रामाद्बहिस्तीर्थे गोष्ठे वा गत्वाऽनध्याय वर्जित पूर्वाह्णे"-( गाँवके बहार पवित्र जगह जहाँ पतितोंका अवागमन न हो(निर्जन),अथवा गोशालामें जाकर अनध्याय सूचित दिनोंको छोड़कर अन्य दिनोंमें पूर्वाह्नकालमें सुबह १०/४० से पहले(यज्ञोपवीत निर्माण करतें समय कमसे कम एक/सवा घंटा लगता हैं)-" कृतसंध्याष्टोत्तरशतं सहस्रं वा यथाशक्ति गायत्रीं जपित्वा"-( प्रातःसंध्यासमाप्तकर यज्ञोपवीत निर्माण अधिकार सिद्धिके लिये १०८/१००८ अथवा यथाशक्ति गायत्री मंत्रका संयमित होकर जप करैं)-" ब्राह्मणेन तत्कन्याया सुभगाया धर्मचारिण्या वा कृतं सूत्रमादाय"-( ब्राह्मण, ब्राह्मणकी कन्या,सौभाग्यवतीब्राह्मणी अथवा स्वधर्ममें श्रद्धा रखकर आचरण करनेवाली द्विज-स्त्री(अविच्छिन्न परम्परा कालक्रम से प्राप्त उपनयन-संस्कार से संस्कृत-द्विजों की पत्नी अर्थात् व्रात्यों की स्त्री नहीं ) से बना हुआ एकतारका सूत्र लें" *वर्त्तमानमें मिलना सम्भव न हों तो कहे गये सूत्रकारों से कुछ दक्षिणा देकर उनके हाथसे खरीदा हुआ सूत्र लें)-" भूरिति प्रथमां षष्णवतीं-"( बायें हाथकी चारों अंगुलीयोंके अँत्यपर्वोंपर ॐभूः -प्रथमव्याहृतिमंत्र पढकर ९६ बार वेष्टित कर वह चौआ ढाकके पत्तेपर रख दैं)-"भुवरितिद्वितीयां-"(ॐभुवः- द्वितीय व्याहृतिमंत्रपढकर पुनः दूसरीबार सूत्रसे ९६ चौआ लगायें वह भी दूसरे पलाशके पत्रमें रखें) -" स्वरितितृतीयांमीत्वा पृथक् पलाशपत्रे संस्थाप्य-"( ॐस्वः- तृतीय व्याहृतिमंत्र पढकर पुनः तीसरीबार सूत्रसे ९६ चौआ लगाकर वह भी तीसरे ढाकके पत्तेपर रखें)-"आपोहिष्ठेति तिसृभिः,शं नो देवीत्यनेन सावित्र्या चाभिषिच्य"-( तीनोको तीर्थजल या शुद्धजलसे आपोहिष्ठा० १,जो वः शिवतमो ०२, तस्माऽअरङ्ग ०३… इन तीनोंमंत्रोसे शं नो देवी०मंत्रसे तथा गायत्रीमंत्रसे अभिषिक्त करैं)-" वामहस्ते कृत्वा त्रिः संताड्य"-( बायें हाथमें तीनों चौओंको लेकर दायें हाथसे तीनबार ताड़न करैं)-" व्याहृतिभिस्त्रिवणितं कृत्वा"-( ॐभूर्भुवःस्वः- इनतीन व्याहृति मंत्रोंसे तीनोके तारको एकजुट करकें तीनगुना करैं,-" इसमें दूसरे ब्राह्मण या खूटीकी आवश्यकता रहती हैं)-" पुनस्ताभिस्त्रिगुणितं कृत्वा"-( फिरसे उन तीनगुणे सूत्रको फिरसे तीनगुणा करनेसे नवतार हो जायेंगें इनको तकली(साधन)की मददसे या दूसरे ब्राह्मणकी मददसे नवतारका एक दृढसूत्र बनायें )-" पुनस्त्रिवृतं कृत्वा"-( इस नवतारके सूत्रका " जिसको पहनाना हैं उनके कँधेसे कटीतकके माप अनुसार तीनगुना करैं)-" प्रणवेनग्रन्थिंकृत्वा"( ॐ इस प्रणवमंत्रसे ब्रह्मग्रन्थि लगावें(द्विरावृत्याथमध्ये वै अर्धवृत्यान्त देशतः ग्रन्थि प्रदक्षिणावर्ती सा ग्रन्थि ब्रह्मसंज्ञकः||- सूत्रके अन्त्यभागको सूत्रके अग्रभागके अँदरसे लेकर तीनों वृत्तोको प्रदक्षिणावत् दोबार लपैंटकर सूत्रकेअग्रभागमें आधी प्रदक्षिणवत् लपैटकर दृढगाँठ लगाना सूतके अग्रान्तभागपर दूसरी दो गाँठ लगायें), यह तीन धागेवालीं नवसूत्रकी एक जनेऊ हुई ऐसै ही दूसरी,तीसरी आदि जरुरीयात अनुसार बनाकर)-"ऑंकारमग्निं नागान् सोमं पितॄन् प्रजापतिं वायुं सूर्यं विश्वान् देवान् नवतन्तुषु क्रमेण विन्यस्य संपूजयेत् |-( ऑंकार,अग्नि,सोम,पितर,प्रजापति,वायु,सूर्य, विश्वेदेवों, का नवतन्तुओंमें तथा ग्रन्थिओंमें ब्रह्मा,विष्णु,रुद्रका क्रमसे न्यास करकें पूजन करैं)-" देवस्येत्युपवीतमादाय,-( देवस्यत्वा सवितुःइन आधे मंत्रसे यज्ञोपवीत को लेकर)-" उद्वयं तमसस्परीत्यादित्याय दर्शयित्वा-"( उद्वयं तम० इसमंत्रसे सूर्यनारायणको बताकर)-" यज्ञोपवीतमित्यनेन धारयेदित्याह भगवान्कात्यायनः||कात्यायनपरिशिष्ठ|| -"( यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं० इस मंत्रसे धारण करैं ऐसा भगवान् कात्यायन कहतें हैं|
यह केवल यज्ञोपवीत निर्माणकी विधि बतायीं हैं- विस्तारसे यज्ञोपवीत-संस्कार का विधान अलगसे हैं| बाजारमें मिलतीं तैयार यज्ञोपवीतमें ऐसा कोई विधान नहीं हो सकता और न पवित्रता |
ॐस्वस्ति| पु ह शास्त्री उमरेठ| शेष पुनः
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